सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

कविता
ये जो धुँधलका है, काफी है
सरोज कुमार

उतने ही दिखो और देखो
जिसमें जिन्दगी निरापद चली चले,
रोशनी की और जरूरत नहीं है
ये जो धुँधलका है,
कॉफी है !
   
अपनी सुनिश्चित मौत को
अफवाह मानते रहने में
जिन्दगी का लुत्फ है !
   
रोशनी संभावनाआें के माँडने लील कर
जो आँगन लीपती है
उस पर चलने से पैर जलते हैं !
   
ईश्वर कभी नहीं मिला,
पण्डितों को रोशनी में,
वह रीझता रहा,
फकीरों पर
गुफाआें-बियाबानों में !
   
रोशनी से झकाझक
दोपहर कैसी खाली-खाली है,
   
पर सुबह कितनी रसभरी !
शाम कितनी लुभावनी
आँखें बंद करने पर
जो दिखता है
वहाँ नहीं जान पाती
दूरबीन की आँख !
   
तुम फिर उड़ रहे हो
ऊँचे और ऊँचे
रोशनी के शिकार को,
वह फिर तुम्हारे पंख
जला डालेगी !
जिन्दगी एक पहेली है
रोशनी एक उत्तर है,
पहली का मजा
उत्तर की मौजूदगी में नही,
उसकी अनबूझ में छुपा हैं !

वह जो धॅुंधली-धुँधली
दिखाई दे रही है
वही जिन्दगी है
और वह जो एकदम साफ है
मौत है !

कोई टिप्पणी नहीं: