जनजीवन
हमारे हित में है संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग
सीताराम गुप्त
कुछ दिन पहले एक विवाहोत्सव में जाना हुआ । भव्य आयोजन था । खाना शुरू करने से पहले हाथ धोने के लिए पानी की तलाश की लेकिन कहीं पर भी पानी नहीं रखा गया था जहाँ सुविधापूर्वक हाथ धोए जा सकें । सब कुछ था सिवाय पानी के ।
पानी कहीं किसी जग या टंकी में उपलब्ध नहीं था लेकिन पानी की प्लास्टिक की बोतलें जरूर रखी थीं । २०० मिलिलीटर पानी से लेकर दो लीटर पानी तक की प्लास्टिक की बोतलें पर्याप्त संख्या में कई काउण्टरों पर सजी थीं । जिसको हाथ धोने होते वो सुविधानुसार हाथ बढ़ाकर कोई एक बोतल उठाता, ढक्कन की सील तोड़ता और हाथों पर कुछ पानी डालकर शेष पानी से भरी बोतल वहीं रखे बड़े-बड़े टबों में फेंक देता था ।
टबों में ही नहीं चारों तरफ ढेर लगा था आंशिक रूप से प्रयुक्त पानी की बोतलों का । उनमें से निकल-निकल कर पानी चारों तरफ फैल रहा था और कीचड़ भी हो रही थी । आजकल जहाँ जाओ कमोबेश यही स्थिति दिखलाई पड़ती है । पानी और पीने योग्य पानी का ये हश्र देखकर जी दुखी हो जाता है । क्या पानी की इस बर्बादी, इस अविवेकपूर्ण उपयोग को रोका नहीं जा सकता? क्या हाथ धोने के लिए सामान्य स्वच्छ जल टोटी लगे जग अथवा टंकियों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? यह असंभव नहीं लेकिन इसके संभव न होने के पीछे कई कारण हैं जो भयंकर हैं ।
हमारे हित में है संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग
सीताराम गुप्त
कुछ दिन पहले एक विवाहोत्सव में जाना हुआ । भव्य आयोजन था । खाना शुरू करने से पहले हाथ धोने के लिए पानी की तलाश की लेकिन कहीं पर भी पानी नहीं रखा गया था जहाँ सुविधापूर्वक हाथ धोए जा सकें । सब कुछ था सिवाय पानी के ।
पानी कहीं किसी जग या टंकी में उपलब्ध नहीं था लेकिन पानी की प्लास्टिक की बोतलें जरूर रखी थीं । २०० मिलिलीटर पानी से लेकर दो लीटर पानी तक की प्लास्टिक की बोतलें पर्याप्त संख्या में कई काउण्टरों पर सजी थीं । जिसको हाथ धोने होते वो सुविधानुसार हाथ बढ़ाकर कोई एक बोतल उठाता, ढक्कन की सील तोड़ता और हाथों पर कुछ पानी डालकर शेष पानी से भरी बोतल वहीं रखे बड़े-बड़े टबों में फेंक देता था ।
टबों में ही नहीं चारों तरफ ढेर लगा था आंशिक रूप से प्रयुक्त पानी की बोतलों का । उनमें से निकल-निकल कर पानी चारों तरफ फैल रहा था और कीचड़ भी हो रही थी । आजकल जहाँ जाओ कमोबेश यही स्थिति दिखलाई पड़ती है । पानी और पीने योग्य पानी का ये हश्र देखकर जी दुखी हो जाता है । क्या पानी की इस बर्बादी, इस अविवेकपूर्ण उपयोग को रोका नहीं जा सकता? क्या हाथ धोने के लिए सामान्य स्वच्छ जल टोटी लगे जग अथवा टंकियों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? यह असंभव नहीं लेकिन इसके संभव न होने के पीछे कई कारण हैं जो भयंकर हैं ।
पेय जल का तो दुरुपयोग होता ही है साथ ही प्लास्टिक की बोतलों का भी बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है । हाथ धोने हैं तो एक बोतल, कुल्लाकरना है तो दूसरी बोतल, भोजन के बीच में पानी पीना है तो तीसरी बोतल, भोजनोपरांत हाथ साफ करने हैं या पानी पीना है तो चौथी व पाँचवीं बोतल...... इस तरह एक आदमी के लिए पाँच-सात बोतलों का अत्यल्प प्रयोग अथवा दुरुपयोग करना सामान्य सी बात है । प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों का प्रयोग करना न केवल पर्यावरण के लिए घातक है अपितु इस्तेमाल करने वाले के लिए भी अस्वास्थ्यकर है इसीलिए प्लास्टिक के उपयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिये ।
आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। आज प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों पर कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं । प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी के प्रयोग को प्रतिष्ठा का प्रतीक या स्टैंडर्ड माना जा रहा है । प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों को प्रतिष्ठित किया जा रहा है । हर कार्यक्रम में कई-कई टैंपों या ट्रक भरकर प्लास्टिक की पानी की बोतलें व गिलास तथा प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्र प्रयोग में लाए जाते हैं । कार्यक्रम खत्म होते-होते इस घातक कचरे के ढेर लग जाते हैं। यह कचरा वजन में अत्यंत हल्का होता है अत: इधर-उधर उड़ता-फिरता रहता है ।
शहरों, कस्बों, गाँवों व समस्त पृथ्वी के सौंदर्य पर कलंक-सा यह कचरा सचमुच त्याज्य है । आज बड़े-बड़े शहरों में ही नहीं कस्बों और गाँवों तक में कूड़े का सही ढंग से निपटारा करना एक बड़ी समस्या हो गई है । कुछ आर्थिक व औद्योगिक विकास की आवश्यकता तथा कुछ बढ़ते बाजारबाद के कारण आज हमारे उपभोग की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है । वस्तुओं की संख्या और मात्रा दोनों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है । यूज़ एण्ड थ्रो संस्कृति के कारण तो स्थिति और भी भयावह होती जा रही है । बढ़ते औद्योगीकरण के कारण संसाधनों का अपरिमित दोहन किया जा रहा है जो हमारे परिवेश और प्राकृतिक संतुलन के लिए घातक है ।
क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह धातु, चीनी मिट्टी अथवा काँच के सुंदर व टिकाऊ, खाने-पीने में सुविधाजनक बर्तनों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ? क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्तोंसे निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग संभव नहीं ? क्या पत्तों से निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग परिवेश के लिए अनुकूल व सुरक्षित नहीं ? क्या इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन संभव नहीं ? क्या इससे प्रकृतिक संसाधनों के दोहन में कमी द्वारा औद्योगीकरण के दुष्परिणामों को कम करना संभव नहीं ? क्या इससे अजैविक अथवा नष्ट न होने वाले कूड़ें-कचेर के अंबार से मुक्ति संभव नहीं ? कुछ भी असंभव नहीं यदि संतुलित दृष्टि व नेक इरादे से कार्य किया जाए ।
क्या प्लास्टिक की बोतलों या गिलासों में बंद पानी की जगह टोटीवाले जगों या टंकियों में शुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? कराया जा सकता है लेकिन दो सौ, तीन सौ या हद से हद पाँच सौ रुपये के पानी के बीस-पच्चीस हजार रुपये तो नहीं बनाए जा सकते । ये घोर बाजारवाद, औद्योगीकरण व व्यावसायीकरण का परिणाम है जिसके कारण लगभग बिना कीमत वाला पानी सौ गुना से ज्यादा कीमत पर बेचा जा रहा है अपितु पानी जैसे बेशकीमती पदार्थ की बर्बादी व प्रदूषण के स्तर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और लोगों के स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ किया जा रहा है ।
कई बार शुद्ध स्वच्छ जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर जो बोतलबंद पानी परोसा जाता है वास्तव में वह पीने के योग्य भी नहीं होता । उसमें से न केवल दुर्गंध आती है अपितु कई बार खारापन अथवा स्वाद भी अजीब-सा होता है । शुद्ध स्वच्छ जल तो गंधहीन, रंगहीन व किसी भी प्रकार के स्वाद से रहित तथा पारदर्शी होता है । शुद्ध जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर प्राय: बोतल में बंद पानी ही होता है जिसकी गुणवत्ता कोई भरोसा नहीं । कई बार सीधे जमीन का कच्च पानी जो पीना तो दूर अन्य प्रयोग के लिए भी उचित नहीं होता बोतलों में भर दिया जाता है । कई बार बोतलबंद पानी इतना खराब होता है कि जो भी बोतल या गिलास खोलकर घूँट भरता है वह उसे गले से नीचे उतारने में असमर्थ होता है । वह न केवल भरी बोतल या गिलास डस्ट बिन में फैंकने को विवश होता है ।
आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। आज प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों पर कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं । प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी के प्रयोग को प्रतिष्ठा का प्रतीक या स्टैंडर्ड माना जा रहा है । प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों को प्रतिष्ठित किया जा रहा है । हर कार्यक्रम में कई-कई टैंपों या ट्रक भरकर प्लास्टिक की पानी की बोतलें व गिलास तथा प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्र प्रयोग में लाए जाते हैं । कार्यक्रम खत्म होते-होते इस घातक कचरे के ढेर लग जाते हैं। यह कचरा वजन में अत्यंत हल्का होता है अत: इधर-उधर उड़ता-फिरता रहता है ।
शहरों, कस्बों, गाँवों व समस्त पृथ्वी के सौंदर्य पर कलंक-सा यह कचरा सचमुच त्याज्य है । आज बड़े-बड़े शहरों में ही नहीं कस्बों और गाँवों तक में कूड़े का सही ढंग से निपटारा करना एक बड़ी समस्या हो गई है । कुछ आर्थिक व औद्योगिक विकास की आवश्यकता तथा कुछ बढ़ते बाजारबाद के कारण आज हमारे उपभोग की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है । वस्तुओं की संख्या और मात्रा दोनों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है । यूज़ एण्ड थ्रो संस्कृति के कारण तो स्थिति और भी भयावह होती जा रही है । बढ़ते औद्योगीकरण के कारण संसाधनों का अपरिमित दोहन किया जा रहा है जो हमारे परिवेश और प्राकृतिक संतुलन के लिए घातक है ।
क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह धातु, चीनी मिट्टी अथवा काँच के सुंदर व टिकाऊ, खाने-पीने में सुविधाजनक बर्तनों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ? क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्तोंसे निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग संभव नहीं ? क्या पत्तों से निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग परिवेश के लिए अनुकूल व सुरक्षित नहीं ? क्या इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन संभव नहीं ? क्या इससे प्रकृतिक संसाधनों के दोहन में कमी द्वारा औद्योगीकरण के दुष्परिणामों को कम करना संभव नहीं ? क्या इससे अजैविक अथवा नष्ट न होने वाले कूड़ें-कचेर के अंबार से मुक्ति संभव नहीं ? कुछ भी असंभव नहीं यदि संतुलित दृष्टि व नेक इरादे से कार्य किया जाए ।
क्या प्लास्टिक की बोतलों या गिलासों में बंद पानी की जगह टोटीवाले जगों या टंकियों में शुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? कराया जा सकता है लेकिन दो सौ, तीन सौ या हद से हद पाँच सौ रुपये के पानी के बीस-पच्चीस हजार रुपये तो नहीं बनाए जा सकते । ये घोर बाजारवाद, औद्योगीकरण व व्यावसायीकरण का परिणाम है जिसके कारण लगभग बिना कीमत वाला पानी सौ गुना से ज्यादा कीमत पर बेचा जा रहा है अपितु पानी जैसे बेशकीमती पदार्थ की बर्बादी व प्रदूषण के स्तर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और लोगों के स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ किया जा रहा है ।
कई बार शुद्ध स्वच्छ जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर जो बोतलबंद पानी परोसा जाता है वास्तव में वह पीने के योग्य भी नहीं होता । उसमें से न केवल दुर्गंध आती है अपितु कई बार खारापन अथवा स्वाद भी अजीब-सा होता है । शुद्ध स्वच्छ जल तो गंधहीन, रंगहीन व किसी भी प्रकार के स्वाद से रहित तथा पारदर्शी होता है । शुद्ध जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर प्राय: बोतल में बंद पानी ही होता है जिसकी गुणवत्ता कोई भरोसा नहीं । कई बार सीधे जमीन का कच्च पानी जो पीना तो दूर अन्य प्रयोग के लिए भी उचित नहीं होता बोतलों में भर दिया जाता है । कई बार बोतलबंद पानी इतना खराब होता है कि जो भी बोतल या गिलास खोलकर घूँट भरता है वह उसे गले से नीचे उतारने में असमर्थ होता है । वह न केवल भरी बोतल या गिलास डस्ट बिन में फैंकने को विवश होता है ।
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