शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

 सामयिक-१
कॉप-२१ : पृथ्वी को बचाने के प्रयास
रवीन्द्र

    पेरिस जलवायु सम्मेलन बदलती जलवायु और बढ़ते तापमान से विनाश की ओर बढ़ रही पृथ्वी को बचाने हेतु मील का पत्थर साबित हो सकता है । विकसित देश अपनी गलतियां तो स्वीकार कर रहे हैं  लेकिन उन्हें ठीक करने के प्रस्ताव को अभी भी कमोवेश ``वीटो`` कर रहे हैं ।
    पर्यावरण संरक्षण के विषय पर पेरिस में वैश्विक स्तर का सम्मेलन कॉप-२१ शुरु हो चुका    है । सर्वप्रथम सन् १९९२ में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तथा उस संधि में सम्मिलित सदस्य देशों के समूह को 'कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज़ (कॉप)' का नाम देकर सन् १९९५ में प्रथम सम्मेलन आयोजित हुआ । यह इक्कीसवां सम्मेलन है; अत: इसे कॉप-२१ कहा गया है । वर्तमान में १९६ देश इसमें सम्मिलित हैं। यह 'कॉप', 'यूएनएफसीसीसी (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा संधि)' द्वारा संचालित होता है ।
     जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सन् १९९७ में 'क्योटो प्रोटोकॉल' लाया गया । इसमें 'सीबीडीआर-आरसी (सामान्य वरन् विभोदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमताएँ) के द्वारा मुख्यत: विकसित देशों की जवाबदेही ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन के लिए निर्धारित की गई । गौरतलब विगत १५० वर्षोंा में ८० प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए प्रमुख रूप से विकसित देश ही उत्तरदायी हैं । अत: न्यायसंगत निर्णय करके उन विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती और उनके द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका निर्धारित हुई थी । ८ वर्ष पश्चात् सन् २००५ से 'क्योटो प्रोटोकॉल' क्रियान्वित हुआ तथा पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति अभी तक नहीं हुई है। 'क्योटो प्रोटोकॉल' के अंतिम चरण में विकसित व विकासशील देशों के मध्य कार्बन उत्सर्जन गहरी कूटनीति का विषय बन गया । इसी कारण गत 'कॉप' सम्मेलनों से वैश्विक हित के लिए कोई ठोस समाधान सामने नहीं आ रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन में कटौती हेतु सर्वसम्मत सुदृढ़ वैश्विक नीति नहीें बन पा रही है ।
    पेरिस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को इस शताब्दि के अंत तक दो डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित करने का   है । परंतु वर्तमान समय में धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और इस समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती है । भारत सहित सभी सदस्य देशों ने अपने-अपने 'आ एनडीसी (नियत राष्ट्रीय निर्धारित योगदान)' घोषित किए हैं । भारत ने सन् २०३० तक अपने कार्बन उत्सर्जन में ३० से ३५ प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है । जिसकी पूर्ति के लिए नवीनीकृत ऊर्जा का विस्तार, वनाच्छादन और जीवाश्म  ंधन के उपयोग में कटौती आदि कार्य शामिल हैं । जलवायवीय परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हमारे देश के प्रत्येक क्षेत्र में सामने आ रही हैं । जम्मू-कश्मीर में दो बार बाढ़ आ चुकी है । उत्तराखंड की दो वर्ष पूर्व की त्रासदी और हिमालयी क्षेत्रों में अतिवृष्टि आदि कारणों से भू-स्खलन की अधिकता आदि उत्तर भारत में घटित आपदाएँ है । विदर्भ व मरावाड़ा में अनावृष्टि के कारण बारह हजार से अधिक गाँव जल व खाघान्न आपूर्ति की समस्या से ग्रस्त हैं । उड़ीसा और आंध्रप्रदेश,  चक्रवातों की पुनरावृत्ती की समस्या से पीड़ित है तथा वर्तमान में तमिलनाडु अतिवृष्टि के कारण बाढ़ से जूझ रहा है ।
    राष्ट्रीय स्तर पर इनके समाधान हेतु विद्युत उत्पादन में नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन का भाग अधिकतम करके एंव उसके द्वारा उद्योग एवं रेल परिवहन को आपूर्ति, की जाना चाहिए । इसी के साथ जैव विविधता, वनों व पर्यावरण की सुरक्षा भी आवश्यक है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की प्रमुख जवाबदेही है । कार्बन उत्सर्जन में वह चौथे स्थान पर है तथा अमेरिका इस सूची में प्रथम स्थान पर है । अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन भारत की तुलना में २२ गुना है और वहाँ जीवाश्म ईधन के उपयोग में निरंतर बढ़ोत्तरों हो रही है । उनके विकास व प्रदूषण में प्रत्यक्ष संबंध है; क्योंकि उनका नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन उपयोग की तुलना में अत्यंत अल्प है । वे कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती के लिए को वास्तविक धरातलीय प्रयत्न नहीं कर रहे हैं । अत: अमेरिका के द्वारा घोषित 'आ एनडीसी' के लक्ष्यों का पूरा होना बहुत दूर की कौड़ी है ।
    यूरोपीय संगठन और अमेरिका की नीति जलवायु परिवर्तन के विषय पर कमोवेश एक समान   है । दोनो ही विकासशील देशों को उपयुक्त तकनीकी तथा जलवायवीय वित्तीय सहायता देने पर सहमत नहीं हैं । अपने कार्बन उत्सर्जन मेंे कमी लाने के विषय पर भी वे हठधर्मिता प्रदर्शित कर रहे हैं । चीन भी विश्व के मुख्य कार्बन उत्सर्जकों में से एक है तथा उसने व अमेरिका ने मात्र अपने परस्पर हितों को साधने के लिए कुछ सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । इसका पर्यावरण संरक्षण से को सीधा संबंध नहीं है। अफ्रीका महाद्वीप का उत्सर्जन  तुलनात्मक रूप से कम है । परंतु विकसित देशों के कारण उसे अपने विकास से समझौता करना पड़ रहा है । एक मुख्य विषय प्रशांत महासागरीय व आर्कटिक क्षेत्र के द्वीपीय देशों, आस्टे्र्रलिया और दक्षिणी अमेरिका के अनेक राष्ट्रों में निवास करने वाले स्वदेशी लोगों से जुड़ा है; जिसमें अखिल विश्व के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले मूल निवासी भी सम्मिलित हैं । वे सभी अपने परिक्षेत्र में भू-संरक्षण और वनसंरक्षण के लिए कुछ हद तक उत्तरादायी हैं । परंतु हिमखंड़ों के पिघलने, सामुद्रिक जलस्तर के बढ़ने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से उनके अस्तित्व व जीवनशैली दोनों पर संकट मंडरा रहा है । यह परिस्थिति जलवायवीय शरणार्थियों की समस्या भी उत्पन्न कर सकती   है । अत: इनके हितों को साधने हेतु एवं व्यावहारिक हल निकालने के  लिए अनेक देशों के नेताओं और उनके उच्च् प्रशासनिक अधिकारियों को भी इस सम्मेलन में चर्चा हेतु आमंत्रित किया गया है ।
    इस सारी समस्या का हल सभी देशों द्वारा वैश्विक कल्याण हेतु अपने-अपने उत्तरदायित्व को पूर्णत: समझकर उचित कार्यवाही करने से निकल सकता है । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा, सार्वदेशिक, कार्बन उत्सर्जन कटौती व हरित (नवीनीकृत) ऊर्जा के उत्पादन का वार्षिक विश्लेषण वर्तमान में क्रियान्वित करना अनिवार्य है । वैसे यह सन् २०२४ में प्रस्तावित है । भारत द्वारा दृढ़ता से पर्यावरण की सुरक्षा के पक्ष में,   अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने पर सर्वकल्याणकारी जलवायु परिवर्तन नीति क्रियान्तिवत करवाने का मार्ग प्रशस्त होगा । जिससे सर्वसम्मति से जलवायु नीति व अर्थनीति में समन्वय स्पष्ट करके विकसित और विकासशील देशों के सार्वभौमिक हित साझा होते हैं । इसके पश्चात् सुरक्षित नवीनीकृत ऊर्जा का विकेन्द्रीकृत उत्पादन करके राष्ट्रों को ऊर्जा स्वावलम्बी बनाने की जरुरत भी है । इस हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शोध व अनुसंधान के क्षेत्र में अंतर्रोष्ट्रीय केन्द्रों की स्थापना करना मुख्य कार्य है । 
    आने वाला पखवाड़ा हमारे पृथ्वी ग्रह के भविष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है ।

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