सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

कृषि जगत
खेती किसानी से लुटता किसान
विवेकानंद माथने 
    आज फसल उपजाने, काटने और बेचने के बाद भी किसान ऋणग्रस्तता लगातार बढ़ती जा रही  है । यह लूट ही तो है। भारत के किसान की पैरोकारी न तो यहां की सरकार कुछ कर रही है और ना ही जनता । ऐसे में उसके पास आत्महत्या के अलावा और क्या रास्ता बचता  है ?
    कृषि ऐसा कार्य है जिसके बिना दुनिया रुक जायेगी । पहले किसान एक मालिक की हैसियत से स्वाभिमानी जीवन जीता रहा है क्योंकि कृषि एक राष्ट्रीय कार्य और सामाजिक जिम्मेदारी भी है । कहावत है उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, कनिष्ठ नौकरी । कृषि प्रधान भारत का किसान आज अत्यंत कठिन परिस्थिति का सामना कर रहा है । यह दीर्घकालीन किसान विरोधी नीतियों का परिणाम है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर से ऐसी नीतियां जारी हैं । जो बहुसंख्यक किसान और मजदूरोंके जीवन को निरंतर दूभर बना रही है । 
     औद्योगिकीकरण की गलत नीतियों के कारण पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने से पैदा हुए आसमानी संकट में भी किसान पूरी तरह में फंस गया है ।  
    भारत में कृषि आधारित ग्रामोद्योग व स्वरोजगार की व्यवस्था विद्यमान रही है। यह किसानों को अपनी आजीविका पूर्ति में खेती के अतिरिक्त अवसर प्रदान करती रही । लेकिन कार्पोरेट्स के दबाव में अपनाई गई नीतियों के कारण किसानों से यह काम छीनकर साजिशपूर्ण तरीके से कम्पनियों के हवाले कर दिये गये हैं । अब औद्योगिकीकरण के लिये नये नये तरीके अपनाकर किसानों से जमीन छीनी जा रही हैं ।  जमीन की बेहताशा लूट के कारण कुल कृषि क्षेत्र और प्रति परिवार औसत खेती का क्षेत्र लगातार कम होते जा रहे हैं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले बीस साल में देश में कुल कृषि    क्षेत्र में ५ करोड़ हेक्टर की कमी आई है ।
    देश के ७५.४२ प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टर से कम और १० प्रतिशत किसानों के पास एक से दो हेक्टर के बीच जमीन है और केवल ०.२४ प्रतिशत किसानों के पास दस हेक्टर से अधिक खेती का क्षेत्र है । देश में ६० प्रतिशत खेती वर्षा आधारित है ।  
    कृषि उपज बेचने के लिये देश में खुले बाजार में बिक्री या सरकार व्दारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के दरों पर खरीद की व्यवस्था है। दोनों व्यवस्थाओं में किसान को कृषि उपज का उत्पादन खर्च पर आधारित मूल्य प्राप्त नहीं हो सकता । राज्य सरकारों की विविध फसलों के लागत मूल्य निकालने की पद्धति भेदभावपूर्ण, अवैज्ञानिक व अन्यायपूर्ण है। एक अध्ययन के अनुसार सरकार व्दारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) वास्तविक लागत खर्च के एक तिहाई के आसपास होता है ।
    एमएसपी वस्तुत: कृषि उपज के दाम नियंत्रित करने का काम करती है। यह संकल्पना ही किसानों के साथ धोखा है । भारत सरकार द्वारा केवल २३ फसलों का (एमएसपी) घोषित किया जाता है । उसमें से मात्र ३ या ४ फसलों को सीमित मात्रा में सरकार खरीदती है । इसके बाद किसान को शोषणकारी बाजार के  भरोसे छोड़ दिया जाता है । जब उपज किसानों के पास आती है तो महंगाई को नियंत्रित करने के लिये समय समय पर आयात-निर्यात शुल्क घटा-बढ़ाकर उपज के दाम गिराये     जाते  हैं । जैसे ही उपज किसानों के हाथ से निकलकर व्यापारी,  कार्पोरेट्स व कम्पनियों के पास पहुंचती हैं, दाम बढ़ जाते हैं । देश में या विदेश में उपज की जमाखोरी करके कृत्रिम रूप से महंगाई बढ़ाई जाती है ।  
    हरित क्रांति के द्वारा कृषि रसायनों और तथाकथित उन्नत संकर बीजों के व्यापार को प्रोत्साहित कर भारत में खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि औजारों के बाजार का विस्तार किया गया । इससे खेती के इनपुट में बाजार का प्रवेश व लागत खर्च में एकदम बढ़ोत्तरी हुई । किसानों के जेब से बड़ी रकम कम्पनियों के  पास पहुंचने लगी । कृषि लागत की सारी चीजों की कीमत कम्पनियों के व्दारा निर्धारित होती है, सरकार उस पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रखती । परंतु किसान यदि कीमतें तय करें तब भी उसके आधार पर बेच नहीं सकता क्योंकि बाजार और सरकारी नीतियां किसान की मजबूरी का लाभ उठाकर हमेशा उसे लूटने के लिये तैयार रहती हैं ।    
    एमएसपी के आधार पर किसान को साल में खेती के काम के लिये मिलने वाली मजदूरी को ३६५ दिनों विभाजित करने पर यह मजदूरी प्रतिदिन केवल २० से ३० रुपये बैठती है जो देश में एक परिवार को जीवनयापन करने के लिये सातवंे वेतन आयोग व्दारा निर्धारित एक दिन के न्यूनतम वेतन के ४ प्रतिशत से भी कम है । देश में प्रत्येक किसान परिवार औसतन ४७००० रुपये का ऋणी है। परिणामस्वरूप दुनिया की भूख मिटाने वाला किसान और उसका परिवार भूखा सोता है। जो कृषि कल तक जीवन का मूलाधार थी, वही उसके गले की फांस बन चुकी है। देश में गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों में ९५ प्रतिशत संख्या किसानों और उन मजदूरों की है, जो खेती पर निर्भर हैं या खेती से विस्थापित किये गये हैं ।
    भारत में ९० प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं गरीबी से उपजे कारणों से हो रही   हैं । ग्रामीण भारत में किसान परिवारों में हर साल ६० हजार से अधिक आत्महत्याएं हो रही हैं । गत बीस साल में किसान परिवारों में १२ लाख से अधिक आत्महत्याएं हुई     हैं । इनमें से ३ लाख भूमि मालिक किसान शामिल हैं । देश की सरकार किसान की इस बर्बादी से भी संतुष्ट नहीं है। जनता के  विरोध के बावजूद भूमि अधिग्रहण कानून बदलने का प्रयास लगातार जारी है ।
    सरकार किसानों के  अधिकारों के सबंध में विचार करने को ही तैयार नहीं है। वह देश के किसानों के लिये २-३ रुपये किलो में अनाज, या मनरेगा में काम देकर उनका आक्रोश ठ ंडा करना चाहती है। किसानों को वर्ष २००७ में एक बार कर्ज माफी के लिये ७० हजार करोड़ रुपये जारी किये थे । उसका लाभ भी किसानों को कम बैंकों को ही ज्यादा हुआ है । लेकिन भारत सरकार ने सन् २००५-०६ से २०१४-१५ के दौरान कम्पनियों को कम्पनी कर, आमदनी कर, उत्पादन शुल्क और आयात शुल्क में कुल ४५ लाख १७ हजार ४ सौ ६६ करोड़ रुपये याने कि हर साल औसतन ४.५ लाख रुपये की छूट दी है ।
    देश में बैंकों ने कार्पोरेट कम्पनियों का एक लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा कर्ज माफ किया है। केंद्र सरकार अपने केवल १ करोड़ कर्मचारियों के वेतन और भत्तों पर हर साल ५.५ लाख करोड़ याने कुल बजट के लगभग २८ प्रतिशत से अधिक राशि खर्च करती है। लेकिन कृषि प्रधान कहे जाने वाले भारत मंे किसान और कृषि का बजट कुल बजट के २ प्रतिशत से कम है ।   
    देश की सरकार किसान और खेती-किसानी के इस गंभीर संकट के निराकरण के लिये जो उपाय कर रही है, वह किसानों के लिये और भी अधिक खतरनाक साबित होने वाले हैं । विश्व व्यापार संगठन के दबाव में आकर सरकार दूसरी हरित क्रांति के द्वारा कृषि में तंत्रज्ञान और पूंजी को और अधिक बढ़ावा देने के लिये प्रयास कर रही है । वह कॉन्ट्रॅक्ट फार्मिंग, कॉर्पोरेट फार्मिंग, कृषि यंत्रीकरण, तंत्रज्ञान, और जीएम फसलों को बढ़ावा देकर कृषि संकट का हल निकालना चाहती है। जीएम तकनीक के माध्यम से जैवविविधता, पारंपरिक बीजों को समाप्त करके बीजों पर कम्पनियों का एकाधिकार स्थापित करके किसानों को बीज के लिये कम्पनियों के भरोसे सौंपा जा रहा है ।
    इससे किसानों की लूट और बढ़ जायेगी, कृषि लागत खर्च में और बढ़ोत्तरी होगी, जैव विविधता प्रभावित होगी और जनता के भोजन में जहर परोसने का काम होगा । दूसरी तरफ सरकार विश्वबाजार से खाद्यान्न खरीदकर की आपूर्ति का विचार कर रही है। इससे देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता समाप्त  होगी ।

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