सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

हमारा भूमण्डल
देशज बीजों पर बढ़ते खतरे
ग्रेन
    बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां अब सरकारों को इस बात के लिए बाध्य कर रही हैं कि बहुपक्षीय समझौते कर वे देशज बीजों के अधिकार भी कारपोरेट को सौंप दें। जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित राष्ट्र इससे सहमत भी दिखाई दे रहे हैं। जबकि भारत व चीन इसके खिलाफ  हैं।
    अभी ट्रांस पेसेफिक पार्टनरशिप (टी पी पी) पर किए गए हस्ताक्षरों की स्याही सूखी भी नहीं थी कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बंद दरवाजों के पीछे एक और व्यापक व्यापारिक संधि को लेकर समझौता वार्ताएं शुरू हो गई हैं। टी पी पी की तरह रीजनल इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आर सी ई पी -क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी) ने सदस्य देशों ने कारपोरेट की शक्तियों के विस्तार की गुजांइश बढ़ा दी है जबकि इससे आम जनता को अपने लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, सुरक्षित भोजन, जीवनरक्षक दवाएं एवं बीजों पर अधिकारों की प्राप्ति उल्लेखनीय कमी आएगी । 
     आर सी ई पी आसियान के दस सदस्य देशों के  बीच संभाव्य समझौता है और इसमें क्षेत्र के ६ सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार हैं, आस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, न्यूजीलैंड एवं दक्षिण   कोरिया ।
    हाल ही में लीक हुए आर.ई. सी.पी. समझौते के अनुसार जैवविविधता एवं खाद्य उत्पादन एवं औषधि की उपयोगिता को लेकर कानूनी अधिकारों की बात सामने आने पर बातचीत करने वाले देश दो खेमों मे बंट गए हैं। आस्ट्रेलिया, जापान एवं कोरिया की ``कोर रुख`` वाली सरकारें कारपोरेट के कानूनी अधिकारों को मजबूत करने में लगी हुई हैं । यह देश प्रयासरत हैंकि
    * यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी सदस्य देश यू पी ओ वी १९९१ में शामिल हांे या कम से कम ऐसे राष्ट्रीय कानून बनाएं जो कि अंतर्राष्ट्रीय बीज समझौते के अनुरूप हों । इससे मॉन्सेंटो एवं सिजेंटा सरीखे कारपोरेट्स को अगले २० वर्षों तक के लिए बीजों, जिसमें किसानों द्वारा बचाए गए बीज भी शामिल हैं, पर         एकाधिकार प्राप्त हो जाएगा । यह तो विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) द्वारा व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) की आवश्यकताओं को भी पीछे छोड़ रहा है ।
    * यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी सदस्य देश माइक्रोेआर्गेनिज्म (सूक्ष्मतम जीवाणु) के पेटेंट की सुरक्षा हेतु बूडापेस्ट संधि में शामिल हों । बूडापेस्ट संधि ने ऐसी प्रणाली तैयार की है जिसमें कारपोरेशन ऐसे माइक्रोआर्गेनिज्म का नमूना तयशुदा जीन बैंक में यह बताते हुए रख सकते हैंकि यह उनका अविष्कार है जबकि उस पदार्थ तक पहुंच अभी भी सीमित ही है ।
    * आर ई सी पी सदस्य यह सुनिश्चित करें कि कारपोरेट बीज उत्पादक के अधिकारों का उल्लंघन में सिर्फ दीवानी दंड (उपचार) का नहीं बल्कि आपराधिक उपचार या दंड (जैसे वस्तु की जब्ती या कारावास) का प्रावधान हो ।   
    * यह सारे प्रयास``ट्रिप्स से आगे``जाकर डब्लू टी ओ-ट्रिप्स समझौते को पीछे छोड़ रहे हैं । पिछले दरवाजे से नए बौद्धिक संपदा मापदंड स्थापित कर यह संधि डब्लू टी ओ को भी पीछे छोड़ रही है। गौरतलब है कुल मिलाकर बौद्धिक संपदा अधिकार स्पष्टतया आर्थिक अधिकार हैंजिन्हें सरकारें इनाम में देती हैंया नवाचार को बढ़ाने के लिए । जबकि इसमें यह ध्यान नहीं रखा जाता कि यह अन्यायपूर्ण कानूनी एकाधिकार एवं किराया वसूली को बढ़ावा दे रहा है ।
    आसियान का दूसरा खेमा जिसमें चीन, भारत और कुछ हद तक न्यूजीलैंड भी शामिल हैं, इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर रहे हैंं। इनमें से कुछ राष्ट्र इस बात पर सहमत हैं कि इस तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति जापान द्विपक्षीय आर्थिक भागीदारी समझौते के अन्तर्गत होने वाले व्यापारिक लेनदेन में या अभी लागू न होने पाई टी पी पी के माध्यम से कर सकता है । परंतु ये देश नहीं चाहते कि इन्हें आर सी ई पी के माध्यम से उन पर थोपा जाएं । आसियान के देशों में भारत और चीन चाहते हैंकि आर सी ई पी के बौद्धिक संपदा अधिकार वाले अध्याय में संयुक्त राष्ट्र संघ जैवविविधता सम्मेलन (सी बी डी) के अन्तर्गत दिए गए अधिकारों एवं बाध्यताओं को शामिल किया जाए । ये है :
    * आसियान और चीन यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आर ई सी पी सदस्य देश जो कंपनी पेटेंट के लिए आवेदन कर रही है उसके महत्व को स्वीकारते हुए उन्हें यह बताने के बाध्य करें कि वह उस जैविक पदार्थ (जेनेटिक मटेरियल) पाए जाने वाले स्थान को ``उद्घाटित`` करे और यह भी बताए कि उसने इस प्रक्रिया में पारंपरिक  ज्ञान का कितना प्रयोग किया है ।
    * चीन और भारत तो इस दिशा में और भी आगे जाकर कह रहे हैंकि आर ई सी पी इस तरह के खुलासे न करने पर विभिन्न प्रकार की रोक भी लगाए ।
    * भारत तो इससे भी दो कदम और आगे जाकर मांग कर रहा है कि आर सी ई पी के सभी सदस्य सी बी डी नागोया समझौते को माने व उसका क्रियान्वयन करे । साथ ही जैवविविधता से संबंधित लाभों की हिस्सेदारी करें । (आसियान देश इसके खिलाफ हैं।)
    ऐतिहासिक तौर पर भारत और चीन जैसे देशों का पारंपरिक  ज्ञान अत्यंत समृद्ध है । इन देशों ने देखा है कि पश्चिमी वैज्ञानिक इनको चोरी-छिपे ले जाकर इसमें थोड़ा बहुत हेर-फेर कर इसका पेटेंट करवा लेते हैं । इसी वजह से अब वे पश्चिम को कानूनी प्रक्रिया का लाभ इसलिए नहीं देना चाहते जिससे कि इन       संसाधनों का दुरुप्रयोग न हो और स्त्रोत देशों को इनकी उपलब्धता सिर्फ भुगतान पर ही न उपलब्ध हो । जबकि वे अभी इसका मुफ्त उपयोग कर रहे हैं ।
    वैसे इस तरह की कोई भी पहल जमीनी स्तर पर समुदायों को शायद सुरक्षित न रख पाए । उनके  ज्ञान एवं बीजों के इस्तेमाल हेतु नए नियम बनाकर और गुप्त समझौते कर आर सी ई पी एशिया के  किसानो, मछुआरों एवं देशज समुदायों की संपत्ति को आंचलिक व्यापार प्रणाली का हिस्सा बना लेगी । इसके भयानक विध्वंसक परिणाम सामने आएंगे क्योंकि इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का काफी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान में अलनीनो के प्रलयंकारी प्रभाव एशिया के तमाम खेतों में दिखाई दे रहे हैं । इससे चावल की आपूर्ति संकट में पड़ गई है और भूखे किसान जबरदस्त प्रतिरोध कर रहे हैं । हाल के समय में फिलीपींस में इसका सर्वाधिक बुरा प्रभाव पड़ा है । जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में यदि एशिया-प्रशांत की सरकारें वास्तविक खाद्य सुरक्षा चाहती हैंतो उन्हें बौद्धिक संपदा को लेकर एकाधिकारवादी प्रवृति को छोड़ना होगा ।
    आवश्यकता इस बात की है कि वे आर सी ई पी को लेकर चल रही चचाओं से स्वयं को पूर्णतया अलग कर लें बजाए इसके कि वे कारपोरेट को नई शक्तियां और सुविधाएं दें । उन्हें चाहिए कि वे स्थानीय समुदायों की मदद करें और उनके माध्यम से खाद्य सार्वभौमिकता प्राप्त करंे । गौरतलब है कि यह सार्वभौमिकता उनके बीजों, भूमि, ज्ञान और पानी में निहित है ।

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