शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

सामयिक-२
जलवायु परिवर्तन और भारत की प्रतिबद्धता
राजकुमार कुम्भज

    जलवायु परिवर्तन का संकट दिनों दिन गहराता जा रहा है । भारत ने स्वमेव अपने कार्बन उत्सर्जन के मापदडों में परिवर्तन की घोषणा कर पूरे विश्व के सामने एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
    जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भरोसा दिलाया है कि वह वर्ष २०३० तक कार्बन उत्सर्जन में ३३ से ३५ फीसदी तक कटौती करेगा । इसके अलावा अपनी अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में ४० फीसदी तक का इजाफा करेगा । गौरतलब है इसी वर्ष ३० नवंबर से ११ दिसंबर तक पेरिस में हो रहे विश्व जलवायु सम्मेलन के पूर्व दुनिया के सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी के  अपने-अपने लक्ष्य प्रस्तुत करने हैं । भारत का मौजूदा लक्ष्य सन २०२० तक २० से २५ फीसदी कमी का था जो सन २०१० तक १२ फीसदी पाया जा चुका है । पेरिस के विश्व जलवायु सम्मेलन में विश्व पर्यावरण संधि संपन्न हो जाने की प्रबल संभावना   है । भारत पहले से ही कहता रहा है कार्बन उत्सर्जन की अधिक मात्रा के चलते विकसित देशेां की जिम्मेदारी ज्यादा है । 
     भारत ने अपनी ओर से पर्यावरण बचाने की जो महत्वपूर्ण रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपी है, उसमें पर्यावरण के लिए भारत के रोड मैप में सबके साथ न्याय की हिमायत की गई है । भारतीय प्रस्ताव में कहा गया है कि सन् २०३० तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर ४० फीसदी किया जाएगा । तीन अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का निपटान अतिरिक्त जंगल लगाकर प्रस्तावित है । इसी के साथ भारत ने यह आश्वासन भी दिया है कि नदियों की साफ-सफाई से भी उत्सर्जन कम करना सुनिश्चित करेंगे और नवीनीकरण ऊर्जा के तौर पर १७५ गीगावॉट बिजली पैदा की जाएगी ।
    इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के समक्ष कुछ बड़ी चुनौतियां हैं,  आबादी और गरीबी । विश्व की कुल ढाई फीसदी भूमि पर भारत में विश्व की १७ फीसदी आबादी निवास करती है । लगभग इतनी ही आबादी पशुओं की भी है । सबसे उल्लेखनीय तथ्य है कि ३० फीसदी गरीब आबादी की जरूरत पूर्ति पर ऊर्जा खपत बढ़ेगी । इस सबके लिए भारत को सन् २०१५ से २०३० के दौरान तकरीबन २५ अरब डॉलर की जरूरत पडेगी । यह एक महत्वाकांक्षी और अनिवार्य विकासवादी लक्ष्य है ।
    एक अन्य आरंभिक अनुमान के अनुसार भारत की अक्षय ऊर्जा उत्पादन वृद्धि, कृषि, वन विस्तार, बुनियादी ढांचा, जल संसाधन व परिस्थितिकी तंत्र के लिए इसी समयावधि के दौरान तकरीबन २०६ अरब डॉलर की आवश्यकता होगी । भारत के नीति आयोग का कहना हैंकि निम्न कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत को समग्र रूप से ८३४ अरब डॉलर चाहिए । सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतनी बड़ी रकम का इंतजाम कहां से और कैसे होगा ?
    पेट्रोलियम पदार्थों कोयल, गैस, औद्योगिक अपशिष्ट, फ्रिज, एसी, कृषि और मोटरयान आदि से कार्बन उत्सर्जन होता है । इस सबसे भी एक बहुत बड़ा कारण शहरी बस्तियों के आसपास कार्यरत वे ईंट भट्टे भी हैंजिनमें अपरंपरागत सस्ते ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है । ईंट भट्टों में सामान्यत: कटे-फटे पुराने टायर और प्लास्टिक के कचरे से ही इंर्धन का काम लिया जाता है जो न सिर्फ मनुष्यों और मवेशियों के लिए घातक है बल्कि संपूर्ण वायु मंडल को सांस नहीं ले पाने की हद तक प्रदूषित भी करते हैं । इसकी एक प्रमुख वजह शहरीकरण का निरंतर विस्तार भी है। बढ़ती जा रही आबादी को देखते हुए मकानों का निर्माण भी अभी और अधिक बढ़ेगा । देश भर के नये नाकों पर खडे  रहने को विवश वाहनों और ट्रैफिक जाम से होने वाले प्रदूषण का आंकलन अलग से किया जा सकता है ।
    कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए वन विस्तार, गैस आदि का उपयोग बढ़ाए जाने की जरुरत है। सन् २०३० तक २.५ से ३ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता का विकास किया जाना अति-आवश्यक है । भारत ने कहा है कि हम कार्बन उर्त्सजन की तीव्रता  सन् २०३० तक ३३ से ३५ फीसदी तक ले आएंगे । यही नहीं भारत ने यह भी कहा है कि हम ग्रीन हाउस गैसों का उर्त्सजन में भी सन् २०२० तक २० से २५ फीसदी तक कमी लाएंगे। 
    यहाँ यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं होेगा कि भारत की ३० फीसदी आबादी गरीब है २० फीसदी लोगों के पास मकान नहीं हैं और २५ फीसदी लोगों तक अभी भी बिजली नहीं पहंुच पाई है । सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब इस संख्याबल का भी विकास होगा और वह उपभोक्ता बन जाएगी तो कार्बन उर्त्सजन का आंकड़े कितना आगे बढेग़ा ।
    भारत का उत्सर्जन चीन और अमेरिका के बाद तीसरे क्रम पर पहुंच गया है । हालांकि भारत के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अभी भी बहुत कम ही है । चीन दुनिया का सबसे अधिक २५ फीसदी कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने वाला देश है । चीन में जैव इंर्धन की खपत भी सबसे ज्यादा होती है। जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेरिका का दूसरा क्रम  है अर्थात् वह तकरीबन १९ फीसदी प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश कुल मिलाकर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं । तीसरे  क्रम पर भारत आता है जो छ: फीसदी से अधिक प्रदूषण पैदा करता है ।
    जहाँ तक पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका अगुआ बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन का सवाल है, तो सूचना बड़ी दिलचस्प है कि ये दोनों देश दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष १० राष्ट्रों में शामिल हैं । 
    हमारे सामने सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण सवाल यही है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कैसे सीमित किया जा सकता है। वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा सुनिश्चित है और ७५० अरब टन कार्बन, कार्बन डाई ऑक्साइड की शक्ल में वातावरण में उपलब्ध है । कॉर्बन की मात्रा बढ़ने के साथ ही साथ पृथ्वी के गरम होने का खतरा बढ़ जाता है। भारत में अभी भी ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैंजो भोजन तैयार करने में परंपरागत ईंधन अर्थात् लकड़ी-कोयले का ही इस्तेमाल करते हैं । इसी कारण से अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत इंर्धन के बहाने भारत पर दबाव बनाती हैं । भारत में ईंधन गैस का अभाव नहीं है । अभाव है तो बस इसे जनता तक पहुँचाने वाले नेटवर्क का ।
    भारत ने अगले सात साल में अपारंपरिक ऊर्जा निर्माण का लक्ष्य एक लाख पचहार हजार मेगावॉट रखा है। सन् २०३० तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य ३७५ गीगावॉट   है । अगर निश्चित समय में यह लक्ष्य प्राप्त करने में भारत को सफलता प्राप्त हो जाती है तो बहुत संभव है कि भारत का कार्बन उर्त्सजन सीमित हो जाएगा । गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की ७० वीं वर्षगां ठ को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जलवायु प्रक्रिया के साथ जलवायु न्याय का भी जिक्र किया था । अगर हम सिर्फ  जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे निजी सुख को ही सुरक्षित करने की बू आती है लेकिन यदि हम जलवायु न्याय की भी बात करते हैं तो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने का संवदेनशील संकल्प भी उभर कर सामने आता है ।

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