सोमवार, 20 अगस्त 2007

५ जन्मदिवस के अवसर पर विशेष

युगमनीषी डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के प्रख्यात कवि डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन की कविता बीसवीं शताब्दी के साहित्य की सुदीर्घ परम्परा और सम- सामयिक इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। देश की युवा पीढ़ी सांसों का हिसाब के कवि के रूप में सुमनजी को जानती है । हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील विचारधारा के प्रमुख कवि होने के साथ ही सुमनजी के काव्य में मानवतावाद और सामान्यज की पीड़ा का मुखरता से वर्णन हुआ है । सुमनजी की कविता, उनका भाषण और उनके विलक्षण व्यक्तित्व का जादू केवल हिन्दी भाषी राज्यों तक ही सीमित न रहकर पूरे देश में और विदेशों में दशकों तक चलता रहा । मालवा की माटी से उन्हें विशेष लगाव था । लगभग पांच दशक तक मालवा की सांस्कृतिक नगरी उज्जैन में रहकर आपने सुमन और उज्जैन को एक दूसरे के पर्याय के रूप में प्रसिद्धि दिलायी थी । उ.प्र. के उन्नाव जिले के झगरपुर गांव में परिहारवंशीय ठाकुर घराने में नागपंचमी (५ अगस्त १९१५) को सुमनजी का जन्म हुआ था, आप अपना जन्म दिवस नागपंचमी तिथि को ही मनाते थे ।

राष्ट्र के लिये उत्सर्गशीलता और साहित्यिकता की परम्परा आपको विरासत में मिली थी । आपके प्रपितामह ठा. चंद्रिकाबख्शसिंहजी ने सन् १८५७ के प्रथम स्वत़ंत्रता संग्राम में अग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। आपके बड़े भाई रामसिंहजी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और बहन कीर्तिकुमारी की गिनती भी वरिष्ठ साहित्यकारों में होती थी। सुमनजी की प्रारंभिक शिक्षा उ.प्र. में हुई । बाद में रीवा, ग्वालियर और बनारस शहर आपकी शैक्षणिक यात्रा के मुख्य पड़ाव रहे । आपको हिन्दी के दिग्गज महापुरूषों आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे शिक्षकों का मार्गदर्शन मिला थ। ग्वालियर, बनारस और उज्जैन ऐसे नगर हैं जहां सुमनजी को खूब लोकप्रियता मिली। उज्जैन में तो यह लोकप्रियता उस स्तर तक पहुंची जहां व्यक्ति जनप्रियता के शिखर पर पहुंच जाता है ।

ग्वालियर नगर में सुमनजी को सुमन उपनाम मिला । ग्वालियर के कवि रामकिशोर शर्मा किशोर ने सन् १९३४ में शिवमंगलसिंह नाम में शिव से सु, मंगल से म और सिंह के अनुस्वार से न लेकर सुमन उपनाम की रचना की थी । सुमनजी प्रारंभ में पत्रकारिता से जुड़े लेकिन उन्हें अध्यापन का अवसर मिला तो उसी में रम गए । उज्जैन और ग्वालियर में आपकी अध्यापकीय गौरव गाथा के स्तंभ देखे जा सकते हैं । ग्वालियर में अटलबिहारी वाजपेयी, रामकुमार चतुर्वेदी चंचल, वीरेन्द्र मिश्र तो उज्जैन में प्रकाशचंद्र सेठी, श्याम परमार , शरद जोशी और डॉ. चिंतामणि उपाध्याय को आपके विद्यार्थी होने का गौरव मिला । डॉ. सुमन जैसा वक्ता हिन्दी में दुर्लभ है । सुमनजी को शब्दों का जादूगर कहा जाता था , उनके भाषण में घंटों श्रोता बंधे रहते थे। आपके काव्यपाठ में भी भाषण का पुट रहता था, भाषण कब कविता पाठ हो जाता और कविता कब भाषण बन जाती थी पता ही नहीं चलता था । सुमनजी हिन्दी के उन सौभाग्यशाली कवियों में शामिल हैं, जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रनायक पंडित नेहरू को कविता सुनाने का अवसर मिला था । नेहरूजी से सुमनजी की डायरी मेंसंदेश लिखा था अपने जीवन को एक कविता बनाना चाहिये यह छोटा सा संदेश सुमनजी के जीवन का ध्येय वाक्य बन गया। जिन लोगों को कभी सुमनजी से मिलने का या उनका भाषण सुनने का अवसर मिला है, वे जानते हैं कि डॉ. सुमन से मिलना , चर्चा करना या भाषण सुनना हमेशा नये अनुभव के दौर से गुजरना होता था । सुमनजी का भाषण कभी समाप्त् नहीं होता, उसे तो बंद करना पड़ता था । उनके असीम ज्ञान के खजाने से शब्द दर शब्द भाषण का झरना बहता रहता और अभिभूत श्रोता समय को भूल कर सुनने में तल्लीन रहते । आपका भाषण डाक्यमेंट्री फिल्म की तरह चलता था, जिसमें सब कुछ सजीव और जीवंत लगता था । सुमनजी का कोई भाषण प्रसाद, पंत, निराला, तुलसी , सूर और टैगोर जैसे साहित्यकारों, गांधी-नेहरू और पटेल जैसे राष्ट्रनायकों के जीवन की घटनाआे, उनके सुभाषित या व्यक्तिगत घटनाआे के शब्द चित्रों के बिना पूरा नहीं होता था। सुमनजी का डायरी लेखन प्रसंग भी उल्लेखनीय है । कई बार जब कोई उनसे मिलता था तो पता चलता कि वे दस मिनिट पूर्व तक की डायरी लिख चुके हैं । डायरी लेखन में इतनी निष्ठा और गतिशीलता बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है । सुमनजी व्यक्तिगत डायरी के साथ ही एक दूसरी डायरी भी रखते थे , जिसमे किसी के द्वारा कही गयी कोई विश्ेष बात , कविता, संस्मरण या सुभाषित पसंद आने पर उसे तुरंत नोट कर लेते थे । सुमनजी सामान्य पूजा पाठ से भिन्न एक विशिष्ट पूजा नियमित करते थे । नियमित रूप से गीता - रामायण और अन्य कोई पुस्तक /पत्रिका रोज निश्चित समय पर पढ़ना ही उनकी पूजा थी । सुमनजी चाहे घर में होते, देश में या विदेश में प्रवास पर होते यह क्रम निरंतर चलता रहता था । इससे साहित्य , समाज और राजनीतिक गतिविधियों पर सुमनजी की सजग दृष्टि बनी रहती थी । युवा लेखकों की रचनाशीलता से सतत संपर्क के साथ ही सामाजिक सरोकारों के लिये सार्थक हस्तक्षेप सुमनजी के व्यक्तित्व की विशेषता थी । यह पूजा इसकी मुख्य आधारभूमि थी । साहित्य और समाज के सरोकार को लेकर डॉ. सुमन ने लिखा है जब सर्जक नि:स्व भाव से रूढ़िग्रस्त समाज के अनाचारों और विभिषिकाआे को चुनौती देने का साहस संजोने में समर्थ होता है, तब वह संवेदना की अखंड परंपरा को प्रवाहमान करने का अधिकारी बनता है । भारत जैसे धर्मप्राण देश में पहली कविता न कोई स्रोत है न मंगलाचरण वरन् बहेलिए के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देख किसी महान संवेदनशील सह्रदय का अत्याचार के विरूद्ध अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । निश्चय ही साहित्य का उत्स अवरोधों , विरोधों और बाधाआे के पहाड़ों के अंतस से ही प्रार्दुभूत हुआ है । युवा जगत में सुमनजी सर्वाधिक लोकिप्रय रहे । सुमनजी का आभामण्डल इतना विस्तृत रहा कि उसने देश और काल की सीमा के बंधनों को तोड़कर युवाआें की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया था । युवाआे के लिये सीख स्वयं सुमनजी के शब्दों में जीवन में कोई बड़ा स्वप्न संजोकर अवश्य रखना चाहिये । इसी स्वप्न के सहारे व्यक्ति समाज या राष्ट्र फिर उठ खड़ा हो सकता है, चल-दौड़ सकता है और लक्ष्य तक पहुंच सकता है । यह सीख्र हर युग में युवाआे के लिये प्रासंगिक बनी रहेगी । सुमनजी की दिनचर्या उनके उम्र के नवें दशक में भी बड़ी ही अनुशासित और गतिशीलता लिये हुए रहती थी । बड़े सवेरे जग कर घूमने जाना उनका दैनिक क्रम था । देश के कोने - कोने से लोग उनसे मिलने आते थे, सभी से सुमनजी आत्मीयता से प्रसन्नतापूर्वक मिलते थे और यथा संभव हरेक की सहायता करते थे और कोई कभी भी उनसे मिलकर निराश नहीं लौटता था। लोगों से बातचीत करने में , उनके सुख-दुख में सहभागी बनने में सुमनजी को ऊर्जा मिलती थी, इससे वे अपने आपको तरोताजा महसूस करते थे ।

आज से साढ़े तीन दशक पूर्व नवीं कक्षा में पढ़ते हुए (१३-१४ बरस की उम्र में) मुझे सुमनजी के प्रथम दर्शन का अवसर मिला था । उनके स्नेह स्पर्श और आत्मीयतापूर्ण आशीर्वाद की मुझ जैसे अनेकों तरूणों के जीवन में नया उत्साह भरने में महत्वपूर्ण भमिका थी । सुमनजी के निर्देशन में शोध कार्य करने में मुझे जो विशिष्ट अनुभव और गौरव मिला उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है । आज महाकाल की नगरी का सबसे खूबसूरत सुमन बगीचे से गायब हो गया है लेकिन इसकी खुश्बू अनेक शताब्दियों तक भारत के दिग-दिगन्त में व्याप्त् रहेगी ।

कोई टिप्पणी नहीं: