गुरुवार, 10 जून 2010

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बुधवार, 9 जून 2010

१ सामयिक

चौबीस घंटे पानी, एक नया शिगूफा
गौरव द्विवेदी
शहरी बुनियादी सुविधाआें के क्षेत्र में पानी का महत्वपूर्ण स्थान है और जलप्रदाय नगर निकायों की प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है । लेकिन आर्थिक सुधारों के प्रभाव में इसे भी निजी हाथों में सौंपा जा रहा है । एक दिन छोड़कर भी जलप्रदाय नहीं कर पा रहे नगर निकाय अब निजीकरण हेतु नागरिकों को २४ ७ जलप्रदाय (चौबीसों घण्टे सातों दिन यानी लगातार जलप्रदाय) के सपने दिखा रहे हैं । २४ ७ जलप्रदाय व्यवस्था को केन्द्र के स्तर भी न केवल खूब प्रचारित किया जा रहा है बल्कि इसे प्रोत्साहित भी किया जा रहा है । २४ ७ जलप्रदाय के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कोंा में पाइप लाईन लीकेज के कारण अशुद्धि मिलने की संभावना, क्षतिग्रस्त पाइप लाइनों से पानी का नुकसान, व्यक्तिगत स्तर पर जलभण्डारण के खर्च की बचत, बासी पानी को फेंकने से जलहानि की कमी आदि प्रमुख हैं । यदि अपने देश के संदर्भ में देखें तो हुबली-धारवाड़ (कर्नाटक) के कुछ वार्डोंा में तथा नागपुर के एक वार्ड में फ्रांस की कंपनी विओलिया के माध्यम से २४ ७ जलप्रदाय का प्रयोग शुरू किया गया है मध्यप्रदेश में इस तरह का पहला प्रयोग खण्डवा में होने जा रहा था । लेकिन ठेकेदार कंपनी विश्वा इन्फ्रास्ट्रक्चर्स ने जलप्रदाय शुरू करने के पहले ही टेण्डर की शर्ते बदलकर ६ घंटा प्रतिदिन जलप्रदाय कर दिया है । सार्वजनिक क्षेत्र के निकाय महाराष्ट्र जीवन प्राधिकरण द्वारा मलकापुर (महाराष्ट्र) में करीब २० हजार नल कनेक्शनों के लिए २४ ७ जलप्रदाय का काम शुरू किया है । मध्यप्रदेश के चार शहरों इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और जबलपुर में भी प्रारंभिक रूप से एक-एक झोन में २४ ७ जलप्रदाय की प्रक्रिया जारी है । भोपाल और ग्वालियर में यह काम निजी कंपनी को सौपा गया है । २४ ७ जलप्रदाय के पैरोकार तर्क देते हैं कि पानी को वित्तीय संसाधन के हिसाब से देखा जाना चाहिए । इसलिए इसके अंतर्गत पूर्ण लागत वापसी के साथ लाभ का भी प्रावधान होना चाहिए तभी इसमें निवेश बढ़ेगा और सेवा बेहतरहोगी । यदि आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो २४ ७ जलप्रदाय व्यवस्था काफी महंगा सौदा है । लीकेज रोकने हेतु पाईपलाईन बदलाव आदि के कारण इसकी स्थापना लागत काफी अधिक होती है । नागपुर शहर के लिए यह लागत एक हजार करोड़ रूपए होगी । नागपुर नगर निगम के लिए इतनी राशि की व्यवस्था कठिन काम है । ऐसे में इतनी बड़ी राशि या तो अनुदान से या कर्ज से या फिर निजी क्षेत्र से ही आ सकती है । कर्ज या निवेश की स्थिति में निवेशित राशि की ब्याज और सुनिश्चित लाभ सहित वसूली करनी होगी । वसूली करने का एक मात्र विकल्प शुल्क दर वृद्धि ही है । परियोजनाआें की बड़ी लागत, पाईपलाईन में एक निश्चित दबाव बनाए रखने हेतु लगातार पम्पिंग, ट्रीटमेंट लागत आदि के कारण परियोजना का संचालन / संधारण खर्च भी अपेक्षाकृत अधिक होता है । परियोजनाआें के निजी हाथों में जाने पर निवेशित पूंजी ब्याज सहित वसूलने के साथ इस पर सुनिश्चित लाभ का भी प्रावधान किया जाता है । ऐसे में यदि पेयजल की दरें कम रखी गई तो वसूली पर्याप्त् नहीं होगी और यदि दरें अधिक रखी गई तो गरीब पानी से भी वंचित कर दिए जाएंगे । चूंकि कंपनियां वसूली तो पूरी ही करेगी ऐसे में संदेह है कि गरीबी रेखा के नीचे जीने वाली ४०% शहरी आबादी को भी २४ ७ पेयजल उपलब्ध करवाया जाएगा ? यदि उपलब्ध करवा भी दिया तो क्या वे पानी का बिल चुकता कर पाएंगे ? संसाधनों के बंटवारे को लेकर समुदाय में तनाव बढ़ रहे हैं । खेती के लिए बने बांधों और जलाशयों के पानी को शहरों और उद्योगों की और मोड़ा जा रहा है । नागपुर में पेंच और गोसीखुर्द परियोजना से पानी आता है । मुम्बई को वैतरणा, भत्सा आदि जलाशयों से पानी मिलता है राजस्थान की बिसलपुर परियोजना में पानी के लिए किसानों में खूनी संघर्ष हो रहा है लेकिन इसका पानी जयपुर, अजमेर तथा अन्य शहरों को निर्बाध रूप से दिया जा रहा है । ओड़िशा के हीराकुड बांध का पानी उद्योगों को दिए जाने के खिलाफ वहां किसान उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं । नर्मदा न्यायाधिकरण द्वारा किए गए जल बंटवारे के अनुसार इंदिरा सागर और आेंकारेश्वर परियोजनाआें से पहले ही सिंचाई काफी कम है । लेकिन इसके बावजूद बगैर किसी पूर्व प्रावधान के इन जलाशयों का पानी ताप बिजलीघरों को दिए जाने का प्रबंध कर दिया गया है हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने बांधों में उद्योगों के लिए ५ प्रतिशत पानी आरक्षित रखने के घोषणा की है । इस घोषणा से समुदायों के मध्य विवाद और बढ़ सकते हैं । इस तरह के जलप्रदाय में भेदभाव अंतर्निहित है । जो पैसा नहीं दे सकता उसे जरूरत का पानी देने का कोई प्रावधान नहीं है । इससे शहरों के गरीब और अमीर इलाकों में संसाधनों के गैरबराबरीपूर्ण बँटवारे को कानूनी जामा पहनाया जाएगा । चौबीसों घण्टों नल में पानी रहने की जरूरत नहीं होती है । खाना खाने के दौरान या उसके बाद पानी का गिलास लेकर मटके की बजाय नगर निकाय के नल की और जाने की क्या जरूरत है ? या नहाने के लिए अपने घर की टंकी के बजाय सीधे नगर निगम की टंकी का पानी क्यों चाहिए ?वास्तव में जरूरत इस बात की है कि दिन में कम से कम एक बार निर्धारित समय पर घण्टा भर जलप्रदाय सुनिश्चित किया जा सके । यदि व्यक्ति समय से पानी प्रदाय किया जाए तो उसे वैसे ही २४ ७ पानी मिलता रहेगा । इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों को अपने खुद के भण्डारण से २४ ७ पानी मिले या फिर नगर निकाय की टंकी से । बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि भुगतान कर सकने योग्य दरों पर सबको पर्याप्त् पानी उपलब्ध करवाना सुनिश्चित किया जाए । देश में लगातार दिन-रात जलप्रदाय के बहुत उदाहरण नहीं है । लेकिन जितने भी उदाहरण हमारे सामने हैं उससे इसकी अव्यावहारिकता तथा वित्तीय स्वावलंबन पर सवाल खड़े हो रहे हैं । इसीलिए निजी कंपनियाँ टेण्डर होने या जलप्रदाय शुरू होने के बाद शर्तों में बदलाव कर रही हैं । खण्डवा की जलप्रदाय योजना के टेण्डर भरने वाली ४ कंपनियों में ३ ने शहर में २४ ७ जलप्रदाय को अव्यावहारिक तथा महँगा बताया था । जबकि टेण्डर हासिल करने वाली चौथी कंपनी विश्वा इन्फ्रास्ट्रक्चर्स एवं सर्विसेस लिमिटेड ने सेवा शुरू करने के पूर्व ही जलप्रदाय का समय २४ घण्टे से घटाकर ६ घण्टे प्रति दिन कर दिया है । इसी प्रकार पिंपरी-चिंचवड़ नगर निगम पुणे ने भी दैनिक जलप्रदाय का समय ६ घण्टे कर दिया है । दिन -रात जलप्रदाय को सीधे निजीकरण से जोड़ा जा रहा है । बताया जा रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की क्षमता नहींहै कि वह चौबीसों घंटे जलप्रदाय कर सके । इसलिए इस काम के लिए निजी कंपनियों को बुलाया जा रहा है । दिन-रात लगातार जलप्रदाय हेतु तीन मुद्दे महत्वपूर्ण माने गए हैं-बड़ा निवेश, आधुनिक तकनीक और बेहतर कार्यक्षमता । वर्तमान में जारी जलप्रदाय व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव होता है इसलिए अधिक धन की आवश्यकता होती है । लीकेज तथा जलहानि रोकने हेतु बेहतर तकनीक की आवश्यकता होगी और इसे चलाने हेतु कार्यक्षम मानव संसाधन भी अपरिहार्य होगा । दुर्भाग्य से यह मान लिया गया है कि ये तीनों बातें सार्वजनिक क्षेत्र के बस में नहीं हैं । इस तरह दिन-रात लगातार जलप्रदाय निजीकरण को आगे धकेलने का एक जरिया मात्र हेै । जीवन के लिए जरूरी इस संसाधन का वितरण बाजार की शक्तियों के हाथों में जाने से समाज का सबसे कमजोर वर्ग तक इसकी पहुँच या तो सीमित हो जाएगी या फिर लगभग खत्म ही हो जाएगी । गरीबों के लिए ऐसी विकट स्थिति पैदा करना कल्याणकारी राज्य के लिए शर्मनाक है । ***

२ हमारा भूमण्डल

हमारी सांस से डोलती prithviigaar
गार स्मित
संयुक्त राज्य अमेरिका पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) ने कार्बन डाईऑक्साईड को क्लीअर एयर एक्ट (स्वच्छ वायु अधिनियम) की धारा २०२ (अ) के अंर्तगत दूषित करने वाले एक तत्व के रूप में परिभाषित कर दिया है । एक वयस्क सामान्य तौर पर प्रति मिनट २५० मिलीलिटर ऑक्सीजन खींचता है और २०० मिली लिटर कार्बन डाईआक्साइड छोड़ता है । इस तरह करीब ६.६ अरब मनुष्यों के फेफड़े निरन्तर कार्यशील रहते है जिनसे प्रतिवर्ष २.१६ खरब टन कार्बन डाईआक्साइड वातावरण में इकट्ठा होती है । मनुष्यों द्वारा सांस लेने के दौरान छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साईड वैश्विक कार्बन डाईआक्साईड उत्सर्जन की ९ प्रतिशत बैठती है जो कि ५० करोड़ कारों द्वारा छोड़ी गई गैस के बराबर है । वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि सन् २०५० तक विश्व की आबादी में ३७ प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी । ये फेफड़े भी प्रतिवर्ष ८२४ अरब टन अतिरिक्त गैस उत्सर्जन करेंगे । पृथ्वी पर सांस लेने वाले जीवों का प्रार्दुभाव करीब ६० करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है । तब से कार्बन डाईआक्साईड और ऑक्सीजन के स्तरों में उतार चढाव आता रहा है । आक्सीजन के मामले में यह १६ से ३५ प्रतिशत तक रहा है । औद्योगिक क्रांति के पूर्व मानवीय सांस का हिसाब-किताब ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था क्योंकि प्रकृति के चक्र से न्यूनतम छेड़छाड़ होती थी । जितनी भी कार्बन डाईआक्साईड निकलती थी वह पेड़-पौधों द्वारा सोख ली जाती थी, जानवर पेड़ पौधे खाते थे तथा पेड़-पौधों और जानवरों को मनुष्य खा जाते थे । परंतु जब से हमने जीवाश्म इंर्धन जलाना प्रारंभ किया तब से डायनासोर के समय से चला आ रहा कार्बन समीकरण बदल गया है । आऊट आफ थिन एयर : डानासोर्स, बर्ड एण्ड अर्थ एन्शिन्ट एटमॉसफियर के लेखकों का आकलन है कि पृथ्वी के पांच विशाल की विलुिप्त् अधिक कार्बन डाईऑक्साइड और कमतर ऑक्सीजन के दौर में हुई । आक्सीजन के स्तर में थोड़ी सी गिरावट को प्राणियों की थोकबंद विलुिप्त् से जोड़ा जा सकता है । पृथ्वी की अनेक प्रजातियां पहले ही बड़ी संख्या में समाप्त् होती जा रही है । दूसरी ओर बाघ से लेकर ध्रुवीय भालु विलुिप्त् की कगार पर खड़े है । सिर्फ हमारी कारें और कारखाने ही कार्बन डाईऑक्साइड नहीं छोड़ते, हमारे भोजन का हिस्सा बना मांस भी जान लेवा साबित हो रहा है । खाद्य एवं कृषि संगठन का कहना है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से निपटने के लिए मीथेन मांस और दुधारू पशु, भौगोलिक बायोमास का २० प्रतिशत उत्सर्जित करते है । पशुआें ने पृथ्वी के ३० प्रतिशत भाग पर कब्जा जमा रखा है और ग्रीन हाऊस गैसों में उनका योगदान १८ प्रतिशत है जो कि यातायात क्षेत्र से भी अधिक है । इससे भी बुरी स्थिति यह है कि गाय मीथेन गैस का अत्यधिक उर्त्सजन करती है । मीथेन गैस, कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले वैश्विक तापमान वृद्धि में २३ गुना ज्यादा योगदान करती है इसी तरह गाय नाईट्रस आक्साईड भी छोड़ती है जो कि कार्बन डाईआक्साइड से २८६ गुना अधिक ताप एकत्रित करता है इतना ही नहीं हमने कार्बन डाईआक्साइड संचित करने वाले वनों और उत्तरी अमेरिका के घास के विशाल मैदानों के स्थानापन्न के रूप मेंका उत्सर्जन करने वाले जानवरो में विशाल बाड़ो को अपना लिया है मीथेन के उत्सर्जन में कमी पर तुरंत ध्यान देना आवश्यक है । इसीलिए पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. राजेन्द्र पचौरी ने मांस न खाने हेतु वैश्विक अपील जारी की है । यह एक अत्यन्त साधारण चुनाव है कि या तो आज आप भुने मांस को छोड़े या कल के अपने टिकाऊ भविष्य को दांव पर लगा दें । इस दौरान लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स की रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के हल हेतु किसी हरी तकनीक में निवेश करना पांच गुना सस्ता है । ब्रिटिश वैज्ञानिक जेम्स लव लॉक का अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक कार्बन डाईआक्साइड की चपेट में आकर जलवायु विप्लव से करीब १० अरब लोग अपने प्राण गवां चुके होंगे और इस घरती पर मात्र एक अरब लोग बचेंगे । हम सांस की नियामत को समझें और सब लोग रूक कर गहरी सांस भरें । अब समय आ गया है कि लवलॉक की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए हम अपने इस ग्रह पर जीवन को बचाए रखने में अपनी जिम्मेदारी स्वीकारें । हम जिस अवस्था में पहुंच रहे हैं उसमें मानवता की अगली सांस उसकी अंतिम सांस सिद्ध हो सकती है । ***

३विशेष लेख

धर्म और पर्यावरण
डॉ.किशनाराम विश्नोई
आदिकाल से ही प्रकृति और मानव के बीच अन्योन्याश्रित संबंध रहा है एक की उपस्थिति स्वत: दूसरे के अस्तित्व का बोध कराती है । इस उपस्थिति का सबसे ज्यादा वर्णन वैदिक साहित्य में उपलब्ध है । वैदिक मनीषा पर्यावरण संरक्षण के लिए ही बनी है वह इस तथ्य को उजागर करती है कि लोक रक्षा के लिए प्रकृति की रक्षा करो । रक्षाये पातु लोक: । यही कारण है कि वेदों में आकाश, पाताल, नदी, सागर, पर्वत, वनस्पति, औषधि, गृह नक्षत्र, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, मनुष्य-देव, सबकी समृद्धि हेतु शांति की कामना की गयी है ऋगवेद में ऋत शब्द आया है । जिसका निहितार्थ ब्रहृाण्ड का सुव्यवस्थापन या नैतिक व्यवस्था है । मानव जगत की तरह प्रकृति भी नैतिक और चिन्मय है । इसका कारण है यह प्रकृति स्वाभाविक मूल्यों से प्रेरित है और नितांत बुद्धि संगत है । तात्पर्य यह है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी नीति से जीवित अनुशासित और व्यवस्थित है । वैदिक वाड्गमय में प्रकृति के भौतिक पर्यावरण पारिस्थितिकी और प्रदूषण से संबंधित चिन्तन ही नही है अपितु जीवन पद्धति के रूप में सांस्कृतिक तथा वाक् पर्यावरण की अभिव्यक्ति पाते है । प्रकृति की मातृवत अवधारणा, वैश्विक दृष्टि की परिचायक ब्रह्माण्ड की संकल्पना प्रकृति में अन्तनिर्हित देवत्व का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन वैदिक संस्कृति में प्रस्फुटित हुआ है । विश्व जनमानस की भांति सनातन धर्मावलम्बियों ने भी प्राकृतिक शक्तियों के प्रति प्रारंभ से ही श्रद्धा का भाव रखा है वैदिक ऋतुआें में अग्नि, सूर्य, वायु, जल, वनस्पति, नदी, पृथ्वी पर्वत आदि अनेक प्राकृतिक शक्तियों की देवों के रूप में पर्यावरण को धर्म के रूप में विशेष मान्यता मिली है । पुराणों में पर्यावरण सन्तुलन की दृष्टि से सर्वाधिक वृक्षों के आध्यात्मिकता के साथ भौतिक उपादेयता का भी में वर्णन हुआ है । मत्स्य पुराण कहता है कि दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र एवं दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है । इसी प्रकार वराहपुराण में वर्णित है कि जो व्यक्ति एक पीपल, एक नीम या वट, दो अनार या नारंगी, दस पुष्प लताएं एवं पांच आमवृक्ष लगाता है, वह कभी नरक में नहीं जाता है । जबकि पद्म पुराण में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट है कि वृक्षों को काटने वाला नरक का भागी होता है । वृहतसंहिता और कोटिल्य अर्थशास्त्र जैसे ग्रथों में पर्यावरण को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाने वाले के लिए यथायोग्य दण्डविधान का उल्लेख है । वृहतसंहिता में एक अन्य पक्ष वास्तुशास्त्र की दृष्टि से स्वच्छ पर्यावरण के औचित्य की चर्चा की गई है । बौद्ध एवं जैन धर्मावलम्बी भी प्रारम्भ से ही प्रकृति संरक्षण के प्रति संवेदनशील रहे हैं । तथागत हो या अर्हत दोनों ने ही राज्य का परित्याग धर्म के लिए किया और अपनी तप भूमि एकान्त जनशून्य अरण्य को बनाया । गौतम बुद्ध को वन में पीपलवृक्ष और महावीर को सालवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त् हुआ । वस्तुत: दोनों चिन्तनधाराए वनों में ही पुष्पित एवं पल्लवित हुई । जैन धर्मावलमबी तों सृष्टि के सभी पदार्थो जड़ या चेतन में जीव का अस्तित्व होता है इसीलिए सच्च्े जैन साहित्य में पर्यावरण को विज्ञान से संबद्ध कर देखा गया है । प्राकृतिक ज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान जब मिलकर कार्य करते है, तो प्रकृति में एक विलक्षण अभियोजन क्षमता उत्पन्न है । गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है । सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न है अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मो से उत्पन्न है ।गीता में श्री कृष्ण ने हमें यज्ञ की भावना से कार्य करने की शिक्षा देते हुए कहा है कि आप देवताआें को संतुष्ट करेंगे तो देवता आप को श्रेयस प्रािप्त् में सहायक होंगे । यज्ञ भावित देवता आपकी सभी कामनाआें की पूर्ति करेंगे । बिना दिये जो खाता है वह चोर है । जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि देवताआें से हमें बिना मांगे स्वास्थ्य सुख और समृद्धिदायक सम्पदाएं प्राप्त् होती है ।बदले में यदि हम इनको क्षतिपूर्ति नहीं करते और इन्हे प्रदूषित करते है तो हमारे वरदान को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगेगी । महाभारत के आदिपर्व में वर्णित समुद्रमंथन के आख्यान में हम समुद्र को देवताआें से कहते सुनते है । यह अच्छी बात है, यदि प्राप्त्ु हुए अमृत मेें मेरा भी भाग रहे तो मेें मन्दरांचल के घुमाने से होने वाली पीड़ा सहर्ष सह लुंगा । यहाँ परोक्षत: संकेत यह लक्षित होता है कि मनुष्य धरती और समुद्र की सम्पदाओं का अपने पुरूषार्थ के बल पर दोहन बेशक यथेष्ट मात्रा में करें मगर शर्त यह है के इस प्रक्रिया में यहाँ ज्ञातव्य है कि राम ने राम पितु तुलसी सदैव जगतपालनहार के रूप में ही देखाहै पर्यावरण की दृष्टि से सर्वाधिक आवश्यक वृक्षों की महिमा रामचरितमानस में विशेष रूप से वर्णित है । मानस में वन देवता की एक प्रमुख देवता के रूप में स्तुति है । इसी प्रकार अयोघ्याकाण्ड के एक प्रसंग में परम पवित्र वनदेवता को सफल सुमंगलों का दाता कहा गया है मुनि प्रसाद बनु मंगलदाता जो भरत के मातृप्रेम और सेवाभावना को देख प्रसन्न होकर उने अपने आशीर्वाद से अभिसिंचित करते है देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा ।देहि असीस मुदित बन देवा ।। अध्योघ्याकाण्ड में एक अन्य स्थल पर भरत और शत्रुघ्न को वन देवता से विनती करते हुए वर्णित किया गया है ।मुनि तापस बनदेव निहोरी ।बस सनमानि बहोरि बहोरि ।। वनदेवता की सर्वाधिक महिमा तो माता कौशल्या के उन वचनों से प्रकट होती है जो उन्होने वन जाते हुए राम को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि वन में वन देवता तुम्हारे पिता एवं बनदेवी तुम्हारी माता होगी । पितु बनदेव मातु बनदेवी । बनदेवता ने भी कौशल्या के आशीर्वचनों की मर्यादा रखी और वृक्षों की छाया, कन्दमूल फलादि खाद्य पदार्थो शीतल सुखकर वायु आदि के माध्यम से राम को उसी प्रकार सुख-सुविधा और संरक्षण प्रदान किया जिस प्रकार पिता अपनी संतान को करता है । इस प्रकार कौशल्या का संदेश है कि वन राम के समान ही मानव समाज के संरक्षक हो सकते है । मनुष्य वनों पर सुखपुर्वक आश्रित रह सकता है । वन शरणागत का पितातुल्य उसी प्रकार संरक्षण करते है जिस प्रकार राम का किया था अत: वनों के प्रति पिता के सदृश्य ही श्रद्धा एवं संरक्षण का भाव अपेक्षित है । सिक्ख धर्म के पवित्र एवं महान् धर्मग्रंथ गुरू ग्रंथ साहिब में पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति रक्षा, जीवरक्षा, सृष्टिरक्षा के विषय में महत्वपूर्ण मान्यताआें का वर्णन हुआ है जपुजी साहिब दो सौ तिरपन पंक्तियों की है इसके आरंभ में मंगलाचरण में गुरू नानक देव जी ने बतलाया है कि परमात्मा एक है वह विश्व का निर्माता और सृजक है । जपुजी साहिब में एक श्लोक प्रकृति संरक्षण की भावना पर निर्भर है उसमें प्रकृति और मानव को परस्पर एक-दुसरे का पूरक और अन्योन्याश्रित बतलाया है गुरू नानक देव के अनुसार पवन गुरू है पानी पिता है, धरती माता है तात्पर्य यह है कि पांच तत्वों से निर्मित मानवशरीर का संरक्षण भी जल और पृथ्वी कर रही है और पवन रूपी गुरू उसे शिक्षा प्रदान कर रहे है और जीव को अपने अपने कर्मानुसार शुभ और अशुभ फल को प्रािप्त् हो रही है । जो गुरू की अनुकंपा से ही भगवान के नाम में प्रवृत हो रहे है उन्हे जन्म धारण करनेका फल भी प्राप्त् हो जाता है और ऐसे व्यक्ति स्वयं तो मुक्त होते ही है ओर दुसरों को भी भवसागर से पार उतार देते है । अत: सही अर्थ में प्रकृति ही मानव की जनक और जननी दोनो ही है और प्रकृति उसे शिक्षा प्रदान करने वाला गुरू भी है इसलिए मानव को प्रकृति का सानिध्य प्राप्त् करना आवश्यक है परन्तु अति भौतिकता ने मानव को प्रकृति से दूर कर दिया है और यह दूरी प्रतिदिन बड़ती जा रही है । जिसके कारण पारिस्थिकीय सन्तुलन बिगड़ गया है । इसलिए मानव को वापिस प्रकृति के सानिध्य मेंलाया जाना जरूरी है ताकि वह प्रकृति के विषय में गहन-चिंतन-मनन कर सके और अपने अस्तित्व को बचा सके । आधुनिक मानव के लिए यह अति आवश्यक हो गया है कि वह शुद्ध पर्यावरण को ही धर्म के एक आवश्यक अंग स्वरूप में अंगीकार करें । तभी पर्यावरण संरक्षण संभव है । वर्तमान समय में मानव की सभी प्रक्रियाएं व जीवन का प्रत्येक आयाम विज्ञान व तकनीकी ज्ञान से संबंधित हो गया और इन्ही कारणों से मानव धर्म से हटकर के पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और उसके निराकरण के उपायों की खोज कर रहा है परन्तु मानव को प्रदूषण की समस्या से निजात दिलाने के लिए धर्म के पर्यावरणी स्वरूप को खोजना होगा । इससे मानव और प्रकृति का सन्तुलन होगा जिससे विश्वयापी पर्यावरण प्रदूषण की ज्वलंत समस्या का समाधान होगा । ***

४ प्रदेश चर्चा

कर्नाटक : पानी पड़ोस में ही है
श्री पद्रे
श्री पति भट कडाकोलि कर्नाटक के उत्तर कन्नड जिले के सिरसा गाँव के किसान है भट परिवार के पास कुल १५ एकड़ जमीन है । जिसमें से ४ एकड़ पर सुपारी और एक एकड़ पर नारियल की फसल है, सन् १९९९ तक उन्हें पानी की कोई समस्या महसूस नहीं हुई । लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे दिक्कत शुरू हुई जो कि २००२ आते-आते बढ़ गई । इनके खेतों में स्थित एक बड़ा कुंआ भी सूख गया । ईलायची के पौधों की फसल पानी पर ५००० रूपये खर्च करने के बावजूद सूख गई और जिस खेत में प्रति एकड़ २० क्विंटल सुपारी का उत्पादन होता था, वह घटकर चार एकड़ में सिर्फ ३२ क्विंटल रह गया । हारकर बोरवेल करवाने का निश्चय किया, लेकिन २२५ फुट खुदाई करवाने के बावजूद पानी नहीं निकला । इसके बाद उन्होेंने भूगर्भशास्त्री और विशेषज्ञ की मदद से सर्वे करवाया जिसने बताया कि इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी भूजल नहीं है । इस समय तक भट परिवार खेती में नुकसान और खर्चो की वजह से ७-८ लाख का घाटा सह चुका था । अतएव उन्हें अपने खर्चो में कटोती करनी पड़ी, खेत पर काम कर रहे कुछ मजदूरोंकी छुट्टी की गई तथा अधिकतर गायें बेच दी गइंर् । उनकी आखिरी उम्मीद सिर्फ मानसून के समय की फसल ही रह गई थी । भट परिवार अपनी पूरी जमीन और अन्य सम्पत्ति बेचने का विचार करने लगे थे क्योंकि लगातार तीन भीषण गर्मियोंं और पानी की कमी ने उन्हें लगभग तोड़कर रख दिया था । इस बीच उन्होंने कन्नड़ पत्रिका आदि के पत्रिके में वर्षाजल संरक्षण और इसकी सफलता के बारे में एक पुरी श्रृंखला पढ़ी, लेकिन हालातों की वजह से किसी प्रयोग की हिम्मत और किसी तकनीक पर भरोसा नहीं हो रहा था । लेकिन अपनी पुश्तैनी जमीन को बचाने के इरादे से उन्होंने अपने जीवन का अखिरी दाँव भी आजमाने की ठान ली । पहाड़ी का वनक्षेत्र कहने भर को ही जंगल था, क्योंकि वहाँ गिने-चुने छितराये हुए पेड़ ही मौजूद थे, तथा मानसून के दौरान बारिश का पानी भारी मात्रा मे फालतू बह जाता था । पहाड़ी से लगा खेत का दो एकड़ का एक टुकड़ा श्रीपति परिवार के लिये चावल के कटोरे जैसा था । इसीलिए उन्हें इस खेत सेे काफी लगाव है ।जब उन्होंने वर्षाजल संरक्षण की शुुरूवात की तब पाया कि उनके इस खेत के तालाब को भरने के लिये पर्याप्त् पानी नहीं आ रहा, इसलिये उन्होंने एक योजना बनाई, और जंगल के पानी को बेकार जाने से रोकने के लिये लगभग एक किलोमीटर लम्बी पतली नहर खोदी, ताकि पहाड़ी से नीचे आने वाला पानी सीधे तालाब में आए । इससे यह छोटा तालाब दोबारा जी उठा और मानसून के दौरान लबालब भर गया । श्री भट के धान के खेतों के ऊपरी हिस्से में एक मिट्टी का तालाब बना है । उसे दिखाते हुए वे कहते है, कि इस तालाब से रिस-रिसकर पानी नीचें खेतों तक आ जाता था । पानी की कमी की वजह से खेत का आधा एकड़ हिस्सा खेती लायक नहीं रहता था । श्रीपति कहते है ५ साल पहले तक इस खेती में एक छोटा सा पोखरनुमा गढ्ढा था । जिसमें बारिश का पानी इकट्ठा हो जाता था , पर वह कभी-कभी सूख जाता था पर आज इस टैंक का पानी कभी सूखता नहीं है । हालांकि इस साल बारिश कम हुई है । लेकिन हमारे खेतों के लिये यह पर्याप्त् है अब हमें पानी की कोई कमी नहीं होती । लेकिन यह हुआ कैसे? इस पर श्रीपति कहते है कि खेत में तालाब बारिश के पानी को सहेजने वाला जादू है, लेकिन इस जादू को दिखाने वाला जादूगर उधर पहाड़ में बैठा है बरसाती पानी को सोखने वाले गड्ढों (कंटूर जैसी संरचना) की एक श्रृंखला हमने ऊपर के पहाड़ी पर बना रखी है ।और उसकी मिट्टी भी बेकार न जाऐ इसके लिये हमने ढलान के बहाव पर वनक्षेत्र में ही एक छोटी बाँधनुमा संरचना तैयार की, जिसमे लगभग २५,००० लीटर पानी तो सहेजा ही जाता है साथ ही मिट्टी भी रोक ली जाती है । इसे बाद पानी रिसते हुए नीचे आ जाता है । खेत के इस टैंक से लगभग ५० मीटर ऊपर ही एक टपक तालाब है और इन दोनो के बीच एक छोटी खाई जैसी संरचना है जिसे वनभूमि और खेत की सीमा को अलग करने के लिये खोदा गया है । खाई के दोनों सिरों पर मिट्टी की दीवार बनाई गई है ताकि पानी बेकार न बहे और इसकी वजह से धरती में पानी रोकने का एक और संसाधन तैयार हो गया है । धीरे-धीरे पहाड़ी के जंगल में पानी रूकने की मात्रा ब़़ढी, नतीजा हुआ कि पानी लगातार और ज्यादा रिसने लगा । गढ्ढे मार्च-अपैल तक पानी से लबालब रहने लगे । पानी की वजह से मोर और हिरन आदि की तादाद भी इलाके में बड़ने लगे । जल्द ही गढ्ढो ने तालाब का रूप ले लिया, जब इनमें सालभर पानी रहने लगा तो खुदाई करके थोड़ा और चौड़ा बना दिया गया, ताकि ज्यादा पानी सहेजा जा सके । अब यहां खेत और आसपास के क्षेत्र मेंमात्र ७-८ फुट की खुदाई पर ही पानी निकल आता है । पिछले दो साल से श्रीपति अपने धान के खेतों में पाइप के जरिये ही सिंचाई कर रहे है जबकि उनके मुताबिक वह इस साल बहते हुए पानी से सिचाई के बिना भी अच्छी फसल लेेने में कमायाब हो जायेंगे । वन विभाग के रवैये मे बदलाव - भट परिवार के सदस्यों ने पानी को रोकने के लिये आसपास खाईयाँ बनाना शुरू किया । छोटी-छोटी खाईयाँ एक मीटर गहरी और ४-५ लीटर चौड़ी थी जिसमें आसानी से ५,००० लीटर पानी एक बार मे एकत्रित किया जा सकता था । वन विभाग के निचले स्तर के कर्मचारियों ने इस ख्ुादाई पर आपत्ति की और किसानों से इन खाईयों को भरने को कहा । इस पर उन्होंने उच्च् अधिकारीयों से इस सम्बन्ध में चर्चा करने की इच्छा जताई । बातचीत के बाद विवाद सुलझा और वन विभाग ने भी ऐसी खाईयों (खंतियों) की उपयोगिता समझी । दो साल के भीतर ही विभाग का रवैया एकदम बदल गया । जल संरक्षण के लिए गड्डे खोदने का काम २००२ में शुरू किया गया और लगातार २-३ साल तक यह काम किया गया । लगभग दस एकड़ के क्षेत्र में इसे लागू किया गया । लगभग पचास मानव श्रम दिवस और अधिक से अधिक प्रति खाई ८,००० रूपये के खर्च पर यह काम किया गया । आज पहाड़ी के तथा आसपास के खेतों में एक भी जलस्रोत ऐसा नहीं है जो कभी सूखता हो । इस तरह से बारिश का लाखों लीटर पानी धरती की गोद में उतार दिया गया । इससे बाद उन्होेंने सूपारी के अपने खेत में कुँआ खोदा और वह भी सफल रहा । उनका सुपारी उत्पादन अब पुन: २००१ के स्तर तक पहुँच गया है । दिवाकर भट छोटे-छोटे तालाबों के खत्म होते जाने को लेकर चिंतित है । इन तालाबोंको स्थानीय भाषा में कोला कहा जाता है, उनका कहना है कि यदि परम्परागत कोला सभी जगह हों तो सुपारी की फसल में लगने वाले सिंचाई के पानी में बहुत कमी आ सकती है । भट परिवार ने पिछले तीन साल में हुई वर्षा का पुरा हिसाब-किताब रखा है । हालांकि उनका गाँव सिरसी कस्बे से १२ किलोमीटर ही दूर है लेकिन श्रीपति बताते है कि सिरसी में वार्षिक औसतन बारिश २५०० मिमी होती है जबकि हमारे गाँव में यह औसत २००० से २२०० मिमी है लेकिन हमें कोई चिन्ता नहीं है । यदि आप धरती की गोद में पानी की एक बाल्टी भरकर रखे सकते है ।जब कभी भी उसमें से आधी बाल्टी ले सकते है ।काश कि भारत के और हिस्सों के लोग भी धरती की गोद में पानी उतारने का यह जादू अपनाते । ***

५ वातावरण

ग्लोबल वार्मिग के न्यूनीकरण के कदम
प्रेमचन्द श्रीवास्तव
आज सारा विश्व-धरती के गर्मातें जाने की समस्या से परेशान है । जलवायु में परिवर्तन हो रहा है मौसम अपना तेवर दिखा रहा है । कही चरम सूखा तो कही अत्यधिक वर्षा से जल प्लावन द्वारा फसलें तैयार होने के पूर्व ही नष्ट होती जा रही है। रेगिस्तानी क्षेत्रों में पशु पानी के अभाव में मर रहें है जल-स्रोत तो सूखाते जा रहे है पृथ्वी का जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है । ऐसा नहीं कि लोग वैश्विक तापन की समस्या और सम्भावित खतरों को समझ नहीं रहे हैं । विभिन्न देशों की सरकारें भी जागरूक है इसलिए हमें इस समस्या से भयाक्रंात होकर हाथ पर हाथ धरे बैठने की जगह समाधान की ओर ध्यान देना होगा इस संबंध में पहल हो चुकी है । वैश्विक तापन के खतरे को कम करने के लिए मेजर इकॉनामीज फोरम एम ई एफ पर भारत ने २.९ दो डिग्री सेन्टीग्रेड ताप कम करने के लक्ष्य का अनुमोदन कर दिया है । क्योटो प्रोटोकोल पर भारत ने पहले भी हस्ताक्षर कर दिये था । भारत के ऐसा करने पर भारत सरकार को बड़ी आलोचना का, भारत में ही , सामना करना पड़ा है । संबंधित अधिकारियों, जो इस मुद्दे को लेकर संघर्षरत थे, उनका कहना है कि उनके प्रयासों पर इससे पानी फेर दिया है जुलाई २००९ में ही इस संबंध में उन्होने अपना विचार भी व्यक्त कर दिया है किन्तु उन अधिकारियों को अब स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनका संघर्ष उनकी लड़ाई गलत दिशा में चल रही थी । भारत निचले अक्षांतर वाला कटिबंधी देश है इसलिए ताप के बढ़ने के प्रति भारत की दशा अत्यंत नाजुक है भारत में मौसम परिवर्तन भारत की प्रगति और खुशहालीके लिए बाधा रहा है । और ग्लोबल वार्मिंग वैश्विक तापन के साथ मौसम में बदलाव होता ही रहेगा । तिब्बत के पठार प्लेटो हिन्दुकुश और हिमालय पर्वत क्षेत्र में ताप वृद्धि के प्रभाव से उत्तर एशिया में सुरक्षा का मुद्दा उठ खड़ा होगा । और दक्षिण एशिया के देशों के बीच आपसी संबंधों में उत्तेजना का जन्म होगा । प्रक्षेपित हिमपात में परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप प्रायद्वीपीय भारत में पानी की उपलब्द्धता की परिवर्तनशीलता में वृद्धि होगी । सागरों के जलस्तर में वृद्धि से समुद्रतटीय बस्तियों को खतरा होगा । जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर सरकारी पैनल द्वारा निर्धारित सूची के अनुसार सबसे ज्यादा अपवादात्मक रूप से नाज़ुक स्थिति गंगा-ब्रह्मपुत्र नदियों का मुहाना है । प्रारंभ में ही प्राप्त् प्रभाव इंगित करते है कि भारत के सुन्दरवन और बांग्लादेश पर बड़े प्रभाव पड़ेगे भारत को गंभीर रूप से मौसम प्रवासियों का सामना करना पड़ेगा । इसलिए यह तथ्य भारत के राष्ट्रीय हित में है कि वह जहाँ तक संभव हो, ताप वृद्धि को कम करने का संकल्प करे ताकि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को सीमित किया जा सके । भारत ने कम से कम २०उ ताप कम करने के मसौदे पर हस्ताक्षर किया है । लक्ष्य को प्राप्त् करने के लिए हरित पौधगृह गैसों के उत्सर्जन के स्तर मे कमी की जाये और दूसरे मार्ग की खोज जिससे हरित पौधगृह गैसों के स्तर को आवश्यक स्तर तक ले जाना आवश्यक स्तर तक ले आना । २०उ ताप कम करने के लिए धीरे-धीरे हरित पौधगृह गैसो के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना होेगा । ताकि हम आज जितनी हरित पौधगृह गैसों का उत्सर्जन कर रहे उसकी मात्रा को कम करते करते २०५० तक आधी कर दें । २०उ के लक्ष्य पर हस्ताक्षर करके भारत ने कुछ खोया नहीं है । भारत का लक्ष्य और मांग अभी भी अपनी जगह पर बनी हुई है । वैसे बात तभी बन सकती है जब विकसित देश इसके लिए सही दिशा में अधिक सक्रियता से प्रयास करें। इस संबंध में हम तर्क कर सकते है कि विकसित देशों को कार्बन डाईऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी का ऊँचा लक्ष्य रखकर सन् २०२० तक २५-४० प्रतिशत कमी का लक्ष्य पुरा कर लेना चाहिए जैसा कि अतंराष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण कौंसिल ने निर्धारित किया है । किन्तु विकसित देशों ने उत्सर्जन में कमी करने का लक्ष्य मात्र २०उ रखा है । ऐसी दशा में विकासशील देश क्या करें ? किसी बहस में न पड़ कर विकासशील देशों को निर्धारित लक्ष्य को निर्धारित समय तक अवश्य पुरा लेना चाहिए। यह भारत सहित विकासशील देशों के हित में है । विकसित देश उत्सर्जन में ५० प्रतिशत की कमी करके ताप का लक्ष्य २०उ प्राप्त् कर लें, आवश्यक नहीं है । लक्ष्य नहीं भी प्राप्त् हो सकता है इसलिए सन् २०५० तक अचानक लक्ष्य पा लेना मुश्किल होगा और ऐसी दशा में हमें तैयार रहना होगा कि हमारी अगली पीढ़ी के बच्च्े कार्बन से प्रदूषित पर्यावरण में रहने के लिए विवश होंगे । भारत, चीन और कुछ अन्य तेज गति से विकास करने वाले देशों में कार्बन प्रदूषण का अधिकांश उत्सर्जन जिन स्रोतो से होगा उन्हे रेखांकित किया जाना अभी शेष है । हमारे पास यह चुनाव है कि हम कम से कम कार्बन उर्त्सजित करने वाली प्रौद्योगिकियों को विकसित करें । मौसम संबंधी बातचीत या समझौते हमारी कार्यसूची में कहीं ज्यादा है ।वरन इसके कि हम बहुत दूर की सोचें समझौते जो बर्फ की तरह जमें हुए रूके पड़े थे, अब पिघल रहे हैं । या यों कहे ं की समझौतो के लिए पृष्ठभूमि तैयार है । क्योटो प्रोटोकॉल के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि जी-८ सम्मेलन के अवसर पर विकसित देशों ने सन् २०५०तक कार्बन डाइऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में ५० प्रतिशत की कमी करना स्वीकार कर लिया है । अमेरिकी सीनेट ने बोनस बिल का प्रस्ताव रखा है ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन ने पिछले दिनों एक अवसर पर बोलते हुए स्पष्ट किया है कि विकासशील देशों को सहायता राशि के अतिरिक्त मौसम परिवर्तन पर खर्च के लिए एक प्रावधान किया गया है । इसलिए जलवायु परिवर्तन पर हुई एम.ई.एफ की बातचीत के विषय में निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यह समझौता भारत के हित में है और विश्व के भी हित में है । ***

६ स्वास्थ्य

होम्योपैथी की दो शताब्दी
ड़ॉ.ए.के.अरूण
इस वर्ष १० अप्रैल को होम्योपैथी के भारत में२०० साल पूरे हो चुके है । इस बहाने होम्योपैथी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओ पर चर्चा जरूरी है । शुरू से ही आधुनिक चिकित्सा पद्वति एलोपैथी का होम्योपैथी के प्रति तंग नजरिया रहा है । एक सहज एवं सस्ती चिकित्सा प्रणाली होते हुए भी होम्योपैथी का भी महत्वपूर्ण या प्रमुख चिकित्सा पद्वति नहीं माना गया । कभी जादू की झप्पी तो कभी प्लेसिबो कहकर इसे महत्वहीन बताने की कोशिश हुई, लेकिन अपनी क्षमता और वैज्ञानिकता के बल बूते होम्योपैथी विकसित होती रही । होम्योपैथी एलोपैथी के बाद दुनिया में एक दूसरी सबसे बड़़ी चिकित्सा पद्वति है । होम्योपैथी एक ऐसी चिकित्सा विधि है जो शुरू से ही चर्र्र्चित, रोचक और आशावादी पहलुओं के साथ विकसित हुई है । सन् १८१० में इसे जर्मन यात्री और मिशनरीज अपने साथ लेकर भारत आए इन छोटी मीठी गोलियों ने भारतीयों को लाभ पहुंचा कर अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया । सन् १८३९ में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की गम्भीर बीमारी के इलाज के लिए फ्रांस के होम्योपैथी चिकित्सक डा. होनिंगबर्गर भारत आए थे उनके उपचार से महाराजा को बहुत लाभ मिला था । बाद में सन् १८४९ में जब पंजाब पर सन हेनरी लारेन्स का कब्जा हुआ तब डा. होनिगबंर्गर अपने देश लौट गए । सन्१८५१में एक अन्य विदेशी चिकित्सक सर जान हंटर लिट्टर ने कलकत्ता में मुफ्त होम्योपैथी चिकित्सालय की स्थापना की । सन् १८६८ में कलकत्ता से ही पहली भारतीय होम्योपैथी पत्रिका शुरू हुई तथा १८८१ में डा. पी.सी मजुमदार एवं डा.डी.सी.राय ने कलकत्ता में भारत के प्रथम होम्योपैथी कॉलेज की स्थापना की । होम्योपैथी के आविष्कार की कहानी भी बडी रोचक है । जर्मनी के एक विख्यात एलोपैथिक चिकित्सक डा.सैमुअल हैनिमैन ने चिकित्सा क्रम में यह महसूस किया कि एलोपैथिक दवा से रोगी को केवल अस्थाई लाभ ही मिलता है । अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर उन्होने दवा को शक्तिकृत कर प्रयोग किया तो उन्हेंअत्यधिक सफलता मिली और उन्होंने सन् १७९० में होम्योपैथी के सिद्वांत सिमिलिया-सिमिकलबस-क्यूरेन्टर यानि सदृश रोग की सदृश चिकित्सा का प्रतिपादन किया । हालांकि इस सिद्वांत का उल्लेख हिप्पोेके्रटस एवं उनके शिष्य पैरासेल्सस ने अपने ग्रन्थों मंे किया था लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय डा. हैनिमैन को जाता है । उस दौर में एलोपैथिक चिकित्सकों ने होम्योपैथिक सिद्वांत को अपनाने का बडा जोखिम उठाया,क्योंकि एलोपैथिक चिकित्सको का एक बडा व शक्तिशाली वर्ग इस क्रांतिकारी सिद्वांत का घोर विरोधी था । एक प्रसिद्व अमेरिकी एलोपैथ डा.सी. हेरिंग ने होम्योपैथी को बेकार सिद्व करने के लिये एक शोध प्रबन्ध लिखने की जिम्मेवारी ली । वे गम्भीरता से होम्योपैथी का अध्ययन करने लगे । एक दूषित शव की परीक्षा के दौरान उनकी एक ऊँगली सड़ जुकी थी । होम्योपैथिक उपचार से उनकी अंगुली कटने से बच गई । इस घटना के बाद उन्होंने होम्योपेैथी के खिलाफ अपना शोध प्रबन्ध फेंक दिया । बाद में वे होम्योपेैथी के एक बड़े स्तम्भ सिद्ध हुए । उन्होंने ही रोग मुक्ति का नियम भी प्रतिपादित किया । डॉ. हेरिंग ने अपनी जान जोखिम में डालकर सांप के घातक विष से होम्योपैथी की एक महतवपूर्ण दवा लैकेसिस तैयार की जो कई गम्भीर रोगों की चिकित्सा में महत्वपूर्ण है । होम्योपैथी ने गम्भीर रोगों के सफल उपचार के अनेक के दावे किये लेकिन अर्न्तराष्ट्रीय चिकित्सा मंच पर इन दावों के प्रमाण प्रस्तुत करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई । मसलन यह वैज्ञानिक चिकित्सा विधि महज संयोग मानी जाने लगी और समाज में ऐलोपैैथी जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पाई । अर्न्तराष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिकाआें में भी होम्योपैथी को महज प्लेसिबो (खुश करने की दवा) से ज्यादा और कुछ नहीं माना गया । होम्योपैथी को एलोपैथी लाबी द्वारा कमतर आंकने के पीछे जाहिर है उनकी व्यावसायिक प्रतिद्वंदता ज्यादा है । होम्योपैथी को जन सुलभ बनाने की जिम्मेदारी तो समाज और सरकार की है । हमारे योजनाकार भी महंगी होती एलोपेथी चिकित्सा के मोहजाल से नही ेबच पाए हैं । सालाना २२,३०० करोड़ रूपये के बजट में से मात्र ६९४ करोड़ (४.४ प्रतिशत) रूपये देसी चिकित्सा पर जिसमें भी महज १०० करोड़ होम्योपेथी चिकित्सा पर खर्च कर हम सवा सौ करो़़ड की आबादी वाले देश में होम्योपैथी से क्या उम्मीद कर सकते है अपने हर दम-खम पर भारत मेंं तेजी से लोकप्रीय के मौजूदा विकास कर ज्यादा श्रेय तो होम्योपैथी के चिकित्सा और प्रशंसको को ही जाता है । लेकिन यह सच है कि सरकारी पहल के बिना होम्योपैथी को जन-जन पहुंचाने का लक्ष्य पूरा हो सकता । एलोपैथी चिकित्सा द्वारा बिगड़े एवं लाइलाज घोषित कर दिये गए रोगों में होम्योपैथी उम्मीद की अन्तिम किरण की तरह होती है । कुछ मामले में तो होम्योपैथी वरदान सिद्ध हुई है तथा अनेक मामले में होम्योपैथी ने रोगी में जीवन के उम्मीद का भरोसा जगाया है । चर्म रोग, जोड़ो के दर्द, कैंसर, ट्यूमर, पेट रोग, शिशुआें और माताआें के विभिन्न रोगों में होम्योपैथी की प्रभाविता बेजोड़ है । होम्योपैथिक दवा विरोधी लाबी होम्योपैथी को आगे नहीं आने देना चाहती । कारण स्पष्ट है कि एलोपेथिक दु:प्रभावों से उबकर काफी लोग होम्योपैथी या दूसरी देसी चिकित्सा पद्धति को अपनाने लग जायेंगे । फिर तो सरकार और मंत्रालय में इनका रूतबा बढ़ेगा एलोपैथी की प्रतिष्ठा एवं आधुनिक चिकित्सा लाबी की यह दृष्टि इस सरल चिकित्सा पद्धहृत को आम लोगों के लिये पूर्ण भरोसेमन्द नहीं बनने देती । सर्वविदित है कि दुनियां में जनस्वास्थ्य की चुनौतियां बढ़ रही है और आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन चुनौतियों से निबटने में एक तरह से विफल सिद्ध हुई है । प्लेन हो या सार्स, मलेरिंया हो या टी.बी. एलोपैथिक दवाआें ने उपचार की बात तो दूर रोगों की जटिलता को और बढ़ा दिया है । मलेरिया और घातक हो गया है । टी.बी. की दवाएं प्रभावहीन हो गई हैं, लू के वायरस रोग के ही खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं । शरीर में और ज्यादा एन्टीबायोटिक्स को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रही । कुपोषण की वजह से आम आदमी जल्दी जल्दी बीमार हो रहा है । ऐसे में होम्योपैथी एक बेहतर विकल्प हो सकती है । जन स्वास्थ्य के प्रबन्धन मेंहोम्योपैथी की महती भूमिका को आज भी नजरअन्दाज किया जा रहा है । अनेक घातक महामारियों से बचाव के लिये होम्योपैथिक दवाआें की एक पूरी रेंज उपलब्ध है । आवश्यकता है इस पद्धति को मुक्कमल तौर पर आजमाने का। होम्योपैथी की इस विशेषता के होते हुए अब सवाल यह उठता है कि वे कौन लोग या कौन से समूह है जो होम्योपैथी को विकसित होते नहीं देखना चाहते ? भारत ही नहीं होम्योपैथी के खिलाफ इन दिनों दुनिया भर में मुहिम चलाई जा रही है । ब्रिटेन की संसद में भी होम्योपैथी के मुुद्दे पर वहां के सांसद पक्ष-विपक्ष में बंटे हुए हैं । होम्योपैथी की विरोधी लाबी वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में होम्योपैथी की उपस्थिति और लगातार हो रही वृद्धि से परेशान है । लगभग यही स्थिति एशिया और अन्य विकासशील देशों में है । सवाल है कि देश में जहां ७० फीसदी से ज्यादा लोग लगभग २० रूपये रोज पर गुजारा करते हों वहां होम्योपैथी जैसी सस्ती चिकित्सा पद्धति के अलावा सस्ता चिकित्सा विकल्प भला और क्या हो सकता है ? हमारे योजनाकारों को इस मुद्दे पर गम्भीरता से सोचना होगा । ***

७ पर्यावरण परिक्रमा

शहरी प्रदूषण से बढ़ता है रक्तचाप !
अब तक शहरों के प्रदूषण को श्वास की बीमारियों से जोड़ा जाता था, लेकिन अब उसे उच्च् रक्तचाप का भी एक महत्वपूर्ण कारक बताया गया है । जर्मनी के शोधकर्ता ने पाँच हजार लोगों पर अध्ययन किया और पाया कि लंबे समय तक प्रदूषण झेलने वाले लोगों का रक्तचाप ऊँचा हुआ है । शोधकर्ता के इस दल का कहना है कि प्रदूषण कम करने की कोशिश की जानी चाहिए । उच्च् रक्तचाप से रक्त वाहिकाए सख्त हो जाती है ।जिससे दिल के दोर या पक्षाघात का खतरा बढ़ जाता है । डुइसबर्ग एसेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता ने आबादी पर चल रहे एक अध्ययन का डेटा इस्तेमाल किया और देखा कि २००० से लेकर २००३ के बीच वायु प्रदूषण का रक्तचाप पर क्या असर पड़ा । इससे पहले हुए अध्ययन बता चुके है कि वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने से रक्तचाप भी बढ़ सकता है । लेकिन अभी तक यह यह पता नहींपता था कि लें समय तक प्रदूषण का सामना करने का क्या असर होता है । डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय में पर्यावरण और नैदानिक महामारी विज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ. बारबरा हॉफमैन ने कहा कि हमारे शोध के परिणाम बताते है कि जिन इलाकों में वायु प्रदूषण अधिक है वहाँ रहने वालों में उच्च् रक्तचाप अधिक पाया गया है । उन्होंने कहा कि ये जरूरी है कि जहाँ तक हो सके लंबे समय तक लोगोंको अधिक वायु प्रदूषण से बचाएँ । अब यह दल इस बात की खोज करेगा कि क्या लंबे समय तक अधिक प्रदूषण में रहने से रक्त वाहिकाएँ जल्दी सख्त हो जाती है या नहीं । ब्रिटिश हार्टफांडेशन में काम करने वाली एक वरिष्ठ नर्स जूड़ी जो सलिवेन ने कहती है । कि हम जानते है कि वायु प्रदूषण, दिल और रक्त वाहिकाआें की बीमारियों के बीच संबंध है लेकिन हम अभी यह पुरी तरह नहीं जानते कि ये संबंध क्या है । उन्होंने कहा कि यह अध्ययन एक रोचक सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि वायु प्रदूषण से रक्तचाप बढ़ सकता है इस दिशा में काफी शोध हो रहे हैं । इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि लोगों को प्रदूषण के खतरों से बचाने के लिए क्या किया जाए । हर सेकंड में ७० पशुआें की बलि ! हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में चमड़े के बने जूते, बेल्ट और टोपी की मांग बहुत ज्यादा है लेकिन इन्हें इस्तेमाल करने वाले यह नहीं जानते है कि चमड़ा निकालने के लिए जानवरों की हडि्डयों के जोड़ो को चटकाया जाता है और उन्हें उल्टा लटका कर उनकी गर्दन काट दी जाती है । एक सर्वेक्षण के अनुसार चमड़े के लिए दुनियाभर में हर सेकंड ७० से अधिक गाय, भैंस, सुअर, भेड़ और अन्य जानवरो को मौत के घाट उतार दिया जाता है । ज्यादातर चमड़ा गाय, भैस, भैड़, बकरी आदि की खाल से बनाया जाता है इसके अलावा घोड़ा, सुअर, मगरमच्छ सांप और अन्य जानवरों की खालें भी चमड़े के स्रोत है एशिया के कुछ हिस्सों में चमड़े की खातिर कुत्तों और बिल्लीयों को भी मारा जाता है । चमड़ा और उससे बना सामान खरीदते समय यह नही बताया जा सकता कि यह किस जानवर से बना है चमड़े की खतिर गाय और भैंस के सींग तोड़ दिये जाते हैं और उन्हें भूखा प्यासा रखा जाता है । पश्ुाआें पर क्रूरता के खिलाफ काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (पेटा) ने लोगों से चमड़े के बजाय वनस्पतियों से बने जूते, बेल्ट और और टोपी का इस्तेमाल न करने की अपील की है । वनस्पतियों से बने सामान चमड़े की अपेक्षा ६० से ७० प्रतिशत तक सस्ते होते है भारत में पेटा की प्रमुख अनुराधा साहनी ने कहा कि देश में चमड़े को इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च में मांस के सह उद्योेग की संज्ञा दी गई है जबकि वास्तविकता यह है कि निर्यात के रूप में यह मांस की अपेक्षा अधिक मूल्य पाता है ।उन्होंने कहा कि सरकार चमड़े की खरीद परिवहन में पशुआें के प्रति क्रूरता और कसाईखाने में उनके साथ दर्दनाक व्यवहार को खुला समर्थन देती है ।भारत मे उत्सर्जन ५५ फीसदी बढ़ा सरकार की जलवायु परिवर्तन पर आकलन तंत्र (आईएनसीसीए) की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि देश में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन १३ वर्ष मे करीब ५५ फीसदी तक बढ़ गया है लेकिन जनसंख्या के लिहाज से बात करें तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व के औसत आंकड़ों के मुकाबले अब भी कम है । आईएनसीसीए की रिपोर्ट भारत (ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन २००७) मे पर्यावरण के लिये घातक गैसों के उत्सर्जन में १९९४ की तुलना में २००७ तक आये परिवर्तन का आकलन पेश किया गया है । रिपोर्ट कहती है कि वर्ष १९९४ में भारत में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन १२,२८५,४० लाख टन था जो २००७ में बढ़कर १७,२७९,१० लाख टन हो गया । यानी १३ वर्ष की अवधि में उत्सर्जन में करीब ५५ फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई । इसके बावजूद २००७ में अमेरीका और चीन का ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन भारत से करीब चार गुना ज्यादा था । सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंर्ट की प्रमुख सुनीता नारायण ने कहा, इस रिपोर्ट में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आंकड़े है । लेकिन सिर्फ इसी आधार पर हम यह नहीं कह सकते की हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे है । रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ग्रीन हाऊस गैसोंके प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं देखी गयी है । वर्ष १९९४ में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन १.४ टन था जो २००७ में बढ़कर १.७ टन हो गया । विश्व में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन औसतन दो टन है । बहरहाल सुश्री सुनीता स्वीकार करती है कि आंकड़े जारी होना जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने में गंभीर नहीं होने का भारत पर आरोप लगाने वाले देशों के लिये एक जवाब है । रिपोर्ट कहती है कि ग्रीन हाऊस गैसों के कुल उत्सर्जन में सबसे ज्यादा ५८ फीसदी हिस्सेदारी ऊर्जा क्षेत्र की है । इसके बाद उद्योग जगत के कारण २२ फीसदी, कृषि क्षेत्र की वजह से १७ फीसदी और अपशिष्ट के चलते तीन फीसदी का उत्सर्जन होता है पर्यावरणविद वंदना शिवा ने कहा कि दुनिया यह नही जानती थी कि तेजी से विकास कर रही देश की अर्थव्यवस्था में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कितना है । इन आंकड़ों से निश्चित तौर पर सरकार को अपनी बात रखने और जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में हो रही कोशिशों मेें पारदर्शिता लाने में मदद मिलेगी । उन्होंने कहा कि १९९४ से २००७ के बीच अगर कार्बन उत्सर्जन में ५५ फीसदी तक इजाफा हुआ है तो यह उत्साहजनक संकेत नहीं है । अब यह हमारे लिये चिंता का विषय है कि हम आने वाले वर्षो में कैसे उत्सर्जन में २० से २५ फीसदी की कटौती लाने वाले है । वह बताती है कि भारत ऊजा जरूरतों और उत्सर्जन के बीच संतुलन नहीं बिठा पा रहा है । ऊर्जा क्षेत्र की कुल उत्सर्जन में जितनी हिस्सेदारी है वह चिंता का विषय है नदियों और खेतीहर ग्रामीणों को नुकसान पहुचाते बाँधों का निर्माण किया जा रहा है पर लक्ष्य ऊर्जा के विकल्पों पर ज्यादा आक्रमकता के साथ काम नही किया जा रहा । भारत में ग्रीन हाउस गैसोें के उत्सर्जन के आंकड़े जारी करते हुए पिछले दिनों पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने कहा था यह किसी भी विकासशील देश की ओर से जारी हुए अब तक के सबसे अद्यतन आंकड़े है भारत इस आकलन के लिये बाध्यकारी नहीं था लेकिन हमने स्वेच्छा से यह पहल की । उन्होेंने कहा था, ग्रीन हाउस गैसोें के उत्सर्जन के मामले में इससे पहले देश के पास १९९४ के आंकड़े थे ।
माइनिंग बोर्ड बना वाइल्ड लाइफ बोर्ड वन्य प्राणियों के संरक्षण और संवर्धन के उद्देश्य से गठित मध्यप्रदेश राज्य वन्य प्राणी बोर्ड माईनिंग बोर्ड बन कर रह गया है । मुख्यमंत्री की अध्यक्षता मे संपन्न बोर्ड की बैठक के एजेण्डे में वन्य प्राणियों के संरक्षण का एक भी प्रस्ताव नहीं था । जितने भी प्रस्तावों को हरी झंडी दी गई वे सभी खदान आवंटन या फिर निर्माण से जुड़े हुए है पिछले दिनों प्रदेश के पन्ना के नेशनल पार्क के बाघ विहीन होने की छाया में दो साल के अंतराल के बाद हुई नवगठित बोर्ड की इस पहली बैठक के एजेण्डे में शामिल दो दर्जन से अधिक प्रस्ताव जंगल और वन्य प्राणियों की परेशानी बढाने वाले रहे । बड़े औद्योगिक घरानों को उपकृत करने का आलम यह था कि जेपी एसोसिएट्स को पेंच और सतपुड़ा नेशनल पार्क के बीच कोयला खदान और सीधी में माइन की एनओसी को हरी झण्डी दे दी गई । इसके साथ ही तीन कोल ब्लाक आवंटन पर बोर्ड ने पर्यावरणीय मूल्यांकन की शर्त के साथ मुहर लगाई । राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य से होकर गुजरने वाली दस सड़कों की सहमति पर भी बोर्ड राजी हुआ। ये सारे प्रस्ताव खुद वन विभाग की ओर से रखे गए थे । जानकार बताते हैं कि पिछली बैठकों में संबंधित विभाग के अधिकारी इन प्रस्तावों पर अपना पक्ष रखते थे और वन विभाग की आपत्तियों का निराकरण करते थे । लेकिन अब तो बोर्ड में ऐसी परंपरा समाप्त् हो गयी है । ***

८ खास खबर

अब इंसान बन जाएगा ईश्वर
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
अमेरिका के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम जीवन की रचना करने का दावा किया है । उन्होनें मानव निर्मित डीएनए से एक जिंदा कृत्रिम कोशिका बनाने में सफलता हासिल की है । लेकिन उनकी इस कोशिश ने नैतिक, दार्शनिक व वैज्ञानिक सवाल भी पैदा किए हैं । शोधकर्ता ने कम्प्यूटर के जरिए चार रसायनों की मदद से एक कृत्रिम कोशिका बनाई है क्रेग वेंटर इंस्टीट्यूट के प्रमुख अनुसंधानकर्ता डॉ. क्रेग वेंटर ने कहा-हम इसे कृत्रिम कोशिका इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह पूरी तरह कृत्रिम क्रोमोजोम से तैयार की गई है कृत्रिम क्रोमोजोम एक केमिकल सिंथेसाइजर में कम्प्यूटर के जरिए चार रसायनों के घोल से तैयार किया गया । साइंस पत्रिका में छपे इस शोध को मील का पत्थर बताया जा रहा है । पूर्व में डॉ. वेंटर की अगुवाई वाली टीम ने एक बैक्टीरिया में प्रत्यारोपित किया था । बाद में उन्होंने इस बैक्टीरिया के जीनोम को एक अन्य बैक्टीरिया में प्रत्यारोपित किया था । इस बार उन्होंने दोनों तरीके अपनाए और कृत्रिम कोशिका की रचना कर डाली । डॉ. वेंटर व उनकी टीम में शामिल अनुसंधानकर्ताआें का दावा है कि वे इस विधि से जीवन की बुनियादी मशीनरी को समझ सकेंगे । बैक्टीरिया की कौशिकाएँबना पाएँगे । इससे दवाइयाँ व जैव इंर्धन बन सकेंगा । अमेरिका में वेज्ञानिक पहली सिथेटिक कोशिका बनाने में कामयाब हुए है ।शोधकर्ताआें को उम्मीद है कि वे बैक्टीरिया की कोशिकाएँ बनाने में कामयाब हो पाएँगे, जिससे दवाइयां और इंर्धन बन सकेंगी । शोध टीम की अगुवाई डॉ. क्रेग वेंटर ने की । उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पहले सिंथेटिक बेक्टीरिया जीनोम बनाया था और एक बैक्टीरिया से दूसरे में जीनोम प्रतिरोपित किया था अपनी नई उपलब्धि पर उन्होंने कहा कि इससे नई औद्योगिक क्रांति आ सकती है अगर हम इन कौशिकाआें का इस्तेमाल कामकाज में कर पाएँ तो उद्योगों में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाईआक्साईड भी कम हो सकती है । डॉ. वेंटर की टीम कई इंर्धन और दवा कंपनियों के साथ काम कर रही है ताकि बैक्टीरिया के ऐसे क्रोमोसोम बनाए जा सकें, जिससे नई दवाईयाँ और इंर्धन बन सके । लेकिन आलोचकों का कहना है कि सिंथेटिक जीवों के फायदों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है । ब्रिटेन की जीनवॉच संस्था की डॉ. हेलन कहती है कि सिंथेटिक बैक्टीरिया का इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है उनका कहना है कि अगर आप वातावरण में नए जीव छोड़ देंगे तो इससे फायदे के मुकाबले नुकसान ज्यादा होगा, क्योंकि आपको नहीं पता कि ये वातावरण में किस तरह के बदलाव करेंगे । वैज्ञानिकों ने लाइफ क्रिएट करने का नया ऑपरेटिंग सिस्टम ढँूढ निकाला । कम्प्यूटर की भाषा में यह कहें तो वैज्ञानिकों ने जिनेटिक कोड का नया वर्जन २.० पेश किया है । वैज्ञानिकों को इस नए ऑपरेटिंग सिस्टम मे जिनेटिक कोड को ऐसे लाईफ प्रोटीन बदलने में कामयाबी मिली है, जैसा कि अभी तक नेचरल वर्ल्ड में कभी नहीं देखा गया । सभी जीवित चीजों में चार लेअर का जिनेटिक कोड होता है, जिसे न्यूक्लियोटाइड कहते है ही तीन न्यूक्लियोटाइड मिलकर जीवन के लिए जरूरी एक अमीनो एसिड बनाते हैं न्यू साइंटिस्ट के मुताबिक, रिसर्चर जैसन चिन की अगुआई में कैंब्रिज युनिवर्सिटी की टीम ने किसी कोशिका की मशीनरी को इस तरह डिजाइन करने में सफलता पाई की यह चार न्यूक्लियोटाइड को जीवन के एक अणुरूपी कॉम्बिनेशन के रूप में पढ़ सकें जीवन के लिए ऐसे ६४ कॉम्बिनेशन जरूरी है ।इन चार लेअर वाले जिनेटिक कोडों को कोडोंस कहा जाता है । लेकिन ब्रिटिश टीम ने ऐसे २५६ ब्लैंक कोडोंस ईजाद करने में कामयाबी हासिल की है ये कोर्डोस अमीनों एसिड की जगह ले सकते है जो कि अभी तक वजूद में ही नहीं थे । ब्रिटेन के न्यूकासलन विश्वविद़्यालय के वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला मे मानव शुक्राणु बनाने का दावा किया । वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया मे पहली बार हुए इस प्रयोग की सफलता से पुरूषों में बंध्यता या पिता नहीं बन पाने की समस्या को दूर करने में मदद मिल सकती है प्रयोगशाला में स्पर्म (शुक्राणु) विकसित करने के अपने सफल प्रयोग की रिपोर्ट विज्ञान पत्रिका स्टेम सेल एंड डेवलपमेंट में प्रकाशित हुई थी इस क्षेत्र से जुड़े कई अन्य वैज्ञानिकों को इस बात पर संदेह है कि पूरी तरह से विकसित शुक्राणुआेंको प्रयोगशाला में पैदा किया गया है । लेकिन न्यूकासल के वैज्ञानिकों ने एक वीडियो जारी कर दावा किया था कि उनके द्वारा बनाए गए शुक्राणु पूरी तरह विकसित और गतिशील हैं । प्रयोगशाला में विकसित शुक्राणुआेंका गर्भ धारण कराने में इस्तेमाल नही किया जा सकता । क्योंकि ब्रिटेन में इसकी अनुमति नहीं है और इस पर कानूनन पाबंदी है । इन शुक्राणुआें का आगे कोई उपयोग हो सके, इसके लिए जरूरी है कि पहले उन भ्रूणों की गारंटी दी जाए जिनसे स्टेम कोशिकाएँ लेकर शुक्राणु बनाए जाते हों । वैज्ञानिकों का कहना था कि ये चिंता करना कि हमारा मकसद इन शुक्राणुआें के इस्तेमाल से बच्च्े पैदा करने का है, गलत है । हम जो कर रहे हैं वह पुरूषों में बंध्यता की समस्या को समझने की, शुक्राणुआें के विकास को समझने की कोशिश है । ***

९ कविता

फसल
नागार्जुन
एक के नहीं,दो के नहीं,ढेर सारी नदियों के पानी का जादू ।एक के नहीं,दो के नहीं,लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमाएक की नहीदो की नहींहजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुणधर्मफसल क्या है ?और तो कुछ नहीं है वह नदियों के पानी का जादू है वहहाथों के स्पर्श की महिमा है भूरी-काली संदली मिट्टी का गुणधर्म है रूपांतर है सूरज की किरणों का सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का ! ***

१० ज्ञान-विज्ञान

अंतरिक्ष में बढ़ते कचरे के खतते
हाल ही में अमरीकी कंपनी इंटलसेट का संचार उपगृह गैलेक्सी-१५ नियंत्रण से बाहर होकर अपने आर्बिट से भटक गया है इस तरह जब सैटेलाईट अपने मार्ग से भटक जाता है, तो वह दूसरे सक्रिय सैटेलाईट से टकराकर उन्हें हानि पहुचा सकता है इसके अलावा जब सैटेलाइट अपना जीवनकाल पुरा कर लेता है , तब भी वे नियंत्रण से बाहर हो जाते है कबाड़ में तब्दील हो चुके उपकरणों के ऐसे ही ५ लाख से ज्यादा टुकड़े अंतरिक्ष मेंघूम रहे है । इनमे से करीब २१,००० टुकड़ों का आकार व्यास में चार इंच से अधिक है और अमरीकी रक्षा विभाग का स्पेस सर्वेलेंस नेटवर्क इनका पता लगाने की कोशिश कर रहा है ।अंतरिक्ष में विचरण कर रहें इस कबाड़ में ज्यादातर बेकार हो चुके रॉकेट और टूटे हुए सैटेलाइट शामिल है । यह अंतरिक्ष में कुछ इस तरह फैले है, जैसे किसी परत ने पृथ्वी के चारो और आवरण कायम कर लिया हो । अंतरिक्ष कबाड़ के टुकड़े चाहे कितने भी छोटे क्यों न हों खतरनाक साबित हो सकते है क्योंकि पृथ्वी की कक्षा में विचरण कर रहे पिंडो की रफ्तार २८,२०० किलोमीटर प्रति घंटा तक होती है इस गति से पर कोई भी दो पिंड टकराए, तो गंभीर हानि हो सकती है बीते साल एक रूसी स्पेस क्राफ्ट कॉस्मॉस २२५१ इरिडियम संचार उपगृह से साईबेरिया से करीब ७९० किलोमीटर की ऊचाई पर टकरा गया था ऐसी ही एक घटना २००७ में घटित हुई , जब चीन ने जानबुझ कर अपने ही एक मौसम उपग्रह को पृथ्वी से करीब ८५० किलोमीटर की ऊंचाई पर नष्ट कर दिया था । हालांकि चीन के इस प्रयोग पर दुनिया के कई देशों ने आपत्ति जताई थी और इसे स्टार वार्स की शुरूवात माना था । नासा में कक्षीय कचरे से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक निकोलस जॉनसन कहते है, इन दो घटनाआें ने अंतरिक्ष में भटक रहे चार इंच से बड़े टुकड़ों की तादाद में भटक रहे चार इंच से बड़े टुकड़ों की तादाद में साठ फीसदी इजाफा किया है । आज अंतरिक्ष में सर्वाधिक कचरा भी इन्ही दो कक्षाआें में है । नासा को अब तक आठ बार अपने अंतरिक्ष यानों के मार्ग को अंतरिक्ष कबाड़ के चलते बदलना पड़ा है ।
जलवायु संबंधी आंकड़ों का नया स्रोत
यह तो सर्वविदित है कि पेड़ो के तनों में बननें वाली वार्षिक वलय हमें उस समय की जलवायु के बारे में जानकारी प्रदान करती है, जब ये वलय बनी थी मगर यह जानकारी वार्षिक औसत जलवायु का प्रतिनिधित्व करती है अब वैज्ञानिक ने एक और तरीका खोज निकाला है जिससे बीते वर्षो के मौसम के बारे में लगभग साप्तहिक कालखंडों के स्तर पर जानकारी मिल सकेगी । कनाडा के सास्केचवान विश्वविद्यालय के विलियम पेटरसन और उनके साथियों ने समुद्री जीव क्लैम की खोल का अध्ययन करके पाया कि इस खोल के क्रमिक निर्माण पर तापमान का काफी असर होता है । खास तौर से यह देखा गया कि पानी का तापमान जितना कम होता है इनकी खोल के पदार्थ में ऑक्सीजन के भारी समस्थानिक (ऑक्सीजन-१८) की मात्रा उतनी ही अधिक होती है गौरतलब है कि प्रकृति में आक्सीजन के दो तरह के परमाणु पाए जाते है- एक का परमाणु भार १६ और दूसरे का १८ होता है इन्हें ऑक्सीजन के समस्थानिक कहते हैं । पेटरसन व उनके साथियों ने आइसलेंड की खाड़ी से क्लैम्स की २६ खोलें प्राप्त् कीं । क्लैम्स आम तौर पर २-९ वर्ष जीते हैं । यानी इनकी खोल हमें २-९ वर्ष के मौसम की जानकारी दे सकती हैं । इन २९ खोलों की अत्यंत महीन परतें निकाली गई और इनका अध्ययन आक्सीजन के समस्थानिको के लिए किया गया । समस्थानिको की मात्रा का अध्ययन मास स्पेक्ट्रोमेट्री नामक विधि से किया गया । समस्थानिको की मात्रा के आधार पर वैज्ञानिकोंने यह गणना की कि वह परत किन परिस्थितियों में बनी होगी । अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि यह पूरा-जलवायु के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण कदम है । पेटरसन व उनके साथी अपने आंकड़ों और अन्य एतिहासिक विवरणों का परस्पर संबंध देखने में भी सफल रहे हैं । अब वे कोशिश कर रहे हैं कि इस विधि का बड़े पैमाने पर उपयोग करके पिछले करीब ४०० वर्षो के जलवायु संबंधी आंकड़ें प्राप्त् करें ।सांप अंधेरे में उष्मा से देखते है !
कुछ सांप अंधेरे मे देख सकते है ।
हाल ही में इन सांपों की इस क्षमता को आणविक स्तर पर समझा गया है । वाइपर, अजगर और बोआ जैसे कुछ सांपो के सिर पर दो छिद्र पाए जाते है जिन्हे पिट आर्गन कहा जाता है इन छिद्रो पर एक झिल्ली तनी होती है जो गर्मी के प्रति संवेदनशील होती है यह तो जानी-मानी बात है कि स्तनधारियों जैसे गरम खून वाले जीव लगातार उष्मा का उत्सर्जन करते है यह उष्मा अवरक्त यानी इंफ्रारेड विकिरण के रूप में होती है । पिट आर्गन इसी अवरक्त विकिरण के प्रति संवेदी होता है । ये सांप करीब १ मीटर दूर रखे उष्मा के स्रोत को भाप लेते है उस वस्तु का एक ऊष्मा प्रतिबिंब बना लेते हैं । यह बात सांपों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बहुत समय से जानते है ।नई बात यह पता चली है कि यह अंग किन रसायनों के जरिए काम करता है । पिट आर्गन की झिल्ली में तंत्रिकाएं काफी संख्या में पाई जाती है । यह अंग स्पर्श, तापमान और दर्द की अनुभूति करता है । मगर इसे आंखो से कोई संकेत प्राप्त् नही होते है । यानी पिट आर्गन अवरक्त विकिरण को प्रकाश पुंज के रूप में नहीं बल्कि ऊष्मा के रूप में महसूस करता है । होता यह है कि बाहर से आने वाली ऊष्मा से पिट आर्गन की झिल्ली गर्म हो जाती है इसका तापमान एक सीमा से ज्यादा होने पर एक आयन मार्ग खुल जाता है जिसकी वजह से तंत्रिकाआें में आयन का प्रवाह शुरू हो जाता है इसकी वजह से विद्युत संकेत पेदा होने लगते है । धामन सांप के लिए तापमान की यह सीमा करीब २८ डिग्री सेल्सियस है । यदि कोई चूहा सांप से १ मीटर दूर बैठा हो तो उससे निकलने वाली ऊष्मा से झिल्ली पर इतना तापमान हो जाएगा । पूरी झिल्ली पर विभिन्न स्थानों पर आने वाली ऊष्मा के आधार पर वस्तु का एक प्रतिबिंब बन जाता है ।
समुद्री बैक्टीरिया - एक महाजीव
अवतार नामक फिल्म में नाविक लोग स्वयं को एक नेटवर्क में जोड़ लेते है । यह नेटवर्क उन्हें जैव मंडल के समस्त घटकों से जोड़े रखता है । उस फिल्म में सच्चई हो न हो, मगर धरती पर इस तरह का एक बैक्टीरिया पाया गया है जो सल्फर का भक्षण करता है और समुद्र के पेंदे की तलछट के नीचे रहता है और नेटवर्क बनाता है । कुछ शोधकर्ता मानते है कि समुद्री तलछटी के बैक्टीरिया अत्यंत सूक्ष्म नैनो-तारों से जुड़े रहते हैं इन महीन प्रोटीन तंतुआें में इलेक्ट्रोन का आदान-प्रदान हो सकता है । इस तरह से बैक्टीरिया की पूरी बस्ती एक महा-जीव की तरह काम करती है । अब आर्हस विश्वविद्यालय, डेनमार्क के पीटर निएल्सन और उनके साथियों ने इस विवादास्पद नजरिए के पक्ष में प्रमाण खोज निकाला है । निएल्सन के मुताबिक यह खोज एकदम जादुई है और हमारे अब तक के विचारोंं के विपरीत जाती है । इस खोज के बाद हमें सोचना होगा कि इन सुक्ष्मजीवों का जीवन कैसा है और उनकी क्षमताएं क्या है । कई सूक्ष्मजीव है जो हाइड्रोजन सल्फाइड नामक गैस का आक्सीकरण करके ऊर्जा प्राप्त् करते है यह गैस समुद्र की तलछट में बहुतायात में पाई जाती है । हाइड्रोजन सल्फाइड के विघटन से उत्पन्न हुए इलेक्ट्रॉन को ग्रहण करे । निएल्सन की टीम ने आर्हस के निकट समुद्र में से बैक्टीरिया युक्त तलछट के नमूने प्राप्त् किए । प्रयोगशाला में उन्होंने पहले तो तलछट के ऊपर मौजूद समुद्री पानी में से ऑक्सीजन हटाई और फिर वापिस डाल दी । टीम को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सतह पर डाली गई इस ऑक्सीजन को विसरित होकर नीचे तक पहुचने का समय मिलने से पहले ही सतह से कई से.मी.नीचे मौजूद बैक्टीरिया ने हाइड्रोजन सल्फाइड का विघटन शुरू कर दिया था । निएल्सन का विचार है कि अलग-अलग बैक्टीरिया के बीच प्रोटिन के सुचालक तंतुआें की बदौलत ही यह सम्भव हुआ । इसी की बदौलत यह संभव हुआ कि दूरस्थ स्थित ऑक्सीजन की मदद से आक्सीकरण क्रिया को संपादित किया जा सका । ये प्रोटिन तंतु तलछट के निचले आक्सीजनविहीन हिस्से में मौजूद बैक्टीरिया तक ले जाने का काम करते है । ऊपर जाकर ये इलेक्ट्रान्स आक्सीजन से जुड़कर क्रिया को पूर्ण कर देते है ।***

११ हमारा आसपास

पानी साफ करने वाली जादुई
फलीभरतलाल सेठ
सुरजना की फली के पौष्टिकता और औषधीय गुणों से तो हम परिचित ही थे । वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इसमें जलशुद्धिकरण की भी अदभुद क्षमता है । आवश्यकता इस बात की है कि इस फली का उत्पादन बढ़ाने के तुरंत प्रयत्न किए जाएं । सुरजना या सहजन की फली (ड्रमस्टिक) का वृक्ष किसी भी तरह की भूमि पर पनप सकता है और यह बहुत कम देख-रेख की मांग करता है । इसके फूल, फली और टहनियोंको अनेक प्रकार से उपयोग में लिया जा सकता है ये एक जादूइ फली है । जो भोजन के रूप में यह अत्यंत पौष्टिकता प्रदान करती है और इसमें औषधीय गुण भी है । हाल ही में शोध समुदाय का ध्यान इसकी ओर आर्कषित हुआ है क्योंकि इसमें पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं । सुखाई गई फली को जब पाउडर बनाकर पानी में डाला जाता है तो वह गुच्छा बनाने या एकत्रीकरण का कार्य करती है पानी को शुद्ध करने के लिए एकत्रीकरण पहली शर्त है । इस रूप में इस फली के बीज फिटकरी को तो अल्जीमर्स नामक बीमारी तक जोड़ा गया है यह तो सुनिश्चित हो गया है इसके बीज का सत गुच्छे बनाने के संवाहक के रूप में कार्य करता है । लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि यह सुक्ष्मतम स्तर पर किस तरह कार्य करता है । फरवरी २०१० में लेंगमुइर पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र जो कि स्वीडन स्थित उप्पसला विश्वद्यिालय द्वारा बोत्सवाना विश्वविद्यालय को दिए गए तकनीकी सहयोग से तैयार हुआ था, में बताया गया है कि कि तरह ये बीज अशुद्ध कणों को एकसाथ इकट्ठा करते है । वैस ये बीज बोत्सवाना में पीढ़ियों से पारम्परिक रूप से जल शुद्धिकरण के कार्यमे आते हैं । ये आपस में जोड़ने वाले तत्व एक साथ इकट्ठा होकर गुच्छो में परिर्वतित हो जाते है और नीचे बैठ जाते है । इस अर्थ में सुरजनता की फली के बीज बैक्टीरिया का भी नाश हो करते है । उप्पसला विश्वविद्यालय के भौतिक एवं खगोलशास्त्र विभाग के प्राध्यापक एवं शोधकर्ता एड्रेन रिन्नी का कहना है कि गुच्छा बनने की प्रक्रिया को समझना बहुत जरूरी है क्योंकि उसी क बाद हम इससे संबंधित प्राकृतिक प्रदार्थो का उपयोग कर पाएेंगे । इसी कारण से हमें बीज की मात्रा और बनावट पर ध्यान देना होगा जो कि अवयवों को आपस में जोड़ती है । यह पेड़ मूलत: भारत में विकसित हुआ है अतएव इसकी सुरक्षा स्थानीय उपलब्धता करवाने के वैकल्पिक स्रोत के रूप में देखा जा सकता है भारत में पेयजल आपूर्ति एवं सेनीटेशन परियोजना को लेकर दो खंडो में सारगर्भित प्रकाशन किया है एक स्वीकृत अध्ययन में तमिलनाडु के गांवो में १९९९ से २००२ के मध्य फली के बीजों को शुद्धिकरण की प्रक्रिया के रूप में इस्तेमाल किया गया था । यह अध्ययन कोयम्बटूर के अविनिलाश्ंगम इंस्टिट्यूट फॉर होम साइंसय एण्ड हायर एजुकेशन फार वुमेन द्वारा भवानी नदी के तट पर स्थित उन तीन गांवों मे किया गया था, जहां पर कि नदी का पानी पीने योग्य नही था । कोयंबटूर अध्ययन की मुख्य वैज्ञानिक जी.पी. जयन्थी का कहना है कि फली के पाउडर ने पानी की गंदगी और बैक्टीरिया की संख्या में काफी कमी की है परंतु उन्होंने चेतावनी देते हुए कहाहै कियह पूर्ण समाधान यनहीं है । इसे उस आनलाइन मापदंड के नजरिए से देखना चाहिए जिसके अनुसार सुरजना की फली का बार-बार उपयोग, पीने योग्य पानी की गारंटी नही देता इस हेतु कुछ अतिरिक्त उपचार की अनुशंसाए की गई है ।वैसे फरवरी २०१० में माइक्रोबायलोजी के नवीनतम मापदंड मे इन बीजो के इस्तेमाल को सहमति प्रदान की गई है । इस आनलाईन शोध में विश्वभर मे सर्वाधिक ११,५०० शोधकर्ता के मापंदडो का संग्रह है । इसके अंर्तगत ग्रामीण इलाको के गरीब लोगों को बजाए दूषित जल पीने के इन बीजों के प्रयोग की सलाह भी दी गई है । शोध पत्र के अनुसार इसके माध्यम से गंदगी में ८० प्रतिशत से लेकर ९९.५ प्रतिशत एवं बैक्टीरिया की संख्या में ९० प्रतिशत तक कमी आ आती है । शोधपत्र में इसके प्रयोग हेतु सहयोगी प्रपत्र भी जारी किया गया है इसके अनुसार गांव में बर्तनों में प्रति लीटर में १००-२०० व ४०० मिलीग्राम पाउडर बर्तन को एक मिनट तक जोर से हिलाया जाए । इसके बाद उसे धीमे-धीमे हिलाने के बाद एक मिनट के लिए रखा जाए । तत्पश्चात ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता तय करे की बीज की कितनी मात्रा उपयोग में लाई जाए । सुश्री जयन्थी का कहना है कि भारत में स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है ।इन इलाकों मे सुरजना के बीज के इस्तेमाल की बात फैलाई जानी चाहिए । उनके दल द्वारा किए गए अध्ययन को आठ वर्ष बीत गए है । परंतु धन की कमी के कारण उन स्थानोंपर फालोअप नहीं हो पाया है । सरकार भी इस जल मसले पर बहुत उत्साहित नहीं है । पेयजल आपूर्ति विभाग के उप सलाहकार डी.राजशेखर का कहना है कि हमने इस तकनीक को औपचारिक रूप से प्रमाणित नही किया है इसे एक उपलब्ध विकल्प के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है । यह तो राज्य पर है कि वह इसकी कम लागत वाले सक्षम विकल्प के रूप मे पहचान सुनिश्चित करें । ***

१२ विज्ञान-जगत

हरी इल्ली की हंसी
अरूण डिके
प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी के कार्य निश्चित कर रखे हैं। बी.टी. या जीन संवर्धित तकनीकों के माध्यम से वैज्ञानिक प्रकृति के संतुलन को डिगा रहे है । रासायनिक खादों और कीटनाशकों के माध्यम से प्रकृति और कृषि के लिए लाभप्रद कीटों का भी विनाश हो रहा है । ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि प्रकृति के छोटे से छोटे जीव को उसका प्राकृतिक पर्यावास मिले । इल्ली लाफिंग बुद्धा की तरह हरी खेत में फसल चरते-चरते हंस रही है । बुद्ध क्यूँ हंस रहे है । हरी इल्ली कीट जगत की एक मानी हुई हस्ती है । यह १०० से ज्यादा फसलों को चरती है इसे चने की इल्ली या अमेरिकन बोलवर्म भी कहते है । इसका वैज्ञानिक नाम हेलियोथिस आर्माजीरा है । हरी इल्ली कृषि विशेषज्ञ पर हंस रही है ।क्योंकि पहले तो उन्होंने फसलों में रासायनिक खाद डालकर उसे प्रदूषित किया और जब प्रकृति ने उसे यह प्रदूषण दूर करने भेजा तो उसे फसल की और अंततोगत्वा किसान की शत्रु करार देकर उसे मारने के लिए डी.डी.टी. जैसी जहरीली कटिनाशक दवाईयां छिड़काव किया । ये विशेषज्ञ भूल गए कि प्रकृति को किसी भी प्रकार का प्रदूषण मंजूर नहीं है ।वे ये भी भूल गए कि इल्ली इस पृथ्वी पर मानव जाति के पहले आई और मानव जाति नष्ट होने के बाद ही समाप्त् होगी । इसीलिए डी.डी.टी. तो बन्द हो गई लेकिन इल्ली जिन्दा है । हरी इल्ली बी.टी. बैंगन के बीज बनाने वाली मांसेंटो कंपनी पर भी हंस रही है कि क्या स्वांग रचा है आपकी प्रौद्योगिकी ने ! क्या मैं इतनी खतरनाक कीट हूं कि मुझे प्राकृतिक रूप से नियंत्रित करने वाले बी.टी. (बेसिलस थुरेंजेंजिस) बैक्टीरिया के जीन ही बैगन के बीज में रोप दिए और पूरे बैगन के पौधे को ही बीटीमय बना दिया ताकि मै यदि उसके पौधे का हिस्सा खांऊ तो तुरंत बी.टी. जहर से मर जाऊं । समझ लो मैं मर भी गई तो बैगन के पौधे पर आक्रमण करने वाले अन्य रस चूसक कीट, मोला, सफेद मक्खी जैसे कीटकों का क्या ? उनका आक्रमण यदि तेज, हुआ (जो हो रहा है) तो उनको समाप्त् करने उनके प्राकृतिक नियंत्रण करने वाले बैक्टीरिया और फंगस के जींस भी बैंगन के बीज में रोप दोगे ? तो फिर बैंगन का बीज बैंेगन का रहेगा या बैक्टीरियाआें का ?और इन बैक्टीरिया के रोपने से क्या बैंगन मानव स्वास्थ्य के लिए निरापद रहेगा ? क्या उनके अवगुण मानव शरीर को बाधा नही पहुचाएंगे ? हरी इल्ली मीडिया पर भी हंस रही है कि राजनीति और भ्रष्टाचार में डुबें भ्रष्ट राजनेताआें, व्यापारियों और सरकारी अफसरों पर तो पूरा ध्यान केन्द्रित करते हो जिन्हे कभी किसी ने देखा तक नहीं उन राहुल महाजन और राखी सावन्तों जैसे पर तों बड़ी चटकारी खबरें छापते हो, महिलाआें और सिनेमा की अश्लील खबरें और चित्र छापते हों, झूठे और लुभावने विज्ञापन छापते हो और मानव स्वास्थ्य से जुड़ी मेरी गतिविधियों की कुछ भी अहमियत नहीं ? हरी इल्ली हंस रही है, समाज के सभ्रान्त व्यक्तियों पर कि आए दिन शोभायात्रा, धार्मिक अनुष्ठान और मनोरंजन के कार्यक्रमों में मगन रहते हो लेकिन रसायन मुक्त चेतना फैलाने वाले कोई अभियान नहीं ? पर्यावरण प्रदूषण पर कोई सामूहिक चर्चा तक नही ? हरी इल्ली आज पूरे विश्व का ध्यान आर्कषित कर रही है । बड़े-बड़े राज्यों और राष्ट्रों की सरकारों का तख्ता पलटने का माद्दा रखने वाली हरी इल्ली अपने खोल से बाहर निकल चुकी है । इसी हरी इल्ली ने मध्यप्रदेश की गोविन्द नारायण सिंह भी संविदा सरकार को सन् १९६७ मे एक जबरदस्त झटका दिया था, जिसमे कइंर् अफसरों को बर्खास्त कर दिया गया था । इसी हरी इल्ली के कारण युनियन कार्बाइड का कारखाना भोपाल के रहवासी इलाके में खुला था और उसके कीटनाशक सेविन ने खेतों में कम और जनता पर ज्यादा कहर बरपाया था हजारों मासूम काल के मुंह में समा गए थे । इस खतरनाक खेल पर व्यंगकार शरद जोशी ने जीप पर सवार इल्लियां पुस्तक लिखी थी । हरी इल्ली प्रकृति की अदभुद रचना है, जो जीवो जीवस्य मंत्र के अंर्तगत काम करती है और अपने आप नियंत्रण भी हो जाती है । अंडे, इल्ली, का जीवन चक्र २१ दिन चलता है और वह एक मौसम मे सात बार जन्म लेती है और समाप्त् हो जाती है इसका हर जन्म स्टार कहलाताहै । पहले स्टार की हरी इल्ली २ मिलीमीटर लंबी होती है । जो सातवे स्टार तक २-३ इंच तक लम्बी हो जाती है । शुरू के दो स्टार तक इसका नियंत्रण आसान होता है । लेकिन उसके बाद इसका नियंत्रण बहुत कठिन होता है । हरी इल्ली को नियंत्रित करने की प्रकृति ने अस्सी प्रकार के कीट, बैक्टिरिया और फंगस पालकर रखे है जो प्राकृतिक अवस्था में हरी इल्ली को नियंत्रित करते रहते है इस तथ्य को भगवान महावीर ने समझा था, इसीलिए उन्होंने अहिंसा का यह संदेश दिया था कि पृथ्वी पर सूक्ष्म जीव भी बिना कार्य के पैदा नहीं होता है इसलिए उसको मारना नहीं चाहिए । यहां तक कि वनस्पति भी नहीं । जो लोग विज्ञान को समझते है वे जानते हैं कि खटमल, मच्छर, मक्खी, तिलचट्टा, छिपकली, चीटियां जैसे प्राणी सफाई कर्मचारी है । दिन रात प्रदूषण दूर करते रहते है लेकिन जब इनकी संख्या अनियंत्रित होती है, तब अपने आप ही इनका प्राकृतिक नियंत्रण भी होता है बशर्तेंा आप अपना घर और अहाता साफ रखें । इसी सिद्धान्त के आधार पर साफ सुथरा जंगल साफ सुथरे और ज्यादा सुहावनेलगते है । स्वयं के घमंड में चूर, विज्ञान को धन की तराजू में तोलकर मानवी जीवन को बाजार के हवाले करने वाले धनलोभी नोट गिन रहे हैं और हरी इल्ली हंस रही है । बी.टी. बैंगन को किसानों पर थोपने वाले जी तोड़ मेहनत कर रहे है और हरी इल्ली हंस रही है । ***

१३ बातचीत

देश मे ग्राम वन विकसीत किये जाये
(वरिष्ठ पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट से कुमार सिद्वार्थ कुमार की बातचीत)
अनेकानेक राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित और चिपको आंदोलन के प्रमुख री चंडीप्रसाद भट्ट ने अपना संपूर्ण जीवन पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोकचेतना जागृत करने में समर्पित कर दिया है। ७६ वर्षीय श्री भट्ट ने १९७२ में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना कर स्थानीय समुदाय को पेड़ों की रक्षा के लिए अभिप्रेरित किया तथा सैकड़ों पेड़ों को कटने से बचाया। रेमन मेगसेसे पुरस्कार से सम्मानित श्री भट्ट हिमालय एवं हिमालयों के ग्लेशियरों के पिघलने और नदियों पर आ रहे संकटों को लेकर लगातार सक्रिय है। पद्मश्री एवं पद्म विभूषण से विभूषित चंडीप्रसाद भट्ट पिछले दिनों एक दिनी प्रवास पर इंदौर आए थे। पहाड़ों में हरियाली को थामे श्री भट्ट लगभग २० वर्ष बाद इंदौर आए तथा यहां सीमेंट-कांक्रीट के जंगलों के बीच `शहरों में हरियाली थामने` का संदेश दिया। श्री चंडीप्रसाद भट्ट से विशेष बातचीत 'पर्यावरण डाइजेस्ट` के संयुक्त सम्पादक कुमार सिद्धार्थ ने की। प्रस्तुत है बातचीत के सम्पादित अंश।क्र प्रश्न- उत्तराखंड में नदियों पर अनेक हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट लगाए जा रहे हैं, इससे हिमालय के क्षेत्र में क्या पर्यावरणीय प्रभाव पड़ने वाला है?क्र उत्तर- उत्तराखंड सरकार और केंद्र सरकार द्वारा नदियों पर अलग-अलग परियोजना का निर्माण कार्य चल रहा है। कहा जा रहा है कि इस पूरे क्षेत्र में लगभग २५०-३०० हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट तैयार होंगे। इसका विरोध भी हो रहा है।उत्तराखंड में पिथौरागढ़-चमोली-उत्तरकाशी संवेदनशील क्षेत्र है, जहां से भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, गौरी, धोली और काली नदियां निकलती है। ये नदियां हिमालयीन नदियां है। भूगर्भविदों के अनुसार में सभी नदियां झोन पांच के अंतर्गत आती है। भूस्खलन जैसी घटनाएं अधिक हो रही है। पावर प्रोजेक्ट से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का कोई समग्र अध्ययन नहीं किया गया है। कोई पावर प्रोजेक्ट शुरु करने के पहले स्थानीय समुदाय पर उनकी संस्कृति और जीव जंतु पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए।क्र प्रश्न- क्या आपको लगता है कि 'चिपको आंदोलन` का प्रभाव कम होता जा रहा है, जबकि युवा पीढ़ी को इस दिशा में अभिप्रेरित करने की जरुरत है?क्र उत्तर- चिपको का प्रभाव आज भी उत्तराखंड में देखा जा सकता है। वहीं चिपको आंदोलन की वजह से देश के दूरदराज हिस्सों में भी पर्यावरण-संरक्षण के प्रति लोक चेतना फैलाने में मदद मिलेगी। १९७५-७६ में यह जन आंदोलन था। इसका मकसद पेड़ बचाने और लगाने से है। याने नंगे वृक्षविहीन इलाकों को हरा-भरा बनाना है। २०१० में भी यह अभियान 'कैम्प` के माध्यम से संचालित है। स्थानीय युवाओं को 'ईको डेवलपमेंट` शिविरों के माध्यम से जल, जंगल, जमीन के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है।क्र प्रश्न- जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के पिघलने की बातें जोर शोर से हो रही है? हिमालय के क्षेत्र में ग्लेशियरों की क्या स्थिति है?क्र उत्तर- दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के पिघलने का हौव्वा पैदा किया जा रहा है। निश्चित ही तापमान वृद्धि से पर्यावरण असंतुलन हो रहा होगा। लेकिन ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की बातें हो रही है। वैज्ञानिक लगातार इनका उल्लेख कर रहे हैं। लेकिन पर्यावरण के नाम पर हवा चल रही है, सुनी-सुनाई बातें की जा रही है। वस्तुस्थिति यह है कि इनके तथ्यात्मक आंकड़े ही नहीं है। इसके लिए समग्र अध्ययन होना चाहिए। इसका प्रभाव वनस्पति, जीव-जंतु, प्राकृतिक पानी के स्त्रोतों, सिंचाई के पानी आदि पर क्या होगा, इसका विस्तृत अध्ययन अब तक नहीं किया जा सका है। विज्ञान के युग में ग्लेशियरों के पीछे जाने के क्या कारण है, नहीं खोज पाएं हैं। नेशनल फारेस्ट कमीशन की रिपोर्ट में मैंने अध्ययन केंद्र स्थापित किए जाने की अनुशंसा की थी, जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है।क्र प्रश्न- क्या ग्लेशियरों के संबंध में अब तक कोई शोध कार्य नहीं किए गए है।क्र उत्तर -कुछ अध्ययन तो मेरे देखने-पढ़ने में आए है। सन् १९६२ से २००४ तक १२६ ग्लेशियरों की अध्ययन रिपोर्ट जारी की गई थी, इसमें कुछ ग्लेशियरों का ३८ प्रतिशत भाग पिघल गया है। चंद्रा के ११६ ग्लेशियरों का ३० प्रतिशत, भागा के १११ ग्लेशियरों का २० प्रतिशत, गौरी गंगा के ६० ग्लेशियरों का १६ प्रतिशत, धौली के १०८ ग्लेशियरों का १३ प्रतिशत, सुख के २१५ ग्लेशियरों का ३८ प्रतिशत भाग पिघल गया है। लेकिन बर्फ किस रफ्तार से पिघल रही है? नदियों पर बड़ी परियोजना का भवि य क्या होगा? जैसे पहलुओं पर अध्ययन होने चाहिए।क्र प्रश्न-पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर क्या प्रयास किए जाने चाहिए?क्र उत्तर-पर्यावरण को समृद्ध एवं संरक्षित तो स्थानीय लोग ही कर सकते हैं। सामुदायिक भागीदारी से जंगलों की रक्षा की जा सकती है। अगर इनकी रक्षा करनी है तो उसके लिए महिलाओं को सबसे आगे रखना होगा। पूरे देश में ग्रामवन विकसित किए जाने चाहिए। इस ग्राम वनों का प्रबंधन वन पंचायतों के पास हो। इससे हर गांव के पास अपना एक वन होगा। वन के रख-रखाव का दायित्व गांव की वन पंचायत संभालें। वन विभाग का इसमें कोई हस्तक्षेप न हो। इससे वन की रक्षा में सामुदायिक भागीदारी लगातार बढ़ेगी। अभी सारा वन संरक्षण का जिम्मा सरकार ने वन विभाग के ऊपर छोड़ दिया है, जिस पर स्थानीय लोगों पर विश्वास नहीं होता।क्र प्रश्न- पर्यावरण के विकास के लिए सरकार और जन सामान्य क्या अपेक्षा रखते है?क्र उत्तर- पर्यावरण के प्रति सरकार भी सचेत है। अब कम के कम स्थिति यह हो गई है कि सरकार को पेड़ काटने, जंगल काटने के पहले सोचना पड़ता है। अगर पेड़ों, जंगलों और प्राकृतिक संपदा के बारे में सरकार अपना सोच बदल दें, विकास नीतियों को त्याग दें, तो देश की आधी से अधिक अशांति दूर हो जाएगी। जनसामान्य को भी जागरुक रहने की जरुरत है ताकि अपने क्षेत्र में क्रियान्वित होने वाली योजनाओं के प्रति उनकी समझ भी साफ होना चाहिए।क्र प्रश्न- पर्यावरण एवं विकास के द्वन्द को कैसे दूर किया जाए?क्र उत्तर- विकास के नाम पर्यावरण का विनाश लगातार हो रहा है। जैसे धरती में भूस्खलन होता है, उसी प्रकार विचारों में भी भूस्खलन होता है तथा पर्यावरण भोगवादी वृत्ति के कारण हाशिये पर चला जाता है। इसलिए चाहिए कि समाज और सरकार इस द्वन्द को समाप्त करने के लिए मिल बैठकर विचार-विमर्श करे, जिससे कोई आसान तीसरा रास्ता निकल पाएगा। ```

१२ पर्यावरण समाचार

अब बाघों की स्मार्ट मॉनीटरिंग
देश में तेजी से घट रहे बाघों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार का वन मंत्रालय नया नुस्खा अपनाने जा रहा है । इसके तहत राष्ट्रीय टाइगर रिजर्व क्षेत्रों के घने जंगलों में एम-स्ट्राइप नामक प्रोजेक्ट से बाघों की स्मार्ट मॉनीटरिंग होगी और उनका सुरक्षा के पर्याप्त बंदोबस्त किए जाएेंगे । एम-स्ट्रिप प्रोजेक्ट आगामी चार सालों में देश के ४१ टाइगर रिजर्व एरिया में धीरे-धीरे लागू होगा । हाल में १० टाइगर रिजर्व क्षेत्रों में प्रोजेक्ट शुरू करने की योजना है । इस योजना के तहत बाघों की सुरक्षा के लिहाज से प्रतिदिन जंगलों में बाघों की दिनचर्या से मिलने वाले डाटा का विश्लेषण किया जाएगा । इसके लिए कार्ड डिजाईन किया गया है । इसमें देखा जाएगा कि बाघ संरक्षित किस क्षेत्र में अन्य जानवरों की स्थिती क्या है । मनुष्यों की आवाजाही उस क्षेत्र में कितनी है । खतरा ज्यादा कहां है । हर माह बाघ कितना शिकार करता है उसे वहां पर्याप्त् भोजन मिलता है के नहीं ? आदि बाघों का डाटा एकत्र कर कम्प्यूटर पर प्रतिदिन समीक्षा की जाएगी । इसके बाद देखा जाएगा की बाघों की सुरक्षा पर कहां संकट है । फिर वहां सुरक्षा के पर्याप्त् इंतजाम किया जाएगें । अब तक वन्य प्राणियोंं के आंकड़ें की इस प्रकार समीक्षा नहीं हो पाती थी ।जुलाई से पर्यावरण विज्ञान संचार पाठ्यक्रम भोपाल स्थित माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थन जुलाई माह से प्रकृति पर्यावरण विज्ञान संचार मेंं स्नात्तकोत्तर डिप्लोमा तथा प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम आरंभ करेगा । इसके लिए इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विवि के साथ मिलकर सप्रे संग्रहालय ने कम्युनिटी कॉलेज की स्थापना की है । संस्थान की एक विज्ञिप्त् के अनुसार सप्रे संग्रहालय इग्नू कम्पुनिटी कॉलेज का जोर विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार के क्षेत्र में नवाचार पर रहेगा । डिप्लोमा पाठ्यक्रम एक वर्ष का होगा । जिसके लिए न्यूनतम प्रवेश योग्यता किसी भी विषय में स्नातक की उपाधि होना है । इसके लिए कुल ४० सीटें रखी गई है । सर्टिफिकेट कोर्स ६ माह का होगा जिसकी प्रवेश योग्यता हायर सेकेंडरी रखी गई है । ***