शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

ज्ञान विज्ञान

ज्ञान विज्ञान
बीस हजार साल पुरानी जलवायु खोजेंगे

सबकुछ सही रहा तो जल्द ही दुनिया के सामने बीस हजार साल पुरानी जलवायु की तस्वीर स्पष्ट हो सकेगी । यह नायाब शोध कुमांयू विवि के वैज्ञानिकों के विशेष दल ने शुरू किया है । वैज्ञानिकों का लक्ष्य उत्तराखंड की विभिन्न दुर्लभतम गुफाआें में प्राकृतिक रूप से बने शिवलिंग को खोजकर उनके माध्यम ये अपने अध्ययन को लक्ष्य तक पहुंचाना है । अध्ययन के तहत कैल्शियम कार्बोनेट के माध्यम से बने शिवलिंगों की उम्र का पता लगाया जाएगा और फिर उस समय की जलवायु का आंकलन भी वैज्ञानिक तरीके से किया जाएगा । कुमायूं विवि के भूगर्भ विभाग के प्रोफेसर डॉ.बीएस कोटलिया ने बताया अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित
गुफाओेंमेंें मिलने वाले प्राचीन शिवलिंग का
निर्माण चूने के पत्थर पर गिरने वाले कैल्शियम कार्बोनेट के साथ पानी की बूंदों से होता है । जिस क्षेत्र में चूने के पत्थर अधिक संख्या में होते हैं । वहीं इस तरह की दुर्लभ गुफाएं पाई जाती हैं । इनमें मानसून के दौरान पानी की बूंदें कैल्शियम कार्बोनेट के साथ जब गिरती है तभी ठोस पत्थर के रूप में शिवलिंग का निर्माण होता है । श्री कोटलिया ने बताया कि इस कार्य में आस्ट्रेलिया के मेलबर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक माइक सेंडिफोर्ड उनकी मदद कर रहे हैं । वर्तमान में नैनीताल के चौखुटिया पिथौरागढ के चांडक और देहरादून के चकराता के गुफाआेंका अध्ययन किया जा रहा है ।

चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला

गुफा की खोज करने वाले तेल अवीव विवि के अवि गाफेर और रैन बरकाई ने कहा कि चीन और स्पेन में मिले मानव अवशेष और कंकाल से हालांकि मानव की अफ्रीका में उत्पत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ी थी, लेकिन यह खोज उससे भी महत्वपूर्ण है ।
तेल अवीव विवि ने अपनी वेबसाइट पर लिखा कि इस्रायली शहर रोश हाइन में एक गुफा में चार लाख पुराना दांत मिला है ।
यह प्राचीन आधुनिक मानव का सबसे पुराना प्रमाण है । वेबसाइट पर लिखा गया कि अब तक मानव के जिस समय काल से अस्तित्व मेंहोने की बात मानी जा रही थी, यह मानव उससे दोगुना अधिक समय पहले जीवित था । यह दांत २००० में एक गुफा में मिला था । इससे पहले आधुनिक मानव का सबसे प्राचीनअवशेष अफ्रीका में मिला था, जो दो लाख साल पुराना था । इसके कारण शोधार्थी यह मान रहे थे कि मानव कि उत्पत्ति अफ्रीका से हुई थी । सीटीस्कै न और एक्स-रे से पता चलता है कि यह दांत बिल्कुल आधुनिक मानवों जैसे हैं और इस्राइल के ही दो अलग जगहों पर पाए गए दांत से मेल खाते हैं । इस्राइल के दो अलग जगहों पर पाए गए दांत एक लाख साल पुराने हैं । गुफा में काम कर रहे शोधार्थियों के मुताबिक इस खोज से वह धारणा बदल जाएगी कि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका मेें हुई थी ।

जटिल सॉफ्टवेयर निर्माण में सहायक होगी चींटी

अब तक आलसी लोगों को मेहनत का महत्व बताने के लिए सबसे बड़े उदाहरण के तौर पर उपयोग होने वाली चींटियों का एक नया गुण सामने आया है ।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि चींटियां गणित की जटिल पहेलियों को भी आसानी से हल कर सकती हैं ।
जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंट बायोलॉजी नामक साइंस मैग्जीन में प्रकाशित जानकारी के अनुसार वैज्ञानिकों के एक अंतराष्ट्रीय दल नवीन तकनीक का इस्तेमाल करते हुए वैज्ञानिकों ने गणित की जटिल पहेली टावर्स ऑफ हनोई को भुलभुलैया में तब्दील कर यह देखने की कोशिश की कि क्या चीटियां डाइनेमिक ऑप्टिमाइजेशन प्राब्लम का हल निकाल सकती हैं या नहीं ।
सिडनी विश्वविद्यालय के शोधकर्ता क्रिस रीड ने कहा कि हालांकि प्रकृति अप्रत्याशित बातों से भरी पड़ी हैं और एक हल सारी समस्याआें के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है । वैज्ञानिकों ने टावर्स ऑफ हनोई पहेली का तीन डिस्क संस्करण का इस्तेमाल कर चींटियोें की जांच करने की कोशिश की । इस पहेली के तहत खिलाड़ियों को डिस्क को रॉड के बीच बढ़ाना होता है । इस दौरान कुछ नियमों का पालन करना होता है । उन्होंने पहेली को एक भूल-भूलैया में तब्दील कर दिया । इसमें सबसे छोटा पथ हल के सदृश होता है । चींटियां दूसरे छोर पर खाद्य स्रोत को हासिल करने के लिए भूल-भूलैया के प्रवेश बिन्दु पर ३२ हजार ७६८ संभावित मार्गोंा को चुन सकती हैं । सिर्फ दो पथ सबसे छोटे पथ होते हैं इसलिए यह सर्वेश्रेष्ठ हल है ।
वैज्ञानिकांे के इस प्रयोग के बाद सामने आया है कि चींटियां गणित की सामान्य कंप्यूटरी कलन वाली समस्याआेंको हल करने में सक्षम हैं । इस नतीजों के बाद वैज्ञानिक यह जानने के लिए प्रयोग कर रहे हैं कि क्या चीटियां किसी जटिल साफ्टवेयर के निर्माण में सहयोग प्रदान कर सकती हैं ।

चिड़ियों की तरह चहचहाएंगे चूहे

चुपके से सुन, इस पल की धुन जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो चिड़िया की तरह चहचहा सकते हैं । जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए तैयार किए गए ये चूहे इंसानी जबान के विकास को समझने में मददगार हो सकते हैं । ओसाका विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें की टीम ने अपने इवॉल्व्ड माउस प्रोजेक्ट के तहत ये चूहा तैयार किए ।
इसके लिए जेनेटिकल मॉडिफाइड यानी ऐसे चूहे का इस्तेमाल किया गया जिन्हें अनुवांशिक गुणों में बदलाव करके तैयार किया गया । इन चूहों में बदलाव की प्रवृत्ति होती है । मुख्य शोधकर्ता अरिकुनी उचिमुरा बताते हैं कि बदलाव ही विकास की वजह बनता है । काफी समय से जेनेटिकली मॉडीफाइड चूहों को अन्य चूहों से ब्रीड कराया जाता है । श्री उचिमुरा ने बताया कि हमने नए तैयार हुए चुहों को एक एक करके परखा, एक दिन हमने पाया कि एक चूहा चिड़िया की तरह गा रहा था । श्री उचिमुरा ने साफ किया कि गाने वाला यह चूहा इत्तेफाक से पैदा हुआ है ।
अब इसके गुण कई पीढ़ियों तक रहेंगे । वे कहते हैं कि इस चूहे को देखकर वह हैरान रह गए । उन्होंने बताया कि मैं उम्मीद कर रहा था कि चूहों का शारीरिक आकार बदलेगा । इसी प्रोजेक्ट में हम ऐसे चूहे तैयार कर चुके हैं जिनके अंग बाकी चूहों से छोटे थे । ओसाका यूनिवर्सिटी की इस लैब में अब १०० से ज्यादा चहचहाते चूहे हैं । इन पर शोध को आगे बढ़ाया जा रहा है । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इससे इंसानी जबान के विकास की प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी । अन्य देशों में इसे समझने के लिए पक्षियों का अध्ययन किया जाता है । वैज्ञानिकों ने पाया कि पक्षी गाने या बोलने के लिए आवाज के अलग-अलग तत्वों का इस्तेमाल करते
हैं ।
वे इन तत्वों को वैसे ही एक साथ रखते हैं जैसे हम इंसान अलग-अलग शब्दों को जोड़कर भाषा बनाते हैं । यूं भी कहा जा सकता है कि पक्षियों की भाषा के भी कुछ नियम होते हैं । श्री उचिमुरा कहते हैं कि इस मामले में चूहे पक्षियों से बेहतर होते हैं क्योंकि वे स्तनधारी हैं । उनके मस्तिष्क की संरचना इंसानी संरचना जैसी ही होती है । वह वैज्ञानिक यह देख रहे हैं कि गाने वाले चूहों का सामान्य चूहों पर क्या असर होता है ।

अफ्रीका में मिली एक दुर्लभ मक्खी

अफ्रीका महाद्वीप के केन्या में वैज्ञानिकों ने दुनिया की एक बेहद दुर्लभ और अजीबोगरीब घने बालों वाली मक्खी को ढूंढ निकाला है । पीले बालों वाली ऐसी मक्खी को पहली बार १९३३ में देखा गया था । यह दुबारा १९४८ में दिखी और अब से लगभग छह खोजी दल थिक और गैरिसा के इलाको में इसकी खोज में लगे रहे ।
नैरोबी स्थित इनसेक्ट फिजियोलाजी एंड इकोलाजी के डॉ. राबर्ट कूपलैंड ने बताया कि इस मक्खी की शारीरिक संरचना ने वैज्ञानिकों को अचंभित कर दिया
है । वैज्ञानिक इस खोज में लगे हैं कि यह मक्खी टू फ्लाइज या डिप्टेरा की वंशावली में इसका उचित स्थान क्या है । डॉ. कूपलैंड ने बताया कि यह अपने जैविक परिवार की एक मात्र सदस्य हैं । कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मक्खी सिर्फ अफ्र ीका में ही पाई जाती है ।
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