आधुनिक यंत्र और लाचार होता मनुष्य
सुश्री रेशमा भारती
विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बना तेजी से बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है । आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं । इंटरनेट और मोबाइल भी दूरी व समय की सीमाआे को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं । इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है । स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं । दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है । रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। कई लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं । बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याआें का आधार तैयार किया है । दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था - ''अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएेंगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए'' (अनुवादित यंग इंडिया, २ जुलाई १९३१) । स्वास्थ्य का आधार तो बिगड़ा ही, साथ ही आधुनिकतम मशीनों ने शरीर और मस्तिष्क संबंधी कई नए किस्म के विकार भी पैदा किए हैं । शारीरिक श्रम करके आजीविका जुटाने वाले अनेक मेहनतकशों के लिए अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण बेराजगारी, शोषण और भेदभाव की संभावनाएं बढ़ता है । तेजी से बढ़ते मशीनीकरण ने विभिन्न कार्यक्षेत्रों में श्रम का अवमूल्यन और बेरोजगारी की स्थितियां पैदा कर दी हैं । पहले से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले कई मेहनतकश इस तथाकथित तरक्की में और लाचार होते जा रहे हैं । उदाहरण के लिए कृषि में कम्बाइन हारवेस्टर मशीन का बढ़ता हुआ उपयोग कटाई के दौरान खेतीहर मजदूरों को मिलने वाली आजीविका का परंपरागत आधार छीन रहा है । गांधीजी ने मशीनों से आने वाली बेकारी पर विशेष चिंता प्रकट की थी, उन्होंने लिखा था, ''मुझे आपत्ति स्वयं मशीनों पर नहीं, बल्कि उनके लिए पागल बनने पर है । यह पागलपन श्रम बचाने वाले यंत्रों के लिए है । लोग श्रम बचाने में लगे रहते हैं । यहां तक कि हजारों लोगों को बेकार करके भूख से मरने के लिए खुली सड़कों पर छोड़ दिया जाता है ।'' (यंग इंडिया, १३.११.१९२४)। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है । एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाआे को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुआे के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाआे से प्रेरित होता है । ये महत्वाकांक्षाएं और उनसे बढ़ते उत्पादन का दबाव कच्च्े माल, सस्ते श्रम और बाजार की लालचपूर्ण तलाश को जन्म देता है । यह अंतहीन प्रतिस्पर्धा, शोषण, संसाधनों की लूट, आधिपत्य और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों का आधार तैयार करती है । 'हिंसा' इस प्रक्रियाकी स्वाभाविक परिणति होती है । गांधीजी ने भी यंत्रों के इस शोषणपूर्ण चरित्र का विरोध करते हुए कहा था, ''यंत्रों के मेरे बुनियादी विरोध का आधार यह सत्य है कि यंत्रों ने ही कुछ राष्ट्रों को दूसरे राष्ट्रों का शोषण करने की शक्ति दी है ।'' (यंग इण्डिया, २२ अक्टूबर १९३१) । अधिकतम मुनाफे और बाजार पर छाने की महत्वाकांक्षाआे से प्रेरित बेलगाम मशीनीकरण वाली औद्योगिक अर्थव्यवस्था वास्तव में मजदूरों के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर फलती आई है । जो आधुनिक मशीनें ''मुट्ठी भर लोगों को करोड़ों की पीठ पर सवार होने में मदद करती हैं ।'' गांधीजी उसके विरूद्ध संघर्षरत थे । सन् १९८८ में किशन पटनायक ने भी यंत्रों के चरित्र पर कुछ ऐसे ही बुनियादी सवाल उठाए थे । इस ऐतिहासिक सत्य को हम कैसे भुला सकते हैं कि आधुनिक टेक्नालॉजी को उन्हीं शक्तियों ने विकसित करवाया है जिनका निहित स्वार्थ साम्राज्यवादी संपर्कों को दृढ़ करना था । अरबों डॉलर लगाकर सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों को पैसे और प्रतिष्ठा के जरिए प्रलोभित कर जो कंपनियाँया सरकारें दिन-ब-दिन यंत्रों को अधिक क्षमताआे से लैस करा रही हैं क्या उनके सामाजिक चरित्र का पुट इन यंत्रों में प्रकट नहीं हो जाता ? बेलगाम बढ़ती मशीनें ऊर्जा व इंर्धन की खपत बेइंतहा बढ़ाकर पर्यावरण पर भी बोझ डाल रही है और प्रदूषण फैलाकर ग्लोबल वार्मिंग की स्थितियों को और भी विकट बना रही हैं । मशीनों का बढ़ता कचरा पर्यावरण को असीम और स्थायी क्षति पहँुचा रहा है । यंत्रों का बुरा उपयोग आसानी से कर लिया जाता है । यह भी गांधीजी की यंत्रों पर एक प्रमुख आपत्ति थी । इस विरोध की प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गई है जब हम देखते हैं कि टीवी, इंटरनेट, मोबाइल आदि कैसे हिंसा व अश्लीलता के प्रचार-प्रसार का प्रमुख माध्यम बन गए हैं । हिंसक, आक्रामक व आतंकवादी शक्तियाँ भी अपने संकीर्ण व विनाशकारी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मशीनों का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं । हथियारों का उद्योग निरन्तर फल-फूल रहा है । इंटरनेट जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी में अंतर्निहित खामियों व खतरों को रेखांकित करते हुए किशन पटनायक ने अपने एक लेख में चेताया था ''आधुनिक साम्राज्यवादी टेक्नालॉजी में पैदा करने की क्षमता नहीं है सिर्फ एकत्रित करने की क्षमता है । आधुनिक विज्ञान का चमत्कार एक तरफ तो एकत्रीकरण का चमत्कार है और दूसरी तरफ ध्वंस का चमत्कार । इंटरनेट और वैश्विक शहर (ग्लोबल विलेज) की परिकलपना ही भयावह है । यह दुनिया के एक फीसदी लोगोे को विश्व श्हरी बनाकर बाकी लोगो को साधनविहीन बना देने का षड़यंत्र है । वैश्विक शहर इंटरनेट ज्ञान की विविधता को नष्ट करने का षड़यंत्र है । ज्ञान का स्थान सूचना ले लेगी और सूचनाआें का काफी हिस्सा गलत तथा अधूरा भी हो सकता है ।'' मशीनों से जिंदगी में आयी तेजी और यांत्रिकता कहीं न कहीं व्यक्ति के व्यवहार व रिश्तों में भी अधीरता, संवेदनहीनता व कृत्रिमता का प्रभाव छोड़ सकती है । मौलिक सोच-विचार की क्षमता और जीवंत अहसास से उत्पन्न संवेदनशीलता का अभाव भी ऐसे समाज में देखा जा सकता है जिस पर मशीनें हावी हों । इस सबके बावजूद हम यह नहीं भूल सकते कि मशीनों के जरूरी व सार्थक उपयोगों की भी कई संभावनाएं मौजूद हैं, बशर्ते कि किसी सार्थक उद्देश्य की पूर्ति का इन्हें ही एकमात्र या प्रमुख साधन न बना लिया जाए । गांधीजी ने यंत्रों के उपयोग पर सीमाएं लगाने पर बल दिया था और विध्वंसक व शोषणकारी यंत्रों का विरोध किया था । ``मैं यंत्र मात्र के विरूद्ब नहीं हूं । मैं यंत्रों की विवेकहीन वृद्धि के खिलाफ हूं । मैं यंत्रों की बाहरी विजय से प्रभावित होने से इंकार करता हूं । मैं तमाम नाशकारी यंत्रों का कट्टर विरोधी हूं । यंत्रों का अधिक से अधिक उपयोग करने के बजाय हमें उनका कम से कम उपयोग करके काम चलाना चाहिए और इसी में समाज की सच्ची सुरक्षा और आत्मरक्षा निहित हैं ।''
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