विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
रक्षासूत्र आंदोलन अर्थात वृक्ष भ्रातृत्व
सुरेश भाई
चिपको आंदोलन के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश व वर्तमान उत्तराखण्ड में वृक्षों को वन विभाग की `काली नजर` से बचाने के लिए महिलाओं ने रक्षासूत्र आंदोलन के अंतर्गत वृक्षों को भाई मानकर उनकी रक्षा का संकल्प लिया था । वर्ष १९९४ से प्रारंभ हुआ यह पवित्र कार्य अब तक न केवल लाखों वृक्ष भ्राताओं की रक्षा कर चुका है बल्कि इसके माध्यम से जल जंगल व जमीन की देखरेख की नई सोच भी विकसित हुई है ।
वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के वर्ष १९८३ के चिपको आंदोलन के साथ किए गए समझौते का खुला उल्लंघन कर एक हजार मीटर की ऊंचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को वर्ष १९९४ में यह कहकर हटा दिया था कि हरे पेड़ों के कटान से प्राप्त धन से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जायेगी । वहीं वर्ष १९८३ में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाना था । इसके बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में वर्ष १९८३ से १९९८ के दौरान गौमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चौंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान बचा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारम्भ न हुई हो ।
रक्षासूत्र आंदोलन अर्थात वृक्ष भ्रातृत्व
सुरेश भाई
चिपको आंदोलन के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश व वर्तमान उत्तराखण्ड में वृक्षों को वन विभाग की `काली नजर` से बचाने के लिए महिलाओं ने रक्षासूत्र आंदोलन के अंतर्गत वृक्षों को भाई मानकर उनकी रक्षा का संकल्प लिया था । वर्ष १९९४ से प्रारंभ हुआ यह पवित्र कार्य अब तक न केवल लाखों वृक्ष भ्राताओं की रक्षा कर चुका है बल्कि इसके माध्यम से जल जंगल व जमीन की देखरेख की नई सोच भी विकसित हुई है ।
वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के वर्ष १९८३ के चिपको आंदोलन के साथ किए गए समझौते का खुला उल्लंघन कर एक हजार मीटर की ऊंचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को वर्ष १९९४ में यह कहकर हटा दिया था कि हरे पेड़ों के कटान से प्राप्त धन से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जायेगी । वहीं वर्ष १९८३ में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाना था । इसके बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में वर्ष १९८३ से १९९८ के दौरान गौमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चौंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान बचा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारम्भ न हुई हो ।
वर्ष १९९४ में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के खिलाफ ''रक्षासूत्र आन्दोलन`` प्रारम्भ हुआ । पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया था । यहाँ पर राई, कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, के साथ अनेकों प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं जैव विविधता मौजूद है । इस दौरान पाया कि वन विभाग ने वन निगम के साथ मिलकर हजारों हरे पेड़ों पर छपान (निशान) कर रखा था । वन निगम जंगलांे में रातों-रात अंधाधंुध कटान करवा रहा था ।
इस पर्यावरण दल ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी । सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए और जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा है । इसकी तह में जाने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गये हैंऔर इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही हैं । दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का लिए हुए थे । अतएव ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा ।
इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौंडियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर ''रक्षासूत्र`` बांधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है । रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिये । साथ ही वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठायी गयी थी । इसके चलते ऊँचाई की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की अनेकों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया ।
ऊंचाई पर स्थित वन संपदा के कारण वर्षा नियंत्रित रहती है और नीचे घाटियों की ओर पानी के स्त्रोत निकलकर आते हैं । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों से भाईयों का जैसा रिश्ता बना है । चिपको आन्दोलन की महिला नेत्री गौरा देवी ने जंगलों को अपना मायका कहा है, उसको रक्षासूत्र आन्दोलन ने मूर्त रूप दिया है और प्रभावी रूप से वनों पर जनता के पारम्परिक अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया है । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा प्रस्तावित लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है ।
रक्षासूत्र आन्दोलन ने ''ग्राम वन`` के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया । इसके अन्तर्गत जहां-जहां पर लोग परम्परागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं, ऐसे कई गांवों में ग्राम वन के संरक्षण के लिये भी पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गये । ग्राम वन का प्रबंधन, वितरण व सुरक्षा गांव आधारित चौकीदारी प्रथा से की जाती है । वन चौकीदार का जीवन निर्वाह गांव वालों पर निर्भर रहता है । इसके अंतर्गत गांव वालों की चारापत्ती, खेती, फसल सुरक्षा, जंगली जानवरों से सुरक्षा तथा पड़ोसी गांव से भी जंगल की सुरक्षा की जाती है। इससे महिलाओं को कष्टमय जीवन से राहत मिलती है । वन संरक्षण व संवर्द्धन के साथ-साथ जल संरक्षण के काम को भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया ।
रक्षासूत्र आंदोलन के चलते सामाजिक कार्यकर्ताआेंद्वारा गठित हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने वर्ष १९९५ से लगातार गांव-गांव में महिला संगठनों के साथ ४०० छोटे तालाब बना दिये हैं। इसके साथ ही अग्नि नियंत्रण के लिये भी स्थान-स्थान पर रक्षासूत्र आन्दोलन किया है । परन्तु जब से लोगों को हक-हकूक मिलने कम हुए हैंतब से वनों को आग से बचाये रखना भी चुनौती बनाई गई है ।
रक्षासूत्र आन्दोलन में सैकड़ों बहनों- मन्दोदरी देवी, जेठी देवी, सुशीला पैन्यूली, सुमती नौटियाल, बंसती नेगी, मीना नौटियाल, कुंवरी कलूडा, गंगा देवी रावत, गंगा देवी चौहान, हिमला बहन, उमा देवी, विमला देवी, अनिता देवी और क्षेत्र की तमाम वे महिलायें जो दिखोली, चौदियाट गांव, खवाडा, भेटी, बूढ़ाकेदार, हर्शिल, मुखेम आदि अनेक गांवों से आती है, ने सक्रिय योगदान दिया है । रक्षासूत्र आन्दोलन की सफलता ने वनों के प्रति एक नई दृष्टि को जन्म दिया। इसके बाद उत्तराखण्ड मेंविभिन्न इलाकांे में विभिन्न मुद्दों को लेकर वनान्दोलन चलने लगे । किन्तु रक्षासूत्र आन्दोलन हर वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर वन बचाने हेतु वन सम्मेलन करवाते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र से कार्यकर्ताआें द्वारा वन सम्बन्धी जानकारियां उपलब्ध करवाई जाती हैं ।
आन्दोलन की खास बात यह है कि इससे जुड़े कार्यकर्त्ता अपने-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष सघन वृक्षारोपण के साथ-साथ वनों को बचाने के लिये पेडों के साथ रक्षाबन्धन करते हैं, ताकि लोगों की इन पेड़ों से आत्मीयता बढ़े और वनांे का व्यावसायिक दोहन न हो सके । रक्षासूत्र आन्दोलन द्वारा गि त ''उत्तराखण्ड `` वन अध्ययन जन समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में उन क्षेत्रों का विस्तृत ब्यौरा दिया है जहां पर पिछले १५-२० वर्षो के दौरान अवैध कटान किया गया है । उत्तरप्रदेश वन निगम को प्रतिवर्ष जो करोड़ों रुपयों का लाभ मिलता था उसमें ८० प्रतिशत लाभ उत्तराखण्ड के वनों के कटान से ही प्राप्त होता था ।
गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्वतीय शोध केन्द्र ने रक्षासूत्र की घटनाओं पर एक पुस्तक तैयार की है । नवसृजित उत्तराखण्ड राज्य मेंजलनीति बनाने की जोरदार वकालत रक्षासूत्र आन्दोलन का दल कर चुका है । उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम ने नये राज्य की रीति-नीति के लिये राज्य व्यवस्था को जनता के सुझाव कई दस्तावेजों के माध्यम से सौंपे हैं ।
चिपको आंदोलन के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन पेड़ों का कटान रोकने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जल, जंगल, जमीन की एकीकृत समझ बढ़ाने के प्रति लोगों को जागरूक भी करता आ रहा है ।
इस पर्यावरण दल ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी । सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए और जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा है । इसकी तह में जाने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गये हैंऔर इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही हैं । दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का लिए हुए थे । अतएव ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा ।
इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौंडियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर ''रक्षासूत्र`` बांधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है । रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिये । साथ ही वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठायी गयी थी । इसके चलते ऊँचाई की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की अनेकों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया ।
ऊंचाई पर स्थित वन संपदा के कारण वर्षा नियंत्रित रहती है और नीचे घाटियों की ओर पानी के स्त्रोत निकलकर आते हैं । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों से भाईयों का जैसा रिश्ता बना है । चिपको आन्दोलन की महिला नेत्री गौरा देवी ने जंगलों को अपना मायका कहा है, उसको रक्षासूत्र आन्दोलन ने मूर्त रूप दिया है और प्रभावी रूप से वनों पर जनता के पारम्परिक अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया है । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा प्रस्तावित लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है ।
रक्षासूत्र आन्दोलन ने ''ग्राम वन`` के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया । इसके अन्तर्गत जहां-जहां पर लोग परम्परागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं, ऐसे कई गांवों में ग्राम वन के संरक्षण के लिये भी पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गये । ग्राम वन का प्रबंधन, वितरण व सुरक्षा गांव आधारित चौकीदारी प्रथा से की जाती है । वन चौकीदार का जीवन निर्वाह गांव वालों पर निर्भर रहता है । इसके अंतर्गत गांव वालों की चारापत्ती, खेती, फसल सुरक्षा, जंगली जानवरों से सुरक्षा तथा पड़ोसी गांव से भी जंगल की सुरक्षा की जाती है। इससे महिलाओं को कष्टमय जीवन से राहत मिलती है । वन संरक्षण व संवर्द्धन के साथ-साथ जल संरक्षण के काम को भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया ।
रक्षासूत्र आंदोलन के चलते सामाजिक कार्यकर्ताआेंद्वारा गठित हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने वर्ष १९९५ से लगातार गांव-गांव में महिला संगठनों के साथ ४०० छोटे तालाब बना दिये हैं। इसके साथ ही अग्नि नियंत्रण के लिये भी स्थान-स्थान पर रक्षासूत्र आन्दोलन किया है । परन्तु जब से लोगों को हक-हकूक मिलने कम हुए हैंतब से वनों को आग से बचाये रखना भी चुनौती बनाई गई है ।
रक्षासूत्र आन्दोलन में सैकड़ों बहनों- मन्दोदरी देवी, जेठी देवी, सुशीला पैन्यूली, सुमती नौटियाल, बंसती नेगी, मीना नौटियाल, कुंवरी कलूडा, गंगा देवी रावत, गंगा देवी चौहान, हिमला बहन, उमा देवी, विमला देवी, अनिता देवी और क्षेत्र की तमाम वे महिलायें जो दिखोली, चौदियाट गांव, खवाडा, भेटी, बूढ़ाकेदार, हर्शिल, मुखेम आदि अनेक गांवों से आती है, ने सक्रिय योगदान दिया है । रक्षासूत्र आन्दोलन की सफलता ने वनों के प्रति एक नई दृष्टि को जन्म दिया। इसके बाद उत्तराखण्ड मेंविभिन्न इलाकांे में विभिन्न मुद्दों को लेकर वनान्दोलन चलने लगे । किन्तु रक्षासूत्र आन्दोलन हर वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर वन बचाने हेतु वन सम्मेलन करवाते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र से कार्यकर्ताआें द्वारा वन सम्बन्धी जानकारियां उपलब्ध करवाई जाती हैं ।
आन्दोलन की खास बात यह है कि इससे जुड़े कार्यकर्त्ता अपने-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष सघन वृक्षारोपण के साथ-साथ वनों को बचाने के लिये पेडों के साथ रक्षाबन्धन करते हैं, ताकि लोगों की इन पेड़ों से आत्मीयता बढ़े और वनांे का व्यावसायिक दोहन न हो सके । रक्षासूत्र आन्दोलन द्वारा गि त ''उत्तराखण्ड `` वन अध्ययन जन समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में उन क्षेत्रों का विस्तृत ब्यौरा दिया है जहां पर पिछले १५-२० वर्षो के दौरान अवैध कटान किया गया है । उत्तरप्रदेश वन निगम को प्रतिवर्ष जो करोड़ों रुपयों का लाभ मिलता था उसमें ८० प्रतिशत लाभ उत्तराखण्ड के वनों के कटान से ही प्राप्त होता था ।
गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्वतीय शोध केन्द्र ने रक्षासूत्र की घटनाओं पर एक पुस्तक तैयार की है । नवसृजित उत्तराखण्ड राज्य मेंजलनीति बनाने की जोरदार वकालत रक्षासूत्र आन्दोलन का दल कर चुका है । उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम ने नये राज्य की रीति-नीति के लिये राज्य व्यवस्था को जनता के सुझाव कई दस्तावेजों के माध्यम से सौंपे हैं ।
चिपको आंदोलन के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन पेड़ों का कटान रोकने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जल, जंगल, जमीन की एकीकृत समझ बढ़ाने के प्रति लोगों को जागरूक भी करता आ रहा है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें