शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

महिला जगत
जलवायु परिवर्तन और महिलायेें
हिलेरी बांबरिक

    जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव महिलाओं और लड़कियों पर पड़ता है । लैंगिक समानता की ओर बढ़ने के लिए आवश्यक है कि कृषि एवं अन्य अधोसंरचनात्मक ढांचे में होने वाले निवेश मेें तुरंत वृद्धि की जाए । आवश्यकता है महिलाओं की आजीविका और उनके जीवन को बचाने के अथक प्रयासों की ।
    वैश्विक  नेता यदि लैंगिक समानता को लेकर गंभीर हैं तो उन्हंे जलवायु परिवर्तन के संबंध में भी गंभीर होना होगा । पेरिस जलवायु वार्ता में जलवायु संबंधी कार्यवाही को लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण समूहों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, डाक्टर्स फार क्लायमेट एक्शन एवं नो मोर कोल माइन्स (अब और कोयला खदान नहीं) ने स्पष्ट तौर पर कुछ बातें कही हैं । परंतु ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को लेकर एक अन्य बाध्यकारी तथ्य है कि वर्तमान में जलवायु संबंधी अकर्मण्यता महिलाओं की आजीविका और उनके जीवन को नुकसान पहुंचा रही है ।
     विषम प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विश्व के अमीर देशों के बजाय गरीब देशों पर बहुत ज्यादा पड़ता है। इन समाजों की महिलाओं के लिए एक बुरी खबर यह है कि इसके प्रभाव लैंगिक तटस्थ नहीं होते । अमीर समुदाय जलवायु जनित घटनाओं जैसे लू या गरम हवा चलना, बाढ़ से निपटने में लगने वाली आर्थिक लागत और स्वास्थ्य प्रभावों से ठीक से निपट सकते हैं लेकिन गरीब देश इस मामले में भाग्यशाली नहीं होते । गरीबी खराब स्वास्थ्य, सीमित आधारभूत संरचनाओं एवं पारिस्थितिकी तंत्र के ह्ास से जुड़ी होती है । अतएव इससे जलवायु प्रभाव से पड़ने वाले जोखिम में वृद्धि होती है ।
    जलवायु परिवर्तन विशेषकर महिलाओं के लिए अत्यंत खराब है क्यांेकि विश्व के गरीबों में उनकी संख्या ज्यादा है और इस वजह से उन्हें इनसे अधिक खतरा   है । इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन की वजह से भी लोगों का गरीबी से बाहर निकल पाना कठिन हो जाता  है ।
    विश्वभर में मौसम की ज्यादती पुरुषों के बजाए महिलाओं को ज्यादा मारती है । ज्यादती के बढ़ने के साथ ही साथ लैंगिक असंतुलन बढ़ता जाता है । बांग्लादेश में सन् १९९१ में आए समुद्री तूफान में मारे गए १,५०,००० व्यक्तियों में से ९० प्रतिशत महिलाएं थीं । इन विध्वंसों में बचे हुए लोग गरीबी, सामाजिक नियंत्रणों और निर्णय लेने की भूमिका संबंधी सामाजिक परिस्थितियों या आडम्बरों से भी प्रभावित होते हैं । उन्हें तैरना जैसी सामान्य गतिविधि का मूलभूत ज्ञान भी नहीं होता । यदि वे कहीं आकस्मिक तौर पर रहने की व्यवस्था कर भी लेते हैं तो महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा का जोखिम भी बढ़ जाता है ।
    महिलाओं को मच्छरों से काटने वाली बीमारियों का खतरा भी ज्यादा होता है क्योंकि पानी लाने एवं फसल काटने जैसे कार्य वे ही करती हैं, जिसमें कि मच्छरों से निकट संपर्क ज्यादा होता है । बाढ़ के बाद अत्यधिक नमी के साथ तापमान वृद्धि की वजह से मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। बच्चें के साथ ही साथ गर्भवती महिलाओं को भी मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है । बीमारी या महामारी फैलने की दशा में महिलाएं ही सुश्रुषा ज्यादा करती हैं इससे उनकी आर्थिक उत्पादकता को भी नुकसान होता है ।
     बढ़ती खाद्य असुरक्षा भी महिलाओं और लड़कियों को ज्यादा प्रभावित करती है। महिलाओं को कुछ पोषण तत्वों की आवश्यकता पुरुषों एवं लड़कों से अधिक होती है, वह भी उनके क ोर परिश्रम पर जाने की आयु के पूर्व  । कुछ संस्कृतियों में महिलाएं एवं बच्च्े तब तक खाना नहीं खाते जब तक कि वयस्क पुरुषों ने अपना पूरा पेट न भर लिया हो । इससे भी महिलाओं का स्वास्थ्य को खतरा बढ़ जाता है क्योंकि परिवारों में भोजन की कमी तो बनी ही रहती है । चंूकि भोजन की कमी लगातार बढ़ती जा रही है और यह महंगा भी होता जा रहा है ऐसे में महिलाएं परिवार को भोजन उपलब्ध करवाने के एवज में अपनी दवाई सहित अनेक अनिवार्य वस्तुओं का त्याग कर देती हैं।
    पानी की कमी के चलते हुए उन्हें भारी वजन लेकर लंबी दूरी तय करना पड़ती है । यह न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि इससे महिलाओं की आय अर्जन संबंधी गतिविधियों एवं शिक्षा में भागीदारी घटती है । इतना ही नहीं इससे लैंगिक समानता के अवसर और अधिक सीमित हो जाते हैं । अधिक तापमान शारीरिक श्रम की क्षमता को भी सीधे-सीधे सीमित कर देता है । भोजन, पानी और भूमि की बढ़ती कमी से भविष्य में संघर्ष बढ़ेगंे और जबरिया पलायन भी होगा । सामाजिक विघटन की ऐसी स्थिति में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि होगी । एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक महिलाओं एवं लड़कियों के स्वास्थ्य को सीधे-सीधे नुकसान पहंुचाते हैं ।
    घर के अंदर लकड़ी से खाने बनाने की वजह से प्रदूषण होता है और यहां भी सर्वाधिक प्रभावित लड़कियां और महिलाएं ही होती है। चूल्हे से फैले प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की क्षमता में कमी, टीबी एवं निमोनिया जैसी बीमारियां भी बड़ी संख्या में होती हैं । प्रतिवर्ष करीब विश्वभर में ४० लाख महिलाएं समयपूर्व मृत्यु की शिकार हो जाती है ।
    भविष्य का रास्ता :- सौभाग्यवश अमीर देश काफी कुछ कर सकते हैं । वह अपना उत्सर्जन कम करने के साथ ही साथ सोची समझ विकास परियोजनाओं की वजह से जोखिम में पड़े समुदायों की गरीबी में कमी, स्वास्थ्य की बेहतर, व्यवस्था जलवायु परिवर्तन पर रोक एवं महिलाओं का सशक्तिकरण संभव है। सुस्थिर कृषि तकनीकों का शिक्षण, या घरों में पानी और सौर ऊर्जा के लिए अधोसंरचना उपलब्ध करवाने वाली परियोजनाएं तैयार की जा सकती हैं । बायोगैस संयंत्र एक ऐसी तकनीक है जिससे बहुत सारे लाभ प्राप्त हो सकते हैं । इससे समानांतर तौर पर सेनिटेशन और गोबर प्रबंधन के साथ मुत एवं भोजन पकाने हेतु साफ इंर्धन विकल्प के साथ ही जैविक खाद भी प्राप्त हो सकती है ।
    बायोगैस प्रणाली से सीधे सीधे स्वास्थ्य में सुधार (पेट संबंधी, आंख संबंधी एवं सांस संबंधी बीमारियां) होता है एवं कार्बन उत्सर्जन एवं वनों के विनाश में भी कमी आएगी । बेहतर कृषि प्रणालियां एवं खाद्य उत्पादन के चलते आमदनी बढ़ने के गरीबी से छुटकारा    मिलेगा । गौरतलब है उपरोक्त भूमिका अकसर महिलाएं ही निभाती है। स्थानीय समुदायों को साथ लेकर जीवन परिवर्तन के अनगिनत अवसर पैदा किए जा सकते हैं । महिलाओं और उनके समुदायों को स्वास्थ्य एवं आर्थिक लाभ तुरंत पहंुचाए जाने की आवश्यकता है । दीर्घावधि उपायों में कार्बन उत्सर्जन की कमी और समुदायों में लचीलापन पैदा करना शामिल है ।
    उत्सर्जन मेें कमी को हम जितना टालेंगे वह अधिक महँगा और कम प्रभावशाली होता जाएगा, इसमें बहुत सारे लोग मारे जाएंगे । इनमें से अधिकांश महिलाएं ही होगी । पेरिस सम्मेलन में एक सौदेश्य वैश्विक समझौतों पर सहमति अब सन्निकट दिख पड़ती है । समय आ गया है कि जब विश्व कोयले पर अपनी निर्भरता समाप्त करने और इसके बदले स्वच्छ ऊर्जा और अधिक स्वस्थ, अधिक समृद्ध एवं लैंगिक समानता वाले भविष्य की ओर कूच करे ।

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