इन्सान दो पाए कैसे हुए ?
यह सवाल मानव शास्त्रियों के लिए एक पहेली रहा है कि इन्सान दो पैरों पर कैसे चलने लगे । सवाल यह भी है कि पहले इन्सान पेड़ों पर से उतरे और उसके बाद दो पैरों पर चलने की स्थिति आई या इससे उल्टा हुआ । अब कुछ शोधकर्ताआे ने ऐसे सबूत जुटाने का दावा किया है जिनसे पता चलता है कि पेड़ों पर रहते -रहते ही दोपायापन प्रकट होने लगा होगा। लिवरपूल विश्वविद्यालय के रॉबिन क्रॉम्प्टन और उनके साथियों ने विस्तृत अवलोकन के बाद बताया है कि ओरांगुटान पेड़ों की पतली टहनियों पर दो पैरों पर चलते हैं और हाथों से ऊपर की टहनी को थामे रहते हैं । उनका निष्कर्ष है कि संभवत: यह दो पैरों पर चलने की शुरूआत रही होगी । इसका मतलब है कि दो पैरों पर चलना पेड़ों से उतरकर मैदान में आने से पहले की घटना है। वैसे इस संदर्भ में कई परिकल्पनाएं मौजूद हैं कि दो पैरों पर चलने से विकास की दृष्टि से क्या लाभ मिलता होगा । जैसे यह कहा जाता है कि घांस के मैदानों में सीधे खड़े जानवर को कम धूप का सामना करना होता है । अलबत्ता इस परिकल्पना के साथ दिक्कत यह रही है कि हमारे पूर्वजों का ज्यादातर समय खुले मैदानों में नहीं बल्कि घने जंगलों में बीतता था जहां इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।
मंगल पर जीवन ?
मंगल हमारा पड़ोसी ग्रह है और इसकी अनुकूल जलवायु को देखते हुए यह आशा व्यक्त की गई है कि शायद यहां कभी जीवन पनपा और फला-फूला होगा । जहां पानी है, वहां जीवन संभव है। नासा ने अपने नवीनतम अंतरिक्ष यान ग्लोबल सर्वेयर से प्राप्त् चित्रों के आधार पर बताया है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मंगल की सतह पर काफी हाल में परिवर्तन हुए हैं । नासा के मुताबिक यह इस बात का सबसे पुख्ता प्रमाण है कि शायद आज भी वहां पानी बहता है । वर्ष २००४ और २००५ में खींची गई तस्वीरों में कुछ चटख रंग वाली खंदकें नजर आती हैं जो १९९९ और २००१ की तस्वीरों में नहीं थी । नासा के वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि वहां जो मिट्टी , लवण वगैरह जमा हुए हैं वे नालों में बहते पानी के साथ आए होंगें। वैसे कुछ वैज्ञानिकों ने मत व्यक्त किया है कि ये मलबा पानी के साथ नहीं बल्कि धूल के साथ आया है । मंगल पर जीवन था या नहीं, इसे समझने के लिए हमे वहां पानी के इतिहास पर नजर डालनी होगी । यदि अतीत मे मंगल पर पानी था, तो उसका क्या हुआ ? एक सिद्धांत यह है कि जलवायु परिवर्तन के चलते यह पानी धीरे-धीरे भाप बनकर उड़ गया । अलबत्ता ग्रह के उत्तरी ध्रुव में पानी फंसा हुआ है और शायद काफी सारा पानी सतह के नीचे पानी या बर्फ के रूप में मौजूद है। मंगल पर जीवन के रूप तो विज्ञान कथाआे में खूब पल्लवित हुए हैं। एच.जी. वेल्स ने अपने उपन्यास वॉर ऑफ दी वर्ल्ड्स में मंगल के बुद्धिमान जीवों के हमले की कल्पना की है । मगर तथ्यों को देखें तो इससे उल्टा ही ज्यादा संभव दिखता है कि धरती के लोग मंगल पर जा धमकेंगें। हाल ही में स्टिफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि मंगल पर मानव बस्तियां अगले ४० वर्षोंा के अंदर बन जाएंगी। मंगल जं(मं)गल में मंगल संभव बनाने के लिए ग्रह स्तर पर इंजीनियरिंग के जबर्दस्त चमत्कारों की दरकार होगी ।
शिफ्ट में कार्य करने से घटती है आयु
शिफ्ट वर्क , यानी कभी दिन की ड्यूटी तो कभी देर रात को काम करना आज के इस औद्योगिक युग की मजबूरी है । विश्व की आबादी का पांचवा भाग शिफ्टों में काम करता है । विभिन्न अध्ययनों से यह साबित किया जा चुका है कि शिफ्टों में काम करने से न केवल सेहत पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि कर्मचारी नींद सम्बंधी तकलीफों से भी ग्रस्त हो जाते हैं। इससे व्यक्ति के कार्य प्रदर्शन की क्षमता भी घटती है और बड़ी औद्यौगिक दुर्घटनाआे की एक प्रमुख वजह भी यही बनती है । मगर इस बात को लेकर अब तक कोई साफ राय नहंी बन पाई थी कि क्या शिफ्टों में कार्य करने से व्यक्ति की आयु पर भी असर पड़ता है । कुछ का कहना रहा है कि इससे आयु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि कुछ अन्य का मानना है कि इससे व्यक्ति की आयु घटती है । हालांकि इन दावों के समर्थन में कोई प्रमाण नहंी थे । हाल ही में रविशंकर विश्वविद्यालय के अतनु कुमार पति व के. वेणु अचरी द्वारा किए गए एक अध्ययन से इस बात का परीक्षण किया गया है कि शिफ्ट वर्क से मनुष्य की आयु पर क्या असर पड़ता है? यह अध्ययन दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल्वे (नागपुर) के कर्मचारियों पर किया गया । इस अध्ययन में पिछले २५ सालों में विभिन्न कारणों से मृत्यु को प्राप्त् रेल्वे के ५९४ कर्मचारियों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया । इन ५९४ कर्मचारियों में से २८२ दिन में काम करने वाले और ३१२ शिफ्टों में काम करने वाले कर्मचारी थे । दोपहर में ऑफिस टाइम पर काम करने वालों का समय सुबह ९ बजे से शम ६ बजे तक था, जबकि शिफ्ट वर्क वाले तीन शिफ्टों में काम करते थे - सुबह ८ से शाम ४ बजे, शाम ४ बजे से १२ बजे और रात १२ से सुबह ८ बजे। एक शिफ्ट में एक कर्मचारी सप्तह भर काम करता था । एक दिन के अवकाश के बाद उसकी शिफ्ट बदल जाती थी । अध्ययन में शामिल अधिकांश मृत कर्मचारी पुरूष थे । महिलाएं केवल चार थीं । इस अध्ययन में हर कर्मचारी की जन्मतिथि, सेवानिवृत्ति की आयु और मृत्यु तिथि का विश्लेषण किया गया और औसत आयु का आकलन किया गया । पता चला कि शिफ्ट कर्मचारियों की औसत आयु ऑफिस टाइम में काम करने वाले कर्मचारियों की तुलना में करीब ४ साल कम होती है । गौरतलब है कि इससे पहले एक ब्रिटिश अध्ययन में पाया गया था कि शिफ्ट वर्क का व्यक्ति की आयु पर कोई असर नहीं पड़ता है, जबकि डेनमार्क के एक अध्ययन के अनुसार शिफ्ट कर्मचारियों को मौत का खतरा अन्य की तुलना में १.१ फीसदी ज्यादा होता है । मगर दोनों ही अध्ययनों में कर्मचारियों की औसत आयु की सीधी गणना नहीं की गई थी । लेकिन ताजा अध्ययन में कर्मचारियों की आयु को सीधे-सीधे शामिल किया गया था । इसके अलावा यह अध्ययन एक ही संस्थान मे काम करने वाले कर्मचारियों पर किया गया, जहां अन्य परिस्थितियां लगभग एक जैसी थीं । इससे दोनों की सही तुलना हो सकी ।
मानव प्रोटीन युक्त धान को मंजूरी
अब शायद यह कोई खबर नहीं है कि एक प्रजाति का जीन अब दूसरी प्रजाति में रोपकर एक नई किस्म बनाई गई । अब बताया गया है कि अमेरिका की एक कम्पनी ने एक धान तैयार किया है जिसके दानों में मानव दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन पाए जाएंगे । वहां के कृषि विभाग ने इसे उगाने को मंजूरी भी दे दी है । वैसे यह पहली बार नहीं है कि किसी फसल में कोई प्रोटीन बनाने के लिए किसी अन्य प्रजाति का जीन रोपा गया हो। इस मायने में अब कई पौधों को औषधि बनाने के कारखानों में तबदील किया जा चुका है । मगर मानव प्रोटीन बनाने वाली यह पहली फसल होगी । धान की यह नई किस्म अमेरिकन कम्पनी वेंट्रिया बायोसाइन्स ने तैयारी की है।
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