श्रम में स्त्री-पुरूष समानता
कांचा आइलैया
श्रम के बंटवारे की परम्परागत सोच से स्त्री-पुरूष के बीच के बंटवारे को और अधिक असंतुलित बना दिया
है । स्त्री-पुरूष समानता की नींव पारिवारिक संबंधों में समानता से ही डाली जा सकती हैं । लेकिन हमारे घरों में लड़के और लड़की के बीच गैर बराबरी का व्यवहार होता है जो अन्तत: हमारे संपूर्ण सामाजिक परिवेश में दिखाई देता है अतएव घर में समानता लाए बगैर समाज के स्तर पर समानता का आना महज दिवास्वप्न ही है ।
जीने के लिए स्त्री-पुरूष सभी को काम करना जरूरी है । काम करने से ही मनुष्य अच्छी शारीरिक सेहत बनाए रखकर जीवित रह पाता है । सवाल यह है कि क्या महिलाएं और पुरूष एक ही काम कर सकते हैं? अपने रोजमर्रा के जीवन में अपने घरोंें में और खेतों में भी हम देखते हैं कि महिलाआें से एक तरह के काम करवाए जाते हैं और पुरूषों से दूसरी तरह के ।
श्रम को लेकर लिंग-भेद बच्चे के पालन-पोषण के समय से ही शुरू हो जाता है । माता-पिता के बीच संबंध के परिणामस्वरूप बच्चे का जन्म होता है । माँ बच्चे को जन्म देती है और फिर स्तन के दूध या कभी-कभी बोतल के दूध द्वारा उसका पोषण करती है । जब बच्चा मल या मूत्र विसर्जित करता है तो वह उसका शरीर धुलाती है । आमतौर पर माँही बच्चे को नहला-धुलाकर तैयार करती है । फिर वहीं बरतन धोती है और घर की साफ-सफाई करती है । यदि परिवार कपड़े धोने के लिए कोई घरेलु सेवक नहीं रखता तो माँ ही अकेलेसारा काम करती है । घर का झाडू-पोंछा या सफाई का कोई भी अन्य काम आम तौरपर परिवार की महिला सदस्यों द्वारा ही किया जाता है ।
ऐसा नहीं होना चाहिए । बच्चे का स्तनपान के जरिए पोषण कराने के अलावा दूसरा सभी काम दोनों पालकों, महिला और पुरूष द्वारा समान रूप से बांटे जा सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में कई समाजों में पुरूषों और महिलाआें ने ऐस बुनियादी घरेलु कामों को आपस में बांटना शुरू कर दिया
है । परंतु अधिकांश मामलों में भारतीय पुरूष ऐसे किसी काम में हाथ नहीं बंटाते। क्यों ?
भारतीय परिवारों में बचपन से ही घर के कामों को लड़कों और लड़कियों के बीच बांट दिया जाता है । लड़कियों को रसोई में माँ की मदद करने के लिए कहा जाता है । सब्जियां काटना, बरतन धोना, कपड़े धोना, घर का झाडू-पोंछा करना इत्यादि स्त्रियों के काम माने जाते हैं । लड़कों को केवलखेती के काम मेंपरिवार की मदद करने और दुकानों से सामान खरीदकर लाने के लिए कहा जाता है । माताएं स्वयं भी न तो लड़कों को घर की साफ-सफाई के कामसिखाना पसन्द करती हैं । इसी तरह वे लड़कियों को खेती के काम पर भेजना पसन्द करती और न ही उन्हें साइकिल से पड़ौस की दुकान तक जाने के लिए कहती है । यदि कोई माँ अपने लड़के और लड़की को हर तरह से काम में प्रशिक्षित करना भी चाहे तो हो सकता है कि पिता इसे नापसन्द करे ।
समाज मानता है कि महिलाएं और पुरूष प्राकृतिक रूप से अलग-अलग काम करने के लिए बने हैं । हर जाति धर्म और वर्ग के परिवारों में इसी तरह की सोच होती है । इसे परिणामस्वरूप श्रम का लैंगिक आधार पर बंटवारा हो जाता है । यह सोचना गलत है कि यदि लड़के खाना बनाते हैं या साफ-सफाई के कामकरते हैं तो उनका पुरूषत्व घट जाता है ओर वे लडकियों जैसे हो जाते
हैं । इसी प्रकार एक भ्रान्ति यह भी है कि यदि लड़कियां वे काम करती हैं जो परम्परागत रूप से केवललड़कों के काम माने जाते हैं, तो उनके नारीत्व में कमी आ जाती है और वे मर्दानी हो जाती हैं । ये गलत और निराधार विचार है ।
कई व्यवसायों में पुरूष और महिलाएं बराबरी से काम करते हैं । कुछ मामलों में तो महिलाएं पुरूषोंें से ज्यादा काम करती हैं । गांवों में ऐसी महिलाएं होती हैं जो खेत जोतती हैं ओर ऐसे पुरूष होते हैं जो बीज बोते हैं । धोबी परिवारों में महिलाएं और पुरूष दोनों ही अपने ग्राहकों के कपड़े धोते हैं । बुनकरों में भी महिलाएं बराबरी से काम करती हैं । कई परिवारों में ऐसे पुरूष होते हैं जो खाना बनाते हैं और महिलांए घर के बाहर निकलकर काम करती हैं । पर उन शहरी परिवारों में जहां महिलाएं अपने घरों से बाहर व्यावसायिकों के रूप में काम करती हैं उन्हें अन्त में दोहरा काम करना पड़ जाता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि जब बात परिवार के लिए खाना बनाने पर आती है तो पुरूष रसोई के काम मेंपूरी तरह से भाग नहीं लेते हैं । इस तरह दोहरा काम करने के कारण महिलाआें की सेहत और उनकी ऊर्जा कम हो जाती है ।
श्रम का लैंगिक विभाजन बहुत हद तक पितृसत्ता (ऐसी स्थिति जहां परिवार या समाज में पुरूष हावी रहते हैं ) का परिणाम है । पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों और महिलाआें को यह महसूस करने पर मजबूर करता है कि वे लड़कों और पुरूषों से कमतर हैं । इसमें पुरूषों की सोच ऐसी बन जाती है कि वे खुद को श्रेष्ठ समझते हैं । ***
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