सोमवार, 13 अगस्त 2012

वनस्पति जगत 
होम रूल, गूलर का फूल और बरबैन्क
                                            डॉ. किशोर पंवार

    बात पुरानी जरूर है पर महत्वपूर्ण और मजेदार है । देश अंग्रेजोंका गुलाम था । अंग्रेजी शासन से परेशान कुछ देश भक्त नेताआेंने होम रूल आंदोलन शुरू किया था । होम रूल का मतलब अंग्रेजों के अधीन रहकर ही देश की शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी करना था । होम रूल की मांग करने वालों में पंडित मदन मोहन मालवीय प्रमुख थे ।
    वे अपनी जन सभाआें में होम रूल की मांग उठाया करते थे । उनकी इस मांग का मजाक एक अंग्रेजी पादरी ने कुछ यूंकहकर उडाया था - कहते है मालवीय जी, होम रूल लेंगे । दीवाने हो गए हैं, गूलर का फूल लेंगे । इसके जवाब में एक वतनपरस्त शायर ने अखबारों में यह शेर छपवाया था - जब होमरूल होगा, बरबैन्क जन्म लेंगे, जी हां जनाब तब तो, गूलर भी फूल देंगे ।
    गरज यह कि जब कोई व्यक्ति किसी दुर्लभ वस्तु की मांग करता है तब कहा जाता है कि आप तो गूलर का फूल मांग रहे हैं । कालान्तर में गूलर का फूल एक मुहावरा बन    गया । परन्तु सच्ची लगन हो तो गूलर में भी फूल खिलाए जा सकते हैं ।
    कड़े संघर्ष और हजारों कुर्बानियां देकर मिली आजादी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । उस शायर को सलाम जिसने दमन और शोषण के उस दौर में भी यह हिम्मत कहने की दिखाई कि होम रूल होने पर हमारे देश में बरबैन्क जन्म लेंगे और तब गूलर में भी फूल खिलेंगे । जाहिर है, बरबैन्क उस जमाने के कोई प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री रहे होंगे । वैसे इस संदर्भ में वनस्पति विज्ञान की प्रचलित पाठ्य पुस्तकों में बरबैन्क का कोई अता-पता नहीं मिला । पता नहीं क्यों ?
    आजादी के बाद देश में कृषि के क्षेत्र मेंअभूतपूर्व प्रगति हुई है । देश भर में फैलेगेहूं, चावल, कपास, मूंगफली, गन्ना, सोयाबीन जैसी फसलों के आई.सी.ए.आर. के अनुसंधान केन्द्रों में कार्यरत वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और लगन की बदौलत आज हम अनाज के उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं । कभी हम अनाज का आयात करते थे, अब निर्यात करते हैं । इस वर्ष गेहूं की बम्पर फसल के चलते हालात ऐसे हैं कि अनाज भरने के लिए बारदाने नहीं मिल रहे    हैं । और तो और, खरीदे गए गेहूं के भण्डारण के लिए गोदाम तक नहीं है ।
    फलों के उत्पादन में हम एक अनार सौ बीमार से वर्तमान में हर बीमार को एक अनार की स्थिति में पहुंच गए हैं । हरित क्रांति के साथ देश मेंफल और सब्जी क्रांति भी हुई है । आम, अनार और सेब जो कभी अस्पतालों के आसपास या फल बाजार मेंही मिलते थे, अब ठेलों और बैलगाड़ियोें में गली-मुहल्लों में बेचे जा रहे है ।
    इन बदलावों के मूल में वे वनस्पति विज्ञानी है जिन्हें हम पौध प्रजनक या उद्यानविद कहते हैं । इसमें बेशक सरकार की नीतियों का भी अहम योगदान है । सरकार और वैज्ञानिकों की बदौलत ही आज हम खाद्यान्न, फल एवं सब्जियों से सम्पन्न है । कुछ प्रमुख भारतीय पौध प्रजनकों के नाम का जिक्र जरूरी है । बी.पी.पाल, एम.एस.स्वामीनाथन, डॉ. के. रमैया, डॉ. एन. पार्थसारथी, डॉ. ए.बी. जोशी, एस.एस.राजन, ई.के. जानकी अम्मल और डॉ. आर.एच. रिछारिया जैसे वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत एवं लगन से आज हम अनाज के क्षेत्र मेंअपना सिर गर्व से ऊंचा उठाए हैं।
    जिन बरबैन्क महोदय का ऊपर जिक्र आया है वे भी एक प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री एवं उद्यान विशेषज्ञ थे । अकेले उन्होनें ८०० से ज्यादा प्रकार के फल, फूल और सब्जियों की प्रजातियों एवं किस्में तैयार की थी ।
    लूथर बरबैन्क एक अमरीकी वनस्पतिशास्त्री थे । उनका जन्म लैंकास्टर में हुआ था । उनके पास कोई बड़ी डिग्री नहीं थी, केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त् थे । परन्तु अपनी लगन, सूझबूझ एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पौधोंसे प्यार के चलते दुनिया के जाने माने उद्यानविद बने ।
    बरबैन्क का जन्म ०७ मार्च १८४९ को हुआ था । कैलिर्फोनिया में आपकी विशिष्ट उपलब्धियों के चलते ७ मार्च वृक्ष दिवस के रूप मेंमनाया जाता है और उस दिन वृक्ष लगाए जाते हैं । इस कर्मठ उद्यानविद एवं प्रकृतिवेता की मृत्यु ७७ वर्ष की आयु में १९२६ में ११ अप्रैल को हुई । उन्हें उनके ही बगीचे में ग्रीनहाउस के पासदफनाया गया था ।
    बरबैन्क ने पौधों की कई नई किस्में ईजाद की । उन्होनें अपने कार्य में कलम लगाना और संकरण जैसी विधियों का इस्तेमाल कर लगभग ८०० किस्में तैयार की । उनकी प्रमुख उपलब्धियों में प्लम की ११३ किस्मों के अलावा १० किस्में बेरीज व ३० किस्में लिली की हैं । बरबैन्क ने हर तरह के पौधों पर कार्य किया । फल, फूल,अनाज, सब्जियां, यहां तक कि घास भी उनके कार्य का हिस्सा     रहीं । बरबैन्क को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली आलू की एक नई किस्म बरबैन्क पोटेटो से । यह किस्म आज भी अमरीका में सर्वाधिक उगाई जाती है । इस आलू का छिलका लाल-पीला होता है । इसे चिप्स बनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है ।
    बरबैन्क ने कैक्टस की एक कांटे रहित किस्म बनाई जिसे पशु चारे के रूप मेंउपयोग किया जा सकता था । इसके अलावा उन्होनें शस्ता, डेजी, फायर पॉपी, एलरटॉपीच और सान्तारोजा प्लम भी विकसित किए । उनका अपना ग्रीन हाउस एवं नर्सरी थी जहां वे अपने प्रायोगिक कार्य करते थे ।
    बरबैन्क ने पौधों की नई-नई किस्मों की खोज के साथ ही कई किताबें भी लिखी जिनसे उनकी प्रसिद्धि और बढ़ी । उनकी प्रमुख किताबों में न्यू क्रिएशंस इन फ्रूटस एंड फ्लावर्स (१८९३), दी ट्रेनिंग ऑफ द ह्मूमन प्लांट (१९०७), हाऊ प्लांट्स आर ट्रेन्ड टू वर्क फार मैन (१९२१), हार्वेस्ट ऑफ दी इअर्स (१९२७) हिज मेथ्स, डिस्कवरी एंड देअर प्रक्टिकल एप्लीकेशन्स और पार्टनर ऑफ नेचर (१९३९) प्रमुख हैं ।
    ऐसा नहीं है कि बरबैन्क को शोहरत ही शोहरत मिली है । उन दिनों के वैज्ञानिकों द्वारा उनके कार्यकी आलोचना भी की गई । उन पर आरोप था कि वे अपने कार्य का व्यवस्थित रिकार्ड नहीं रखते थे जो वैज्ञानिक कार्यो में जरूरी होता है । पडर््यू विश्वविद्यालय के हार्टीकल्चर और लैंडस्केपिंग के प्रोफेसर जूल्स जैनिक ने एनसायक्लोपिडिया २००४ के अंक में यहां तक कहा कि बरबैन्क को सही अर्थो में वैज्ञानिक नहीं माना जा  सकता ।
    खैर कुछ भी हो बरबैन्क की उपलब्धियां अनेक हैं । उनके कार्यो की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता   है । किसी कार्य की महत्ता उसकी उपयोगिता में ही होती है । इस लिहाज से बरबैन्क को भले वैज्ञानिक न माना जाए पर जो कार्य उन्होंने किए हैं वे वैज्ञानिक श्रेणी के तो हैं ही । नई पादप किस्में ईजाद करना वैज्ञानिकों का ही काम है और यह बरबैन्क ने बखूबी  किया ।
    किसी के कार्यको नकाराना वैज्ञानिक जगत मेंभी होता है । वैज्ञानिक भी आखिर इन्सान होते है । ईर्ष्या और प्रसिद्धि से वे परे नहीं  होते । भारतीय वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों में इतने बड़े उद्यानिकीविद, लेखक, प्रकृतिविद और खोजकर्ता का नाम न होना अखरता है । उनके कार्योके महत्व के आलोक मेंउन्हें हायर सेकेण्डरी व स्नातक स्तर की पाठ्य पुस्तकों में थोड़ा स्थान तो मिलना ही चाहिए ताकि आगामी पीढ़ी उनके कृतित्व से प्रेरणा ले सके ।

कोई टिप्पणी नहीं: