सोमवार, 17 मार्च 2014

ज्ञान विज्ञान
पश्चिमी घाट के संरक्षण की मशक्कत
    भारत के पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर काफी मतभेद उभरे है ं। जैन विविधता की दृष्टि से देखें तो पश्चिमी घाट का क्षेत्रफल जहां भारत के कुल क्षेत्रफल का मात्र ६ प्रतिशत है, वहींे देश के पौधों, मछलियों स्तनधारियों और पक्षियोंकी ३० प्रतिशत प्रजातियां निवास करती हैं । इसी क्षेत्र में यूनेस्को द्वारा ३९ स्थानों को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है लेकिन इस क्षेत्र के संरक्षण और विकास को लेकर तमाम मतभेद हैं । 
     कुछ समय पहले भारत सरकार ने  पश्चिमी घाट के संरक्षण व विकास के मुद्दे पर विचार करने के लिए एक कामकाजी समूह का गठन किया था । पिछले माह नवंबर में सरकार ने घोषणा की है कि उसने कामकाजी समूह की इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया है कि पश्चिमी घाट के  एक-तिहाई क्षेत्र को अलग-थलग कर दिया जाए और उसमें किसी भी औद्योगिक गतिविधि की अनुमति न दी जाए ।
     अपने आप में तो इस घोषणाका स्वागत किया जाना चाहिए मगर मामला इतना सरल भी नहीं है । उपरोक्त कामकाजी समूह से पहले २०१० में सरकार ने ही एक प्रतिष्ठित इकॉलॉजीवेत्ता माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ पेनल का गठन किया था । इसे पश्चिमी घाट की इकॉलॉजी व औद्योगिक विकास से सम्बंधित समस्याआें पर विचार करने को कहा गया था । इस विशेषज्ञ पैनल ने २०११ में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि समूचे पश्चिमी घाट को इकॉलॉजी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए । दरअसल रिपोर्ट में कहा गया था कि समूचे पश्चिमी घाट क्षेत्र को संवेदनशीलता के स्तर के अनुसार तीन क्षेत्रों में बांटा जाए और सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्र में खनन पर प्रतिबंध लगा दिया जाए ।
    तो स्पष्ट है कि कामकाजी समूह की रिपोर्ट ने विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया है ।
    अब ये दो समूह (कामकाजी समूह और विशेषज्ञ पैनल) आमने-सामने हैं । नवंबर में सरकार द्वारा एक-तिहाई क्षेत्र को संरक्षित घोषित करने के निर्णय का कई संरक्षणवादियों, किसान संगठनों के अलावा खनन व विनिर्माण  उद्योग ने विरोध किया है । मसलन, एन्विरॉनिक्स ट्रस्ट के प्रंबध निदेशक श्रीधर राममूर्ति का मत है कि गाडगिल पैनल की रिपोर्ट के बाद एक और समिति के गठन की कोई जरूरत नहींथी । पश्चिमी घाट  के संदर्भ में सर्वाधिक चिंता का विषय गोवा और कर्नाटक मे चल रहा प्रदूषणकारी अवैध लौह व मेंगनीज खनन है ।
    कामकाजी समूह के अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन थे जो पूर्व में इसरो के अध्यक्ष रह चुके हैं । इस समूह की रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के मात्र ३७ प्रतिशत हिस्से को इकॉलॉजी की दृष्टि से संवेदनशील माना गया है । शेष हिस्से को सांस्कृतिक भूभाग माना गया है और इसमें गांव, कृषि भूमि तथा गैर-वन प्लांटेशन  आते     हैं ।
    जहां उद्योगों ने नई रिपोर्ट को एक हद तक संतोषजनक माना है वहीं संरक्षणवादियों का कहना है कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के ६३ प्रतिशत हिस्से को तो औद्योगिक गतिविधियोंके लिए खोल दिया है, जो पूरे क्षेत्र के लिए घातक होगा ।
    विशेषज्ञ पैनल के अध्यक्ष माधव गाडगिल ने एक साक्षात्कार में बताया कि कामकाजी समूह ने  अपनी रिपोर्ट में मनमाने ढंग से प्राकृतिकऔर सांस्कृतिक लैण्स्केप जैसी धारणाआें का उपयोग किया है, जिससे लगता है कि मात्र प्राकृतिक लैण्डस्केप के संरक्षण की जरूरत है जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है । श्री गाडगिल ने कस्तूरीरंगन को एक खुले पत्र में कहा है कि यह तो ऐसा है कि आप पर्यावरणीय विनाश के मरूस्थल में जैव विविधता के नखलिस्तान के संरक्षण की कोशिश करें ।   


विचारोंको तोलने की मशीन

    उन्नीसवीं सदी में इटली के शरीर क्रिया वैज्ञानिक एंजेलो मोसो ने एक मशीन का निर्माण किया था जिसे वे आत्मा को तोलने की मशीन कहते थे । वैसे विचार थोड़ा बेतुका लग सकता है मगर इसने आगे चलकर मस्तिष्क की गतिविधियों को देखने की विधि का मार्ग प्रशस्त किया ।
    कुल मिलाकर यह मशीन एक बड़ी तराजू थी जिसे एक मेज का रूप दिया गया का । व्यक्ति को मेज पर लिटा दिया जाता था । उसका सिर तराजू के संतुलन बिंदु के एक ओर तथा पैर दूसरी ओर होते थे । लिटाने के बाद तराजू को एकदम संतुलित कर लिया जाता था । 
     सिद्धांत यह था कि यदि मानसिक गतिविधि के कारण ख्ून का प्रवाह मस्तिष्क की ओर बढ़ेगा तो उस तरह का वजन भी बढ़ जाएगा और मेज को मस्तिष्क की ओर झुक जाना चाहिए । मोसो का ख्याल था कि रक्त प्रवाह इस बात पर निर्भर है कि हम क्या सोच रहे हैं ।
    सन् १८९० में मोसो का शोध पत्र विलियम जेम्स की पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ फिजियॉलॉजी में प्रकाशित हुआ था । मोसो का दावा था कि वास्तव में ऐसा हुआ था । जब व्यक्ति अखबार पढ़ने की कोशिश करता था तो मस्तिष्क वजनदार हो जाता था । इसका मतलब है कि खून दिमाग की ओर ज्यादा जा रहा है । मोसो ने बताया कि सबसे ज्यादा असर तो दर्शन शास्त्र की कोई मुश्किल किताब पढ़ते समय होता था । मोसो के मुताबिक शरीर के विभिन्न हिस्सोंके भार मेंउक्त परिवर्तन तंत्र में रक्त के पुनर्वितरण के फलस्वरूप होता था ।
    वैसे मोसा का यह शोध पत्र कहींेगुम रहा । हाल ही मेंइसे खोजा गया है । दरअसल उस समय माना जाता था कि रक्त प्रवाह परिवर्तन ह्रदय की क्रिया में बदलाव के कारण होते हैं । आगे चलकर यह पता चला कि दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे रक्त प्रवाह और उन हिस्सों में चल रही चयापचय क्रियाआें के बीच में सम्बंध है । देखा जाए तो आधुनिक फंक्शनल एमआरआई के पीछे यही सिद्धांत है । इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मोसो का आत्मा को तोलने की मशीन में दिमाग की गतिविधियों के निरीक्षण की तकनीक की प्रारंभिक पदचाप सुनाई पड़ती है ।


प्रजातियों में बुढ़ाने की विविधता
    अलग-अलग ४६प्रजातियोंके जीवन चक्र का अध्ययन करके यह पता चला है कि सारी प्रजातियोंमें उम्र के साथ मृत्यु दर नहीं बढ़ती और न ही उनकी उर्वरता का ह्वास होता है । यह निष्कर्ष इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि जैव विकास के सिद्धंात में ऐसा माना जाता है कि विकास के साथ-साथ उम्र के साथ मृत्यु दर बढ़ती है और उर्वरता में ह्वास होता है ।
    दक्षिण डेनमार्क विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक ओवेन जोन्स द्वारा किए गए इस अध्ययन मेंप्रजातियों के बीच बुढ़ाने की प्रक्रिया में काफी विविधता देखी गई है । जोन्स का कहना है कि उनका अध्ययन इस धारणा को चुनौती देता है कि उम्र के साथ निश्चित तौर पर सेनेसेंस (बुढ़ाने) की प्रक्रियातेज होती है । 
     जोन्स व उनके साथियों ने ११ स्तनधारियों, १२ अन्य रीढ़धारी जंतुआें, १० रीढ़-विहीन जंतुआें, १२ वनस्पतियों तथा १ शैवाल के जीवन चक्रों के आंकड़े एकत्रित किए । इन आंकड़ों के आधार पर उन्होंने यह गणना की कि हरेक प्रजाति में उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर मृत्यु दर से भाग देकर एक मानक मृत्यु दर ग्राफ प्राप्त् किया ।
    इस विश्लेषण के बाद विभिन्न प्रजातियों की तुलना की गई । तुलना में जीवन की कुल अवधि और सेनेसेंस के बीच कोई सम्बंध नहीं देख गया । २४ प्रजातियां ऐसी थीं जिनमें उम्र बढ़ने पर यकायक मृत्यु दर बढ़ती है । इनमें से ११ प्रजातियों की कुल आयु काफी लंबी थी जबकि १३ प्रजातियों की कुल आयु कम थी । अन्य प्रजातियों में उम्र बढ़ने पर मृत्यु दर में उतनी यकायक वृद्धि नहीं हुई और इनमें भी दोनों तरह की प्रजातियां शामिल थीं - यानी कम आयु वाली भी और लंबी आयु वाली भी ।
    इसके बाद शोधकर्ताआें ने सारी प्रजातियों को सेनेसेंस के कम्र में तमाया । इस तरह जमाने पर स्तनधारी एक छोर पर रहे । इनमें उम्र बढ़ने के साथ मृत्यु दर तेजी से बढ़ती हैं । दूसरे छोर पर पौधे थे जिनकी मृत्यु दर बहुत कम होती है । पक्षी और रीढ़विहीन जंतु इस श्रृंखला में हर तरफ बिखरे हुए थे यानी उनमें उम्र के साथ मृत्यु दर बढ़ भी सकती है और नहीं भी बढ़ सकती है ।
    सिद्धांत  तो यह रहा है कि जिन जीवों की जीवन अवधि लंबी होती है उनमें उम्र के साथ मृत्यु दर में अचानक वृद्धि होनी चाहिए ।  इस शोध के लेखकों के अनुसार उनका विश्लेषण इस सिद्धांत को चुनौती देता है ।

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