सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

सामयिक
एंथ्रोपोसीन : भूगर्भ इतिहास में एक नया युग
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में भूवैज्ञानिकों के एक समूह ने सुझाव दिया कि हाल के वर्षो में धरती मां पर मानव जाति का गहरा प्रभाव पड़ा है ।
    अब समय आ गया है कि पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास में एक नया युग जोड़ा जाए जिसे एंथ्रोपोसीन कहा जाए (एंथ्रोपो ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका उपयोग मानव जाति के लिए किया जाता है । उन्होंने सुझाव दिया है कि वर्तमान युग में होलोसीन के नास से जाना जाता है जिसमें से एंथ्रोपोसीन का उदय हुआ है । कहा जा रहा है कि एंथ्रोपोसीन ६६ साल पहले (१९५०) से शुरू किया जाए जो होलोसीन युग की समािप्त् दर्शाएगा ।  होलोसीन करीब ११७०० साल पहले अंतिम हिम युग के साथ शुरू हुआ था । उस समय ज्यादातर हिम युगीन जानवर मर कर खत्म हो गए थे और लगभग ११ हजार साल पहले मनुष्यों ने शिकारी संग्रहकर्ताआें के रूप में तथा स्थायी समुदायों के रूप में खेती और कृषि की खोज करके पृथ्वी के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था । 
     इंसान ने संसार को क्या बना दिया ? वह क्या बात है जिसने इस युग को एक कुदरती आधार की बजाए मनुष्य के आधार पर परिभाषित करने को प्रेरित किया है ? ११ हजार साल पहले चलते है, उस समय वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर प्रति दस लाख भाग में २२० (पीपीएम) था । यहां तक कि ८ हजार साल पहले तक यह करीब २६० पीपीएम था । लेकिन १९वीं शताब्दी के शुरू में पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की शुरूआत के साथ भूगर्भ से कोयला निकालकर उसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर परिवहन और उद्योगों के लिए होने लगा था । अन्य प्रमुख जीवाश्म ईधन, तेल (पेट्रोलियम) और प्राकृतिक गैस खोजी गई और उनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा । कार्बन युक्त जीवाश्म ईधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होने लगी ।
    कार्बन डाईऑक्साइड ग्रीन हाउस गैस का एक उदाहरण है जो सूरज की रोशनी को तो धरती पर आने देती है लेकिन पृथ्वी और समुद्रों से निकली गर्मी को वापिस आकाश में लौटने नहीं देती । एक सरल उदाहरण के जरिए समझते है कि जब एक कार सूरज की रोशनी में खड़ी है और उसके कांच चढ़े हुए हैं, तब सूरज की रोशनी कार के अंदर तो आ सकती है लेकिन वापस बाहर जाने वाली गर्मी कांच के चढ़े होने की वजह से अंदर ही बनी रहती है । यही प्रभाव ग्रीन हाउस में भी इस्तेमाल होता है जहां पौधे और सब्जियां    ठंडी जलवायु में उगाई जाती है ।   इसे ही ग्रीनहाउस प्रभाव कहा    जाता है ।
    इन सालों के दौरान उद्योगों, यातायात और अन्य उपयोगों से कार्बन डाईऑक्साइड की एक बड़ी मात्रा जमा होती गई है । यह गैस पृथ्वी से पलायन नहीं कर सकती । (पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण खिंचाव की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड दूर नहीं जा सकती जबकि हाइड्रोजन या हीलियम जैसी हल्की गैसें अंतरिक्ष में पलायन कर जाती हैं ।) इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के चलते पर्यावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर २८० पीपीएम से बढ़कर आज ४१३ पीपीएम हो चुका है । नतीजन, पिछले दो दशकों में धरती की सतह का औसत तापमान १.५ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है ।
    इसी कारण ग्लेशियरों का पिघलना शुरू हुआ और प्रतिवर्ष समुद्र के जल स्तर में ३.२ मि.मी. की बढ़ोतरी हो रही है । समुद्र स्तर के बढ़ने से बहुत चिंतित है । उसने ऑस्ट्रेलिया से पूछा है कि क्या वह जमीन खरीदकर वहां बसने के बारे में सोच सकता है ।
    ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन, मीथेन ...... ) के कारण समुद्रों और भूभागों की गर्मी बढ़ने के साथ-साथ प्लास्टिक और उसका मलबा धरती और समुद्र में बिखरे हुए है । प्लास्टिक प्रदूषण हाल ही की घटना है । इसके साथ ही मानव जनसंख्या सन १८५० में १.२ अरब से बढ़ते-बढ़ते आज ७ अरब हो गई है । इसके कारण जंगलों और जंतुआें का विनाश हुआ और इसने भीड़भाड़ और संबंधित समस्याआें को जन्म दिया है ।
    क्या किसी गैस की वजह से पृथ्वी की जलवायु में इस तरह की विशाल उथल-पुथल पहली बार हुई   है ? इसी तरह की घटना बहुत पहले घटी थी, जिसे ऑक्सीजन संकट (या महान ऑक्सीकरण घटना) कहते   हैं । यह २.४ अरब वर्ष पहले घटी   थी । उस समय पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया कहलाने वाले जीवाणुआें का समूह बहुत प्रचुर था जिन्होंने प्रकाश संश्लेषण शुरू किया था । इस प्रक्रिया में ये जीवाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का इस्तेमाल करते थे और अपशिष्ट पदार्थ के रूप में ऑक्सीजन गैस छोड़ते थे । सायनोबैक्टीरिया प्रजनन बहुत तेजी से करते है (हर ३० मिनिट में एक से दो हो जाते हैं) इसके चलते पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत अधिक हो गई थी । इसमें से कुछ पृथ्वी के कार्बनिक पदार्थ और लौह द्वारा स्थिर हो जाती थी लेकिन बची हुई जहरीली गैस का प्रतिशत हवा में २० प्रतिशत तक हो गया   था । इसने कई जीवधारियों को जलाकर भस्म कर दिया था और काफी लंबे समय के बाद, ही इस ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने में समर्थ जीवों (एरोबिक जीवों) का प्रादुर्भाव हुआ था ।
    अलबत्ता, हमारे पास ज्यादा समय नहीं है और हमें बहुत तेजी से जीवाश्म ईधनों, प्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार अन्य पदार्थो में कटौती करना होगा। हालांकि कई निहित स्वार्थ आज भी यह मानने से इंकार करते है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसके लिए जीवाश्म ईधनों का इस्तेमाल जिम्मेदार है । हर छोटा से छोटा प्रयास महत्वपूर्ण है क्योंकि बूंद-बूंद से घट भरता है ।

कोई टिप्पणी नहीं: