शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

जनजीवन

हिंसक खेती से अशान्त होती धरती
सुश्री वंदना शिवा

धरती के खिलाफ युद्ध की शुरूआत वस्तुत: दिमाग से प्रारंभ होती है । हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं । हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र का औजार निर्मित करता
है । इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात सामग्रियोंका प्रयोग कृषि कार्य में लेने से कृषि का स्वरूप भी हिंसक हो गया है । हमारे यहां तो अनादिकाल से माना जाता है कि जैसा अन्न खाएंगे वैसा ही मन बनेगा । मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कृषि की वर्तमान स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि किस प्रकार हम पुन: जैविक खेती की आरे लौटे और विश्व को शांति की राह दिखाएं ।
हम जब अपने समय के युद्धोंके बारे में सोचते हैं तो हमारा दिमाग इराक और अफगानिस्तान की ओर घूम जाता है । परंतु इससे बड़ा युद्ध तो हमारे ग्रह (पृथ्वी) के खिलाफ चल रहा है । इस युद्ध की जड़ें अर्थव्यवस्था में निहित हैं जो कि पर्यावरणीय और नैतिक सीमाआें, असमानता की सीमाआें, अन्याय की सीमाआें, लालच की सीमाआें और आर्थिक केंद्रीयकरण को समझने में असफल हो चुकी है । कुछेक निगम और शक्तिशाली राष्ट्र पृथ्वी के संसाधनों पर निंयत्रण कर इस ग्रह को एक ऐसे सुपर मार्केट में तब्दील कर देना चाहते हैं जहां पर कि सबकुछ बिक्री के लिए है । वे हमारा पानी, जीन्स, कोशिकाएं, शरीर के अंग, ज्ञान संस्कृति और यहां तक कि हमारे भविष्य को भी बेच देना चाहते
हैं ।
अफगानिस्तान और ईराक में निरंतर चल रहे युद्ध केवल तेल के लिए हत्या हेतु नहीं है । अब परत दर परत वास्तविकता सामने आ रही है ये भोजन के लिए हत्या जीन और जैव विविधता के लिए हत्या और पानी के लिए हत्या के लिए भी हैं। युद्ध की इस सैन्य औद्योगिक कृषि को मानसेंटो द्वारा बनाए जाने वाले खरपतवार नाशकों के नामों से भलीभांति समझा जा सकता है । इनमें से कुछ के नाम हैं राउण्ड अप (हांकना या गिरफ्तारी), मचेट (छुरा) एवं लासो (फाँसा) । ये तो युद्ध की भाषा है और धरती पर सुस्थिरता तो शांति पर ही आधारित है ।
धरती के खिलाफ युद्ध की शुरूआत वस्तुत: दिमाग से प्रारंभ होती है । हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं । हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र का औजार निर्मित करता है । इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है । युद्ध के समय जो कारखाने मनुष्यों को मारने के लिए विस्फोटक और जहर बनाने का कार्य करते थे युद्ध के बाद उन्हें कृषि रसायन बनाने वाले कारखानों में परिवर्तन कर दिया गया ।
सन् १९८४ ने मुझे इस बात को लेकर झकझोर दिया कि हम जिस तरह से अपना भोजन निर्मित करते है। उसमें जबरदस्त कमियां हैं । पंजाब में हुई हिंसा और भोपाल में हुआ विध्वंस कमोवेश युद्ध जैसा ही तो प्रतीत होता था । यही वह समय था जब मैंने हरित क्रांति की हिंसा के बारे में लिखा और इसीलिए जहर और जहरीले पदार्थोंा से रहित कृषि हेतु नवधान्य को एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया ।
कीटनाशक, जो कि युद्धक रसायन के रूप में विकसित हुए थे, के माध्यम से कीटोंपर रोक असफल सिद्ध हो गई । जेनेटिक इंजीनियरिंग से उम्मीद थी कि वह जहरीले रसायनों का विकल्प प्रस्तुत करेगी लेकिन इसके बजाए उसने तो कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल में वृद्धि कर जैसे किसानों के खिलाफ युद्ध ही छेड़ दिया । अत्यधिक लागत वाले बीजों और रसायनों ने किसानों को उधारी के जाल में जकड़ दिया और वे आत्महत्या करने को मजबूर हो गए । सरकारी आकंड़ों के हिसाब से देखेंतो सन् १९९७ से अब तक २ लाख से अधिक भारतीय किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धरती के साथ शांति से रहना हमेशा ही नैतिक एवं पर्यावरणीय अनिवार्यता रही
है । परंतु अब तो हमारी कई प्रजातियां जिंदा रह पाने की राह ढूंढती नजर आ रहीं हैं ।
मिट्टी जैव विविधता, वातावरण, कृषि और किसानों के विरूद्ध हो रही हिंसा के फलस्वरूप युद्ध सदृष्य ऐसी खाद्य प्रणाली बन गई है जो कि लोगोंकी भूख शांत नहीं कर पा रही हैं । आज एक अरब लोग भूखे हैं और दो अरब लोग भोजन से संबंधित बीमारियों जैसे मोटापा, डाईबिटीज, उच्च रक्तचाप और केंसर से पीड़ित हैं ।
अस्थिर विकास में तीन स्तरों पर हिंसा का समावेश होता है । पहली है धरती के खिलाफ हिंसा, जिसकी अभिव्यक्ति पर्यावरण संकट के रूप में होती है । दूसरी तरह की हिंसा व्यक्तियों के खिलाफ होती है जिसे हम गरीबी,अभाव और विस्थापन के रूप में देख सकते हैं । तीसरी तरह की हिंसा युद्ध और संघर्ष के रूप में सामने आती है जिसमें कि शक्तिशाली अपने अंतहीन लालच के चलते उन संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं जो कि दूसरे समुदाय या राष्ट्रों के होते हैं । जब जीवन का प्रत्येक आयाम ही व्यावसायिक हो जाता है तो भले ही लोग एक डॉलर प्रतिदिन से अधिक भी कमाएं तो भी वे गरीब ही बने रहते हैं ।
वहीं दूसरीे ओर लोग इस मौद्रिक अर्थव्यवस्था के बिना भी समृद्ध हो सकते
हैं । यदि उनकी पहुंच भूमि तक हो, उनकी मिट्टी उपजाऊ हो, उनकी नदियां साफ-सुथरे रूप में बहती हो, उनकी संस्कृति समृद्ध हो और उनकी सुदर घर और वस्त्र तथा सुस्वाद भोजन बनाने की परम्परा कायम हो । इसी के साथ उनसे सामाजिक सदभाव, एकता और सामुदायिक भावना बनी हुई हो ।
बाजार के शीर्ष पर बैठने और समाजों को संगठित रखने के सर्वाधिक ऊँचे स्थान के रूप में मुद्रा के मानव निर्मित पूंजी के रूप में स्थापित हो जाने से प्रकृ ति के सान्निध्य में सुस्थिर जीवन बने रहने की प्रक्रिया को कमतर समझा जाने लगा । हम जैसे-जैसे अमीर बनते जाते हैं वैसे-वैसे सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी के संदर्भ में गरीब भी होते जाते हैं । धन में आंकी गई वृद्धि हमें भौतिक, सांस्कृति, पर्यावरणीय और आध्यात्मिक स्पर पर गरीबी की ओर ढकेल देती है ।
जीवन की सही मुद्रा तो जीवन स्वयंही है और इसी से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हम इस विश्व में स्वयं को किस तरह देखते हैं ? मनुष्य किस लिए है ? क्या हम महज धन बनाने वाली और संसाधनों को हड़प जाने वाली मशीन भर हैं ? या कि हमार कुछ उच्च उद्देश्य या उच्च लक्ष्य भी हैं? मेरा विश्वास है कि पृथ्वी का लोकतंत्र हमारी सोच को विस्तार देता है और वह एक ऐसा जीवंत लोकतंत्र निर्मित करता है जो कि सभी संस्कृतियों का पृथ्वी के महत्त्वपूर्ण संसाधनों पर न केवलन्यायोचित व बराबरी का अधिकार है बल्कि उन्हें पृथ्वी के इन संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर निर्णयों को भी साझा करना चाहिए ।
पृथ्वी का लोकतंत्र उस पर्यावरणीय प्रक्रियाकी सुरक्षा करता है जो कि जीवन चलाने के लिए आवश्यक है । इतना ही नहींवह मनुष्य के जीवित रहने के मौलिक अधिकार की भी रक्षा करता है जिसमेंकि पानी भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और जीविका का अधिकार भी शामिल हैं ।
अब हमें चुनाव करना होगा कि हम कारपोरेट लालच के हित में बनाए गए बाजार के कानूनोंका पालन करेंगे या पृथ्वी के इकोसिस्टम और इसकी जैवविविधता बनाए रखने वाले प्राकृतिक सिद्धांतोंका अनुपालन करेंगे ? व्यक्तियों की भोजन और पानी की आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जबकि हम प्रकृतिद्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले भोजन व पानी की क्षमता की रक्षा कर पाएगें । मृत या निर्जीव मिट्टी और मृत नदियां हमें भोजन और पानी नहीं दे सकतीं । अतएव अपनी धरती माँ के अधिकारों की रक्षा करना हमारा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानवाधिकार और सामाजिक न्याय संघर्ष है । यह हमारे समय का सबसे व्यापक सामाजिक आंदोलन भी है ।
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