विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
पर्यावरण शिक्षा : महत्व एवं आवश्यकता
डॉ. किरण शास्त्री
आज पर्यावरण विनाश एक विश्वव्यापी समस्या बन चुकी है । मनुष्य विज्ञान और विकास के नाम पर प्रकृति का लगातार विनाश करता जा रहा है । प्रकृति का अमर्यादित उपभोग, वनों की कटाई, उद्योग-धंधों की भरमार, उपभोक्ता वस्तुआें का उत्पादन, व्यापार, गाजार और इसी प्रकार का एक परिवेश बनता जा रहा है जो प्रकृति, पर्यावरण पृथ्वी और मानव-जाति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है ।
पर्यावरण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि भविष्य अंधकारमय होता प्रतीत होरहा है । पर्यावरण संरक्षण आज जीव मात्र के कल्याण के साथ-साथ प्रकृति सुरक्षा के लिए भी अति आवश्यक हो गया है । पर्यावरण परिवेश को इस स्थिति तक पहुँचानेवाला मनुष्य है । और उसे वापस पूर्वस्थिति में लाने की क्षमता और विवेक भी उसी में है । अत: आज के इस युग में पर्यावरण शिक्षा अति आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है । बिना पर्यावरण शिक्षा के पर्यावरण संरक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती । यदि समय के रहते इस शिक्षा की और जन-मानस का ध्यान आकर्षित नहीं किया गया जो प्रलय की स्थिति का आगमन अवश्यंभावी हो जाएगा । प्रकृति के सभी तत्वों का एक दूसरे ततवों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है ।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण आज जल, वायु, मिट्टी से उपजी खाद्य सामग्री सब कुछ दूषित होती जा रही है । ऐसे दूषित वायु में साँस लेकर, दूषित जल पीकर, दूषित अन्न खाकर भला कोई इंसान कैसे स्वस्थ रह सकता, भला कोई माँ कैसे एक स्वस्थ शिशु को जन्म दे सकती । पर्यावरण साफ-सुथरा रहेगा तो लोगों का जीवन भी स्वस्थ रहेगा । पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत महत्वपूर्ण जानकारियों द्वारा निम्न लाभ प्राप्त् हो सकते है-
पर्यावरण शिक्षा क े द्वारा वास्तव में पर्यावरण किसे कहते है ं और प्रदूषण क्या है ? इसकी संपूर्ण जानकारी प्राप्त् होती है । पर्यावरण शिक्षा प्राप्त् करने वाला जानकार, चाहे स्त्री हो या पुरूष बालक हो, युवा हो या फिर वृद्ध, शिक्षित हो या अशिक्षित, धनवान हो या निर्धन, कामकाजी स्त्री हो या फिर गृहणी, इस बात को जान लेते है जिस परिवेश और वातावरण में चारों और से हम घिरे हुए हैं उसे पर्यावरण कहते हैं । तथा दैनिक जीवन में उपयोग में आनेवाली कई ऐसी वस्तुएँ जैसे कार-मोटर से निकलने वाला धुआँ कई दुष्परिणामों को जन्म देता है । उसे इस बात का भी ज्ञान मिलता है कि यह धुआँ जहाँ वनस्पतियों, वायु आदि को दूषित कर देता है वहीं प्राणधारियों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है । इससे यह होगा कि लोग अपने वाहनों का निरीक्षण करवाएंगे ताकि उनका वाहन कम धुआँ छोड़े । बात केवल वाहनों तक ही नही है बल्कि प्रदूषण अन्य कई स्त्रोतों से भी होता है ।
यह तो सर्वविदित है कि अस्वव्छ जल कई बीमारियों का गढ़ होता है । विशेषकर जब बाढ़ आती हो या फिर सूखा पड़ता हो तो दोनों ही स्थितियों में उस क्षेत्र का रहनेवाला मनुष्य अशुद्ध जल ग्रहण करने पर विवश होजाता है परिणाम तरह-तरह के रोगों का शिकार बनना । वायु प्रदूषण की तरह जल प्रदूषण की जानकारी भी आम आदमी को पर्यावरण शिक्षा से प्राप्त् होती है । क्योंकि मनुष्य का एक स्वभाव होता है दैनिक आचरण और क्रिया-कलापों से अपने आसपास के वातावरण और स्थान में इतनी गंदगी उत्पन्न कर देता है कि उसे इस बात की अनुभूति ही नहीं होती है और होती भी है तो वह सचेत भी नहीं होता और जागरूक भी नहीं । सुबह उठने से लेकर रात सोने तक जो कूड़ा-करकट जाने अनजाने फेंकता है । ये सारी गंदगी और कचरा किसी-न-किसी तरह बह कर नदी-तालाबों में जाता है । इसीसे नदी का जल दूषित होने लगता है । उसी जल को पशु-पक्षी पीते हैं, बीमार पड़ जाते हैं कभी-कभी तो उस पानी में उनका मृत शरीर सड़ता-गलता है और ऐसे जल को जब मनुष्य पीता है तो हम कल्पना कर सकते हैं कि उसकी क्या दुर्दशा हो सकती है ।
पर्यावरण का महत्व एवं उसकी आवश्यकता भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही है । वेदों में मानव के परोपकार के लिए परमात्मा द्वारा सूर्य, चंद्रमा, बादल, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, वनस्पतिया पशु-पक्षी आदि का आविर्भाव किया जाना बताया गया है । इन समस्त उपादानों को ईश्वर प्रदत्त बनाना इसीलिए आवश्यक था ताकि मनुष्य उन सब से नैतिक रूप से जुड़ा रहे । तथा इसके संरक्षण को अपना कर्तव्य और धर्म समझे । किंतु आज मनुष्य भोगवादी जीवन शैली का इतना आदि और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार समस्त पर्यावरण को दूषित कर रहा है, नैतिकता, धर्म, कर्तव्य सब भूल रहा है । पुन: मनुष्य को नैतिकता, धर्म, कर्तव्य के मार्ग पर लाने के लिए आज के वर्तमान समय मेंपर्यावरण शिक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है ।
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से मनुष्य संपूर्ण पर्यावरण और उससे संबंधित समस्याआें के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील हो जाए । संपूर्ण पर्यावरण और उससे संबंधित समस्याआें का आधारभूत ज्ञान प्राप्त् करके उसके प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभा सके । पर्यावरण शिक्षा के द्वारा पर्यावरण के लिए गहरी चिंता, सामाजिक दायित्व निभाने तथा उसकी सुरक्षा और सुधार के लिए किये जा रहे कार्योंा के प्रति एक प्राकृतिक रूझान उत्पन्न हो सके । पर्यावरण से संबंधित जितनी भी समस्याएँ हैं उसके निवारण में कौशलता प्राप्त् हो सके । ताकि बड़ी कुशलता के साथ समस्याएँ दूर हो जाए । इसके अतिरिक्त मनुष्य में मूल्याकंन कुशलता और संभागिता की भी भावना उत्पन्न हो सके, ताकि वह पर्यावरण संबंधी उपायों तथा शैक्षिणक कार्यक्रमों का पारिस्थितिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सौंदर्यपरक, शैक्षिक घटकों आदि के परिप्रेक्ष्य में सही मूल्यांकन कर सके और पर्यावरणीय समस्याआें के उचित ढंग से हल निकालने की आश्वस्तता के प्रति महत्ता और अपनी संभागिता की भावना को विकसित कर सके ।
इसके अतिरिक्त पर्यावरण शिक्षा लोगों में इस बात की भी जागरूकता लाती है कि पर्यावरण के अनुकूल और प्रतिकूल कौन-कौन सी बातें हैं । पर्यावरण के अनुकूल वह पेड़-पौधे, जल-संसाधन, वन संपदा, पशु-पक्षी आदि की रक्षा के महत्व को जान पायेगा तो पर्यावरण के प्रतिकूल पड़नेवाली समस्त गतिविधियाँ जैसे बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता औद्योगिकरण, वन-कटाई, बढ़ता शहरीकरण आदि के रोकथाम की दियाा में ठोस कदम उठा सकेगा ।
भौतिकतावादी जीवन शैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य यह भी भूल गया है कि पर्यावरण भी कुछ है । बढ़ते वाहनों और कारखानों से निकलते धुएँ ने वायु का, वृक्षों की कटाई से जीवनदायिनी गैसों को, मनुष्य द्वारा फैलायी जा रही गंदगी से जल को इस तेजी के साथ प्रदूषित कर रहा है कि दुगनी गति से बीमारियाँ भी फैल रही है । मानवीय सोच और विचारधारा में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है । अमानवीय कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है । जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल-स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
यह सारा किया कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है । जिस पर्यावरण संरक्षण का गुण मनुष्य में जन्म से ही होता था, वही गुण आज उसे सिखाना पड़ रहा है । वर्तमान परिस्थितियों के कारण आज पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य हो गयी है । आज पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता प्राथमिक हो गयी है ।
मनुष्य की बदली हुई सोच तथा उसकी अभिवृत्ति को वापस पर्यावरण के अनुकूल बनाने का काम पर्यावरण शिक्षा ही कर सकती है । पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता के संबंध में अरूण कुमार पाठक का कथन- बिगड़ते पर्यावरण के संबंध में कई गोष्ठियों, सेमिनारों और कार्यशालाआें के बाद यह निष्कर्ष निकला कि पर्यावरण शिक्षा को जन-जन कत फैलाया जाए एवं उसकी क्या आवश्यकता है, इस पर एक व्यापक ओर सर्वसम्मत विवरण प्रस्तुत किया गया ।
पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा गृह है जिस पर जीवन संभव है । यहाँ के प्राणधारियों को एक सुंदर एवं स्वस्थ जीवन उपलब्ध कराने के लिए पृथ्वी को नष्ट होने से बचाना बहुत बावश्यक है । ऑक्सिजन जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है, किंतु अन्य प्राणघाती गैसों के कारण पर्यावरणीय विकृतियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
पर्यावरण शिक्षा : महत्व एवं आवश्यकता
डॉ. किरण शास्त्री
आज पर्यावरण विनाश एक विश्वव्यापी समस्या बन चुकी है । मनुष्य विज्ञान और विकास के नाम पर प्रकृति का लगातार विनाश करता जा रहा है । प्रकृति का अमर्यादित उपभोग, वनों की कटाई, उद्योग-धंधों की भरमार, उपभोक्ता वस्तुआें का उत्पादन, व्यापार, गाजार और इसी प्रकार का एक परिवेश बनता जा रहा है जो प्रकृति, पर्यावरण पृथ्वी और मानव-जाति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है ।
पर्यावरण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि भविष्य अंधकारमय होता प्रतीत होरहा है । पर्यावरण संरक्षण आज जीव मात्र के कल्याण के साथ-साथ प्रकृति सुरक्षा के लिए भी अति आवश्यक हो गया है । पर्यावरण परिवेश को इस स्थिति तक पहुँचानेवाला मनुष्य है । और उसे वापस पूर्वस्थिति में लाने की क्षमता और विवेक भी उसी में है । अत: आज के इस युग में पर्यावरण शिक्षा अति आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है । बिना पर्यावरण शिक्षा के पर्यावरण संरक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती । यदि समय के रहते इस शिक्षा की और जन-मानस का ध्यान आकर्षित नहीं किया गया जो प्रलय की स्थिति का आगमन अवश्यंभावी हो जाएगा । प्रकृति के सभी तत्वों का एक दूसरे ततवों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है ।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण आज जल, वायु, मिट्टी से उपजी खाद्य सामग्री सब कुछ दूषित होती जा रही है । ऐसे दूषित वायु में साँस लेकर, दूषित जल पीकर, दूषित अन्न खाकर भला कोई इंसान कैसे स्वस्थ रह सकता, भला कोई माँ कैसे एक स्वस्थ शिशु को जन्म दे सकती । पर्यावरण साफ-सुथरा रहेगा तो लोगों का जीवन भी स्वस्थ रहेगा । पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत महत्वपूर्ण जानकारियों द्वारा निम्न लाभ प्राप्त् हो सकते है-
पर्यावरण शिक्षा क े द्वारा वास्तव में पर्यावरण किसे कहते है ं और प्रदूषण क्या है ? इसकी संपूर्ण जानकारी प्राप्त् होती है । पर्यावरण शिक्षा प्राप्त् करने वाला जानकार, चाहे स्त्री हो या पुरूष बालक हो, युवा हो या फिर वृद्ध, शिक्षित हो या अशिक्षित, धनवान हो या निर्धन, कामकाजी स्त्री हो या फिर गृहणी, इस बात को जान लेते है जिस परिवेश और वातावरण में चारों और से हम घिरे हुए हैं उसे पर्यावरण कहते हैं । तथा दैनिक जीवन में उपयोग में आनेवाली कई ऐसी वस्तुएँ जैसे कार-मोटर से निकलने वाला धुआँ कई दुष्परिणामों को जन्म देता है । उसे इस बात का भी ज्ञान मिलता है कि यह धुआँ जहाँ वनस्पतियों, वायु आदि को दूषित कर देता है वहीं प्राणधारियों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होता है । इससे यह होगा कि लोग अपने वाहनों का निरीक्षण करवाएंगे ताकि उनका वाहन कम धुआँ छोड़े । बात केवल वाहनों तक ही नही है बल्कि प्रदूषण अन्य कई स्त्रोतों से भी होता है ।
यह तो सर्वविदित है कि अस्वव्छ जल कई बीमारियों का गढ़ होता है । विशेषकर जब बाढ़ आती हो या फिर सूखा पड़ता हो तो दोनों ही स्थितियों में उस क्षेत्र का रहनेवाला मनुष्य अशुद्ध जल ग्रहण करने पर विवश होजाता है परिणाम तरह-तरह के रोगों का शिकार बनना । वायु प्रदूषण की तरह जल प्रदूषण की जानकारी भी आम आदमी को पर्यावरण शिक्षा से प्राप्त् होती है । क्योंकि मनुष्य का एक स्वभाव होता है दैनिक आचरण और क्रिया-कलापों से अपने आसपास के वातावरण और स्थान में इतनी गंदगी उत्पन्न कर देता है कि उसे इस बात की अनुभूति ही नहीं होती है और होती भी है तो वह सचेत भी नहीं होता और जागरूक भी नहीं । सुबह उठने से लेकर रात सोने तक जो कूड़ा-करकट जाने अनजाने फेंकता है । ये सारी गंदगी और कचरा किसी-न-किसी तरह बह कर नदी-तालाबों में जाता है । इसीसे नदी का जल दूषित होने लगता है । उसी जल को पशु-पक्षी पीते हैं, बीमार पड़ जाते हैं कभी-कभी तो उस पानी में उनका मृत शरीर सड़ता-गलता है और ऐसे जल को जब मनुष्य पीता है तो हम कल्पना कर सकते हैं कि उसकी क्या दुर्दशा हो सकती है ।
पर्यावरण का महत्व एवं उसकी आवश्यकता भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही है । वेदों में मानव के परोपकार के लिए परमात्मा द्वारा सूर्य, चंद्रमा, बादल, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, वनस्पतिया पशु-पक्षी आदि का आविर्भाव किया जाना बताया गया है । इन समस्त उपादानों को ईश्वर प्रदत्त बनाना इसीलिए आवश्यक था ताकि मनुष्य उन सब से नैतिक रूप से जुड़ा रहे । तथा इसके संरक्षण को अपना कर्तव्य और धर्म समझे । किंतु आज मनुष्य भोगवादी जीवन शैली का इतना आदि और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार समस्त पर्यावरण को दूषित कर रहा है, नैतिकता, धर्म, कर्तव्य सब भूल रहा है । पुन: मनुष्य को नैतिकता, धर्म, कर्तव्य के मार्ग पर लाने के लिए आज के वर्तमान समय मेंपर्यावरण शिक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है ।
पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से मनुष्य संपूर्ण पर्यावरण और उससे संबंधित समस्याआें के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील हो जाए । संपूर्ण पर्यावरण और उससे संबंधित समस्याआें का आधारभूत ज्ञान प्राप्त् करके उसके प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभा सके । पर्यावरण शिक्षा के द्वारा पर्यावरण के लिए गहरी चिंता, सामाजिक दायित्व निभाने तथा उसकी सुरक्षा और सुधार के लिए किये जा रहे कार्योंा के प्रति एक प्राकृतिक रूझान उत्पन्न हो सके । पर्यावरण से संबंधित जितनी भी समस्याएँ हैं उसके निवारण में कौशलता प्राप्त् हो सके । ताकि बड़ी कुशलता के साथ समस्याएँ दूर हो जाए । इसके अतिरिक्त मनुष्य में मूल्याकंन कुशलता और संभागिता की भी भावना उत्पन्न हो सके, ताकि वह पर्यावरण संबंधी उपायों तथा शैक्षिणक कार्यक्रमों का पारिस्थितिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सौंदर्यपरक, शैक्षिक घटकों आदि के परिप्रेक्ष्य में सही मूल्यांकन कर सके और पर्यावरणीय समस्याआें के उचित ढंग से हल निकालने की आश्वस्तता के प्रति महत्ता और अपनी संभागिता की भावना को विकसित कर सके ।
इसके अतिरिक्त पर्यावरण शिक्षा लोगों में इस बात की भी जागरूकता लाती है कि पर्यावरण के अनुकूल और प्रतिकूल कौन-कौन सी बातें हैं । पर्यावरण के अनुकूल वह पेड़-पौधे, जल-संसाधन, वन संपदा, पशु-पक्षी आदि की रक्षा के महत्व को जान पायेगा तो पर्यावरण के प्रतिकूल पड़नेवाली समस्त गतिविधियाँ जैसे बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता औद्योगिकरण, वन-कटाई, बढ़ता शहरीकरण आदि के रोकथाम की दियाा में ठोस कदम उठा सकेगा ।
भौतिकतावादी जीवन शैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य यह भी भूल गया है कि पर्यावरण भी कुछ है । बढ़ते वाहनों और कारखानों से निकलते धुएँ ने वायु का, वृक्षों की कटाई से जीवनदायिनी गैसों को, मनुष्य द्वारा फैलायी जा रही गंदगी से जल को इस तेजी के साथ प्रदूषित कर रहा है कि दुगनी गति से बीमारियाँ भी फैल रही है । मानवीय सोच और विचारधारा में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है । अमानवीय कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है । जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल-स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
यह सारा किया कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है । जिस पर्यावरण संरक्षण का गुण मनुष्य में जन्म से ही होता था, वही गुण आज उसे सिखाना पड़ रहा है । वर्तमान परिस्थितियों के कारण आज पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य हो गयी है । आज पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता प्राथमिक हो गयी है ।
मनुष्य की बदली हुई सोच तथा उसकी अभिवृत्ति को वापस पर्यावरण के अनुकूल बनाने का काम पर्यावरण शिक्षा ही कर सकती है । पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता के संबंध में अरूण कुमार पाठक का कथन- बिगड़ते पर्यावरण के संबंध में कई गोष्ठियों, सेमिनारों और कार्यशालाआें के बाद यह निष्कर्ष निकला कि पर्यावरण शिक्षा को जन-जन कत फैलाया जाए एवं उसकी क्या आवश्यकता है, इस पर एक व्यापक ओर सर्वसम्मत विवरण प्रस्तुत किया गया ।
पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा गृह है जिस पर जीवन संभव है । यहाँ के प्राणधारियों को एक सुंदर एवं स्वस्थ जीवन उपलब्ध कराने के लिए पृथ्वी को नष्ट होने से बचाना बहुत बावश्यक है । ऑक्सिजन जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है, किंतु अन्य प्राणघाती गैसों के कारण पर्यावरणीय विकृतियाँ उत्पन्न होने लगी है ।
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