गुरुवार, 24 मार्च 2011

विदेश


अफ्रीका : नवउपनिवेशवाद का शिकार
सचिन कुमार जैन

आधुनिक उपभोगवादी संस्कृति ने प्राकृतिक संसाधनों की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की है । जिन क्षेत्रों में इनकी उपलब्धता है उन्हें जानबूझकर साजिश के तहत गरीब बनाए रखा गया है । अफ्रीका और भारत के प्राकृतिक संसाधनोंसे प्रचुर क्षेत्र इसके ताजातरीन उदाहरण हैं ।
अफ्रीकी देश व नव-विकसित देशों (जैसे भारत, चीन आदि) के उपनिवेश बन रहे हैं । भारत के जाने माने समाजशास्त्री और विकास के नाम पर विस्थापन विषय के जानकार वाल्टर बर्नांडीस बताते हैं कि सहारा मरूस्थल के देशों में चार करोड़ हेक्टेयर जमीन को अमीर, पूंजीवादी समूह और सरकारें हड़पने की प्रक्रिया में हैं । एक ओर जहां इन ज्यादातर देशों में तानाशाही है और लोकतंत्र का अभाव है वहीं दूसरी ओर जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी लोगों को उपलब्ध नहीं है ।
अफ्रीकी देश सेनेगल की राजधानी डकार में ६ से ११ फरवरी २०११ के बीच आयोजित विश्व समाज मंच में शामिल होने आये सूड़ान और कांगों के लोगों ने बताया कि जब उन्होंने बेहतर जीवन की तलाश में पलायन करने का निर्णय लिया तो दो वर्ष तक पैदल चलते हुए वे दुनिया के सबसे बड़े सहारा रेगिस्तान को पार कर पाए । फिर उन्होंने छोटी कश्तियों से अटलांटिक महासागर पार करके यूरोपीय देशों में प्रवेश करने की कोशिश की । इस कोशिश में कई लोग रास्ते में ही मर गए और अनेक सीमा पार करके यूरोप में घुसते हुए पकड़ लिए गए ।
कूटनीति की अमानवीयता तो देखिये कि उन लोगो को पकड़ कर फिर सहारा रेगिस्तान में छोड़ दिया गया । अब फ्रांस, इटली, स्पेन जैसे यूरोपीय देश हर साल लगभग १० अरब रूपये अफ्रीकी और मध्य-पूर्व देशों को दे रहे हैं ताकि ऐसी व्यवस्थाएं की जाएं कि लोग यूरोप की सीमा में न घुस सकें । विकसित देशों का यह समूह मानता है कि पलायन करके आने वाले इन लोगों के कारण उनकी छवि और संसाधनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । कीनिया, नामिबिया, कांगो, अल्जीरिया जैसे देशों से १० लाख लोग इसी बदहाली के कारण पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं, पर उन्हें अब इसकी भी अनुमति नहीं है । उपनिवेशवाद विकास और उन्नति का चेहरा ओढ़ कर सामने आता है । वह पहले अभाव पैदा करता है और उन अभावों को दूर करने के नाम पर उस समाज को अपना गुलाम बना लेता है । उपनिवेशवादी जानता है कि किसी भी देश या समाज को गुलाम बनाने के लिए उसकी संस्कृति, शिक्षा, प्राकृतिक संसाधनों और भाषा को नियंत्रण में लेना जरूरी है । अफ्रीकी महाद्वीप में यह प्रक्रिया अब भी जारी है । उपनिवेशवाद अपना गए रूप में विस्तार कर रहा है ।
भारत जैसे देश जो कभी खुद गुलामी और दासता के शिकार रहे हैं, ने भी पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास के लिए उदारवादी नीतियां अपनाई । इसका मकसद यही है कि किस तरह से वृद्धि दर को बढ़ाया जाए । धन तो बढ़ा पर असमानता उससे कहीं तेज गति से बढ़ी । भारत का अकेला एक औद्योगिक घराना अम्बानी परिवार भारत के ५ फीसदी सकल घरेलु उत्पाद को नियंत्रित करता है । देश के सत्तर फीसदी संसाधनोंपर ८ फीसदी लोगों का कब्जा हो चुका है और अब भारत के औद्योगिक घरानों ने अफ्रीका को अपने आर्थिक औपनिवेशिक साम्राज्य के विस्तार का लक्ष्य बनाया है । इन समूहोंने अफ्रीकी देशों में उद्योगों के विस्तार की नीति के तहत प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया है । चीन ने तो वहाँ उपलब्ध हो रहे रोजगार के अवसरों को भुनाने के लिए अपने नागरिकों को ही वहाँ भेजना शुरू कर दिया है । इस तरह कभी विकासशील कहेे जाने वाले देश खुद उपनिवेशवादी रवैया अख्तियार करने लगे हैं । ज्यादा अफसोस तो इस बात का है कि हम उन्हीं को गुलाम बना लेना चाहते हैं जो हमारे सबसे करीब रहे हैं ।
हम भारत और अफ्रीका में एक और समानता साफ तौर पर पाते हैं, अफ्रीका में समाज भी पूंजीवादी नीतियों का बड़ा शिकार बना है । संसाधनों से संपन्न होने के बाद भी जब आप सेनेगल की राजधानी डकार के पुराने शहर की तरफ कूच करते हैं तब सड़क और छोटी दुकानोंें पर बिकते हुए पुराने पहने हुए कपड़ों को देख कर आप विपन्नता का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं । उन्होंने हमसे फोटो न खीचने का निवेदन किया । वे अपनी स्थिति को स्थायी नहीं बनाना चाहते हैं । वे नहीं चाहते कि इस सच को कोई और देखे ।
स्वास्थ्य सुविधाआें की हालत देख कर आँखे नम हो जाती हैं । वहाँ सरकारी या सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मिल ही नहीं पाती हैं । निजी सेवाएं भी इतनी कम हैं और उनका दायरा राजधानी डकार तक ही सीमित हैं । एक उदाहरण से वस्तुस्थिति और स्पष्ट हो जाएगी । फिलिस्तीन से आये हमारे एक साथी रामी को लू और गले का संक्रमण हो गया, जिसके इलाज के लिए चिकित्सक मिले उनकी फीस २६००० सेफा (सेनेगली मुद्रा) यानी २६०० रूपये थी । फिर एंटीबायोटिक दवाएं और सामान्य पेरासिटामोल खरीदी गई, जिनके लिए ४९००० सेफा यानी ४९०० रूपये का भुगतान किया गया । जहाँप्रति व्यक्ति मासिक आय २००० रूपये से कम हो वहां बीमार पड़ा भी जा सकता है ? ९ दिनों में इस देश के एक भी व्यक्ति ने ऊँची आवाज में हमसे बात नहीं की । हमारी बात को सुना और पूरा सम्मान दिया, उनमें कोई कुटिलता अभी भी नजर नहीं आती, तभी तो इमिग्रेशन अधिकारी आपसे थोड़ी नजरें झुका कर रिश्वत मांग भी लेता है और नहीं मिलने पर मुस्कुरा देता है ।
नस्लभेदी उपनिवेशवाद कितना भयावह, हिंसक और अमानवीय होता है, इसका एक प्रमाण डकार से लगभग १५ किलामीटर दूर अटलांटिक महासागर में स्थापित ५ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले गोरे द्वीप के रूप में नजर आता है । इसे दासों के द्वीप के रूप में जाना जाता है । यह क्षेत्र आज भी विकसित और संपन्न देशों के सबसे करीब है इसलिए अफ्रीका के तमाम देशांे से लोगों को दास बना कर लाया जाता और इस द्वीप पर रखा जाता है । यहीं से उन्हें समूहवार गुलामी के किये यूरोप और
अमेरिका के अलग-अलग हिस्सोंमें भेजा जाता है । इस द्वीप पर बनी इमारतों में ८० से १५० वर्गफुट के आकार के कमरे बनाए गए जिनमें १५ से ३० लोगों को रखा जाता है हर रोज दिन में केवलएक बार शौच के लिए मौका दिया जाता । गंदगी में रहने के कारण यहाँ महामारी फैली और हजारोंमारे गए । कुंवारी लड़कियों के लिए अलग कमरे बनाए गए जहां कुंवारेपन की जांच के बाद लड़कियों को रखा जाता और मनोरंजक शोषण के लिए दूसरे हिस्सोंमें भेजा जाता है । गर्भवती होने के बाद उन्हें किसी अनजाने इलाके मेंछोड़ दिया जाता था, चुँकि मुक्ति का यही एक मात्र रास्ता है इसलिए लड़कियां जल्दी से जल्दी गर्भवती हो जाना चाहती
है ।
१४वीं और १५वीं शताब्दी के आसपास ३०० सालों में अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक डेढ़ करोड़ लोग इस दासता के दौर मेंजान से हाथ धो बैठे । चारों तरफ समुद्र और शार्क मछलियाँथीं अतएव जिन्होंने भी भागने की कोशिश की वे जिन्दा नहीं बचे। रोचक तथ्य है कि केवल उन्हीं दासों को दासता के लिए आगे भेजा जाता था जो स्वस्थ होते थे और जिनका वजन ६० किलो से अधिक होता था । जिनका वजन कम होता उनका वजन खास भोजन देकर बढ़ाया जाता और आगे भेज दिया जाता । मानवीय इतिहास की इन भूलों पर विचार की आवश्यकता है ? ***

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