सोमवार, 13 अगस्त 2012

विज्ञान हमारे आसपास
कपास और मनुष्य का साथ कैसेहुआ ?
                                         डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

    बैक्टीरिया की कोई नई प्रजाति कैसे अस्तित्व में आती है ? कल्पना कीजिए कि संयोग से उसके जीन्स में कोई परिवर्तन हो जाता है, जिसकी बदौलत वह किसी दबाव को झेलने में सक्षम हो जाता  है । यह दबाव किसी जानलेवा दवाई या एंटीबायोटिक का हो सकता है । चूंकि बैक्टीरिया मिनटों ओर घंटों में संख्यावृद्धि करते हैं, इसलिए दवा-संवेदी किस्म के मुकाबले दवा-प्रतिरोधी किस्म चंद हफ्तों में ही भलीभांति स्थापित हो जाती है ।
    जो बात बैक्टीरिया के लिए सही है, वह वनस्पतियों और जंतुआें पर भी लागू होती है । अंतर सिर्फ समयावधि का है । वनस्पतियों और जंतुआें के संदर्भ में उक्त समयावधि वर्षों, दशकों, सदियों या सहस्राब्दियों की हो सकती है क्योंकि उनकी एक-एक पीढ़ी के बीच अंतराल ज्यादा होता है । और जब उन पर भी दबाव पड़ता है - जैसे जलवायु परिवर्तन या पालतूकरण का दबाव - तो उनमें स्थानीय परिवर्तन होतेहैं जो नई किस्मों या संकर किस्मों को जन्म देते हैं ।
    सवाल यह है कि क्या इस तरह के दबावों के चलते क्रमिक म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन पैदा होते हैं जो एक के बाद एक आते   जाएं ? या क्या जीनोम ज्यादा समग्र रूप में प्रतिक्रिया करता है (झटके दे-देकर) ? जो जीव वैज्ञानिक क्रमिकता में विश्वास करते हैं, वे दूसरी किस्म के जीव वैज्ञानिकों को झटका कहते हैं जबकि झटकेदार उत्परिवर्तन के समर्थक जीव वैज्ञानिकों को सरका कहते हैं ।
    मक्का, गेहूं, कपास या चावल जैसा कोई पौधा लीजिए । इसे एपिसोडिक परिवर्तनों का सामना करना होता है, जैसे जलवायु में व्यापक परिवर्तन (जैसा कि पृथ्वी के अतीत में होता रहा है), या जब मनुष्य ने पालतूकरण के दौरान इन पर सर्वथा नवीन पर्यावरण आरोपित किया ।
    पौधा इन परिवर्तनों को कैसे संभालता है ? क्या वह अपने जीन्स में छोट-छोटे  क्रमिक परिवर्तनों के जरिए पर्यावरण के साथ अनुकूलन करता है । अर्थात उत्परिवर्तन क्रमश: आएंगे और उम्मीद है कि हरेक उत्परिवर्तन अपने पूर्ववर्ती का मददगार होगा । या क्या संभव है कि एक व्यापक परिवर्तन (सरकने की बजाय झटकेदार) होगा और सर्वथा नवीन किस्में या संकर किस्में एकाएक पैदा हो  जाएंगी ?
    जीव वैज्ञानिक बारबरा मेक्ंलिक्टॉक इस बात का अध्ययन कर रही थीं कि मक्का में जिनेटिक परिवर्तन कैसे होते हैं ? और बरसों की कड़ी मेहनत के बाद उन्हें यह आश्चर्यजनक परिणाम हासिल हुआ था जीनोम में जीन श्रृंखला में एक साथ थोक बदलाव होते हैं ।
    आनुवंशिक सामग्री डीएनए में श्रृंखलाएं यहां-वहां पहुंच जाती हैं, काटकर जोड़ी जाती हैं, या उनकी नकल बनाकर जोड़ी जाती है । अर्थात जीनोम एक चितकबरी संरचना है जिसकी श्रृंखलाएं बदलती रहती हैं और तद्नुसार उनके द्वारा प्रेषित संदेश भी बदल जाते हैं ।
    उदाहरण के लिए यह वाक्य देखिए, वह, राजेश ने कहा, एक अच्छी महिला है ।  अब जरा इसमें टुकड़े काटकर या नकल करके इधर-उधर चिपकाइए और आपको मिलेगा, एक अच्छी महिला ने कहा,वह राजेश है । या एक-एक राजेश ने कहा, वह एक अच्छी महिला है । बारबरा मेक्ंलिक्टॉक ने डीएनए की इन मुक्त विचरती श्रृंखलाआें को ट्रांसपोजेबल तत्व  या ट्रांसपोजॉन्स कहा । इस अनोखी खोज के लिए उन्हें १९८३ का नोबेल पुरस्कार दिया गया था ।
    तो, ट्रांसपोजॉन्स या फुदकते जीन्स एक प्रक्रिया प्रदान करते हैं, जिसके जरिए दबाव के तहत या पालतूकरण के दौरान विकास  होसकता है । इस बात को हाल ही में वार्विक विश्वविद्यालय के एक समूह द्वारा कपास के एक पौधे के अध्ययन की मदद से समझा गया  है । 
    इस अध्ययन के लिए वार्विक विश्वविद्यालय के समूह ने कपास के पुरातात्विक नमूने लिए । इनमें से दो नमूने पेरू से, एक ब्राजील से और एक मिस्त्र से था । समूह ने इनकी डीएनए श्रृंखला का विश्लेषण करके पाया कि पालतू बनाए गए कपास के जीनोम में काफी पुनर्गठन हुआ था जबकि इसके कुदरती सम्बंधियों को जीनोम श्रृंखला में काफी स्थिरता देखी गई । इससे लगता है कि पालतूकरण का दबाव पौधे को फुदकते जीन्स यानी ट्रांसपोजॉन्स का उपयोग करने को विवश करता है ।
    ऐसा नहींहै कि सिर्फ कपास को मनुष्यों की सांस्कृतिक गतिविधियों के चलते इस तरह के झटकेदार परिवर्तनोंेका सामना करना पड़ा हो । कपास ने अपने तइंर् मनुष्य के व्यवहार और सभ्यता को भी प्रभावित किया है ।
    इस पौधे को करीब ६००० ईसा पूर्व में सिंधु घाटी में पालतू बनाया गया  था । यहां से यह अफ्रीका और अरब विश्व में पहुंचा । अरेबिया में इसका नाम हुआ अलकुतुन (स्पैनी लोगों से इसे बदल कर अल्गोडॉन किया और अंग्रेजी में यह कॉटन  हुआ) ।
    इसके स्वतंत्र, कपास की एक अन्य किस्म को मेक्सिको में ३००० ईसा पूर्व में उगाया गया था । प्रारंभिक एशियाई व मेक्सिकन लोगों ने इसकी कताई की और पहना । मसालों, सोने और चांदी के साथ-साथ कपास भी ओल्ड वर्ल्ड का एक खजाना था जिसे उपनिवेशवादियोें द्वारा लूटा गया ।
    कपास की इसी लूट और व्यापारीकरण ने गुलामी की बदनुमा व अक्षम्य प्रथा को बढ़ावा दिया । जब युरोपीय लोगों ने अमरीका की खोज की उसके अधिकांश दक्षिणी इलाकों को कपास के खेतों में तब्दील किया, तब उन्हें मजदूरों की जरूरत पड़ी । सन १७०० और १९०० के दरम्यान ही कम से कम ४० लाख अफ्रीकियों को गुलाम बनाकर यूएस भेजा गया जहां उनकी खरीद-फरोख्त जानवरों की तरह हुई ताकि कपास के खेतों के लिए मजदूर मिल सकें ।
    इसके परिणामस्वरूप कपास का फलता-फू लता कारोबार अस्तित्व में आया । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक अमरीका प्रति वर्ष २ अरब टन कपास का निर्यात करने लगा था । इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाजें तो उठती रही थीं, मगर इसने एक गृह युद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली, तब राष्ट्रपति लिंकन ने हस्तक्षेप किया, युद्ध में फतह हासिल की और देश का एकीकरण किया ।
    मगर इस बात का श्रेय तो अश्वेत लोगों (और उनके गोरे समर्थकों) को जाता है, जिन्होंने गांधीवादी मार्टिन लुथर किंग के नेतृत्व में संघर्ष करते हुए अश्वेत और श्वेत लोगों के लिए समान अधिकारों का सपना साकार किया । ये वही मार्टिन लुथर किंग हैं, जिनका सपना साकार था कि हम होंगे कामयाब एक दिन, हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन ।
    भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रमुख खोज केलिको थी । केलिको कोजिकोड में बनाया जाने वाला एक कपड़ा था जिसमें कपास के रेशे और बीज के छिलकों का उपयोग किया जाता था । केलिको नाम कालीकट से आया ।
    कंपनी और उसके बाद स्थापित हुए ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय (तथा मिस्त्री) कपास के दम पर सालाना करोड़ों पाउण्ड कमाए    थे । और जब औद्योगिक क्रांति के दौरान इंग्लैण्ड में कपड़े के कारखाने स्थापित हुए, तो सूती वस्त्र ज्यादा महीन हो गया और उसकी मांग बढ़ गई । भारतीय सूती कपड़ों की कीमत भारत में गिर गई और इंग्लैण्ड में भी, जहां इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ।
    गांधीजी ने मिलों में बने सूत के सांस्कृतिक महत्व को भी पहचाना और यह भी समझा कि इसमें कितना शोषण निहित है । इस समझ के आधार पर उन्होनेंचरखे और खादी को अपनाया । आर्थिक महत्व तो इसका था ही, इसने जो राष्ट्रीय गौरव और देशभक्ति पैदा की वह आज भी कायम है ।
    कपास ने क्रमिक या धीमा परिवर्तन पैदा नहीं किया । इसने तो एक झटकेदार परिवर्तन पैदा किया था जिसका गहरा असर भारतीय राष्ट्रीयता पर हुआ था । ऐसे में, यह कितना अन्यायपूर्ण है कि ढाई लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है क्योंकि वे वह कर्ज नहीं चुका पाए जो उन्होंने कपास पैदा करने के लिए लिया था । यह विचारणीय प्रश्न है ?      

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