बिहार : सुझाव के विपरित विज्ञान
रामचंद्र खान
कोशी के किनारे बसने वाले समुदाय ने सन् १९५५ मेंआजाद भारत में पहली बार नदियों से छेड़छाड़ के विरोध में आंदोलन किया था । ५५ वर्ष पश्चात भी भारतीय तंत्र की आंख नहीं खुली है और विगत वर्ष कोशी में आई बाढ़ और उससे हुआ विनाश इसी अदूरदर्शिता का परिणाम है । गत वर्ष एक जनसमूह ने कोशी का पुन: अध्ययन किया । इसमें डॉ.आी.एन.झा और श्री सत्यनारायण विशेष रूप से शामिल थे ।
नदी अंतत: क्या है ? नदी जल और जीवन रेखा है । नदी से पूरी सृष्टि निर्मित हुई है । समस्त पृथ्वी वर्षा के चक्र, मौसम के पीछे जल ही तो है । नदी जल को धारण करती है । नदी पृथ्वी के धरातल का निर्माण करती है और अपने साथ लाए हुए अवसाद और खनिज से भूमि के उर्वरा चक्र को जीवित रखती है । नदी जल के प्रवाह और बहने का रास्ता ड्रेनेज भी है । इसी कारण मूल प्रश्न जल/वर्षा के जल को नदी यानि रास्ता और ढाल देने का है । किसी भी हाइड्रो-संरचना को जल के बहाव/मार्ग को अवरूद्ध करने की इजाजत नहीं दी जा सकती । हिमालय की घाटी या नदी-घाटी में रहने वाला समूह विज्ञान इसे हिमालय की घाटी या कोशी की घाटी से उजाड़ेगा तो इसका विरोध और संघर्ष तो होगा ही ।
इस देश में बाढ़ पर सबसे अधिक हल्ला होता रहता है । जल विज्ञानी के लिए यह विपत्ति और आपदा है । बाढ़ के निदान के लिए उसके पास मिट्टी के तटबंध की खोखली संरचना तैयार रहती है । बाढ भी अंतत: अपवाह है अर्थात ड्रेनेज सिस्टम है और वर्षा जल का वह अतिरिक्त जल है जो नदियों के स्वयं द्वारा निर्मित प्राकृतिक तटबंधों को लांघकर बाहर चला आता है क्योंकि उसके जल को बड़ी नदी या समुद्र में गिरने का रास्ता नहीं मिलता है । दुनिया के अनेक देशों में प्राकृतिक तटबंधों को ऊंचाऔर मजबुत बनाकर बाढ़ का प्रबंधन किया गया है । दूसरी ओर भारत का जल विज्ञानी बाढ़ नियंत्रण का राग अलापता रहता है ।
आज कोशी के संदर्भ में मूल स्वर यह होगा कि कोशी के डूब के क्षेत्र और जल जमाव के क्षेत्र के प्रबंधन और विकास का मॉडल क्या होगा ? क्या भारत सरकार देश के प्रसिद्ध जल वैज्ञानिकों और जल तकनीकी के विशेषज्ञों का एक आयोग गठित करेगा जो कोशी नदी में बनाये गये तटबंध और ५५ वर्षोंा में उससे हुए विनाश और अन्याय तथा विज्ञान के दुर्विनियोग की जांच कर देश को वास्तविक स्थिति से अवगत कराएगी और निदान सुझाएगी ?
कोशी योजना के दुष्ट विज्ञान ने ५५ वर्ष पूर्व कोशी की बालू और मिट्टी से ही दो तटबंधों की लकीर खींचने का पागलपन किया । पूर्णिमा और वीरपुर के नजदीक बहने वाली कम से कम सात धाराआें वाली कोशी नदी को १९५५ में अपहृत कर कम से कम ७० किलोमीअर दूर पश्चिम नेपाल से निकलने वाली तिलयुगा नदी को दो धाराआें में उत्तर दे दक्षिण बहा दिया गया और सीधे कुसरैला के निकट गंगा में गिरने का मार्ग हमेशा के लिए बंद कर दिया गया । यहीं से कोशी नदी गंगा में विलीन होती थी और बंगाल की हुगली नामक गंगा के मुहाने से बंगाल की खाड़ी में गिरती थी । १९५५ से पूर्व कोशी नदी लगभग ५० किलोमीटर चौड़े पाट में बहती थी और अपने साथ लाई हुई बलुही गाद से धरती का निर्माण करती थी । उस नदी को उसके आधार से उखाड़कर तटबंधों के औसत ५ किलोमीटर की चौड़ाई वाले पाट में बहा (बांध) दिया गया । ५० किलोमीटर चौड़े पाट में बहने वाली नदी जब अपनी सारी धारायें खोकर ५ किलोमीटर के पाट में तिलयुगा नदी की दो संकीर्ण धाराआें में बहने लगी तो जल का स्तर १५ से १८ फीट ऊं चा होना ही था और उस समय ३ लाख और अब १० लाख लोग डूब से पूरी तरह विनष्ट होने ही थे । नदी और मनुष्य को नष्ट करने का कोशी परियोजना नामक बाढ़ नियंत्रक का प्रयोग अपने परिणाम मेंसम्पूर्ण विध्वंस का दूसरा नाम है ।
कोशी नदी से संबंधित कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी हैंजैसे हिमालय पर्वत श्रंृखला का हो रहा सतत उत्थान और घाटी/मैदान का अनवरत् निर्माण और उसका भू- संरचनात्मक पक्ष का अध्ययन,तिब्बत और हिमालय के हिमनद और कोशी नदी के पूरे क्षेत्र का वर्षाजल, गंगा नदी में कोशी के जल के समावेश के सभी रास्तों के बंद किए जाने का कृत्य, स्वयं गंगा में गाद भर जाने और हुगली-फरक्का बराज के निर्माण के परिणाम जैसे विषय । परंतु, यह सब करने के लिए अनेक अभिलेखोंएवं आंकड़ों के अध्ययन की आवश्यकता है जो समय श्रम एवं व्ययसाध्य है । यों भी कोशी से संबंधित सभी अभिलेख आज भी या तो गुुप्त् हैं, लुप्त् हैं या फिर अनुपलब्ध हैं ।
पर मूलत: मैं स्वयं कोशी-कमला-बलान तटबंधों के संजाल के कारण ५५ वर्षोंा से दरभंगा के अपने निवास और समाज से विस्थापित हूं और पूरी तरह जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया गया हूं । यह दंश मारक है । किन्तु कोशी परियोजना के दुष्प्रयोग ने व्यापक आक्रोश, प्रतिवाद, प्रतिरोध और आंदोलन/अभियान को १९५५-५६ में ही जन्म दिया जिसकी दृढ़ता के कारण पश्चिमी तटबंध के जमालपुर क्षेत्र और पूर्वी तटबंध के सुपौल एवं नौहट्टा क्षेत्र में व्यापक आंदोलन हुआ । इस आंदोलन ने दो कोशी तटबंधों के पूरे निर्माण को एक साल रोक दिया और योजना के विज्ञान, टेक्नॉलॉजी, डिजाइन, विस्थापन संबंधी और तत्कालीन सर्वे के अनुसार लगभग ३ लाख एकड़ जमीन, ३०० गांव एवं कुछ लाख मनुष्य की स्थायी डूब में पड़ने के प्रश्न पर अनेक स्तर पर बहसें हुई ।
बाढ़ नियंत्रण की बिल्कुल झूठी और हमला बोलसरकारी कोशी योजना के नाम पर प्रकृति, पर्यावरण और नदी और उसके प्राकृतिक बहाव के साथ हस्तक्षेप के विरूद्ध यह पहला भारतीय आंदोलन था । इससे पूव १९३६ में रूस में एक नदी के साथ हस्तक्षेप के विरूद्ध आंदोलन हुआ था । अब कोशी तटबंधोंके डूब में फंसे विस्थापितों की संख्या ३ लाख से बढ़कर १० लाख हो गई है और कोशी में डूब में पड़े लोग हार गये हैं ।
बहरहाल रेल-रोड़ महासेतु की भारत सरकार की इस नयी संरचना ने जो कहीं से भी १९५५ की कोशी योजना का दूरस्थ अंग नहीं है, अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही पूरे वैज्ञानिक अहंकार के साथ कोशी नदी और दोनों तटबंधों के बीच बसे ४८ गांवों की समस्त ५० हजार जनता को फिर एक बार पुन: सम्पूर्ण विनाश एवं विस्थापन के कगार पर पहुंचा दिया है ।
ऐसा भी नहीं है कि कोशी नदी की पुरानी योजना अपने बेईमान और मानव विरोधी विज्ञान और टेक्नालाजी के द्वारा इस नये विध्वंस के लिए जिम्मेदार न हो । महासेतु तथा रेल रोेड़ परियोजना के समानान्तर बिहार के सिंचाई विभाग ने पूर्वीक्लोजर बांध बनाने पर अंधाधुध खर्चीली इंजीनियनिंग की है और लगातार कोशी की पूवी धारा को उसके बहाव मार्ग से बाहर फेंका गया है ।
यह आश्चर्यजनक है कि कोशी नदी को सकार को विज्ञान, टेक्नॉलॉजी और इंजीनियर विभाग दूर से भी स्पर्श करते हैं तो कोशी नदी तटबंधों के भीतर के गांव और उसके मध्य स्थायी विस्थापन में जी रहे दस लाख वासियों के लिए विनाश का मंजर पैदा हो जाता है । आखिर ऐसा क्यों है कि सरकार का जल विज्ञान और हाइड्रो टेक्नॉलॉजी (जल तकनीक) विज्ञान के ही खिलाफ हो गए हैं ।
देखते हैं थोड़े से भी सत्तासीन नीति निधारकों और तनखैया अर्द्ध वैज्ञानिकों की आंखों से पर्दा हटता है या नहीं । ***
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