शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

कविता
हमें न बांधों प्राचीरों में
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन

    हम पंछी उन्मुक्त गगन के
    पिंजरबद्ध न गा पायेंगे,
    कनक-तीलियों से टकराकर
    पुलकित पंख टूट जायेंगे ।
    हम बहता जल पीने वाले
    मर जायेंगे भूखे-प्यासे,
    कहीं भली है कटूक निबौरी
    कनक-कटोरी की मैदा से ।
    स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
    अपनी गति, उड़ान सब भूले,
    बस सपनों में देख रहे है
    तरू की फुनगी पर में झूले ।
    ऐसे थे अरमान कि उड़ते
    नीले नभ की सीमा पाने,
    लाल किरण-सी चोंच खोल
    चुगते तारक-अनार के दाने ।
    होती सीमाहीन क्षितिज से
    इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
    या तो क्षितिज मिलन बन जाता
    या तनती सांसो की डोरी ।
    नीड़ न दो चाहे, टहनी का
    आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
    लेकिन पंख दिये है तो
    आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
    पागल प्राण बंधेंगे कैसे
    नभ की धुंधली दीवारों में ।

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