अर्थ जगत
जमीनों पर कॉरपोरेट घरानों का मालिकाना हक
डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी
अर्थतन्त्र और राजकाज पर देशी विदेशी कॉरपोरेट घराने काफी हद तक अपनी पकड़ मजबूत कर चुके हैं । उन्होंने न केवल हर क्षेत्र में प्रभावी ढंग से अपना नियन्त्रण बढ़ा लिया है, बल्कि वे यहाँ के मानस को भी सम्मोहित, दिग्भ्रमित या प्रदूषित कर चुके हैं । वे हमारे जलस्त्रोतों, जंगलों, भूभागों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों पर नजरें गड़ाये और तरह तरह के षडयन्त्र करके वे उन्हें अपने कब्जे में लेते भी जा रहे हैं। उनके दबाव में आकर सरकारें ऐसी नीतियाँ बना रही हैं और उन पर तेजी से अमल भी कर रही हैं, जिनसे जनगण की जमीनें औनेपौने दामों पर बिक रही हैं और उन्हें खरीद रहे हैं ये कॉरपोरेट महादैत्य।
लोगों की जमीन पर सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गये थे, जिनका प्रमुख उद्देश्य था औद्योगीकरण के लिए देश में सुविस्तृत आधारभूत ढाँचे का निर्माण और इसके साथ ही, रोजगार सृजन । ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके उत्तराधिकारी ब्रिटिश राज्य उपनिवेशवाद द्वारा रौंदे जाने के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था में अकूत पैमाने पर अनौद्यीकरण हुआ था ।
जमीनों पर कॉरपोरेट घरानों का मालिकाना हक
डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी
अर्थतन्त्र और राजकाज पर देशी विदेशी कॉरपोरेट घराने काफी हद तक अपनी पकड़ मजबूत कर चुके हैं । उन्होंने न केवल हर क्षेत्र में प्रभावी ढंग से अपना नियन्त्रण बढ़ा लिया है, बल्कि वे यहाँ के मानस को भी सम्मोहित, दिग्भ्रमित या प्रदूषित कर चुके हैं । वे हमारे जलस्त्रोतों, जंगलों, भूभागों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों पर नजरें गड़ाये और तरह तरह के षडयन्त्र करके वे उन्हें अपने कब्जे में लेते भी जा रहे हैं। उनके दबाव में आकर सरकारें ऐसी नीतियाँ बना रही हैं और उन पर तेजी से अमल भी कर रही हैं, जिनसे जनगण की जमीनें औनेपौने दामों पर बिक रही हैं और उन्हें खरीद रहे हैं ये कॉरपोरेट महादैत्य।
लोगों की जमीन पर सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गये थे, जिनका प्रमुख उद्देश्य था औद्योगीकरण के लिए देश में सुविस्तृत आधारभूत ढाँचे का निर्माण और इसके साथ ही, रोजगार सृजन । ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके उत्तराधिकारी ब्रिटिश राज्य उपनिवेशवाद द्वारा रौंदे जाने के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था में अकूत पैमाने पर अनौद्यीकरण हुआ था ।
स्वतन्त्रता मिलने के बाद स्थापित किये गये सार्वजनिक उपक्रमों ने देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये व्यापक औद्योगिक आधार सृजित किया। लेकिन विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और गैट/डब्ल्यूटीओ की नापाक तिकड़ी द्वारा कॉरपोरेट-नीत बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के विस्तार के लिये थोपे गये 'वाशिंगटन कन्सेन्सस` समर्थित ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम देशी विदेशी भीमकाय कम्पनी बहादुरों के सामने घुटने टेक चुके रीढ़विहीन व बौने नेतृत्व; तथा ब्रिटिश राज्य उपनिवेशवाद की गुलामी की विरासत ढो रही भ्रष्ट व निकम्मी नौकर शाही के चलते इन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के सितारे गर्दिश में डूबते गये । इनके पास देश के अत्यन्त महत्वपूर्ण, स्त्रातजिक और चुनिंदा स्थानों पर बेशकीमती जमीनें हैं, जो देशी विदेशी कॉरपोरेट घरानों के निशाने पर हैं।
हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान और स्वतन्त्रता मिलने के काफी बाद तक जमीन का सवाल एक व्यापक मुद्दा रहा है । चाहे सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े समाजकर्मी या गाँधीजन रहे हों, चाहे सोशलिस्ट कार्यकर्ता रहे हों या कम्युनिस्ट कैडर व कामरेड सभी ने जमींदारी के खिलाफ आवाज बुलन्द की थी और सभी ने अपने-अपने ढंग से भूमिही़न खेतिहर मजदूरों व असली किसानों के बीच कृषि भूमि के बँटवारे के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं थीं । लेकिन, आज कार्यदिशा या सोच उल्टी हो गयी है । जमींदारी लौट रही है, और बड़े ही वीभत्स या खूंखार रूपों में । लेकिन, इस बार वह राजे-रजवाड़ों, नवाबों, ताल्लुकेदारों या सामन्तों की नहीं है; बल्कि वह वैश्विक कॉरपोरेट-समूहों की है। मुट्ठीभर स्वाधीनचेता समाजकर्मियों, बुद्धिजीवियों, आन्दो-लनों और संगठनों को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल और स्वैच्छिकगैर-सरकारी संगठन कॉरपोरेट परस्त हो गये हैं ।
अपने संयन्त्र खड़े करने या 'सेज` विकसित करने के लिये कॉरपोरेट घरानों को जमीनें चाहिये । विकास या औद्योगीकरण को गति देने के नाम पर पहले राज्य सरकारें खुद किसानों और आदिवासियों की खेतिहर जमीनों और रिहाइशी इलाकों को जबरन अधिगृहीत करके कॉरपोरेट-समूहों को दे दिया करती थीं । लेकिन, जब किसानों, ग्रामीण जनों और आदिवासियों ने भू-अधिग्रहण और विस्थापन के विरुद्ध अपने संघर्षों को तीव्र और उग्र करना प्रारम्भ कर दिया, तब सरकारों ने औद्योगिक घरानों को यह छूट दे दी कि वे सीधे लोगों से जमीनें खरीद सकते हैं। अगर वे अपनी किसी परियोजना के लिये ७०-८० प्रतिशत तक जमीन खरीद लेने में सफल हो जाते हैं, तो उनके लिए सरकार शेष ३० प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण कर देगी ।
कॉरपोरेट-समूहों को दरअसल अपने भीमकाय औद्योगिक संयन्त्रों या विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए हजारों हेक्टयेर क्षेत्रफल वाला विस्तृत भूभाग चाहिए । ज्यादातर ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जब एक ही स्थान पर इकट्ठी जमीन उन्हें नहीं मिल पाती हैं यानी बीच में एक रोड़ा आ जाता है । कहने का मतलब यह है कि एक ही इलाके में लगभग पास पास उन्हें ऐसे दो हिस्सों में जमीनें मिल जाती हैं कि उनके ठीक बीचो बीच पड़ने वाले भूखण्डों के मालिक अड़ जाते हैं कि वे अपनी जमीनें किसी भी कीमत पर नहीं बेचेंगे । ऐसी स्थिति में सरकार परियोजना के लिए एकमुश्त भूभाग बनाने के नाम पर इन अड़ियल किसानों की जमीनों का जबरन अधिग्रहण करके उन्हें औद्योगिक घरानों के हवाले कर देती है । इस प्रकार तमाम सटे हुए खेतों, बागों, पुरवों, टोलों और गाँवों को मिलाकर परियोजना-स्थल तैयार हो जाता है । न जाने कितनी खेतिहर जमीनें, स्थानीय आबादियाँ और रिहाइशी बस्तियाँ कॉरपोरेट नियन्त्रित व संचालित औद्योगीकरण, केन्द्रीकरण एवं शहरीकरण की भेंट चढ़ती जा रही हैं अर्थात् उन पर आबाद हो रहे हैं । औद्योगिक संयन्त्र, व्यावसायिक, काम्प्लेक्स, हाई-टेक् सिटी, सूचना प्रौद्योगिकी पार्क, इन्फ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर, ग्लोबल बिजनेस स्कूल, सुपर-स्पेशियल्टी हॉस्पिटल तथा स्पेशल इकोनॉमिक जोन जैसे कॉरपोरेट नगर-राज्य ।
अगर कॉरपोरेट घरानों द्वारा जमीनें हड़पने का यह सिलसिला इसी तरह बदस्तूर जारी रहा, तो क्या होगा ? देश की अधिकांश जमीनों पर वे काबिज हो जायेंगे । उन पर वे कायम कर लेंगे, अपनी औद्योगिक व व्यावसायिक नगरियाँ तथा उन पर बसा लेंगे ऐशमंजिलों व ऐशमहफिलों वाली अपनी मायापुरियाँ, जिनमें उन्हीं की शाहंशाही चलेगी । अपने ही देश में न जाने कितने घर परिवार, समुदाय, गाँवगिराँव, मज़दूर, किसान, कामगार, दलित जन, पिछड़े व कमज़ोर तबके और आम लोग बेगाने व खानाबदोश हो जायेंगे । इतने विराट् पैमाने पर विस्थापन होगा, जिसकी अभी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
किसान के लिये खेत सिर्फ जमीन का टुकड़ा-भर नहीं है । खेती किसानी की इसी जमीन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका गुज़र बसर होता आया हैं । आजीविका के अजस्र स्त्रोत तथा धनधान्य या नवदान्य के अक्षय पात्र हैं.. ये खेतखलिहान । किसान की पुश्तैनी धरोहर उससे छीनी जा रही है - कुछ लोभ लालच देकर, मुट ीभर पैसे उसके हाथ में फेंककर या बरगला करके औने पौने दाम पर । वन क्षेत्रों, खेतिहर भूखण्डों, सामुदायिक स्थलों, चरागाहों, स्थानीय निकायों की सार्वजनिक भू सम्पत्तीयों, तथा लोक उपक्रमों की बेशकीमती जमीनों पर तेज़ी से कॉरपोरेट घराने काबिज होते जा रहे हैं ।
देश में खेती किसानी घाटे का सौदा बनती गयी है । एक अध्ययन के अनुसार ४० फीसदी से ज्यादा किसान मजबूरी में खेतीबाड़ी कर रहे हैं । अगर उन्हें रोज़गार का कहीं कोई वैकल्पिक जरिया मिल जाय, तो वे खेती किसानी को टाटा कर देंगे । देश के ऐसे चुनिंदा राज्यों में जहाँ कृषि प्रमुख व्यवसाय है और हरित क्रान्ति का सर्वाधिक लाभ जहाँ खेतिहर आबादी को मिला है; वहाँ प्रकृति-विरोधी गल़त तौर तरीकोंके चलते फसलों के अक्सर विफल हो जाने, महँगे निवेश्य पदार्थों को भारी मात्रा में झोंकते रहने के बावजूद उत्पादकता के लगातार घटते जाने, कृषि उपज का वाजिब मूल्य न मिल पाने, कर्ज में किसानों के बेतरह डूबते जाने तथा बाहर से बेरोकटोक आ रही सस्ती कृषि जिंसों से घरेलू बाजारों के पटते जाने से गाँव के गाँव बिकाऊ हैं और आत्महत्याओं का अन्तहीन सिलसिला जारी है । कृषि क्षेत्र की यह विषम परिस्थिति कॉरपोरेट घरानों के लिये एक बहुत बड़ा वरदान या मुँहमाँगी मुराद साबित हो रही है ।
इधर खेती किसानी पर कॉरपोरेट हमले तेज़ होते गये हैं । हमला चौतरफा है। जहाँ एक ओर बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशनों का गिरोह इस देश की खेतीबाड़ी का काम अपने हाथों में लेना चाहता हैं अर्थात् कॉरपोरेट फार्मिंग व कॉण्ट्रैक्टुफार्मिंग के जरिये वह खेतिहर जमीनों पर काबिज होना चाहता है; और वहीं दूसरी तरफ देशी विदेशी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट औद्योगिक घराने खेती-किसानी की जमीनों पर अपने बड़े-बड़े प्लाण्ट या प्रोजेक्ट लगा रहे हैं । रीयल एस्टेट (जमीन-जायदाद) के कारोबार में देशी विदेशी कॉरपोरेट भूमाफिया उतर चुके हैं । ऐसे सुविधाभोगी विशिष्ट अभिजन और धनीमानी लोग बड़े-बड़े फार्म हाउस स्थापित कर रहे हैं, जिनका कृषिकर्म से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है । कॉलोनाइजरों, बिल्डरों तथा रीयल एस्टेट डेवलपरों का मकड़जाल देशभर में फैलता जा रहा है, जो खेती-किसानी की जमीनों को निगलते जा रहे हैं । ये सब कॉरपोरेट महादैत्यों के दुमछल्ले हैं ।
हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान और स्वतन्त्रता मिलने के काफी बाद तक जमीन का सवाल एक व्यापक मुद्दा रहा है । चाहे सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े समाजकर्मी या गाँधीजन रहे हों, चाहे सोशलिस्ट कार्यकर्ता रहे हों या कम्युनिस्ट कैडर व कामरेड सभी ने जमींदारी के खिलाफ आवाज बुलन्द की थी और सभी ने अपने-अपने ढंग से भूमिही़न खेतिहर मजदूरों व असली किसानों के बीच कृषि भूमि के बँटवारे के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं थीं । लेकिन, आज कार्यदिशा या सोच उल्टी हो गयी है । जमींदारी लौट रही है, और बड़े ही वीभत्स या खूंखार रूपों में । लेकिन, इस बार वह राजे-रजवाड़ों, नवाबों, ताल्लुकेदारों या सामन्तों की नहीं है; बल्कि वह वैश्विक कॉरपोरेट-समूहों की है। मुट्ठीभर स्वाधीनचेता समाजकर्मियों, बुद्धिजीवियों, आन्दो-लनों और संगठनों को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल और स्वैच्छिकगैर-सरकारी संगठन कॉरपोरेट परस्त हो गये हैं ।
अपने संयन्त्र खड़े करने या 'सेज` विकसित करने के लिये कॉरपोरेट घरानों को जमीनें चाहिये । विकास या औद्योगीकरण को गति देने के नाम पर पहले राज्य सरकारें खुद किसानों और आदिवासियों की खेतिहर जमीनों और रिहाइशी इलाकों को जबरन अधिगृहीत करके कॉरपोरेट-समूहों को दे दिया करती थीं । लेकिन, जब किसानों, ग्रामीण जनों और आदिवासियों ने भू-अधिग्रहण और विस्थापन के विरुद्ध अपने संघर्षों को तीव्र और उग्र करना प्रारम्भ कर दिया, तब सरकारों ने औद्योगिक घरानों को यह छूट दे दी कि वे सीधे लोगों से जमीनें खरीद सकते हैं। अगर वे अपनी किसी परियोजना के लिये ७०-८० प्रतिशत तक जमीन खरीद लेने में सफल हो जाते हैं, तो उनके लिए सरकार शेष ३० प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण कर देगी ।
कॉरपोरेट-समूहों को दरअसल अपने भीमकाय औद्योगिक संयन्त्रों या विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए हजारों हेक्टयेर क्षेत्रफल वाला विस्तृत भूभाग चाहिए । ज्यादातर ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जब एक ही स्थान पर इकट्ठी जमीन उन्हें नहीं मिल पाती हैं यानी बीच में एक रोड़ा आ जाता है । कहने का मतलब यह है कि एक ही इलाके में लगभग पास पास उन्हें ऐसे दो हिस्सों में जमीनें मिल जाती हैं कि उनके ठीक बीचो बीच पड़ने वाले भूखण्डों के मालिक अड़ जाते हैं कि वे अपनी जमीनें किसी भी कीमत पर नहीं बेचेंगे । ऐसी स्थिति में सरकार परियोजना के लिए एकमुश्त भूभाग बनाने के नाम पर इन अड़ियल किसानों की जमीनों का जबरन अधिग्रहण करके उन्हें औद्योगिक घरानों के हवाले कर देती है । इस प्रकार तमाम सटे हुए खेतों, बागों, पुरवों, टोलों और गाँवों को मिलाकर परियोजना-स्थल तैयार हो जाता है । न जाने कितनी खेतिहर जमीनें, स्थानीय आबादियाँ और रिहाइशी बस्तियाँ कॉरपोरेट नियन्त्रित व संचालित औद्योगीकरण, केन्द्रीकरण एवं शहरीकरण की भेंट चढ़ती जा रही हैं अर्थात् उन पर आबाद हो रहे हैं । औद्योगिक संयन्त्र, व्यावसायिक, काम्प्लेक्स, हाई-टेक् सिटी, सूचना प्रौद्योगिकी पार्क, इन्फ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर, ग्लोबल बिजनेस स्कूल, सुपर-स्पेशियल्टी हॉस्पिटल तथा स्पेशल इकोनॉमिक जोन जैसे कॉरपोरेट नगर-राज्य ।
अगर कॉरपोरेट घरानों द्वारा जमीनें हड़पने का यह सिलसिला इसी तरह बदस्तूर जारी रहा, तो क्या होगा ? देश की अधिकांश जमीनों पर वे काबिज हो जायेंगे । उन पर वे कायम कर लेंगे, अपनी औद्योगिक व व्यावसायिक नगरियाँ तथा उन पर बसा लेंगे ऐशमंजिलों व ऐशमहफिलों वाली अपनी मायापुरियाँ, जिनमें उन्हीं की शाहंशाही चलेगी । अपने ही देश में न जाने कितने घर परिवार, समुदाय, गाँवगिराँव, मज़दूर, किसान, कामगार, दलित जन, पिछड़े व कमज़ोर तबके और आम लोग बेगाने व खानाबदोश हो जायेंगे । इतने विराट् पैमाने पर विस्थापन होगा, जिसकी अभी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
किसान के लिये खेत सिर्फ जमीन का टुकड़ा-भर नहीं है । खेती किसानी की इसी जमीन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका गुज़र बसर होता आया हैं । आजीविका के अजस्र स्त्रोत तथा धनधान्य या नवदान्य के अक्षय पात्र हैं.. ये खेतखलिहान । किसान की पुश्तैनी धरोहर उससे छीनी जा रही है - कुछ लोभ लालच देकर, मुट ीभर पैसे उसके हाथ में फेंककर या बरगला करके औने पौने दाम पर । वन क्षेत्रों, खेतिहर भूखण्डों, सामुदायिक स्थलों, चरागाहों, स्थानीय निकायों की सार्वजनिक भू सम्पत्तीयों, तथा लोक उपक्रमों की बेशकीमती जमीनों पर तेज़ी से कॉरपोरेट घराने काबिज होते जा रहे हैं ।
देश में खेती किसानी घाटे का सौदा बनती गयी है । एक अध्ययन के अनुसार ४० फीसदी से ज्यादा किसान मजबूरी में खेतीबाड़ी कर रहे हैं । अगर उन्हें रोज़गार का कहीं कोई वैकल्पिक जरिया मिल जाय, तो वे खेती किसानी को टाटा कर देंगे । देश के ऐसे चुनिंदा राज्यों में जहाँ कृषि प्रमुख व्यवसाय है और हरित क्रान्ति का सर्वाधिक लाभ जहाँ खेतिहर आबादी को मिला है; वहाँ प्रकृति-विरोधी गल़त तौर तरीकोंके चलते फसलों के अक्सर विफल हो जाने, महँगे निवेश्य पदार्थों को भारी मात्रा में झोंकते रहने के बावजूद उत्पादकता के लगातार घटते जाने, कृषि उपज का वाजिब मूल्य न मिल पाने, कर्ज में किसानों के बेतरह डूबते जाने तथा बाहर से बेरोकटोक आ रही सस्ती कृषि जिंसों से घरेलू बाजारों के पटते जाने से गाँव के गाँव बिकाऊ हैं और आत्महत्याओं का अन्तहीन सिलसिला जारी है । कृषि क्षेत्र की यह विषम परिस्थिति कॉरपोरेट घरानों के लिये एक बहुत बड़ा वरदान या मुँहमाँगी मुराद साबित हो रही है ।
इधर खेती किसानी पर कॉरपोरेट हमले तेज़ होते गये हैं । हमला चौतरफा है। जहाँ एक ओर बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशनों का गिरोह इस देश की खेतीबाड़ी का काम अपने हाथों में लेना चाहता हैं अर्थात् कॉरपोरेट फार्मिंग व कॉण्ट्रैक्टुफार्मिंग के जरिये वह खेतिहर जमीनों पर काबिज होना चाहता है; और वहीं दूसरी तरफ देशी विदेशी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट औद्योगिक घराने खेती-किसानी की जमीनों पर अपने बड़े-बड़े प्लाण्ट या प्रोजेक्ट लगा रहे हैं । रीयल एस्टेट (जमीन-जायदाद) के कारोबार में देशी विदेशी कॉरपोरेट भूमाफिया उतर चुके हैं । ऐसे सुविधाभोगी विशिष्ट अभिजन और धनीमानी लोग बड़े-बड़े फार्म हाउस स्थापित कर रहे हैं, जिनका कृषिकर्म से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है । कॉलोनाइजरों, बिल्डरों तथा रीयल एस्टेट डेवलपरों का मकड़जाल देशभर में फैलता जा रहा है, जो खेती-किसानी की जमीनों को निगलते जा रहे हैं । ये सब कॉरपोरेट महादैत्यों के दुमछल्ले हैं ।
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