जी.एम. खाद्य पदार्थ और कानूनी संवर्द्धन
सौरव मिश्रा
केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने १० मार्च २००६ को अखिल भारतीय मेडिकल परिषद् की अनुवांशिक रूप से तैयार जी.एम. खाद्य पदार्थों को चिहि्न्त या लेबल करने की अनुशंसाआे को मंजूरी दे दी है । जी.एम. खाद्य पदार्थों की दुनिया में प्रवेश का यह पहला निर्णायक कदम है । हालांकि इस पहल की समझदारी पर कई सवाल हैं । जहां कुछ लोगों ने इसका स्वागत किया है वहीं कईयों ने इसे आत्मघाती कदम बताते हुए कहा है कि इससे स्वास्थ्य की गंभीर समस्याआे से लदे-फंदे जी.एम. खाद्य पदार्थोंा पर प्रतिबंध लगाना असंभव हो जाएगा । खाद्य अपमिश्रण संरक्षण कानून (१९५४) के अंतर्गत बनी खाद्य मानकों की केन्द्रीय समिति ने अखिल भारतीय मेडिकल परिषद से सुझाव मांगे थे ताकि जी.एम. खाद्यों को चिन्हित करने के लिए खाद्य अपमिश्रण कानून को संशोधित किया जा सके । व्यापार विश्लेषक रंजन कुमार के अनुसार जी.एम. खाद्य को भारत मेंचिन्हित करना इसलिये आवश्यक है कि क्योंकि वह बड़ी मात्रा में मक्का और सोयाबीन तेल का आयात करता है । भारत ने २००४-०५ में २० लाख टन सोया तेल का आयात किया था । पर किसान नेता विजय जवान्धिया का कहना है कि यह कदम साफ तौर पर सभी जी.एम. खाद्यों के आयात की मंजूरी है । उनके मुताबिक भारतीय बाजारों में जी.एम. खाद्यों का अस्तितत्व खाद्य सामग्रियों पर से २००१ में मात्रात्मक प्रतिबंध उठाने के बावजूद मौजूद था, पर इसको कोई वैधानिक स्वीकृति नहीं थी और इस पर कभी प्रतिबंध लगाया जा सकता था । पर इन नए नियमों का अर्थ है कि भारत सार्वजनिक उपभोग के लिए इन खाद्य पदार्थो को स्वीकृति प्रदान कर रहा है । इससे यहां विदेशी कृषि व्यापार को बढ़ावा मिलेगा । जी.एम. पदार्थो की मिलावट अन्य आयातित खाद्य पदार्थ, जैसे - टमाटरों के रस, टमाटर कैचप ओर आलू चिप्स में होने की भी शंका जताई जा रही है । नए नियमों से देशी जी.एम. खाद्यों के उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा । चूंकि भारत में कपास एक मात्र वैध जी.एम. फसल है इसलिए वनस्पति तेलों में संभावित जी.एम. के अंश वाला घरेलू खाद्य उत्पाद भी ९ प्रतिशत कपास का तेल है । केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्रालय के बायो-तकनीक विभाग के निदेशक टी.रामइया कहते हैं कि जी.एम. कपास के तेल के जहरीले प्रभाव से मुक्ति तभी संभव है जब इसका दो बार शोधन किया जाए । हालांकि स्थानीय उत्पादक इस बात के लिए ख्यात हैं कि वे अधिक लागत के कारण शोधन से ही बचते हैं। ऐसे में यहां पर गफलत हो सकती हैं । प्रस्तावित नियमों में प्रावधान है कि जी.एम. खाद्यों को चिन्हित किया जाए । यह इसलिए आवश्यक है कि इससे ट्रान्सजीन (आनुवांशिक परिवर्तन के मूल स्त्रोत) की जानकारी एवं प्रक्रिया उपलब्ध हो सकेगी । हालांकि लेबल की सच्चई की जांच की ठीक-ठीक पद्धति अंतिम रूप तय नहीं की गई है । स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि एलर्जी की जांच, संभावित विषाक्तता, पौष्टिक संयोजन और जी.एम. खाद्य पदार्थो और फसलों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए लेबल को सुनिश्चित किया जाना चाहिए । आई.सी.एम.आर ने खाद्य पदार्थो में जी.एम. अवयवों की मात्रा यूरोपियन यूनियन द्वारा निर्धारित मात्रा से कुछ अधिक निर्धारित की है । जहां यूरोपियन यूनियन ने सबसे कठोर पैमाना यानि ०.९ प्रतिशत मान्य किया है । वहीं जापान में यह ५ प्रतिशत है और भारत में इसकी सीमा एक प्रतिशत निश्चित की गई है । भारत को यूरोपियन यूनियन से सबक लेना चाहिए, जहां जी.एम. खाद्य पदार्थो की जांच के लिए बुनियादी ढांचा और धन भी पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध है लेकिन वहां भी नियमों का पालन करवाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है । भारत में प्रस्तावित नियमों में दण्डात्मक प्रावधानों का खुलासा नहीं किया गया है जबकि यूरोपियन यूनियन इस मामले में एकदम स्पष्ट है । इससे इसकी मार्केटिंग करने वालों को बहुत ही सुविधा होगी । एक और चिंता का विषय मिलावट है । ऐसी संभावना है कि आयातित सामग्री सबसे अधिक मिलावटी होगी परन्तु वे आसानी से बच निकलेंगी । प्रस्तावित नियमों में यह प्रावधान है कि अगर उत्पादित देश में उनकी बिक्री की अनुमति है तो वह यहां भी स्वीकृत होगी और आयात करने वाला देश उसकी अनिवार्य जांच नहीं कर सकेगा । विश्व व्यापार संगठन में इसको लेकर समस्याएं खड़ी हो रही हैं । अमेरिकी दबाव के कारण इंटरनेशनल कोडेक्स कमेटी अभी तक जी.एम. खाद्य पदार्थो में लेबल का पैमाना तय नहीं कर पाई है । ऐसे में अगर भारत अनिवार्य जांच का आग्रह करता है तो इस बात का खतरा है कि उसे विश्व व्यापार संगठन में चुनौती का सामना करना पड़े । यह सचमुच डर और चिंता का विषय है कि हम स्वास्थ्य के मसलों पर ध्यान दिए बिना सिर्फ जोड़-तोड़ में ही लगे हैं ।
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