सोमवार, 13 अगस्त 2012

ज्ञान विज्ञान
क्या यह पक्षी खेती करता है ?

    हाल में एक अध्ययन के नतीजे प्रकाशित हुए हैं, जिनसे लगता है कि एक पक्षी है जो अपने घोंसले के आसपास पौधे उगाता है । और इस जंगल से तय होता है कि वह नर पक्षी साथी ढूंढने में कितना सफल होगा । अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या वह जानबूझकर यह जंगल रोपता है । 

         धब्बेदार बॉवरबर्ड  का नर तिनके जोड़- जोड़कर एक घोंसला बनाता हैं । यह कुटिया बनाने के बाद वह इसे तरह-तरह की चीजों से सजाता है ताकि किसी मादा को रिझा सके । सजावट की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु सोलेनम एलिप्टिम नामक पौधे की बेरियां होती हैं । और लगता है कि अपने घोंसले को सजाने के चक्कर में यह पक्षी उस इलाके में पौधों के वितरण को बदल रहा है ।
    यूके के एक्सेटर विश्वविद्यालय के जोआ मैडन ने ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैण्ड क्षेत्र में सोलेनम एलिप्टिम के वितरण का अध्ययन किया यह क्षेत्र धब्बेदार बॉवर पक्षी का प्राकृतवास है । हालांकि ये पक्षी अपना घोंसला उन जगहों पर नहीं बनाते जहां सोलेनम एलिप्टिम की बहुतायत हो, मगर घोंसला बनाने के एक साल बाद हर घोंसले के आसपास औसतन ४० सोलेनम एलिप्टिम पौधे पाए गए ।  जिन पक्षियों के घोसलों के आसपास ज्यादा पौधे थे उनके घोसलों में बेरियां भी ज्यादा पाई गई । मैडन यह तो पहले ही देख चुके थे कि बेरियों की संख्या के आधार पर नर पक्षी की संतानोत्पत्ति में सफलता का अच्छा अनुमान लगाया जा सकता है । तो मैडन का अनुमान है कि मुख्य काम घोंसले में बेरियां इकट्टी करना है । जो बेरियां मुरझा जाती हैं उन्हें यह पक्षी घोंसले से बाहर फेंक देता होगा और वे वहां उग आती होगी ।
    इस तरह से बॉवर पक्षी इलाके में सोलेनम एलिप्टिम के वितरण को बदल रहा है  । मगर क्या इसे खेती करना कहेंगे? खुद मैडन मानते हैं कि उक्त परिणामों के आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह पक्षी जानबूझकर पौधे रोप रहा है । मगर साथ ही वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि मनुष्य द्वारा खेती की शुरूआत अनायास ही हुई थी । तो फिर बॉवर पक्षी के क्रियाकलापोंको भी प्रारंभिक खेती क्यों नहीं माना जा सकता ?

पहाड़ों पर पैदा की सब्जियों की ७८ किस्में

    लद्दाख के बर्फीले रेगिस्तान में हमारे होनहार रक्षा वैज्ञानिकों ने सब्जियों की ७८ किस्में विकसित करने का कारनामा कर दिखाया है । अब उनकी मंजिल १०० किस्मों के गिनीज वर्ल्ड बुक में नाम दर्ज कराना है ।
     रक्षा वैज्ञानिकों  ने लद्दाख के बेहद ऊंचाई वाले बर्फानी रेगिस्तान में सब्जियों की ७८ किस्में विकसित कर, लिम्का बुक वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान बना लिया है और अब वे १०० किस्मों के साथ गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉड्र्स में नाम दर्ज कराने की तैयारी कर रहें है ।







    




लेह में रक्षा अनुसंधान विकास संगठन की प्रयोगशाला ने यह उपलब्धि हासिल की है । इस प्रयोगशाला ने समुद्र तल से करीब १२ हजार फीट की ऊंचाई पर सब्जियों की ये किस्में उगाने का कीर्तिमान बनाया है । रक्षा उच्च् क्षेत्र शोध संस्थान, दिहार की प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने तीन मामलों में लिम्का बुक में स्थान बनाया है । पहली बात तो यह कि यह विश्व की सबसे ऊंचे स्थान पर काम करने वाली कृषि एवं पशुपालन प्रयोगशाला है और दूसरे उसने ५ किलो वजन का बड़े आकार का आलू उगाने में कामयाबी हासिल की है । तीसरे इस प्रयोगशाला ने सब्जियों की ७८ किस्में इस क्षेत्र में उगा ली हैं, जबकि दो दशक पहले तक वहां सिर्फ चार-पांच सब्जियां ही उगाई जा सकती थी । दिहार के निदेशक डॉ. आरबी श्रीवास्तव ने बताया कि अब वे इस क्षेत्र में १०० सब्जियां उगाकर गिनीज बुक ऑफ वल्ड रिकार्ड में स्थान बनाने के लिए जुट गए हैं ।
    अब सियाचिन में तैनात फौजियों के लिए सब्जियों की ५१ प्रतिशत जरूरतें यही से पूरी हो रही है । सियाचिन के सैनिकोंके लिए बाकी हरी सब्जियां चंडीगढ़ से मंगाना पड़ती हैं । वहां से परिवहन की कीमत ही बेहद बढ़ जाती है और एक किलो आलू की कीमत सियाचिन पहुंचते-पहुंचते १०० रूपए हो जाती है । बाहर से मंगाई गई सब्जियां बासी और खराब भी हो जाती है, लेकिन लेह में विकसित किस्मों की सब्जियां तरोताजा हो सैनिकों को मिल जाती है । इस संस्थान की परतापुर की इकाई से हर साल स्थानीय लोगों को बीस हजार पौधे दिए जा रहे हैं, ताकि लद्दाख को हरा-भरा बनाया जा सके । हालांकि, तापमान शून्य से कही २० तो कहीं ४० डिग्री तक नीचे चला जाता है और पौधों को जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है ।

नाले के कचरे से बनेगी जैविक खाद

    देश के प्रमुख परमाणु अनुसंधान संगठन भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बार्क) ने नाले के गंदे कचरे का विकिरण के जरिये शोधन करने और उसे जैविक उर्वरक में तब्दील करने के लिए अपनी प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की योजना बनाई है । इसके लिए बार्क तारापुर में एक प्लांट लगने वाला है, जिसके जरिए परमाणु कचरे को अलग कर उसे रीसाइकिल करने के बाद नए सिरे से उसका बतौर ऊर्जा उपयोग हो सकेगा । 









बार्क के निदेशक शेखर बसु ने कहा है कि बार्क, राज्य सरकारों और विभिन्न नगर निकायों को अपनी प्रौद्योगिकी प्रदान करना चाहता है। खासकर कृषि क्षेत्र में वह सभी संभव तकनीक देने को तैयार है । श्री बसु ने कहा कि हम परमाणु प्रौद्योगिकियों का सामाजिक उपयोग फैलाने के लिए निश्चित रूप से राज्य सरकारों और अन्य संगठनों से संपर्क करना  चाहते हैं । उन्होनें बताया कि महाराष्ट्र के तारापुर में संभवत: अगले साल परमाणु कचरे को अलग करके उसे रीसाइकिल करने वाला प्लांट काम करना शुरू कर देगा । उन्होनें बताया कि खर्च किए गए ईधन का केवल २ से ३ प्रतिशत अवशेष ही परमाणु कचरा होता है । अब इसके ही कुछ हिस्से को अलग करके रीसाइकिल किया जाना है । श्री बसु ने कचरे से उर्वरक बनाने की प्रक्रिया के बारे में कहा कि विकिरण के जरिये नुकसान दायक वैक्टीरिया और अन्य रोगाणुआें को समाप्त् कर दिया जाएगा और बचे हुए कचरे को सूख जाने के बाद जैव उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा ।  इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल गुजरात में एक मल-जल शोधन संयंत्र में हो रहा है । बार्क अब इसके लिए नगर निकायों से संपर्क करना शुरू करेगा । श्री बसु ने कहा कि उनकी संस्था, बीज की अपनी किस्मों तथा कृषि उत्पादों के संरक्षण की तकनीक के प्रसार के लिए देश के कृषि विश्वविद्यालयों से भी बातचीत शुरू  करेगी ।

बढ़ते तापमान से सिकुड़ रही है, पत्तियां

    वैज्ञानिकों का दावा है कि आस्ट्रेलिया में एक झाड़ियों की पत्तियों का आकार छोटा हो गया है और इसका कारण वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान है । एडीलेड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें ने छोटे आकार की पत्तियों वाली होपबुश प्रजातियों का परीक्षण किया जिनका पुराने जमाने में बीयर बनाने में उपयोग होता था ।







    

शोधकर्ता ने पाया कि १९८० के दशक और वर्तमान समय के बीच पत्तियों के आकार में औसत रूप से ०.०८ इंच का अंतर आया है । अध्ययन में शोधकर्ता ग्रेग गुइरिन के हवाले से लाइवसांइस ने कहा कि जलवायु परिवर्तन पर अक्सर भविष्य में असर को लेकर चर्चा की जाती है लेकिन हाल के दशकों में तापमान में आए अंतर ने पारिस्थितिक रूप से असर छोड़ना शुरू कर दिया है । 

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