प्रदेश चर्चा
झारखंड : परम्परा की पुर्नस्थापना
इक्वेशन टीम
झारखंड का मुण्डा समुदाय अनादिकाल से अपनी सामूहिकता की परम्परा के साथ निवास करता रहा है । अंग्रेजों के औपनिवेशिक एवं स्वतंत्र भारत के शासन ने उनकी पारम्परिक जीवन प्रणाली को कमोवेश छिन्न-भिन्न कर दिया था । पिछले कुछ वर्षोमें मुण्डा समुदाय ने एक बार पुन: अपनी परम्पराआें को पुर्नस्थापित करने की ठान ली है ।
झारखंड राज्य के रांची के पठार के पहाड़ी इलाके मेंगांवों में आस्ट्रिक वंशावली का मुण्डा समुदाय जो कि एस्ट्रो-एशियन परिवार की दक्षिणी मुंदरी शाखा की भाषा बोलता है, मुण्डारी खुटकुट्टी गांवों में निवास करता है । बिरसा मुण्डा और उसके अनुयायियों की शहदात के साथ सन् १९०० ई. में उपनिवेश विरोधी लड़ाई समाप्त् तो हो गई परन्तु वनभूमि अधिकारों और उन गांवों को जो कि उग्र प्रतिरोध या उल्गुलान में शामिल हुए थे, को मुण्डाआें के पारम्परिक अधिकार क्षेत्र के रूप मेंमान्यता दे दी गई थी ।
मुण्डा जब पहली बार छोटा नागपुर में बसे तो उन्होनें वन की सफाई कर अपने मूल गांव स्थापित किए जिन्हें खुंट-कट्टी-हटु या मूल निवासियों के परिवारों के गांव के नाम से जाना जाता है । इन गांवों की सीमा के अन्तर्गत सभी जमीनें, पहाड़ियां, जंगल व जलस्त्रोत अथवा भूमि के ऊपर और भूमि के भीतर की सभी वस्तुएं गांव के रहने वाले परिवार यानि खुंटकट्टीदारों की सामूहिक संपत्ति बन गई । एक पूरा जंगल या जंगलों के एक हिस्से को विशेष रूप से ग्राम देवता के लिए आरक्षित रखा गया था और इन्हें सरण या पवित्र उपवन कहा जाता था ।
मुण्डारी खुंटकट्टी पद्धति - उल्गुलान के पश्चात सन् १९०८ में अस्तित्व में आए छोटा नागपुर काश्तकारी (किराएदारी) अधिनियम के अन्तर्गत एक विशेष अध्याय में मुण्डारी खुटकट्टीदारों के अपने गांवों की भूमि, जंगल और जल संसाधनों पर अधिकारों को स्वीकार किया गया है । कानून के अन्तर्गत इन गांवों को विशेष दर्जा दिया गया है और इन गांवों की आदिवासी बंधुता की सामुहिकता के दृष्टिगत इन्हें विशेष काश्तकारी अधिकार भी प्रदान किए गए है ।
प्रारंभिक तौर पर इस तरह के ४४६ गांवों की पहचान की गई थी जो कि आपस में जुड़े पुराने जिलों रांची, सिहंभूम और हजारीबाग में स्थित हैं । रांची जिले की अंतिम बंदोबस्ती सर्वेक्षण रिपोर्ट में रहस्योद्घाटन किया गया है कि अब मात्र १५६ गांव ऐसे बचे हैं जिनमें बाहरी गैर आदिवासियों (डिकुआें) का अतिक्रमण नहीं हुआ है । बाकी गांवों को विभक्त खंुटकुट्टी गांव के रूप में जाना जाता है तथा अब ये सामान्य राजस्व गांव हैं ।
मुण्डारी खंुटकुट्टी काश्तकारी एक अनूठी कृषि व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत मुण्डाआें को महज काश्तकार या किराएदार भर नहीं समझा जाता बल्कि उन्हें संपूर्ण पैतृक भूमि जिसमें जंगल और जलस्त्रोत भी शामिल हैं का पूर्ण स्वामी समझा जाता है । उन्हें राज्य को कर भुगतान करने की आवश्यकता भी नहीं हैं । गांव के सभी साथी सामूहिक रूप बहुत थोड़ी-सी रकम सहयोग के रूप में राज्य को देते है । स्थानीय तौर पर इसे चंदा कहा जाता है । यहां पर कृषि और झूम का स्वामित्व तो सामूहिक होता है लेकिन उन पर नियंत्रण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत परिवारोंका ही रहता है । लेकिन वनों का स्वामित्व और प्रबंधन दोनों ही सामूहिक होता है ।
मुण्डारी खुंटकट्टी ग्राम वनों का प्रबंधन - खंुटकुट्टी समूह के प्रत्येक सदस्य को उसकी आवश्यकतानुसार घरेलू एवं कृषि कार्योहेतु ग्रामवनों से लकड़ी काटने और ले जाने का अधिकार है । केवलप्रजा होरोको (मेहमान निवासियों) को कुछ मामलों में इस हेतु खंुटकुट्टीदारों से अनुमति लेना होती है । सामान्यतया चैत या बैसाख (मार्च से मई तक) वर्षा पूर्व के महीनों में कई मुण्डा गांवों में पहान (प्रधान) एक दिन निश्चित कर ग्रामीणों को ग्राम वनों में प्रविष्ट करा देते हैं । साथ ही उन्हें निर्देशित कर दिया जाता है कि वे जंगल के एक विशिष्ट क्षेत्र से अपनी साल भर की जरूरत के आधार पर ईधन के लिए व इमारती लकड़ियां काट लें और जंगल के दूसरोंभागों को आने वाले वर्षो में इसी तरह की कार्यवाही के लिए बिना छेड़े छोड़ दें । इस प्रक्रिया मेंजब जंगल के आखिरी हिस्से के कटने की बारी आती है तब तक सबसे पहले इस्तेमाल मेंआया क्षेत्र एक टिकाउ जंगल के रूप में विकसित हो गया होता है । मुण्डा आज तक इस प्रक्रिया का पालन कर रहे हैं ।
औपनिवेशिक शासन के पूर्व यह पद्धति पूरे झारखंड मेंप्रचलन में थी । ब्रिटिश औपनिवेशक प्रशासन ने जंगलों पर राज्य का स्वामित्व और राज्य प्रबंधन लागू कर इस पद्धति को नष्ट कर डाला । भूमिहारी क्षेत्रों में जमींदारों को जंगलों का संरक्षक बना दिया और जिन क्षेत्रों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया वहां के वनों का प्रबंधन वन विभाग को सौंप दिया गया । केवल मुण्डारी खंुटकुट्टी क्षेत्र में अभी भी पुरानी पद्धति प्रचलन में है लेकिन अब वह भी कम होती जा रही है ।
जमींदारी प्रथा का प्रभाव - जैसे-जैसे जमींदारी गांवों के आसपास स्थिति जंगल नष्ट होते गए वैस-वैसे लोग अधिकाधिक मुण्डारी खंुटकुट्टी वनों पर निर्भर होते चले गए । इसके अलावा लकड़ी की एक उत्पाद के रूप मेंमांग बढ़ने से ठेकेदारों ने भी इन जंगलों में घुसपैठ आरंभ कर दी । कई ग्रामीण मुण्डा स्वयं वन प्रबंधन के पुराने नियमोंको तोड़ने वाले बन गए ।
अंग्रेजों ने सन् १७५७ के स्थायी बंदोबस्ती के दौरान प्रारंभ की गई जमींदारी पद्धति के अन्तर्गत झारखंड मेंनिजी संपत्ति के विचार या धारणा को थोपा । मुण्डारी खंुटकुट्टी भूमि का निजीकरण एक वास्तविकता बन गई जिससे स्वामित्व की पुरानी पद्धति और आर्थिक संबंध छिन्न-भिन्न हो गए और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक बिखराव भी हुआ । आंतरिक विकास के फलस्वरूप वनों का दोनों घरेलू एवं वाणिज्यिक उद्देश्यों से अत्यधिक शोषण हुआ जिसके परिणामस्वरूप वनों का ह्ास भी हुआ ।
वन विभाग द्वारा नियंत्रण - आजादी के पश्चात् सन् १९५० के आरंभिक दशक मेंपूर्व से ही अुसरक्षित मुण्डारी खंुटकट्टी वनों को वन विभाग के प्रबंधन में ले आया गया । वनों को समुदायों द्वारा सहेजे जाने को उस वक्त जबरदस्त झटका लगा जबकि वन विभाग ने वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन प्रारंभ किया । जंगल की नई संस्कृति (सिल्वीकल्चर) और व्यावसायिक मूल्य वाले पौधों के रोपण ने जंगलों का चरित्र ही बदल डाला । जंगलों से जानवर तो पूरी तरह से खत्म हो गए । इतना हीं नहीं इससे उनके झूम खेती के एवं पड़त या बंजर वन भूमि के बदले उपजाऊ भूमि पुन: प्राप्त् करने के अधिकार पर भी रोक लगा गई । वन विभाग और इसके सहयोगी वन माफिया के आपसी गठजोड़ ने मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली के मूलस्वरूप को ही नष्ट कर दिया ।
बदलाव - वैसे दमदार झारखंड आंदोलन और बिहार से अलग होकर झारखंड के एक नए राज्य के रूप मेंगठन की पृष्ठभूमि में स्थितियों में बदलाव आने लगे हैं । मुण्डारी खुंटकट्टी गांव के मुण्डाआें ने सांस्कृतिक विलुिप्त् के आसन्न संकट से बचने के लिए अब कमर कस ली है । उन्होंने प्रत्येक गांव में वन संरक्षण समिति की स्थापना कर ली है एवं वनविभाग के अधिकारों को नकारते हुए अपने पारम्परिक सामुदायिक वन प्रबंधन प्रणाली को पुनर्जीवित कर लिया है । वनों पर सामुदायिक अधिकारों की पुर्नस्थापना एवं वनों से वन विभाग के अधिकारियों को बाहर खदेड़ने के लिए एक सशक्त जनआंदोलन खड़ा हो गया है । मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली का पुनर्जागरण सन २००० में स्थापित एक संघर्ष समूह झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन (जेजेबीए) के माध्यम से संभव हो पाया है ।
समुदाय आधारित वन प्रबंधन एवं जीविका के अवसर - झारखंड जंगल बचाआेंआंदोलन ने अपने अधिकारों की पुन: प्रािप्त् हेतु सर्वोच्च् न्यायालय में अपील की थी लेकिन याचिका को झारखंड उच्च् न्यायालय में भेज दिया गया है । उपरोक्त याचिका पर निर्णय की अभी भी प्रतीक्षा है । लेकिन मुण्डारी खुंटकट्टी गांवों के पारम्परिक वन प्रबंधन के पुनर्निर्माण का काम शुरू भी कर दिया गया है । वैसे वन अधिकार अधिनियम २००६ एक वन निवासी को घर एवं कृषि योग्य भूमि के साथ ही साथ वन संसाधनोंपर समुदाय के अधिकारों को तो मान्यता देता है लेकिन यह वन पर निर्भर व्यक्तियों को स्वामित्व के अधिकारों के मसले पर कमजोर है तथा इसमें वन प्रबंधन में समुदायों के अधिकारों को लेकर भी अस्पष्टता है ।
झारखंड : परम्परा की पुर्नस्थापना
इक्वेशन टीम
झारखंड का मुण्डा समुदाय अनादिकाल से अपनी सामूहिकता की परम्परा के साथ निवास करता रहा है । अंग्रेजों के औपनिवेशिक एवं स्वतंत्र भारत के शासन ने उनकी पारम्परिक जीवन प्रणाली को कमोवेश छिन्न-भिन्न कर दिया था । पिछले कुछ वर्षोमें मुण्डा समुदाय ने एक बार पुन: अपनी परम्पराआें को पुर्नस्थापित करने की ठान ली है ।
झारखंड राज्य के रांची के पठार के पहाड़ी इलाके मेंगांवों में आस्ट्रिक वंशावली का मुण्डा समुदाय जो कि एस्ट्रो-एशियन परिवार की दक्षिणी मुंदरी शाखा की भाषा बोलता है, मुण्डारी खुटकुट्टी गांवों में निवास करता है । बिरसा मुण्डा और उसके अनुयायियों की शहदात के साथ सन् १९०० ई. में उपनिवेश विरोधी लड़ाई समाप्त् तो हो गई परन्तु वनभूमि अधिकारों और उन गांवों को जो कि उग्र प्रतिरोध या उल्गुलान में शामिल हुए थे, को मुण्डाआें के पारम्परिक अधिकार क्षेत्र के रूप मेंमान्यता दे दी गई थी ।
मुण्डा जब पहली बार छोटा नागपुर में बसे तो उन्होनें वन की सफाई कर अपने मूल गांव स्थापित किए जिन्हें खुंट-कट्टी-हटु या मूल निवासियों के परिवारों के गांव के नाम से जाना जाता है । इन गांवों की सीमा के अन्तर्गत सभी जमीनें, पहाड़ियां, जंगल व जलस्त्रोत अथवा भूमि के ऊपर और भूमि के भीतर की सभी वस्तुएं गांव के रहने वाले परिवार यानि खुंटकट्टीदारों की सामूहिक संपत्ति बन गई । एक पूरा जंगल या जंगलों के एक हिस्से को विशेष रूप से ग्राम देवता के लिए आरक्षित रखा गया था और इन्हें सरण या पवित्र उपवन कहा जाता था ।
मुण्डारी खुंटकट्टी पद्धति - उल्गुलान के पश्चात सन् १९०८ में अस्तित्व में आए छोटा नागपुर काश्तकारी (किराएदारी) अधिनियम के अन्तर्गत एक विशेष अध्याय में मुण्डारी खुटकट्टीदारों के अपने गांवों की भूमि, जंगल और जल संसाधनों पर अधिकारों को स्वीकार किया गया है । कानून के अन्तर्गत इन गांवों को विशेष दर्जा दिया गया है और इन गांवों की आदिवासी बंधुता की सामुहिकता के दृष्टिगत इन्हें विशेष काश्तकारी अधिकार भी प्रदान किए गए है ।
प्रारंभिक तौर पर इस तरह के ४४६ गांवों की पहचान की गई थी जो कि आपस में जुड़े पुराने जिलों रांची, सिहंभूम और हजारीबाग में स्थित हैं । रांची जिले की अंतिम बंदोबस्ती सर्वेक्षण रिपोर्ट में रहस्योद्घाटन किया गया है कि अब मात्र १५६ गांव ऐसे बचे हैं जिनमें बाहरी गैर आदिवासियों (डिकुआें) का अतिक्रमण नहीं हुआ है । बाकी गांवों को विभक्त खंुटकुट्टी गांव के रूप में जाना जाता है तथा अब ये सामान्य राजस्व गांव हैं ।
मुण्डारी खंुटकुट्टी काश्तकारी एक अनूठी कृषि व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत मुण्डाआें को महज काश्तकार या किराएदार भर नहीं समझा जाता बल्कि उन्हें संपूर्ण पैतृक भूमि जिसमें जंगल और जलस्त्रोत भी शामिल हैं का पूर्ण स्वामी समझा जाता है । उन्हें राज्य को कर भुगतान करने की आवश्यकता भी नहीं हैं । गांव के सभी साथी सामूहिक रूप बहुत थोड़ी-सी रकम सहयोग के रूप में राज्य को देते है । स्थानीय तौर पर इसे चंदा कहा जाता है । यहां पर कृषि और झूम का स्वामित्व तो सामूहिक होता है लेकिन उन पर नियंत्रण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत परिवारोंका ही रहता है । लेकिन वनों का स्वामित्व और प्रबंधन दोनों ही सामूहिक होता है ।
मुण्डारी खुंटकट्टी ग्राम वनों का प्रबंधन - खंुटकुट्टी समूह के प्रत्येक सदस्य को उसकी आवश्यकतानुसार घरेलू एवं कृषि कार्योहेतु ग्रामवनों से लकड़ी काटने और ले जाने का अधिकार है । केवलप्रजा होरोको (मेहमान निवासियों) को कुछ मामलों में इस हेतु खंुटकुट्टीदारों से अनुमति लेना होती है । सामान्यतया चैत या बैसाख (मार्च से मई तक) वर्षा पूर्व के महीनों में कई मुण्डा गांवों में पहान (प्रधान) एक दिन निश्चित कर ग्रामीणों को ग्राम वनों में प्रविष्ट करा देते हैं । साथ ही उन्हें निर्देशित कर दिया जाता है कि वे जंगल के एक विशिष्ट क्षेत्र से अपनी साल भर की जरूरत के आधार पर ईधन के लिए व इमारती लकड़ियां काट लें और जंगल के दूसरोंभागों को आने वाले वर्षो में इसी तरह की कार्यवाही के लिए बिना छेड़े छोड़ दें । इस प्रक्रिया मेंजब जंगल के आखिरी हिस्से के कटने की बारी आती है तब तक सबसे पहले इस्तेमाल मेंआया क्षेत्र एक टिकाउ जंगल के रूप में विकसित हो गया होता है । मुण्डा आज तक इस प्रक्रिया का पालन कर रहे हैं ।
औपनिवेशिक शासन के पूर्व यह पद्धति पूरे झारखंड मेंप्रचलन में थी । ब्रिटिश औपनिवेशक प्रशासन ने जंगलों पर राज्य का स्वामित्व और राज्य प्रबंधन लागू कर इस पद्धति को नष्ट कर डाला । भूमिहारी क्षेत्रों में जमींदारों को जंगलों का संरक्षक बना दिया और जिन क्षेत्रों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया वहां के वनों का प्रबंधन वन विभाग को सौंप दिया गया । केवल मुण्डारी खंुटकुट्टी क्षेत्र में अभी भी पुरानी पद्धति प्रचलन में है लेकिन अब वह भी कम होती जा रही है ।
जमींदारी प्रथा का प्रभाव - जैसे-जैसे जमींदारी गांवों के आसपास स्थिति जंगल नष्ट होते गए वैस-वैसे लोग अधिकाधिक मुण्डारी खंुटकुट्टी वनों पर निर्भर होते चले गए । इसके अलावा लकड़ी की एक उत्पाद के रूप मेंमांग बढ़ने से ठेकेदारों ने भी इन जंगलों में घुसपैठ आरंभ कर दी । कई ग्रामीण मुण्डा स्वयं वन प्रबंधन के पुराने नियमोंको तोड़ने वाले बन गए ।
अंग्रेजों ने सन् १७५७ के स्थायी बंदोबस्ती के दौरान प्रारंभ की गई जमींदारी पद्धति के अन्तर्गत झारखंड मेंनिजी संपत्ति के विचार या धारणा को थोपा । मुण्डारी खंुटकुट्टी भूमि का निजीकरण एक वास्तविकता बन गई जिससे स्वामित्व की पुरानी पद्धति और आर्थिक संबंध छिन्न-भिन्न हो गए और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक बिखराव भी हुआ । आंतरिक विकास के फलस्वरूप वनों का दोनों घरेलू एवं वाणिज्यिक उद्देश्यों से अत्यधिक शोषण हुआ जिसके परिणामस्वरूप वनों का ह्ास भी हुआ ।
वन विभाग द्वारा नियंत्रण - आजादी के पश्चात् सन् १९५० के आरंभिक दशक मेंपूर्व से ही अुसरक्षित मुण्डारी खंुटकट्टी वनों को वन विभाग के प्रबंधन में ले आया गया । वनों को समुदायों द्वारा सहेजे जाने को उस वक्त जबरदस्त झटका लगा जबकि वन विभाग ने वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन प्रारंभ किया । जंगल की नई संस्कृति (सिल्वीकल्चर) और व्यावसायिक मूल्य वाले पौधों के रोपण ने जंगलों का चरित्र ही बदल डाला । जंगलों से जानवर तो पूरी तरह से खत्म हो गए । इतना हीं नहीं इससे उनके झूम खेती के एवं पड़त या बंजर वन भूमि के बदले उपजाऊ भूमि पुन: प्राप्त् करने के अधिकार पर भी रोक लगा गई । वन विभाग और इसके सहयोगी वन माफिया के आपसी गठजोड़ ने मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली के मूलस्वरूप को ही नष्ट कर दिया ।
बदलाव - वैसे दमदार झारखंड आंदोलन और बिहार से अलग होकर झारखंड के एक नए राज्य के रूप मेंगठन की पृष्ठभूमि में स्थितियों में बदलाव आने लगे हैं । मुण्डारी खुंटकट्टी गांव के मुण्डाआें ने सांस्कृतिक विलुिप्त् के आसन्न संकट से बचने के लिए अब कमर कस ली है । उन्होंने प्रत्येक गांव में वन संरक्षण समिति की स्थापना कर ली है एवं वनविभाग के अधिकारों को नकारते हुए अपने पारम्परिक सामुदायिक वन प्रबंधन प्रणाली को पुनर्जीवित कर लिया है । वनों पर सामुदायिक अधिकारों की पुर्नस्थापना एवं वनों से वन विभाग के अधिकारियों को बाहर खदेड़ने के लिए एक सशक्त जनआंदोलन खड़ा हो गया है । मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली का पुनर्जागरण सन २००० में स्थापित एक संघर्ष समूह झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन (जेजेबीए) के माध्यम से संभव हो पाया है ।
समुदाय आधारित वन प्रबंधन एवं जीविका के अवसर - झारखंड जंगल बचाआेंआंदोलन ने अपने अधिकारों की पुन: प्रािप्त् हेतु सर्वोच्च् न्यायालय में अपील की थी लेकिन याचिका को झारखंड उच्च् न्यायालय में भेज दिया गया है । उपरोक्त याचिका पर निर्णय की अभी भी प्रतीक्षा है । लेकिन मुण्डारी खुंटकट्टी गांवों के पारम्परिक वन प्रबंधन के पुनर्निर्माण का काम शुरू भी कर दिया गया है । वैसे वन अधिकार अधिनियम २००६ एक वन निवासी को घर एवं कृषि योग्य भूमि के साथ ही साथ वन संसाधनोंपर समुदाय के अधिकारों को तो मान्यता देता है लेकिन यह वन पर निर्भर व्यक्तियों को स्वामित्व के अधिकारों के मसले पर कमजोर है तथा इसमें वन प्रबंधन में समुदायों के अधिकारों को लेकर भी अस्पष्टता है ।
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