अंतरिक्ष में बढ़ते कचरे के खतते
हाल ही में अमरीकी कंपनी इंटलसेट का संचार उपगृह गैलेक्सी-१५ नियंत्रण से बाहर होकर अपने आर्बिट से भटक गया है इस तरह जब सैटेलाईट अपने मार्ग से भटक जाता है, तो वह दूसरे सक्रिय सैटेलाईट से टकराकर उन्हें हानि पहुचा सकता है इसके अलावा जब सैटेलाइट अपना जीवनकाल पुरा कर लेता है , तब भी वे नियंत्रण से बाहर हो जाते है कबाड़ में तब्दील हो चुके उपकरणों के ऐसे ही ५ लाख से ज्यादा टुकड़े अंतरिक्ष मेंघूम रहे है । इनमे से करीब २१,००० टुकड़ों का आकार व्यास में चार इंच से अधिक है और अमरीकी रक्षा विभाग का स्पेस सर्वेलेंस नेटवर्क इनका पता लगाने की कोशिश कर रहा है ।अंतरिक्ष में विचरण कर रहें इस कबाड़ में ज्यादातर बेकार हो चुके रॉकेट और टूटे हुए सैटेलाइट शामिल है । यह अंतरिक्ष में कुछ इस तरह फैले है, जैसे किसी परत ने पृथ्वी के चारो और आवरण कायम कर लिया हो । अंतरिक्ष कबाड़ के टुकड़े चाहे कितने भी छोटे क्यों न हों खतरनाक साबित हो सकते है क्योंकि पृथ्वी की कक्षा में विचरण कर रहे पिंडो की रफ्तार २८,२०० किलोमीटर प्रति घंटा तक होती है इस गति से पर कोई भी दो पिंड टकराए, तो गंभीर हानि हो सकती है बीते साल एक रूसी स्पेस क्राफ्ट कॉस्मॉस २२५१ इरिडियम संचार उपगृह से साईबेरिया से करीब ७९० किलोमीटर की ऊचाई पर टकरा गया था ऐसी ही एक घटना २००७ में घटित हुई , जब चीन ने जानबुझ कर अपने ही एक मौसम उपग्रह को पृथ्वी से करीब ८५० किलोमीटर की ऊंचाई पर नष्ट कर दिया था । हालांकि चीन के इस प्रयोग पर दुनिया के कई देशों ने आपत्ति जताई थी और इसे स्टार वार्स की शुरूवात माना था । नासा में कक्षीय कचरे से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक निकोलस जॉनसन कहते है, इन दो घटनाआें ने अंतरिक्ष में भटक रहे चार इंच से बड़े टुकड़ों की तादाद में भटक रहे चार इंच से बड़े टुकड़ों की तादाद में साठ फीसदी इजाफा किया है । आज अंतरिक्ष में सर्वाधिक कचरा भी इन्ही दो कक्षाआें में है । नासा को अब तक आठ बार अपने अंतरिक्ष यानों के मार्ग को अंतरिक्ष कबाड़ के चलते बदलना पड़ा है ।
जलवायु संबंधी आंकड़ों का नया स्रोत
यह तो सर्वविदित है कि पेड़ो के तनों में बननें वाली वार्षिक वलय हमें उस समय की जलवायु के बारे में जानकारी प्रदान करती है, जब ये वलय बनी थी मगर यह जानकारी वार्षिक औसत जलवायु का प्रतिनिधित्व करती है अब वैज्ञानिक ने एक और तरीका खोज निकाला है जिससे बीते वर्षो के मौसम के बारे में लगभग साप्तहिक कालखंडों के स्तर पर जानकारी मिल सकेगी । कनाडा के सास्केचवान विश्वविद्यालय के विलियम पेटरसन और उनके साथियों ने समुद्री जीव क्लैम की खोल का अध्ययन करके पाया कि इस खोल के क्रमिक निर्माण पर तापमान का काफी असर होता है । खास तौर से यह देखा गया कि पानी का तापमान जितना कम होता है इनकी खोल के पदार्थ में ऑक्सीजन के भारी समस्थानिक (ऑक्सीजन-१८) की मात्रा उतनी ही अधिक होती है गौरतलब है कि प्रकृति में आक्सीजन के दो तरह के परमाणु पाए जाते है- एक का परमाणु भार १६ और दूसरे का १८ होता है इन्हें ऑक्सीजन के समस्थानिक कहते हैं । पेटरसन व उनके साथियों ने आइसलेंड की खाड़ी से क्लैम्स की २६ खोलें प्राप्त् कीं । क्लैम्स आम तौर पर २-९ वर्ष जीते हैं । यानी इनकी खोल हमें २-९ वर्ष के मौसम की जानकारी दे सकती हैं । इन २९ खोलों की अत्यंत महीन परतें निकाली गई और इनका अध्ययन आक्सीजन के समस्थानिको के लिए किया गया । समस्थानिको की मात्रा का अध्ययन मास स्पेक्ट्रोमेट्री नामक विधि से किया गया । समस्थानिको की मात्रा के आधार पर वैज्ञानिकोंने यह गणना की कि वह परत किन परिस्थितियों में बनी होगी । अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि यह पूरा-जलवायु के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण कदम है । पेटरसन व उनके साथी अपने आंकड़ों और अन्य एतिहासिक विवरणों का परस्पर संबंध देखने में भी सफल रहे हैं । अब वे कोशिश कर रहे हैं कि इस विधि का बड़े पैमाने पर उपयोग करके पिछले करीब ४०० वर्षो के जलवायु संबंधी आंकड़ें प्राप्त् करें ।सांप अंधेरे में उष्मा से देखते है !
कुछ सांप अंधेरे मे देख सकते है ।
हाल ही में इन सांपों की इस क्षमता को आणविक स्तर पर समझा गया है । वाइपर, अजगर और बोआ जैसे कुछ सांपो के सिर पर दो छिद्र पाए जाते है जिन्हे पिट आर्गन कहा जाता है इन छिद्रो पर एक झिल्ली तनी होती है जो गर्मी के प्रति संवेदनशील होती है यह तो जानी-मानी बात है कि स्तनधारियों जैसे गरम खून वाले जीव लगातार उष्मा का उत्सर्जन करते है यह उष्मा अवरक्त यानी इंफ्रारेड विकिरण के रूप में होती है । पिट आर्गन इसी अवरक्त विकिरण के प्रति संवेदी होता है । ये सांप करीब १ मीटर दूर रखे उष्मा के स्रोत को भाप लेते है उस वस्तु का एक ऊष्मा प्रतिबिंब बना लेते हैं । यह बात सांपों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बहुत समय से जानते है ।नई बात यह पता चली है कि यह अंग किन रसायनों के जरिए काम करता है । पिट आर्गन की झिल्ली में तंत्रिकाएं काफी संख्या में पाई जाती है । यह अंग स्पर्श, तापमान और दर्द की अनुभूति करता है । मगर इसे आंखो से कोई संकेत प्राप्त् नही होते है । यानी पिट आर्गन अवरक्त विकिरण को प्रकाश पुंज के रूप में नहीं बल्कि ऊष्मा के रूप में महसूस करता है । होता यह है कि बाहर से आने वाली ऊष्मा से पिट आर्गन की झिल्ली गर्म हो जाती है इसका तापमान एक सीमा से ज्यादा होने पर एक आयन मार्ग खुल जाता है जिसकी वजह से तंत्रिकाआें में आयन का प्रवाह शुरू हो जाता है इसकी वजह से विद्युत संकेत पेदा होने लगते है । धामन सांप के लिए तापमान की यह सीमा करीब २८ डिग्री सेल्सियस है । यदि कोई चूहा सांप से १ मीटर दूर बैठा हो तो उससे निकलने वाली ऊष्मा से झिल्ली पर इतना तापमान हो जाएगा । पूरी झिल्ली पर विभिन्न स्थानों पर आने वाली ऊष्मा के आधार पर वस्तु का एक प्रतिबिंब बन जाता है ।
समुद्री बैक्टीरिया - एक महाजीव
अवतार नामक फिल्म में नाविक लोग स्वयं को एक नेटवर्क में जोड़ लेते है । यह नेटवर्क उन्हें जैव मंडल के समस्त घटकों से जोड़े रखता है । उस फिल्म में सच्चई हो न हो, मगर धरती पर इस तरह का एक बैक्टीरिया पाया गया है जो सल्फर का भक्षण करता है और समुद्र के पेंदे की तलछट के नीचे रहता है और नेटवर्क बनाता है । कुछ शोधकर्ता मानते है कि समुद्री तलछटी के बैक्टीरिया अत्यंत सूक्ष्म नैनो-तारों से जुड़े रहते हैं इन महीन प्रोटीन तंतुआें में इलेक्ट्रोन का आदान-प्रदान हो सकता है । इस तरह से बैक्टीरिया की पूरी बस्ती एक महा-जीव की तरह काम करती है । अब आर्हस विश्वविद्यालय, डेनमार्क के पीटर निएल्सन और उनके साथियों ने इस विवादास्पद नजरिए के पक्ष में प्रमाण खोज निकाला है । निएल्सन के मुताबिक यह खोज एकदम जादुई है और हमारे अब तक के विचारोंं के विपरीत जाती है । इस खोज के बाद हमें सोचना होगा कि इन सुक्ष्मजीवों का जीवन कैसा है और उनकी क्षमताएं क्या है । कई सूक्ष्मजीव है जो हाइड्रोजन सल्फाइड नामक गैस का आक्सीकरण करके ऊर्जा प्राप्त् करते है यह गैस समुद्र की तलछट में बहुतायात में पाई जाती है । हाइड्रोजन सल्फाइड के विघटन से उत्पन्न हुए इलेक्ट्रॉन को ग्रहण करे । निएल्सन की टीम ने आर्हस के निकट समुद्र में से बैक्टीरिया युक्त तलछट के नमूने प्राप्त् किए । प्रयोगशाला में उन्होंने पहले तो तलछट के ऊपर मौजूद समुद्री पानी में से ऑक्सीजन हटाई और फिर वापिस डाल दी । टीम को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सतह पर डाली गई इस ऑक्सीजन को विसरित होकर नीचे तक पहुचने का समय मिलने से पहले ही सतह से कई से.मी.नीचे मौजूद बैक्टीरिया ने हाइड्रोजन सल्फाइड का विघटन शुरू कर दिया था । निएल्सन का विचार है कि अलग-अलग बैक्टीरिया के बीच प्रोटिन के सुचालक तंतुआें की बदौलत ही यह सम्भव हुआ । इसी की बदौलत यह संभव हुआ कि दूरस्थ स्थित ऑक्सीजन की मदद से आक्सीकरण क्रिया को संपादित किया जा सका । ये प्रोटिन तंतु तलछट के निचले आक्सीजनविहीन हिस्से में मौजूद बैक्टीरिया तक ले जाने का काम करते है । ऊपर जाकर ये इलेक्ट्रान्स आक्सीजन से जुड़कर क्रिया को पूर्ण कर देते है ।***
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