बुधवार, 9 जून 2010

७ पर्यावरण परिक्रमा

शहरी प्रदूषण से बढ़ता है रक्तचाप !
अब तक शहरों के प्रदूषण को श्वास की बीमारियों से जोड़ा जाता था, लेकिन अब उसे उच्च् रक्तचाप का भी एक महत्वपूर्ण कारक बताया गया है । जर्मनी के शोधकर्ता ने पाँच हजार लोगों पर अध्ययन किया और पाया कि लंबे समय तक प्रदूषण झेलने वाले लोगों का रक्तचाप ऊँचा हुआ है । शोधकर्ता के इस दल का कहना है कि प्रदूषण कम करने की कोशिश की जानी चाहिए । उच्च् रक्तचाप से रक्त वाहिकाए सख्त हो जाती है ।जिससे दिल के दोर या पक्षाघात का खतरा बढ़ जाता है । डुइसबर्ग एसेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता ने आबादी पर चल रहे एक अध्ययन का डेटा इस्तेमाल किया और देखा कि २००० से लेकर २००३ के बीच वायु प्रदूषण का रक्तचाप पर क्या असर पड़ा । इससे पहले हुए अध्ययन बता चुके है कि वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने से रक्तचाप भी बढ़ सकता है । लेकिन अभी तक यह यह पता नहींपता था कि लें समय तक प्रदूषण का सामना करने का क्या असर होता है । डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय में पर्यावरण और नैदानिक महामारी विज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ. बारबरा हॉफमैन ने कहा कि हमारे शोध के परिणाम बताते है कि जिन इलाकों में वायु प्रदूषण अधिक है वहाँ रहने वालों में उच्च् रक्तचाप अधिक पाया गया है । उन्होंने कहा कि ये जरूरी है कि जहाँ तक हो सके लंबे समय तक लोगोंको अधिक वायु प्रदूषण से बचाएँ । अब यह दल इस बात की खोज करेगा कि क्या लंबे समय तक अधिक प्रदूषण में रहने से रक्त वाहिकाएँ जल्दी सख्त हो जाती है या नहीं । ब्रिटिश हार्टफांडेशन में काम करने वाली एक वरिष्ठ नर्स जूड़ी जो सलिवेन ने कहती है । कि हम जानते है कि वायु प्रदूषण, दिल और रक्त वाहिकाआें की बीमारियों के बीच संबंध है लेकिन हम अभी यह पुरी तरह नहीं जानते कि ये संबंध क्या है । उन्होंने कहा कि यह अध्ययन एक रोचक सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि वायु प्रदूषण से रक्तचाप बढ़ सकता है इस दिशा में काफी शोध हो रहे हैं । इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि लोगों को प्रदूषण के खतरों से बचाने के लिए क्या किया जाए । हर सेकंड में ७० पशुआें की बलि ! हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में चमड़े के बने जूते, बेल्ट और टोपी की मांग बहुत ज्यादा है लेकिन इन्हें इस्तेमाल करने वाले यह नहीं जानते है कि चमड़ा निकालने के लिए जानवरों की हडि्डयों के जोड़ो को चटकाया जाता है और उन्हें उल्टा लटका कर उनकी गर्दन काट दी जाती है । एक सर्वेक्षण के अनुसार चमड़े के लिए दुनियाभर में हर सेकंड ७० से अधिक गाय, भैंस, सुअर, भेड़ और अन्य जानवरो को मौत के घाट उतार दिया जाता है । ज्यादातर चमड़ा गाय, भैस, भैड़, बकरी आदि की खाल से बनाया जाता है इसके अलावा घोड़ा, सुअर, मगरमच्छ सांप और अन्य जानवरों की खालें भी चमड़े के स्रोत है एशिया के कुछ हिस्सों में चमड़े की खातिर कुत्तों और बिल्लीयों को भी मारा जाता है । चमड़ा और उससे बना सामान खरीदते समय यह नही बताया जा सकता कि यह किस जानवर से बना है चमड़े की खतिर गाय और भैंस के सींग तोड़ दिये जाते हैं और उन्हें भूखा प्यासा रखा जाता है । पश्ुाआें पर क्रूरता के खिलाफ काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (पेटा) ने लोगों से चमड़े के बजाय वनस्पतियों से बने जूते, बेल्ट और और टोपी का इस्तेमाल न करने की अपील की है । वनस्पतियों से बने सामान चमड़े की अपेक्षा ६० से ७० प्रतिशत तक सस्ते होते है भारत में पेटा की प्रमुख अनुराधा साहनी ने कहा कि देश में चमड़े को इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च में मांस के सह उद्योेग की संज्ञा दी गई है जबकि वास्तविकता यह है कि निर्यात के रूप में यह मांस की अपेक्षा अधिक मूल्य पाता है ।उन्होंने कहा कि सरकार चमड़े की खरीद परिवहन में पशुआें के प्रति क्रूरता और कसाईखाने में उनके साथ दर्दनाक व्यवहार को खुला समर्थन देती है ।भारत मे उत्सर्जन ५५ फीसदी बढ़ा सरकार की जलवायु परिवर्तन पर आकलन तंत्र (आईएनसीसीए) की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि देश में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन १३ वर्ष मे करीब ५५ फीसदी तक बढ़ गया है लेकिन जनसंख्या के लिहाज से बात करें तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व के औसत आंकड़ों के मुकाबले अब भी कम है । आईएनसीसीए की रिपोर्ट भारत (ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन २००७) मे पर्यावरण के लिये घातक गैसों के उत्सर्जन में १९९४ की तुलना में २००७ तक आये परिवर्तन का आकलन पेश किया गया है । रिपोर्ट कहती है कि वर्ष १९९४ में भारत में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन १२,२८५,४० लाख टन था जो २००७ में बढ़कर १७,२७९,१० लाख टन हो गया । यानी १३ वर्ष की अवधि में उत्सर्जन में करीब ५५ फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई । इसके बावजूद २००७ में अमेरीका और चीन का ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन भारत से करीब चार गुना ज्यादा था । सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंर्ट की प्रमुख सुनीता नारायण ने कहा, इस रिपोर्ट में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आंकड़े है । लेकिन सिर्फ इसी आधार पर हम यह नहीं कह सकते की हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे है । रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ग्रीन हाऊस गैसोंके प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं देखी गयी है । वर्ष १९९४ में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन १.४ टन था जो २००७ में बढ़कर १.७ टन हो गया । विश्व में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन औसतन दो टन है । बहरहाल सुश्री सुनीता स्वीकार करती है कि आंकड़े जारी होना जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने में गंभीर नहीं होने का भारत पर आरोप लगाने वाले देशों के लिये एक जवाब है । रिपोर्ट कहती है कि ग्रीन हाऊस गैसों के कुल उत्सर्जन में सबसे ज्यादा ५८ फीसदी हिस्सेदारी ऊर्जा क्षेत्र की है । इसके बाद उद्योग जगत के कारण २२ फीसदी, कृषि क्षेत्र की वजह से १७ फीसदी और अपशिष्ट के चलते तीन फीसदी का उत्सर्जन होता है पर्यावरणविद वंदना शिवा ने कहा कि दुनिया यह नही जानती थी कि तेजी से विकास कर रही देश की अर्थव्यवस्था में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कितना है । इन आंकड़ों से निश्चित तौर पर सरकार को अपनी बात रखने और जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में हो रही कोशिशों मेें पारदर्शिता लाने में मदद मिलेगी । उन्होंने कहा कि १९९४ से २००७ के बीच अगर कार्बन उत्सर्जन में ५५ फीसदी तक इजाफा हुआ है तो यह उत्साहजनक संकेत नहीं है । अब यह हमारे लिये चिंता का विषय है कि हम आने वाले वर्षो में कैसे उत्सर्जन में २० से २५ फीसदी की कटौती लाने वाले है । वह बताती है कि भारत ऊजा जरूरतों और उत्सर्जन के बीच संतुलन नहीं बिठा पा रहा है । ऊर्जा क्षेत्र की कुल उत्सर्जन में जितनी हिस्सेदारी है वह चिंता का विषय है नदियों और खेतीहर ग्रामीणों को नुकसान पहुचाते बाँधों का निर्माण किया जा रहा है पर लक्ष्य ऊर्जा के विकल्पों पर ज्यादा आक्रमकता के साथ काम नही किया जा रहा । भारत में ग्रीन हाउस गैसोें के उत्सर्जन के आंकड़े जारी करते हुए पिछले दिनों पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने कहा था यह किसी भी विकासशील देश की ओर से जारी हुए अब तक के सबसे अद्यतन आंकड़े है भारत इस आकलन के लिये बाध्यकारी नहीं था लेकिन हमने स्वेच्छा से यह पहल की । उन्होेंने कहा था, ग्रीन हाउस गैसोें के उत्सर्जन के मामले में इससे पहले देश के पास १९९४ के आंकड़े थे ।
माइनिंग बोर्ड बना वाइल्ड लाइफ बोर्ड वन्य प्राणियों के संरक्षण और संवर्धन के उद्देश्य से गठित मध्यप्रदेश राज्य वन्य प्राणी बोर्ड माईनिंग बोर्ड बन कर रह गया है । मुख्यमंत्री की अध्यक्षता मे संपन्न बोर्ड की बैठक के एजेण्डे में वन्य प्राणियों के संरक्षण का एक भी प्रस्ताव नहीं था । जितने भी प्रस्तावों को हरी झंडी दी गई वे सभी खदान आवंटन या फिर निर्माण से जुड़े हुए है पिछले दिनों प्रदेश के पन्ना के नेशनल पार्क के बाघ विहीन होने की छाया में दो साल के अंतराल के बाद हुई नवगठित बोर्ड की इस पहली बैठक के एजेण्डे में शामिल दो दर्जन से अधिक प्रस्ताव जंगल और वन्य प्राणियों की परेशानी बढाने वाले रहे । बड़े औद्योगिक घरानों को उपकृत करने का आलम यह था कि जेपी एसोसिएट्स को पेंच और सतपुड़ा नेशनल पार्क के बीच कोयला खदान और सीधी में माइन की एनओसी को हरी झण्डी दे दी गई । इसके साथ ही तीन कोल ब्लाक आवंटन पर बोर्ड ने पर्यावरणीय मूल्यांकन की शर्त के साथ मुहर लगाई । राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य से होकर गुजरने वाली दस सड़कों की सहमति पर भी बोर्ड राजी हुआ। ये सारे प्रस्ताव खुद वन विभाग की ओर से रखे गए थे । जानकार बताते हैं कि पिछली बैठकों में संबंधित विभाग के अधिकारी इन प्रस्तावों पर अपना पक्ष रखते थे और वन विभाग की आपत्तियों का निराकरण करते थे । लेकिन अब तो बोर्ड में ऐसी परंपरा समाप्त् हो गयी है । ***

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