हमारी आकाश गंगा में ५० अरब ग्रह !
ऐसे समय में जब भारत मे जनसंख्या का पता लगाने के लिए जनगणना चल रही है, विश्व के वैज्ञानिक आकाशगंगा में ग्रहों की संख्या जानने की कोशिश कर रहे हैं । वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि हमारी आकाशगंगा में करीब ५० अरब ग्रह हो सकते हैं ।
समाचार पत्र डेली मेल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ५० करोड़ ग्रह गोल्डीलॉक्स नाम से ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ का वातावरण या तो बहुत गर्म है या बहुत ठंड़ा है, जिसके कारण उन पर जीवन होने की संभावना नहींहै । वैज्ञानिकों ने ये आंकड़े अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के केप्लर दूरबीन की मदद से पिछले करीब दो वर्ष की
मशक्कत के बाद जारी किए हैं । वैज्ञानिकों ने जिस मिशन के तहत ये आँकड़े एकत्रित किए वह साढ़े तीन वर्ष का था और इस पर करीब ६० करोड़ डॉलर खर्च हुए ।
केप्लर
विज्ञान प्रमुख विलियम बोरूकी ने कहा कि वैज्ञानिकों ने पहले वर्ष में रात के समय आकाश के एक हिस्से में खोज करने के बाद यह अनुमान लगाया कि इनमें मिले तारों में से कितने ग्रह हो सकते हैं । केप्लर ने ग्रहों का पता उस समय लगाया, जब वे पृथ्वी और परिक्रमा करने वाले तारे के बीच से गुजरे । अभी तक केप्लर ने करीब १२३५ ग्रह खोजे हैं, जिसमें से ५४ गोल्डीलॉक्स क्षेत्र में हैं, जहाँ जीवन नहीं पनप सकता ।
रक्त कैंसर को रोकने वाले प्रोटिन की खोज
अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक दल ने ल्यूकेमिया (एक प्रकार का रक्त कैंसर) को रोकने में सहायक उस प्रोटीन के बारे में पता लगाने का दावा किया है जिसकी मदद से शरीर इस बीमारी से लड़ता है । ब्रिटिश जर्नल ऑफ हेमैटोलॉजी के अनुसार इस दल ने शरीर मे मौजूद सफेद रक्त कोशिकाआेंकी सतह पर पाए जाने वाले इस प्रोटीन को सीडी १९ लिगैंड नाम दिया है । यह प्रोटीन ल्यूकेमिया से प्रभावित कोशिकाआें को नष्ट करने में शरीर की प्रतिरोधी क्षमता की सहायता करता है । लॉस एंजिलिस स्थित बच्चों के कैंसर और रक्त संबंधी बीमारियों के केन्द्र और सबन शोध संस्थान के वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट ल्यूकेमिया से प्रभावित सीडी १९ कोशिकाआेंें पर पहला काम है । इस दल के प्रमुख फतीह उकून ने कहा कि इस बीमारी की सबसे बड़ी चुनौती स्वस्थ कोशिकाआेंको नुकसान पहुंचाए बिना ल्यूकेमिया को नष्ट करने की है ।
इसके लिए हमेंनए तरीके इजाद करने होंगे, क्योंकि यह कोेशिकाएं कीमोथेरेपी से भी नष्ट नहीं होती हैं । सीडीएल-१९ एल नामका यह प्रोटीन टी लिंफोसाइट नाम की सफेद रक्त कोशिकाआें पर पाया जाता है और यह बी कोश्किाआें पर मौजूद ल्यूकेमिया से प्रभावित कोशिकाआें से जुड़ कर उन्हें नष्ट कर देता है ।
अब हो सकेगी भूकंप की भविष्यवाणी
अब भूकंप आने से पहले ही उसके सही स्थान और समय की जानकारी मिल जाया करेगी । रूस और ब्रिटेन के वैज्ञानिकोंके एक संयुक्त दल की मानें तो उनकी एक नई परियोजना के तहत छोड़े जाने वाले दो उपग्रह यह जानकारी मुहैया कराएंगे। दोनों देशों के वैज्ञानिकोंने मास्को में इस योजना के समझौतोंपर हस्ताक्षर किए हैं । दी इंडिपेन्डेंट की खबर के अनुसार इनमें से एक उपग्रह टेलिवीजन के आकार का होगा, जबकि दूसरा जूते के डिब्बे से भी छोटा होगा । दोनों उपग्रह रूस के सुदूर पूर्व स्थित कमचाटका प्रायद्वीप और आईसलैंड जैसे भूकंप और ज्वालामुखी से प्रभावित क्षेत्रोंकी निगरानी करेंगे । इनमें मिली जानकारी का अध्ययन कर वैज्ञानिक यह पता लगाएंगे की भूकंप आने से पहले कौन से बदलाव होते हैं । परियोजना को शुरू करने वाले लंदन विश्वविद्यालय के कॉलेज के प्रोफेसर ऐलेन स्मिथ ने कहा कि भूकंप से पहले धरती मेंउत्पन्न होने वाले तनाव से जो तरंगे निकलती हैं, जिन्हें वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में प्राप्त् किया जा सकता है । प्रोफेसर ऐलेन ने कहा कि हमारी कोशिश होगी कि हम एक निश्चित समय के दौरान बाकी चीजोंकी अपेक्षा इन तरंगों में आए बदलाव को दर्ज कर सकें । इस परियोजना में शामिल एक रूसी वैज्ञानिक ने कहा कि इस परियोजना की सफलता से धरती की सुरक्षा के साथ ही रूस और ब्रिटेन में विज्ञान को नई ऊंचाई मिलेगी । उन्होंने कहा कि कल्पना कीजिए कि पिछले साल हैती में आए विध्वंसकारी भूकंप के बारे मेंअगर पहले से पता चल जाता तो कितने लोंगों की जानें बचाई जा सकती थी । इस परियोजना का पहला उपग्रह २०१५ में छोड़े जाने की योजना है ।
मकड़ी के जाले से होगी प्लास्टिक सर्जरी
जर्मनी मेंऐसी शोध हो रही है कि जिसका मकसद मकड़ी के जाल से प्लास्टिक सर्जरी करना है । आमतौर पर मकड़ी के जालों को देखकर अच्छा नहीं लगता । जब घरों में दीवारों और कोनों में जाले लग जाते हैं तो उन्हें हटा दिया जाता है, लेकिन जर्मनी में हनोवर के मेडिकल कॉलेज में खासतौर से मकड़ी के जाले लगाए जा रहे हैं। यहाँ तक कि पूरे कमरों को जालों से भरा जा रहा है, ताकि इन्हें इंसानों के लिए इस्तेमाल किया जा सके ।
हनोवर के मेडिकल कॉलेज में क्रिस्टीना अल्मेलिंग मकड़ियों पर शोध कर रही हैं । उनका यह शोध इतना अनोखा है कि कई लोग इसे देखने आते हैं । यहाँ लगे मकड़ी के जाले ऐसे दिखते हैं मानों वहाँ किसी विशाल पेड़ की टहनियाँ लटक रही हों । क्रिस्टीना बताती हैं कि इनका आकार काफी बड़ा होता है । ये मकड़ियाँ आपस में एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर रहती हैं और ये जितना चाहें इस कमरे में अपना जाल फैला सकती हैं । यहाँ कुछ पुराने जालों पर नए जाले भी बने हुए हैं । इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि नेफिला नाम की इन मकड़ियों को कम जगह में जाल बुनने से भी कोई दिक्कत नहीं है । ये जाले आकार में विशाल हैं । हर जाल औसतन एक मीटर लंबा है और हर जाल के बीच एक मकड़ी बैठी दिखेगी जो हथेली जितनी बड़ी होगी । धारीदार काले पैरों वाली नेफिया मकड़ियाँ दक्षिण अमेरिकी प्रजाति की है ं ।
क्रिस्टीना ने बताया कि हम इन मकड़ियों को चोट नहीं पहुँचाते । सिर्फ सुईयों के सहारे उन्हें एक कम्पे्रशर से कुछ इस तरफ फैल जाएँ और पेट कम्पे्रेशर से चिपका रहे । इस तरह से वे केवल अपने पैर ही हिला सकती हैं, शरीर नहीं । मकड़ियों के पेटमेंही वे ग्रंथियाँ होती हैं जो जाल बनाने के काम आती हैं । इन जालों को पास में रखी एक चरखी पर इकट्ठा किया जाता है । कुछ उसी तरह जेसे रूई से धागा बनाया जाता है । यह ३० सेंटीमीटर बड़ी चरखी बिजली से चलती है और २०० मीटर जाल इकट्ठा कर सकती हैं ।
ये धागे काफी मजबूत होते हैं, इसलिए अब इन्हें प्लास्टिक सर्जरी से भी
काम में लाया जा रहा है । क्लिनिक फॉर प्लास्टिक सर्जरी के निदेशक प्रो. पेटर फौप्ट इसके फायदों के बारे मेंबताते हैं कि ये रेशे बेहद मजबूत होते हैं । इनकी ऊपरी सतह बहुत चिकनी होती है और सबसे खास बातें ये के ये प्राकृतिक रूप से बनते हैं। कृत्रिम रेशों को कई बार शरीर ठीक तरह से स्वीकार नहीं कर पाता और फिर उससे एलर्जिक रिएक्शन भी हो जाते हैं ।
अमेरिका के मूल निवासी, जिन्हें रेड इंडियन के नाम से भी जाना जाता है, बहुत साल पहले घाव भरने के लिए इन्हीं रेशों का इस्तेमाल करते थे । इससे कुछ ही दिनोंे चोट पूरी तरह ठीक हो जाती थी । प्रो.फौम्ट भी रेशोंे का ऐसा ही प्रयोग चाहते हैं, लेकिन हाईटेक तरीके से । उन्होंने बताया कि मकड़ियों के जाल के ढाँचे के अंदर से सभी कोशिकाआें को निकाल लिया
जाएगा । इस ढाँचे में रेशे भर दिए जाएँगे । टूटी हुई तंत्रिकाएँ इन रेशों के आसपास बढ़ने लगेंगी और धीरे-धीरे इनसे जुड़कर पूरी तरह विकसित हो जाएँगी ।
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