महिला जगत
महिलाएं पुरूषों से अधिक क्यों जीती हैं ?
नरेन्द्र देवांगन
अगर आप अमरीका के समस्त नागरिकोंका एक विशाल ग्रुप फोटो ले सकें, तो उसमें महिलाआें की संख्या पुरूषों से ६० लाख अधिक होगी । वहां महिलाएं पुरूषों से औसतन सात वर्ष अधिक जीवित रहती हैं । आधुनिक विश्व में संस्कृतियां, आहार, जीवन शैली तथा मृत्यु के कारण भिन्न हैं, लेकिन एक बात समान है - महिलाएं पुरूष से अधिक जीती है ।
यह प्रक्रियाजन्म से पहले शुरू हो जाती है । गर्भधारण के समय यदि मादा भ्रूणोंकी संख्या १०० होती है तो नर भ्रूण संख्या ११० होते हैं, जन्म के समय यह अनुपात १०० लड़कियों पर १०५ लड़कों तक गिर जाता है । ३० वर्ष की आयु तक महिलाआें और पुरूषों की संख्या लगभग बराबर हो जाती है । इसके बाद महिलाएं बढ़त बनाना शुरू कर देती हैं । ८० वर्ष से अधिक उम्र की महिलाआें की संख्या पुरूषों से लगभग दुगनी है ।
संक्रामक रोग विज्ञानी डेबोरा विंगार्ड कहती हैं, आप मृत्यु के दस या बारह मुख्य कारणोंपर विचार करें, हर रोग पुरूषों को अधिक मारता है । वे धीरे-धीरे एक के बाद एक पुरूषों के लिए ह्दय रोग, फेफड़ों का कैंसर, लिवर सिरोसिस तथा निमोनिया का जिक्र करते हुए बताती हैं कि ये सब महिलाआें की तुलना में अमरीकी पुरूषों को लगभग दुगनी दर पर शिकार बनाते हैं ।
एक शताब्दी पूर्व अमरीकी पुरूष महिलाआें से अधिक थे तथा अधिक समय तक जीवित रहते थे । लेकिन बीसवीं सदी में महिलाआें की औसत आयु बढ़ गई, क्योंकि गर्भ धारण व प्रसव कम खतरनाक हो गए हैं । अमरीका में १९४६ में पहली बार महिलाआें की संख्या पुरूषों से अधिक पाई गई थी ।
इस स्थिति के जिम्मेदार स्वयं पुरूष हैं । वे महिलाआें की तुलना में धूम्रपान, मद्यपान तथा जीवन को खतरे में डालने वाले अधिक जोखिम उठाते हैं । महिलाआें की तुलना में पुरूषों की (अन्य पुरूषों द्वारा) अधिक हत्याएं होती है । उनकी आत्महत्या की दर एवं जानलेवा कार दुर्घटनाआें की दर महिलाआें की अपेक्षा अधिक होती है । पुरूष चालक एल्कोहल के कारण अकाल मृत्यु के कहींअधिक शिकार होते हैं ।
लेकिन आयु के इस अंतर को आचरण स्पष्ट नहीं करता और न ही तनाव इसका उत्तर है । यदि उम्र के छठे दशक में ह्दय रोग ने अधिक पुरूषों को अपना शिकार बनाया, तो कहा गया कि कार्पोरेट विश्व के तनाव इसके लिए जिम्मेदार हैं। डॉक्टरों ने कहा कि जब महिलाएं घर से बाहर काम करने लगेंगी तब वे भी पुरूषों जैसी दर पर मरने लगेंगी । लेकिन सन १९५० तथा १९८५ के बीच अमरीका में कामकाजी महिलाआें की संख्या लगभग दुगनी हुई । कई अध्ययनों ने सिद्ध किया कि ये कामकाजी महिलाएं भाी घरेलू महिलाआें की तरह ही स्वस्थ हैं ।
लिंग भिन्नता का अध्ययन कर रहे कुछ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि शायद प्रकृति भी महिलाआें का ही पक्ष लेती हैं । प्रत्येक सजीव अपने गुणसूत्रों के निर्देशानुसार चलता है । मानव में २३ जोड़ी गुणसूत्र होते हैं । लेकिन नर में, इनमें से एक नाजुक बेमेल जोड़ी होती है, जिसमें दो गुणसूत्र एक जैसे नहीं बल्कि अलग-अलग किस्म के होते हैं । इन्हें एक्स और वाई नाम दिए गए हैं । मादाआें में इस जोड़ी में दोनों गुणसूत्र एक्स होते हैं । इसकी आनुवंशिक प्रोत्साहक शक्ति, कभी कभार महिलाआें के उत्कृष्ट लचीलेपन के रूप मेंप्रकट होती है ।
अगर नर का अकेला एक्स गुणसूत्र त्रुटिपूर्ण हो, तो यह संभव है कि एक गंभीर आनुवंशिक विकार प्रकट हो । उदाहरण के लिए मांसपेशियों की एक विशेष प्रकार की विकृति इसी एक एक्स गुणसूत्र मेंखराबी के कारण होती है । महिलाआेंकी तुलना में पुरूषों में ये रोग ज्यादा आम हैं ।
इस अकेलेएक्स सिद्धान्त से भी पूरी समस्या हल नहीं होती । कुछ अनुसंधानकर्ता वाई नर गुणसूत्र को इस अंतर के लिये दोषी मानते हैं । इसका उत्तर हार्मोन भी हो सकते हैं । ४० वर्ष की उम्र तक सभी महिलाएं लगातार एस्ट्रोजन का उत्पादन कर रही होती है, इस उम्र तक एक महिला के मुकाबले तीन पुरूष ह्दय रोग से मरते हैं । लेकिन इससे अधिक उम्र में महिलाआें की यह लाभकर स्थिति लगातार कम होती जाती है । दोनों लिंगों के लिए अब ह्दय रोग मृत्यु का मुख्य कारण है । लेकिन पुरूषों की तुलना में महिलाआें को ह्दय रोग से मृत्यु के संदर्भ मेंएक दशक की मोहलत मिल जाती है ।
अब अगर एस्ट्रोजन ही इस कहानी का नायक है तो टेस्टोस्टेरॉन यानी नर हार्मोन शायद खलनायक । वय: संधि तक लड़कों तथा लड़कियों में कोलेस्टेरॉल स्तर समान होता है । लेकिन जब लड़के यौवनास्था को छूते हैं, टेस्टोस्टेरॉन निर्मित होने लगता है और उनके एचडीएल कोलेस्टेरॉल यानी अच्छे कोलेस्टेरॉल का स्तर कम होने लगता है । पर लड़कियों में एचडीएल का स्तर स्थिर बना रहता है । दोनों लिंगों में एलडीएल यानी बुरे कोलेस्टेरॉल का स्तर यौवनावस्था के बाद बढ़ता है, लेकिन पुरूषों में यह बढ़ोतरी कुछ तेज हैं ।
टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन आक्रामकता को जन्म देता है और बड़ी मांसपेशियों के निर्माण में मददगार होता है । संभवत: एक समय में ये गुण मददगार रहे होंगे जब पुरूषों का मुख्य दायित्व विरोधी कबीलों से लड़ना होता था । लेकिन टेस्टोस्टेरॉन ने यह महत्व अब खो दिया है ।
लिंगों में पाया गया प्रत्येक अंतर महिलाआें का ही पक्ष नहीं लेता । महिलाएं, पुरूषों की तुलना में, संक्रामक रोगों के प्रति कम संवेदनशील हैं जबकि वे रोजमर्रा के रोगव दर्द के प्रति अधिक नाजुक हैं। चिकित्सकों को यह कहते सुना जाता है कि उनके पास दो महिला रोगियों के अनुपात में एक पुरूष रोगी आता है । महिलाएं पुरूषों की तुलना में डॉक्टर के पास अधिक चक्कर लगाती हैं, अधिक दवाईयां लेती है तथा अधिक दिन बिस्तर पर व्यतीत करती हैं । वे गठिया, पैरों की सृजन, मूत्राशय के संक्रमण, मस्सों, बवासीर, मासिक स्त्राव रोग, सिरदर्द तथा स्फीत शिरा से परेशान रहती हैं । इसी समय पुरूषों को दिल का आघात व दौरे पड़ते हैं । अत: जहां महिलाएं मात्र बीमार पड़ती है, वहीं पुरूष मर जाते हैं ।
मानसिक स्वास्थ्य को देखे तो अवसाद पुरूषों की तुलना में महिलाआें में आम है । लेकिन शिजोफ्रेनिया बीमारी अक्सर पुरूषों को अधिक घातक रूप से प्रभावित करती है ।
पत्नी की मृत्यु पर पुरूष कठिनाई से जीवन बसर करते प्रतीत होते हैं । वे अधिक उदास रहते हैं अधिक बीमार रहते हैं तथा संभवत: अधिक मरते हैं । पुरूष इस अवस्था का सामना नहीं कर पाते, क्योंकि कई मामलों में पत्नियां ही उनकी एकमात्र अंतरंग होती हैं । विधुर हुए लोग टूट जाते हैं तथा मर जाते हैं । इसके विपरीतअकेली महिलाआेंका अक्सर निकट मित्रों का एक समूह होता है, जिन पर वे विश्वास कर सकती है ।
लेकिन व्यवहार बदल रहा है, अत: पुरूषों और महिलाआें के बीच स्वास्थ्य का अंतर किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं हैं । हाल के दशकों में महिलाआें तथा पुरूषों की जीवन अवधि के बीच अंतर कम हुआ है । अर्थ यह नहीं है कि महिलाआें का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है । बल्कि महिलाआें का स्वास्थ्य सुधर रहा है, वहीं पुरूषों का स्वास्थ्य भी तेजी से सुधर रहा है ।
पुरूष कम धूम्रपान कर रहे हैं, कम मद्यपान कर रहे हैं तथा अच्छा खाना खा रहे हैं । संक्रामक रोग विज्ञानी विंगार्ड कहती हैं कि अंतर इसलिए नहीं सिकुड़ रहा कि महिलाएं आज पुरूषों की तरह व्यवहार कर रही हैं, बल्कि इसलिए सिकुड़ रहा है क्योंकि पुरूष ही महिलाआें की तरह आचरण करने लगे हैं ।
महिलाएं पुरूषों से अधिक क्यों जीती हैं ?
नरेन्द्र देवांगन
अगर आप अमरीका के समस्त नागरिकोंका एक विशाल ग्रुप फोटो ले सकें, तो उसमें महिलाआें की संख्या पुरूषों से ६० लाख अधिक होगी । वहां महिलाएं पुरूषों से औसतन सात वर्ष अधिक जीवित रहती हैं । आधुनिक विश्व में संस्कृतियां, आहार, जीवन शैली तथा मृत्यु के कारण भिन्न हैं, लेकिन एक बात समान है - महिलाएं पुरूष से अधिक जीती है ।
यह प्रक्रियाजन्म से पहले शुरू हो जाती है । गर्भधारण के समय यदि मादा भ्रूणोंकी संख्या १०० होती है तो नर भ्रूण संख्या ११० होते हैं, जन्म के समय यह अनुपात १०० लड़कियों पर १०५ लड़कों तक गिर जाता है । ३० वर्ष की आयु तक महिलाआें और पुरूषों की संख्या लगभग बराबर हो जाती है । इसके बाद महिलाएं बढ़त बनाना शुरू कर देती हैं । ८० वर्ष से अधिक उम्र की महिलाआें की संख्या पुरूषों से लगभग दुगनी है ।
संक्रामक रोग विज्ञानी डेबोरा विंगार्ड कहती हैं, आप मृत्यु के दस या बारह मुख्य कारणोंपर विचार करें, हर रोग पुरूषों को अधिक मारता है । वे धीरे-धीरे एक के बाद एक पुरूषों के लिए ह्दय रोग, फेफड़ों का कैंसर, लिवर सिरोसिस तथा निमोनिया का जिक्र करते हुए बताती हैं कि ये सब महिलाआें की तुलना में अमरीकी पुरूषों को लगभग दुगनी दर पर शिकार बनाते हैं ।
एक शताब्दी पूर्व अमरीकी पुरूष महिलाआें से अधिक थे तथा अधिक समय तक जीवित रहते थे । लेकिन बीसवीं सदी में महिलाआें की औसत आयु बढ़ गई, क्योंकि गर्भ धारण व प्रसव कम खतरनाक हो गए हैं । अमरीका में १९४६ में पहली बार महिलाआें की संख्या पुरूषों से अधिक पाई गई थी ।
इस स्थिति के जिम्मेदार स्वयं पुरूष हैं । वे महिलाआें की तुलना में धूम्रपान, मद्यपान तथा जीवन को खतरे में डालने वाले अधिक जोखिम उठाते हैं । महिलाआें की तुलना में पुरूषों की (अन्य पुरूषों द्वारा) अधिक हत्याएं होती है । उनकी आत्महत्या की दर एवं जानलेवा कार दुर्घटनाआें की दर महिलाआें की अपेक्षा अधिक होती है । पुरूष चालक एल्कोहल के कारण अकाल मृत्यु के कहींअधिक शिकार होते हैं ।
लेकिन आयु के इस अंतर को आचरण स्पष्ट नहीं करता और न ही तनाव इसका उत्तर है । यदि उम्र के छठे दशक में ह्दय रोग ने अधिक पुरूषों को अपना शिकार बनाया, तो कहा गया कि कार्पोरेट विश्व के तनाव इसके लिए जिम्मेदार हैं। डॉक्टरों ने कहा कि जब महिलाएं घर से बाहर काम करने लगेंगी तब वे भी पुरूषों जैसी दर पर मरने लगेंगी । लेकिन सन १९५० तथा १९८५ के बीच अमरीका में कामकाजी महिलाआें की संख्या लगभग दुगनी हुई । कई अध्ययनों ने सिद्ध किया कि ये कामकाजी महिलाएं भाी घरेलू महिलाआें की तरह ही स्वस्थ हैं ।
लिंग भिन्नता का अध्ययन कर रहे कुछ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि शायद प्रकृति भी महिलाआें का ही पक्ष लेती हैं । प्रत्येक सजीव अपने गुणसूत्रों के निर्देशानुसार चलता है । मानव में २३ जोड़ी गुणसूत्र होते हैं । लेकिन नर में, इनमें से एक नाजुक बेमेल जोड़ी होती है, जिसमें दो गुणसूत्र एक जैसे नहीं बल्कि अलग-अलग किस्म के होते हैं । इन्हें एक्स और वाई नाम दिए गए हैं । मादाआें में इस जोड़ी में दोनों गुणसूत्र एक्स होते हैं । इसकी आनुवंशिक प्रोत्साहक शक्ति, कभी कभार महिलाआें के उत्कृष्ट लचीलेपन के रूप मेंप्रकट होती है ।
अगर नर का अकेला एक्स गुणसूत्र त्रुटिपूर्ण हो, तो यह संभव है कि एक गंभीर आनुवंशिक विकार प्रकट हो । उदाहरण के लिए मांसपेशियों की एक विशेष प्रकार की विकृति इसी एक एक्स गुणसूत्र मेंखराबी के कारण होती है । महिलाआेंकी तुलना में पुरूषों में ये रोग ज्यादा आम हैं ।
इस अकेलेएक्स सिद्धान्त से भी पूरी समस्या हल नहीं होती । कुछ अनुसंधानकर्ता वाई नर गुणसूत्र को इस अंतर के लिये दोषी मानते हैं । इसका उत्तर हार्मोन भी हो सकते हैं । ४० वर्ष की उम्र तक सभी महिलाएं लगातार एस्ट्रोजन का उत्पादन कर रही होती है, इस उम्र तक एक महिला के मुकाबले तीन पुरूष ह्दय रोग से मरते हैं । लेकिन इससे अधिक उम्र में महिलाआें की यह लाभकर स्थिति लगातार कम होती जाती है । दोनों लिंगों के लिए अब ह्दय रोग मृत्यु का मुख्य कारण है । लेकिन पुरूषों की तुलना में महिलाआें को ह्दय रोग से मृत्यु के संदर्भ मेंएक दशक की मोहलत मिल जाती है ।
अब अगर एस्ट्रोजन ही इस कहानी का नायक है तो टेस्टोस्टेरॉन यानी नर हार्मोन शायद खलनायक । वय: संधि तक लड़कों तथा लड़कियों में कोलेस्टेरॉल स्तर समान होता है । लेकिन जब लड़के यौवनास्था को छूते हैं, टेस्टोस्टेरॉन निर्मित होने लगता है और उनके एचडीएल कोलेस्टेरॉल यानी अच्छे कोलेस्टेरॉल का स्तर कम होने लगता है । पर लड़कियों में एचडीएल का स्तर स्थिर बना रहता है । दोनों लिंगों में एलडीएल यानी बुरे कोलेस्टेरॉल का स्तर यौवनावस्था के बाद बढ़ता है, लेकिन पुरूषों में यह बढ़ोतरी कुछ तेज हैं ।
टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन आक्रामकता को जन्म देता है और बड़ी मांसपेशियों के निर्माण में मददगार होता है । संभवत: एक समय में ये गुण मददगार रहे होंगे जब पुरूषों का मुख्य दायित्व विरोधी कबीलों से लड़ना होता था । लेकिन टेस्टोस्टेरॉन ने यह महत्व अब खो दिया है ।
लिंगों में पाया गया प्रत्येक अंतर महिलाआें का ही पक्ष नहीं लेता । महिलाएं, पुरूषों की तुलना में, संक्रामक रोगों के प्रति कम संवेदनशील हैं जबकि वे रोजमर्रा के रोगव दर्द के प्रति अधिक नाजुक हैं। चिकित्सकों को यह कहते सुना जाता है कि उनके पास दो महिला रोगियों के अनुपात में एक पुरूष रोगी आता है । महिलाएं पुरूषों की तुलना में डॉक्टर के पास अधिक चक्कर लगाती हैं, अधिक दवाईयां लेती है तथा अधिक दिन बिस्तर पर व्यतीत करती हैं । वे गठिया, पैरों की सृजन, मूत्राशय के संक्रमण, मस्सों, बवासीर, मासिक स्त्राव रोग, सिरदर्द तथा स्फीत शिरा से परेशान रहती हैं । इसी समय पुरूषों को दिल का आघात व दौरे पड़ते हैं । अत: जहां महिलाएं मात्र बीमार पड़ती है, वहीं पुरूष मर जाते हैं ।
मानसिक स्वास्थ्य को देखे तो अवसाद पुरूषों की तुलना में महिलाआें में आम है । लेकिन शिजोफ्रेनिया बीमारी अक्सर पुरूषों को अधिक घातक रूप से प्रभावित करती है ।
पत्नी की मृत्यु पर पुरूष कठिनाई से जीवन बसर करते प्रतीत होते हैं । वे अधिक उदास रहते हैं अधिक बीमार रहते हैं तथा संभवत: अधिक मरते हैं । पुरूष इस अवस्था का सामना नहीं कर पाते, क्योंकि कई मामलों में पत्नियां ही उनकी एकमात्र अंतरंग होती हैं । विधुर हुए लोग टूट जाते हैं तथा मर जाते हैं । इसके विपरीतअकेली महिलाआेंका अक्सर निकट मित्रों का एक समूह होता है, जिन पर वे विश्वास कर सकती है ।
लेकिन व्यवहार बदल रहा है, अत: पुरूषों और महिलाआें के बीच स्वास्थ्य का अंतर किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं हैं । हाल के दशकों में महिलाआें तथा पुरूषों की जीवन अवधि के बीच अंतर कम हुआ है । अर्थ यह नहीं है कि महिलाआें का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है । बल्कि महिलाआें का स्वास्थ्य सुधर रहा है, वहीं पुरूषों का स्वास्थ्य भी तेजी से सुधर रहा है ।
पुरूष कम धूम्रपान कर रहे हैं, कम मद्यपान कर रहे हैं तथा अच्छा खाना खा रहे हैं । संक्रामक रोग विज्ञानी विंगार्ड कहती हैं कि अंतर इसलिए नहीं सिकुड़ रहा कि महिलाएं आज पुरूषों की तरह व्यवहार कर रही हैं, बल्कि इसलिए सिकुड़ रहा है क्योंकि पुरूष ही महिलाआें की तरह आचरण करने लगे हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें