हमारा भूमण्डल
प्रगतिशील वनविनाश
सोशल वॉच
सोशल वॉच रिपोर्ट २०१२ में विश्व भर में वनों के विनाश का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है । लेटिन अमेरिकी देश पेरूग्वे कृषि निर्यात आधारित मॉडल अपनाने के परिणामस्वरूप हुए वनविनाश को प्रगतिशील वनविनाश की संज्ञा दी गई है । क्या विनाश कभी भी प्रगतिशील हो सकता है ?
विश्व आर्थिक संकट की ही तरह वन विनाश के भी कई कारण सामने आ रहे हैं । इसमें प्रमुख हैं बाजार में मूल उत्पादों और कृषि भूमि की मांग में वृद्धि, गरीबी की बढ़ती समस्या, जलवायु परिवर्तन, पेड़ों का लकड़ी एवं ईधन के लिए कटना । उपरोक्त निष्कर्ष सोशल वॉच रिपोर्ट - २०१२ से सामने आए हैं । पिछले कुछ वर्षो में ऊर्जा के बढ़ते मूल्यों के चलते निर्धनतम वर्ग द्वारा एक बार पुन: लकड़ी एवं कोयले के इस्तेमाल करने की वजह से भी वन संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है ।
लेकिन यह दुष्चक्र जारी है । वनों के विलुप्त् होने से हमारे ग्रह की कार्बन सोखने की क्षमता में आई कमी के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन से निपट पाना भी कठिन होता जा रहा है । कानूनों में व्यापत ढिलाई के कारण भी समस्या और गहराती जा रही है । रिपोर्ट के यूरोप से संबंधित अध्याय में इंडिजेनाडोय में चेतावनी देते हुए बताया गया है कि यूरोपीय संघ की अपने पशुधन के लिए चारे हेतु विदेशों पर निर्भरता ने विदेशों में भूमि की मांग में हुई वृद्धि की वजह से विश्वभर में वनों का सामाजिक विनाश सामने आ रहा है ।
वैश्विक विकास को लेकर प्राथमिक घोषणा पत्र (रियो + २० के आगे : न्याय के बिना कोई भविष्य नहीं) में तेजी से फैलतेअस्थिर उत्पादन एवं उपभोग की प्रवृत्ति को प्राकृतिक संसाधनों में तेजी से हो रही कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया है । इसी प्रवृत्ति को वैश्विक तापमान में वृद्धि, अतिवादी मौसम की निरन्तर आवृत्ति, रेगिस्तानीकरण एवं वनों के विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है ।
रिपोर्ट में फिनलैंड द्वारा किए जा रहे वनों के विनाश का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि वर्तमान में कई मुख्य फिनिश कंपनियां जो कि स्वयं को विश्व की सर्वोच्च् कंपनी मानती हैं, के ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जिसमें उनके द्वारा अधिक संख्या में यूकेलिप्टस के लगाए जाने से आबादी का पलायन हुआ है एवं बड़ी मात्रा में भूमि हथियाई गई है । रिपोर्ट के अनुसार यहां की कमोवेश राज्य के स्वामित्व वाली कंपनी नेस्ले आईल जो कि विश्व में बायो ईधन में अग्रणी होने को तड़प रही है, ने मुख्यतया मलेशिया, इंडोनेशिया में व्यापक स्तर पर भूमि एवं वर्षा वनों के उपयोग में परिवर्तन कराया है । विशेषज्ञों का मानना है कि ये क्षेत्र निर्विवाद रूप से विश्व में सर्वाधिक कार्बन सोखने का कार्य करते थे । यहां नेस्ले की रिफायनरियों को तेल आपूर्ति हेतु आरक्षित भूमि करीब ७ लाख हेक्टेयर है ।
जाम्बिया की स्थिति तो और भी विकट है । पिछले दशक में यहां प्रतिवर्ष औसतन ३ लाख हेक्टेयर वन नष्ट होने का अनुमान था । लेकिन मात्र एक वर्ष २००८ में ८ लाख हेक्टेयर वन कम हुए हैं । वर्ष १९९० एवं २०१० के मध्य देश में वनों के क्षेत्र में ६.३ प्रतिशत या ३३ लाख हेक्टेयर की कमी आई है । ब्राजील में भी वनों की कटाई एवं अमेजन वनों में लगी आग कमोवेश कृषि के विस्तार का परिणाम ही कही जाएगी । वहीं दूसरी ओर ताकतवर लॉबी के कारण वन नियमावली में परिवर्तन कर अमेजन में पारम्परिक वन का अनुपात ८० प्रतिशत से घटाकर ५० प्रतिशत कर दिया गया है ।
पेरू का अमेजन वन क्षेत्र दुनिया का आठवां एवं लेटिन अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा वन क्षेत्र है । पिछले कई दशकों से यहां के वन भी घरों के लिए ईधन के साथ ही साथ कटाई एवं खेती के लिए वन जलाने हेतु प्रचलित पद्धति के कारण विनाश की ओर अग्रसर है । यहां पर मेंग्रो वनों एवं शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क वनों का क्षेत्र प्रतिवर्ष करीब १,५०,००० हेक्टेयर सिकुड़ रहा है ।
ग्वाटेमाला में अमीर देशों के लिए गन्ना एवं निकारागुआ में कॉफी की एकल खेती की वजह से भी वनों को हानि पहुंची है । निकारागुआ के कृषि निर्यात मॉडल की वजह से प्रगतिशील वन विनाश हुआ है । १९८० के दशक में जब कोको की कीमतों में कमी आई तो सरकार ने उत्पादन में वृद्धि के लिए अपने उष्णकटिबंधीय वनों का और अधिक विनाश किया । ग्वाटेमाला में रस निकालने एवं घरों के लिए ईधन की वजह से वहां के पारम्परिक वन ८० हजार हेक्टेयर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रहे हैं और यदि यही स्थिति बनी रही तो इस देश में वर्ष २०४० तक वनों का नामोनिशान मिट जाएगा ।
निकारागुआ में अवैध कटाई, कृषि विस्तार एवं वनों में आग, जो कि अक्सर जानबूझकर फसलों हेतु नई भूमि प्राप्त् करने के लिए लगाई जाती है, की वजह से प्रतिवर्ष ७५,००० हेक्टेयर वनों का विनाश हो रहा है । यहां के घरों में खाने पकाने का ७६ प्रतिशत ईधन लकड़ियों से प्राप्त् होता है । मौजूदा १.२ करोड़ हेक्टेयर वनों में से ८० लाख हेक्टेयर वन बर्बाद हो चुके हैं । यही स्थिति पनामा की भी है । यहां वर्ष १९७० में वन क्षेत्र ७० प्रतिशत था, जो कि वर्ष २०११ में घटकर ३५ प्रतिशत ही रह गया है । अर्जेंाटीना में वर्ष १९३७ से १९८७ के मध्य करीब २३५५३ वर्ग किलोमीटर वन नष्ट हुए वहीं वर्ष १९९८ से २००६ के मध्य प्रतिवर्ष करीब २५०० वर्ग किलोमीटर वनों का विनाश हुआ । यानि यहां प्रति दो मिनिट में एक हेक्टेयर वन विलुप्त् हो जाता है । देश की राष्ट्रीय रिपोर्ट इसके लिए वनों का असंगठित रूप से दोहन, कृषि क्षेत्र के विस्तार, सार्वजनिक नीतियों की कमी एवं पारम्परिक प्रजातियों के पुन: वनीकरण हेतु निजी क्षेत्र को दिए जाने वाले प्रोत्साहन को जिम्मेदार ठहराती है ।
म्यांमार (बर्मा) में वन एवं खनन कानूनों का क्रियान्वयन नहीं होता । इसी वजह से वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य यहां पर २५ प्रतिशत वनों का विनाश हुआ लेकिन उसके परिणामों पर कोई विचार ही नहीं करता । फिलीपींस में भी उपरोक्त समस्याएं बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जिसके परिणामस्वरूप वहां का वन क्षेत्र ४० प्रतिशत घटकर २७ प्रतिशत रह गया है । वहीं श्रीलंका तो अपने मूल वनों में से महज १.५ प्रतिशत वनों को ही सुरक्षित रख पाया है । रिपोर्ट में इसकी वजह ब्रिटिश साम्राज्यकालीन औपनिवेशिक नीतियों को बताया है जिसके तहत रबर, काफी एवं चाय के बागान हेतु बड़ी मात्रा में वन काटे गए थे । इतना ही नहीं वर्ष १९९० से २००५ तक चले आंतरिक संघर्षोंा की वजह से वहां विश्व के प्राथमिक वनों को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा और इसकी वजह से बचे हुए वनों का भी १८ प्रतिशत नष्ट हो गया । वर्ष २००४ के बाद नवनिर्माण की पहल के चलते वनों के विनाश में और अधिक तेजी आई है ।
मध्य अफ्रीकी गणतंत्रों में खाद्य असुरक्षा (जलवायु परिवर्तन की वजह से) के चलते किसान अपनी खेती का क्षेत्र बढ़ाने हेतु वनों को काट रहे हैं । यहां की ९० प्रतिशत आबादी द्वारा खाना पकाने के लिए लकड़ी के इस्तेमाल की वजह से स्थितियां और भी बद्तर हो रही हैं । नाईजीरिया में किसानों के साथ शिकारी भी जल्दी शिकार के लिए वनों को जला रहे हैं । तंजानिया में वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य वन क्षेत्र में १५ प्रतिशत की कमी आई है और बढ़ती गरीबी के चलते लकड़ी का उपयोग भी बढ़ा है । वहीं सेनगेल और सोमालिया में स्थानीय एवं निर्यात के लिए कोयला बनाने की वजह से वनों का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है । यही स्थिति सूडान की भी है ।
द सोशल वॉच २०११ की मलेशिया की राष्ट्रीय रिपोर्ट इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशार कर रही है कि स्थानीय समुदाय वनों के विनाश से न केवल अपनी जीविका ही खो रहा है बल्कि वनों की विलुिप्त् के साथ उसकी पारम्परिक जीवनशैली एवं संस्कृति भी विलुप्त् हो रही है ।
प्रगतिशील वनविनाश
सोशल वॉच
सोशल वॉच रिपोर्ट २०१२ में विश्व भर में वनों के विनाश का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है । लेटिन अमेरिकी देश पेरूग्वे कृषि निर्यात आधारित मॉडल अपनाने के परिणामस्वरूप हुए वनविनाश को प्रगतिशील वनविनाश की संज्ञा दी गई है । क्या विनाश कभी भी प्रगतिशील हो सकता है ?
विश्व आर्थिक संकट की ही तरह वन विनाश के भी कई कारण सामने आ रहे हैं । इसमें प्रमुख हैं बाजार में मूल उत्पादों और कृषि भूमि की मांग में वृद्धि, गरीबी की बढ़ती समस्या, जलवायु परिवर्तन, पेड़ों का लकड़ी एवं ईधन के लिए कटना । उपरोक्त निष्कर्ष सोशल वॉच रिपोर्ट - २०१२ से सामने आए हैं । पिछले कुछ वर्षो में ऊर्जा के बढ़ते मूल्यों के चलते निर्धनतम वर्ग द्वारा एक बार पुन: लकड़ी एवं कोयले के इस्तेमाल करने की वजह से भी वन संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है ।
लेकिन यह दुष्चक्र जारी है । वनों के विलुप्त् होने से हमारे ग्रह की कार्बन सोखने की क्षमता में आई कमी के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन से निपट पाना भी कठिन होता जा रहा है । कानूनों में व्यापत ढिलाई के कारण भी समस्या और गहराती जा रही है । रिपोर्ट के यूरोप से संबंधित अध्याय में इंडिजेनाडोय में चेतावनी देते हुए बताया गया है कि यूरोपीय संघ की अपने पशुधन के लिए चारे हेतु विदेशों पर निर्भरता ने विदेशों में भूमि की मांग में हुई वृद्धि की वजह से विश्वभर में वनों का सामाजिक विनाश सामने आ रहा है ।
वैश्विक विकास को लेकर प्राथमिक घोषणा पत्र (रियो + २० के आगे : न्याय के बिना कोई भविष्य नहीं) में तेजी से फैलतेअस्थिर उत्पादन एवं उपभोग की प्रवृत्ति को प्राकृतिक संसाधनों में तेजी से हो रही कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया है । इसी प्रवृत्ति को वैश्विक तापमान में वृद्धि, अतिवादी मौसम की निरन्तर आवृत्ति, रेगिस्तानीकरण एवं वनों के विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है ।
रिपोर्ट में फिनलैंड द्वारा किए जा रहे वनों के विनाश का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि वर्तमान में कई मुख्य फिनिश कंपनियां जो कि स्वयं को विश्व की सर्वोच्च् कंपनी मानती हैं, के ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जिसमें उनके द्वारा अधिक संख्या में यूकेलिप्टस के लगाए जाने से आबादी का पलायन हुआ है एवं बड़ी मात्रा में भूमि हथियाई गई है । रिपोर्ट के अनुसार यहां की कमोवेश राज्य के स्वामित्व वाली कंपनी नेस्ले आईल जो कि विश्व में बायो ईधन में अग्रणी होने को तड़प रही है, ने मुख्यतया मलेशिया, इंडोनेशिया में व्यापक स्तर पर भूमि एवं वर्षा वनों के उपयोग में परिवर्तन कराया है । विशेषज्ञों का मानना है कि ये क्षेत्र निर्विवाद रूप से विश्व में सर्वाधिक कार्बन सोखने का कार्य करते थे । यहां नेस्ले की रिफायनरियों को तेल आपूर्ति हेतु आरक्षित भूमि करीब ७ लाख हेक्टेयर है ।
जाम्बिया की स्थिति तो और भी विकट है । पिछले दशक में यहां प्रतिवर्ष औसतन ३ लाख हेक्टेयर वन नष्ट होने का अनुमान था । लेकिन मात्र एक वर्ष २००८ में ८ लाख हेक्टेयर वन कम हुए हैं । वर्ष १९९० एवं २०१० के मध्य देश में वनों के क्षेत्र में ६.३ प्रतिशत या ३३ लाख हेक्टेयर की कमी आई है । ब्राजील में भी वनों की कटाई एवं अमेजन वनों में लगी आग कमोवेश कृषि के विस्तार का परिणाम ही कही जाएगी । वहीं दूसरी ओर ताकतवर लॉबी के कारण वन नियमावली में परिवर्तन कर अमेजन में पारम्परिक वन का अनुपात ८० प्रतिशत से घटाकर ५० प्रतिशत कर दिया गया है ।
पेरू का अमेजन वन क्षेत्र दुनिया का आठवां एवं लेटिन अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा वन क्षेत्र है । पिछले कई दशकों से यहां के वन भी घरों के लिए ईधन के साथ ही साथ कटाई एवं खेती के लिए वन जलाने हेतु प्रचलित पद्धति के कारण विनाश की ओर अग्रसर है । यहां पर मेंग्रो वनों एवं शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क वनों का क्षेत्र प्रतिवर्ष करीब १,५०,००० हेक्टेयर सिकुड़ रहा है ।
ग्वाटेमाला में अमीर देशों के लिए गन्ना एवं निकारागुआ में कॉफी की एकल खेती की वजह से भी वनों को हानि पहुंची है । निकारागुआ के कृषि निर्यात मॉडल की वजह से प्रगतिशील वन विनाश हुआ है । १९८० के दशक में जब कोको की कीमतों में कमी आई तो सरकार ने उत्पादन में वृद्धि के लिए अपने उष्णकटिबंधीय वनों का और अधिक विनाश किया । ग्वाटेमाला में रस निकालने एवं घरों के लिए ईधन की वजह से वहां के पारम्परिक वन ८० हजार हेक्टेयर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रहे हैं और यदि यही स्थिति बनी रही तो इस देश में वर्ष २०४० तक वनों का नामोनिशान मिट जाएगा ।
निकारागुआ में अवैध कटाई, कृषि विस्तार एवं वनों में आग, जो कि अक्सर जानबूझकर फसलों हेतु नई भूमि प्राप्त् करने के लिए लगाई जाती है, की वजह से प्रतिवर्ष ७५,००० हेक्टेयर वनों का विनाश हो रहा है । यहां के घरों में खाने पकाने का ७६ प्रतिशत ईधन लकड़ियों से प्राप्त् होता है । मौजूदा १.२ करोड़ हेक्टेयर वनों में से ८० लाख हेक्टेयर वन बर्बाद हो चुके हैं । यही स्थिति पनामा की भी है । यहां वर्ष १९७० में वन क्षेत्र ७० प्रतिशत था, जो कि वर्ष २०११ में घटकर ३५ प्रतिशत ही रह गया है । अर्जेंाटीना में वर्ष १९३७ से १९८७ के मध्य करीब २३५५३ वर्ग किलोमीटर वन नष्ट हुए वहीं वर्ष १९९८ से २००६ के मध्य प्रतिवर्ष करीब २५०० वर्ग किलोमीटर वनों का विनाश हुआ । यानि यहां प्रति दो मिनिट में एक हेक्टेयर वन विलुप्त् हो जाता है । देश की राष्ट्रीय रिपोर्ट इसके लिए वनों का असंगठित रूप से दोहन, कृषि क्षेत्र के विस्तार, सार्वजनिक नीतियों की कमी एवं पारम्परिक प्रजातियों के पुन: वनीकरण हेतु निजी क्षेत्र को दिए जाने वाले प्रोत्साहन को जिम्मेदार ठहराती है ।
म्यांमार (बर्मा) में वन एवं खनन कानूनों का क्रियान्वयन नहीं होता । इसी वजह से वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य यहां पर २५ प्रतिशत वनों का विनाश हुआ लेकिन उसके परिणामों पर कोई विचार ही नहीं करता । फिलीपींस में भी उपरोक्त समस्याएं बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जिसके परिणामस्वरूप वहां का वन क्षेत्र ४० प्रतिशत घटकर २७ प्रतिशत रह गया है । वहीं श्रीलंका तो अपने मूल वनों में से महज १.५ प्रतिशत वनों को ही सुरक्षित रख पाया है । रिपोर्ट में इसकी वजह ब्रिटिश साम्राज्यकालीन औपनिवेशिक नीतियों को बताया है जिसके तहत रबर, काफी एवं चाय के बागान हेतु बड़ी मात्रा में वन काटे गए थे । इतना ही नहीं वर्ष १९९० से २००५ तक चले आंतरिक संघर्षोंा की वजह से वहां विश्व के प्राथमिक वनों को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा और इसकी वजह से बचे हुए वनों का भी १८ प्रतिशत नष्ट हो गया । वर्ष २००४ के बाद नवनिर्माण की पहल के चलते वनों के विनाश में और अधिक तेजी आई है ।
मध्य अफ्रीकी गणतंत्रों में खाद्य असुरक्षा (जलवायु परिवर्तन की वजह से) के चलते किसान अपनी खेती का क्षेत्र बढ़ाने हेतु वनों को काट रहे हैं । यहां की ९० प्रतिशत आबादी द्वारा खाना पकाने के लिए लकड़ी के इस्तेमाल की वजह से स्थितियां और भी बद्तर हो रही हैं । नाईजीरिया में किसानों के साथ शिकारी भी जल्दी शिकार के लिए वनों को जला रहे हैं । तंजानिया में वर्ष १९९० एवं २००५ के मध्य वन क्षेत्र में १५ प्रतिशत की कमी आई है और बढ़ती गरीबी के चलते लकड़ी का उपयोग भी बढ़ा है । वहीं सेनगेल और सोमालिया में स्थानीय एवं निर्यात के लिए कोयला बनाने की वजह से वनों का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है । यही स्थिति सूडान की भी है ।
द सोशल वॉच २०११ की मलेशिया की राष्ट्रीय रिपोर्ट इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशार कर रही है कि स्थानीय समुदाय वनों के विनाश से न केवल अपनी जीविका ही खो रहा है बल्कि वनों की विलुिप्त् के साथ उसकी पारम्परिक जीवनशैली एवं संस्कृति भी विलुप्त् हो रही है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें