प्रतिदिन लुप्त् होती चार सब्जियां
सुश्री ईलीना एनीरी
पिछली एक शताब्दी में हम अपनी ८० प्रतिशत जैव विविधता से हाथ धो बेठे हैं । हमारी मवेशी, भेड़ और सुअरों की एक तिहाई देशज किस्में यातो विलुप्त् हो चुकी हैं या विलुिप्त् की कगार पर हैं । इसी के साथ सब्जियों की भी करीब ३ लाख किस्में अब लुप्त् हो चुकी हैं और प्रत्येक ६ घंटे में एक सब्जी की दर से कम हो रही हैं ।
कृषि के औद्योगिक स्वरूप की असफलता ने एक बार हम सबका ध्यान पुन: पारम्परिक कृषि प्रणालियोंकी ओर दिलाया है । आज विश्व में १०० करोड़ से अधिक लोग भूखे हैं । इसे आधुनिक कृषि की असफलता ही माना जाएगा । वैसे इसी से जुड़ा प्रश्न बढ़ते रासायनिक कीटनाशकों और खादों का भी है जो कि हमारी भूमि की उत्पादकता और पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रहा है ।
स्लोफूड नामक संगठन विश्व भर में छोटे स्तर के खाद्य उत्पादन की सुरक्षा के लिए प्रयास कर रहा है । इस प्रक्रिया में वह पारम्परिक कृषि की समृद्ध जैव विविधता, जानवरों के गर्भाधान, मछली पालन के तरीकों, शिल्पकारों की प्रक्रिया और मौसमी भोजन और भोजन संस्कृति को बचाने के लिए भी प्रयत्नरत है । छोटे निर्माताआें (किसानों) को काम करते रहने देने के माध्यम से स्लो फूड उनके द्वारा शताब्दियों से निर्मित पर्यावास, जलवायु, पशुआें और पौधों को भी बचाना चाहता है । हमें स्वस्थ भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित कराने हेतु भी इस संबंध की निरंतरता अनिवार्य है । स्थानीय खाद्य सुरक्षा ही वास्तव में सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करा सकती है ।
स्लो फूड के संस्थापक और अध्यक्ष कार्लो पेट्रिनी का कहना है, अत्यधिक उत्पादन वाली औद्योगिक कृषि प्रणाली असफल सिद्ध हो चुकी है । यह हमारी पृथ्वी का पेट तो नहीं भर पाई परंतु इसके परिणामस्वरूप आज एक अरब से अधिक लोग भूखे हैं । औद्योगिक कृषि ने भूमि और जल को प्रदूषित कर दिया, सभी लोगों की सांस्कृतिक पहचान को भी नष्ट कर दिया और तेजी से हमारी जैव विविधता में भी कमी ला दी । दूसरी ओर छोटे स्तर पर खाद्य उत्पादन जो कि स्थानीय समुदाय पर आधारित है हमें बेहतर भविष्य दिखा सकता है । वे कहते हैं सार्वभौम खाद्य सुरक्षा ही स्लो फूड का ध्रुव तारा है ।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार खाद्य सुरक्षा तभी अस्तित्वमान रहती है, जबकि सभी व्यक्तियों को सभी समय एक सक्रिय एवं स्वास्थ्यकर जीवन जीने हेतु एवं उनकी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु पर्याप्त्, सुरक्षित और पोषण भोजन हेतु उनकी शारीरिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहुंच हो ।
वहीं स्लो फूड इस परिभाषा का विस्तार करते तर्क देता है कि सभी लोगों को ऐसे भोजन का अधिकार है जो कि अच्छा, साफ और अनुकूल हो । ये तीनों ही हमारी कृषि, खाद्य उत्पादन और स्वाद का निर्धारण कर सकते हैं । अच्छे से हमारा तात्पर्य है ऐसा ताजा और सुगंधमय भोजन जो कि हमारी स्थानीय संस्कृति से जुड़ा हो । साथ-सुथरे से आशय है ऐसा स्वाद जो कि पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के अनुकूल हो तथा अनुकूल से आशय है ऐसा खाद्य जो कि उपभोक्ता की पहुंच में हो और छोटे उत्पादकों को अनुकूल परिस्थिति उपलबध कराए ।
स्लो फूड का विश्वास है जनता को इस बात का ज्ञान और स्वतंत्रता होना चाहिए कि वे कौन सी फसल उपजाएं और उसे किस तरह अपने भोजन में परिवर्तित करें । विकासशील देशों के लिए अपने समुदायों और संस्कृतिका स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए पारम्परिक कृषि परम्परा और ज्ञान को बचाए रखना बहुत जरूरी है । आज स्थानीय खाद्य उत्पादन करने वाले किसान बड़ी संख्या में अपने खेतों से बेदखल हो रहे हैं । इस मूल्यवान संसाधन को निर्यात या बायो इंर्धन उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है । इसी के साथ किसान अपनी सबसे मूल्यवान सम्पत्ति बीज से भी वंचित होते जा रहे हैं ।
पिछली एक शताब्दी में हम अपनी ८० प्रतिशत जैव विविधता से हाथ धो बेठे हैं । हमारी मवेशी, भेड़ और सुअरों की एक तिहाई देशज किस्में यातो विलुप्त् हो चुकी हैं या विलुिप्त् की कगार पर हैं । इसी के साथ सब्जियों की भी करीब ३ लाख किस्में अब लुप्त् हो चुकी हैं और प्रत्येक ६ घंटे में एक सब्जी की दर से कम हो रही हैं । कृषि की और जंगली किस्मों की जैव विविधता व स्थानीय मवेशियों की किस्मों को बचाने में हमारी असमर्थता से जहां हम स्थानीय अनुकूल विकल्पों से हाथ धो बैठेगें वहीं दूसरी ओर हम खाद्य सुरक्षा का सबसे बड़ा मौका भी गवां बैठेगें ।
टिकाऊ खाद्य उत्पादन पर निर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्थाआें की मदद के लिए स्लो फूड ने टेरा मेडे सहित अनेक शिक्षात्मक कार्यक्रम शुरू किए हैं । ये विशेष तौर पर जैव विविधता, खाद्य एवं स्वाद जानकारी कार्यक्रम और उत्पादकों को उपभोक्ताआें से जोड़ने के बारे मेंे शिक्षित करते हैं । अभी यह नेटवर्क एशिया में बांग्लादेश, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम और फिलीपिंस में कार्यरत है । वैसे भारत में भी इसने सेवा संस्था के साथ कार्य करना प्रारंभ कर दिया है । इस परियोजना के तहत बुजुर्ग व्यक्तियों को नई पीढ़ी से बात करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है । जिससे नई पीढ़ी उत्साहित होकर अपने पारम्परिक भोजन में रूचि लेना प्रारंभ करें ।
स्लो फूड के शैक्षणिक कार्यक्रमों की नींव में है कि लोगों का दिमाग बदलने के लिए एक सांस्कृतिक क्रांति की तुरंत आवश्यकता है । इस हेतु ग्रामीण विद्यालय के छात्रों से लेकर शहरों के कामकाजियों तक से चर्चा प्रारंभ की गई ।
भारत में स्लो फूड ने नवदान्य ट्रस्ट द्वारा स्थापित देहरादून बासमती चावल प्रीसिडियम नामक स्थानीय गैर सरकारी संगठन के साथ बीच बचाने हेतु साझेदारी की है । इसके अंतर्गत देशी बीच किस्मों का संवर्धन एवं पारम्परिक भोजन संस्कृति की सुरक्षा और कृषि पेटेंट के खिलाफ संघर्ष की योजना बनाई गई है । इन दुरस्थ हिमालयी घाटी क्षेत्रों में कीटनाशकों के प्रयोग ने पर्यावरण को क्षति पहुंचाई है जिसके परिणामस्वरूप रसायन रोधी कीड़े विकसित हो गए हैं । आज इस अभियान में १७३ ऐसे उत्पादक शामिल हो गए हैं, जो कि बिना किसी कीटनाशक के बासमती चावल की खेती कर रहे हैं ।
हम शिक्षा तथा अपनी गतिविधियों से अपनी आंचलिक पहचान बनाए रख सकते हैं और स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य को भी सुधार सकते हैं । साथ ही हम अच्छे साफ- सुथरे व अनुकूल खाद्य हेतु अपनी सार्वभौमिकता के अधिकार और उसकी सुरक्षा की मांग कर सकते हैं । इस तरह हम इस भूमंडलीकरण के दौर में अपने पर्यावरण और कृषि को बचाते हुए अच्छे भोजन का आनंद भी ले सकेंगे । ***
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