सामाजिक पर्यावरण
समाज, पर्यावरण और गॉधी
अनसार अली
कहा जा रहा है कि समाज तरक्की कर रहा है, गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं, फ्लाईओवर बन रहे है, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है, जमीन के दाम भी बढ़ रहे हैं परन्तु लोगों को उजाड़ दिया गया है और उनकी जमीन पर बांध और हवाई अड्डे बनाए जा रहे हैं । धन के इस लालच ने व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह खेती लायक जमीन को भोग विलास के लिए बेच दे ।
विकास के नाम पर प्रकृति का जी भरकर शोषण व दोहन किया जा रहा है । समाज, प्रकृति व व्यक्ति के बीच का संतुलन छिन्न-भिन्न हो रहा है । वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, जिससे वन्य संसाधन, जीव-जन्तु और जैव विविधता खतरे में पड़ गए हैं, जलस्तर भी लगातार नीचे जा रहा है, रेगिस्तानी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है दूसरी ओर नदियां भी गंदे नालों में बदलती जा रही हैं । धरती भी लगातार गरम होती जा रही है ।
आज विकास के नाम पर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और लोगों का शहरों की ओर लगातार फ्लायन हो रहा है । शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । स्वतंत्रता के समय कुछ गिने-चुने शहर ही होते थे,अब ये सैकड़ों की संख्या में हैं और खेती योग्य भूमि को चट करते जा रहे हैं । शहरों में लोगों के लिए रोजगार के अवसर व सृजन, खाने, पीने और आवागमन के संसाधनों पर बोझ पड़ रहा है ।
समाज में एक तरफ तो ऐसा छोटा तबका है जिसके पास अधिकांश संसाधनों तक पहुंच और कब्जा है तो दूसरी ओर ज्यादातार लोगों के पास जीवन निर्वाह के लिए संसाधनों की कमी है । इस छोटे तबके के पास पैसा है और समय की बहुत कमी है अतएव इसने इस्तेमाल करो और फेको की संस्कृति को पैदा किया है । इसीलिए जगह-जगह कूड़े के ढेर नजर आ रहे है और हमारे सामने इस कूड़े का बेहतर ढंग से निपटारे की समस्या आ खड़ी हो गई है।
यह समस्या युवा पीढ़ी को खाओ, पीओ और ऐश करो का दर्शन दे रही है । प्रकृति के संसाधनों का खूब शोषण करो और आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है । गांधीजी के अनुसार धरती के संसाधनों को ईश्वर की देन माना जाए । ये संसाधन हमारे लिए उपहार समान हैं और इन पर सबका समान अधिकार है । अतएव हमारा यह कर्तव्य है कि इन संसाधनों का इस ढंग से प्रयोग करें कि आने वाली पीढ़ियों के हितों को कोई नुकसान न पहुंचे ।
गांधीजी का यह भी कहना था कि व्यक्ति को अपना जीवन सादगी व मितव्ययता से बिताना चाहिए । परमात्मा परिग्रह नहीं करता । हम प्रकृति से जितना लें उतना ही लौटा दें तभी परिस्थितिकीय संतुलन बना रहता है और मानव, प्रकृतिव जीव जतु के अस्तित्व को कोई खतरा भी उत्पन्न नहीं होता है । वे कहते थे कि प्रकृति व्यक्ति की इच्छा को तो पूरा कर सकती है लेकिन उसके लालच को नहीं । उन्होंने बढ़ते हुए उपयोगवाद के खतरों से हमें चेताया है ।
गांधीजी का दर्शन समाज, व्यक्ति व प्रकृति को साथ लेकर चलता है । वे मानते थे समाज की सारी इकाइयां एक दूसरे से निकटता से जुड़ी हुई है । एक का शोषण या नुकसान दूसरे के लिए खतरे की निशानी है । गांधीजी का वसुधैव कुटुम्बकम में दृढ़ विश्वास था जिसके अनुसार सारा संसार हमारा है और हम सब एक परिवार के सदस्य की तरह से हैं। हमें दूसरों के सुख-दुख को अपना ही सुख-दुख मानना चाहिए ।
गांधीजी ने पर्यावरण को एक विषय के रूप मेंतो नहीं पढ़ा और ना ही वे कोई पर्यावरणविद थे, परन्तु उनके लेखों, भाषणों व दैनिक व्यवहार में हम पर्यावरण के प्रति उनकी चिंता को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । सन् १९७० के दशक में उभरा चिपको आंदोलन गांधी दर्शन से प्रभावित था ।
शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए आवश्यक है कि गांव में ही रोजगार के अवसर पैदा किए जाए व लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए । गांव व शहरों के बीच मधुर व सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित होने चाहिए । गांव के विनाश पर शहर का विकास न हो बल्कि दोनों का साथ-साथ विकास होना चाहिए, दोनों एक-दूसरे का सहयोग व सहकार करें ।
हम विकास की इस अंधी दौड़ में पर्वत की चोटी पर पहुंच गए है और अगर आगे बढ़े तो गिरना अवश्यम्भावी है । अत: हमें गांधीजी यानि अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा । पर्यावरण को लेकर उनका दर्शन सार्वभौम और सर्वकालिक है ।
समाज, पर्यावरण और गॉधी
अनसार अली
कहा जा रहा है कि समाज तरक्की कर रहा है, गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं, फ्लाईओवर बन रहे है, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है, जमीन के दाम भी बढ़ रहे हैं परन्तु लोगों को उजाड़ दिया गया है और उनकी जमीन पर बांध और हवाई अड्डे बनाए जा रहे हैं । धन के इस लालच ने व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह खेती लायक जमीन को भोग विलास के लिए बेच दे ।
विकास के नाम पर प्रकृति का जी भरकर शोषण व दोहन किया जा रहा है । समाज, प्रकृति व व्यक्ति के बीच का संतुलन छिन्न-भिन्न हो रहा है । वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, जिससे वन्य संसाधन, जीव-जन्तु और जैव विविधता खतरे में पड़ गए हैं, जलस्तर भी लगातार नीचे जा रहा है, रेगिस्तानी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है दूसरी ओर नदियां भी गंदे नालों में बदलती जा रही हैं । धरती भी लगातार गरम होती जा रही है ।
आज विकास के नाम पर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और लोगों का शहरों की ओर लगातार फ्लायन हो रहा है । शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । स्वतंत्रता के समय कुछ गिने-चुने शहर ही होते थे,अब ये सैकड़ों की संख्या में हैं और खेती योग्य भूमि को चट करते जा रहे हैं । शहरों में लोगों के लिए रोजगार के अवसर व सृजन, खाने, पीने और आवागमन के संसाधनों पर बोझ पड़ रहा है ।
समाज में एक तरफ तो ऐसा छोटा तबका है जिसके पास अधिकांश संसाधनों तक पहुंच और कब्जा है तो दूसरी ओर ज्यादातार लोगों के पास जीवन निर्वाह के लिए संसाधनों की कमी है । इस छोटे तबके के पास पैसा है और समय की बहुत कमी है अतएव इसने इस्तेमाल करो और फेको की संस्कृति को पैदा किया है । इसीलिए जगह-जगह कूड़े के ढेर नजर आ रहे है और हमारे सामने इस कूड़े का बेहतर ढंग से निपटारे की समस्या आ खड़ी हो गई है।
यह समस्या युवा पीढ़ी को खाओ, पीओ और ऐश करो का दर्शन दे रही है । प्रकृति के संसाधनों का खूब शोषण करो और आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है । गांधीजी के अनुसार धरती के संसाधनों को ईश्वर की देन माना जाए । ये संसाधन हमारे लिए उपहार समान हैं और इन पर सबका समान अधिकार है । अतएव हमारा यह कर्तव्य है कि इन संसाधनों का इस ढंग से प्रयोग करें कि आने वाली पीढ़ियों के हितों को कोई नुकसान न पहुंचे ।
गांधीजी का यह भी कहना था कि व्यक्ति को अपना जीवन सादगी व मितव्ययता से बिताना चाहिए । परमात्मा परिग्रह नहीं करता । हम प्रकृति से जितना लें उतना ही लौटा दें तभी परिस्थितिकीय संतुलन बना रहता है और मानव, प्रकृतिव जीव जतु के अस्तित्व को कोई खतरा भी उत्पन्न नहीं होता है । वे कहते थे कि प्रकृति व्यक्ति की इच्छा को तो पूरा कर सकती है लेकिन उसके लालच को नहीं । उन्होंने बढ़ते हुए उपयोगवाद के खतरों से हमें चेताया है ।
गांधीजी का दर्शन समाज, व्यक्ति व प्रकृति को साथ लेकर चलता है । वे मानते थे समाज की सारी इकाइयां एक दूसरे से निकटता से जुड़ी हुई है । एक का शोषण या नुकसान दूसरे के लिए खतरे की निशानी है । गांधीजी का वसुधैव कुटुम्बकम में दृढ़ विश्वास था जिसके अनुसार सारा संसार हमारा है और हम सब एक परिवार के सदस्य की तरह से हैं। हमें दूसरों के सुख-दुख को अपना ही सुख-दुख मानना चाहिए ।
गांधीजी ने पर्यावरण को एक विषय के रूप मेंतो नहीं पढ़ा और ना ही वे कोई पर्यावरणविद थे, परन्तु उनके लेखों, भाषणों व दैनिक व्यवहार में हम पर्यावरण के प्रति उनकी चिंता को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । सन् १९७० के दशक में उभरा चिपको आंदोलन गांधी दर्शन से प्रभावित था ।
शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए आवश्यक है कि गांव में ही रोजगार के अवसर पैदा किए जाए व लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए । गांव व शहरों के बीच मधुर व सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित होने चाहिए । गांव के विनाश पर शहर का विकास न हो बल्कि दोनों का साथ-साथ विकास होना चाहिए, दोनों एक-दूसरे का सहयोग व सहकार करें ।
हम विकास की इस अंधी दौड़ में पर्वत की चोटी पर पहुंच गए है और अगर आगे बढ़े तो गिरना अवश्यम्भावी है । अत: हमें गांधीजी यानि अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा । पर्यावरण को लेकर उनका दर्शन सार्वभौम और सर्वकालिक है ।
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