सोमवार, 20 अगस्त 2007

३ हमारा भूमण्डल

ग्लोबल वार्मिंग : दूसरे के अपराध की सजा
प्रो. जोसेफ स्टिगलीज
दुनिया में एक बहुत बड़ा प्रयोग चल रहा है जिसमें यह पता लगाया जा रहा है कि जब आप वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को अधिकाधिक उत्सर्जित करते जाते हैं, तो क्या परिणाम होता है । वैज्ञानिक समुदाय इसके परिणाम को अच्छी तरह से जानता है कि इससे परिणाम भयावह हैं । प्रदूषण से पैदा होने वाली गैसों धरती के आसपास एक आवरण (ग्रीनहाउस) का प्रभाव निर्माण करती हैं, जिससे पृथ्वी क्रमश: गर्म होती जाती है । हिमनद और ध्रुवीय बर्फ पिघलने लगती है, समुद्री धाराएं दिशा बदल लेती हैं और सागरों का जलस्तर ऊपर उठने लगता है । यह सब पूर्व अनुमानों से ज्यादा तेजी से हो रहा है और इसके दुष्परिणाम भी ज्यादा भयावह होंगे । अगर पृथ्वी जैसे हजारों गृह हमारी पहुंच में होते, तो किसी एक गृह पर यह प्रयोग किया जा सकता था, क्योंकि अगर स्थिति और ज्यादा खराब होती है, जिसकी आशंका वैज्ञानिक व्यक्त कर रहते हैं, तो हम किसी दूसरे गृह पर जा सकते थे । लेकिन हमारे पास वह विकल्प नहीं है । पृथ्वी जैसा कोई दूसरा गृह नहीं है । अतएव हर हाल में हमें इसी धरती पर रहना है । वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के तापमान में वृद्बि) से अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण कोई दूसरा वैश्विक मुद्दा नहीं है । हम सभी को एक ही वायुमंडल में सांस लेनी है । गौरतलब है कि अकेला अमरीका ही हर साल ६ अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड हवा में छोड़ कर तापमान वृद्धि में मदद करता है, जिसका खामियाजा दुनिया के सभी लोगों को भुगतना पड़ रहा है । अगर यह संभव होता कि अमरीका द्वारा छोड़ी गई ग्रीन हाउस गैसें उसकी वायुसीमा में ही रहतीं तो भले ही वह हवा में जहरीली गैस छोड़ने का अपना यह विनाशकारी प्रयोग जारी रख सकता था, मगर बदकिस्मती से कार्बन हार्डऑक्साइड गैस राष्ट्रों की सीमाआे को नहीं पहचानती हैं । अमरीका चीन या किसी और देश द्वारा छोड़ी गई गैसें समूची दुनिया के वायुमंडल को प्रदूषित करती हैं । अमरीका या चीन या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले किसी और देश को उसके द्वारा किये जाने प्रदूषण की कीमत अपने देश की सीमा के बाहर नहीं चुकानी पड़ती है, इसलिए पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिक कड़े उपाय करने की जरूरत है । हाल में प्रकाशित अपनी किताब मेकिंग ग्लोबलाइजेश वर्क, अमेरिका - में मैंने ध्यान दिलाया है कि अपना जीवन स्तर ऊँचा रखने के नाम पर अमरीका जैसे देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने को तैयार नहीं हैं । जबकि अन्य कुछ देश ऐसे भी हैं, मगर अमरीका जैसे देश उनसे कोई प्रेरणा नहीं ले रहे हैं । दूसरी ओर सन् १९९७ के क्योटो प्रोटोकॉल के अनुसार जापान, यूरोपीय और अन्य कुछ लोगों ने अपना स्वार्थ एक ओर रखकर भी सारी दुनिया की भलाई के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया हैं । भूमंडलीकरण की अन्य बुराईयों के साथ यह भी तय है कि गरीब व्यक्ति को ही इसके सर्वाधिक त्रासद दुष्प्रभावों को झेलना होगा और उनके पास ही इसका सामना करने के साधन भी नहीं है । बांग्लादेश और मालदीव दूसरे राष्ट्रों के प्रदूषण के कारण उपजे ऐसे ही संकट का सामना कर रहे हैं, जो उनके बस में नहीं है । बांग्लादेश का अधिकांश क्षेत्र नीचा पठार है जो धान उपजाने के लिये बहुत अच्छा माना जाता है । मगर साथ ही समुद्र की सतह में होने वाली थोड़ी सी वृद्धि इस उपजाऊ जमीन को निगल लेगी। अभी भी वह लगातार आने वाले तूफानों और चक्रवातों का सामना करते रहता है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से देश की एक तिहाई भूमि समुद्र निगल जायेगा और १४ करोड़ की आबादी वाले इस देश में शेष बची भूमि पर भीड़ और जनसंख्या का बोझ भी और ज्यादा बढ़ जाएगा। उपजाऊ जमीन के डूब जाने से इस गरीब देश की आमदनी भी घट जाएगी । बांग्लादेश से भी बुरे परिणाम अन्य कुछ देशों को भोगने पड़ेंगे । हिंद महासागर में १२०० द्वीपों पर फैलाऔर ३३०००० की आबादी वाला मालदीव एक समय में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र का स्वर्ग माना जाता था । विश्वसनीय वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार यह सुंदर देश अगले पचास वर्षो में पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा । इसी प्रकार के नीची भूमि वाले अनेक द्वीपों का अस्तित्व खतरे में है । जिस क्योटो समझौते के अनुसार दुनिया में होने वाले कुल प्रदूषण का ७५ प्रतिशत विकसित देशों द्वारा किया जा रहा है, उस पर न तो अमरीका ने हस्ताक्षर किए हैं और ना ही उसने जंगलों की कटाई रोकने के ठोस कदम उठाए हैं । ज्ञातव्य है कि जंगल ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कम करने में सहायक होते हैं। कम लागत पर वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के लिए विशेष दक्षता की आवश्यकता होती है । जंगल विकसित करना उसका एक तरीका हो सकता है । मगर अधिकांशतया विकासशील देशों में मौजूद वर्षावनों को बचाना ज्यादा प्रभावी उपाय है । जंगलों की कटाई से वायुमंडल को दो प्रकार से हानि पहुंचती है कार्बन हाडऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने वाले वृक्षों की संख्या घट जाती है और लकड़ी को जलाने या उसके सड़ने से उसमें विद्यमान कार्बन हवा में मिल जाती है। इस प्रकार उष्णकटिबंधीय वन वायुमंडल से कार्बन की उपस्थिति घटाने के साथ-साथ जैव विविधता को भी सुरक्षित रखते हैं । सन् १९९२ में संपन्न जैव विविधता सम्मेलन में निर्णय हुआ था कि इन वनों के रखरखाव के लिए उपाय किए जाएंगे, जिसमें एक उपाय विकासशील देशों को इसके लिए आर्थिक सहायता देना भी था। किंतु अमरीका ने इस समझौते को भी स्वीकार नहीं किया । कोस्टारिका और पापुआ न्यू गिनी के नेतृत्व में विकासशील देशों का एक नया समूह - वर्षावन राष्टों का गठबंधन के नाम से एक नए प्रस्ताव के साथ सामने आया है । वे ग्रीन हाउस गैसों की सीमा तय करने को तैयार हैं, मगर साथ ही वे इसमें वनों के संरक्षण के बदले में कार्बन क्षतिपूर्ति को बेचने का अधिकार पाना चाहते हैं । इससे वे केवल लकड़ी का व्यापार करने के बदले वनों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकेंगे । कोस्टारिका, नाईजीरिया, वियतनाम और भारत समेत कम से कम बारह विकासशील देश इस संगठन में शामिल हैं । जब तक विकासशील देशों को वनों के संरक्षण के बदले में वित्तीय सहयोग नहीं मिलता तब तक उनके पास वनों को बचाने हेतु प्रोत्साहन और संसाधनों का भी अभाव बना रहेगा । क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में उन्हें इन उत्पादों के वास्तविक मूल्य का मात्र ५ प्रतिशत ही प्राप्त् हो पाता है । साथ ही यह पहल इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पहल स्वयं विकासशील देशों की ओर से हुई है जो उनकी रचनात्मकता और सामाजिक देयता को दर्शाता है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे जापान और अन्य औद्योगिक विकसित देशों (अमेरिका को छोड़कर) की तरह जिम्मेदारी पूर्वक इस विश्व को विनाश से बचाना चाहते हैं। कुछ लोग मुद्दे को सन् २०१२ तक विचाराधीन रखने का सुझाव दे रहे हैं, तथा यह आशा की जा रही है कि तब इस दिशा में संशोधित समझौता सामने आ जाएगा । पर क्या हम इतनी प्रतिक्षा कर सकते हैं ? वन विनाश की वर्तमान दर जारी रहते हुए भी केवलब्राजील और इण्डोनेशिया ने ही क्योटो समझौते के मापदण्डों के आधार पर प्रदूषण में ८० प्रतिशत की कमी की है । इसलिए इस समस्या का तत्काल समाधान करना जरूरी है, ताकि क्योटो समझौते की उपलब्धियों को बनाए रखा जा सके । यदि हम तत्काल कदम उठाएं तो इमारती लकड़ी वाले वन और जैव विविधता में अब तक हुए नुकसान की भी क्षतिपूर्ति करना संभव होगा। आज दुनिया के सामने दो सबसे बड़ी समस्याएं हैं - ग्लोबल वार्मिंग और वैश्विक गरीबी । वर्षावन राष्ट्रों का गठबंधन इन दोनों का समाधान करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है । ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए इसका प्रस्ताव बाजार के मूलभूत सिद्धांत- प्रोत्साहन और वैश्विक समुदाय की क्षमता के विकास पर आधारित है । विश्व के समक्ष अपना और अपने बीच सर्वाधिक जरूरतमंदों का भला करने का यह एक दुर्लभ अवसर हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: