दोहा दौर की धीमी गति
कनग राजा
दोहा दौर के किसी निर्णय पर न पहुंच पाने के लिए भारत व अन्य विकासशील देशों को दोषी ठहराया जा रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिनके हाथों में विकसित देशों की नकेल है, दोहा दौर के सफल होने की राह में रोड़े अटका रही हैं । इस बीच तीसरी दुनिया के देशों ने भी कृ षि संबंधी अपनी मांगों को लेकर एक स्पष्ट नीति बनाने के प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं ।
विश्व व्यापार संगठन के व्यापार समझौते के दोहा दौर ने विकास के मूलभूत क्षेत्रों में बहुत ही सीमित प्रगति की है । अब जबकि समझौता अटका पड़ा है तो प्राथमिकता वाले व्यापार अनुबंधों (पीटीए) की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है । जिससे व्यापार बहुत ही उलझन भरा और कठिन होता जा रहा है। उपरोक्त विचार संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व अर्थव्यवस्था स्थिति और संभावनाएं २०११ नामक रिपोर्ट में प्रमुखता से दर्शाए गए हैं । विश्व अर्थव्यवस्था में इस वर्ष और अगले वर्ष की मेक्रो आर्थिक संभावनाआंे पर जोर डालते हुए रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मोर्चे और खासकर दोहा दौर पर एक पूरा अध्याय समर्पित किया गया है ।
दोहा दौर के बारे में अन्य बातों के अलावा रिपोर्ट में कहा गया है कि मुक्त व्यापार समझौतों के चलते न्यूनतम विकसित राष्ट्रों के लिए कर मुक्त और कोटा मुक्त व्यापार के खतरे बढ़ते जा रहे हैं आंचलिक बहुपक्षीय व बहुपक्षी प्राथमिकता व्यापार समझौते व्यापार नीति के दृष्यबंध को प्रभावित कर रहे हैं और व्यापार के न्यून कराधान वाले स्वरूप पर विपरित प्रभाव भी डाल रहे हैं ।
रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट के अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक वातावरण में नई वास्तविकताआें को आगे ला दिया है । इसमें संरक्षणवाद का पुर्नउदय और एक दशक पूर्व २००१ में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा शुरू किए गए बहुपक्षीय व्यापार समझौतों से नीति निर्माताआें का ध्यान हटना भी शामिल है ।
वर्ष २०१० में इसे सफल बनाने और निष्कर्ष पर पहुंचाने के अनेक प्रयत्न हुए जिसमें जी-२० के दो सम्मेलन भी शामिल हैं । रिपोर्ट में चेताते हुए बताया गया है कि वास्तव में समझौतों के मुख्य विषयों पर बहुत कम प्रगति हुई है । जिसमें कृषि का क्षेत्र, गैर कृषि बाजार तक पहुंच (नामा) और विकासशील देशोंें के लिए विशिष्ट और
भेदीय (असमान) व्यवहार शामिल हैं । दोहा दौर की अनिश्चित स्थिति और इसके विकास में व्याप्त् अनियमितता बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए चुनौती पैदा कर रही हैं । अपनी टिप्पणी में रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सिओल (दक्षिण कोरिया) में पिछले वर्ष हुए जी-२० सम्मेलन के बाद से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इन समझौतों के वर्ष २०११ में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की संभावनाएं बहुत कम हैं ।
ऐसा माना गया था कि दोहा समझौते में संतुलित और दूरगामी परिणामों से यह शक्तिशाली संदेश जाएगा कि सरकारें आपस में मिलकर कार्य करने में सक्षम हैं जिससे बहुपक्षीय व्यापार नीतियों के लिए नए नियम बनाए जा सकेंगे और वर्तमान में विद्यमान विषमताआें को भी ठीक किया जा सकेगा। इससे ये अधिक विकासोन्मुखी हो सकेंगी जिसके परिणामस्वरूप विकासशील देशों की नीति निर्माण में अधिक भूमिका होगी ।
रिपोर्ट का कहना है कि ये नतीजे न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता के लिए आवश्यक हैं बल्कि वैश्विक मौद्रिक एवं वित्तीय प्रणाली में सुधार के लिए भी आवश्यक है जो कि नए बहुपक्षीय तयशुदा समझौतों की मूल जरूरत भी है । अंतर्राष्ट्रीय वित्त के लिए भी सभी को समावेशित करने वाली नियामक प्रणाली के निर्माण में प्रगति का अभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था की वृद्धि और सुस्थिरता पर विपरित प्रभाव डालेगा । इसके परिणामस्वरूप विकासशील देश वैश्विक वित्त के वर्तमान स्वरूप से अधिक संरक्षणवादी प्रक्रिया अपना सकते हैं ।
दोहा दौर के अनिर्णित रहने को लेकर चेतावनी देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि व्यापारिक प्रणाली प्राथमिकता वाले आंचलिक बहुपक्षीय, बहुपक्षीय व द्विपक्षीय व्यापार नीति का क्षितिज धुंधला होता जा रहा है और जो राष्ट्र दोहा दौर को गन्तव्य तक पहुंचाना चाहते हैं, उनके सामने संकट खड़े होते जा रहें हैं ।
डब्ल्यूटीओ के अनुसार फिलहाल विश्वभर में करीब ३०० प्राथमिकता वाले ऐसे समझौते प्रचलन में हैं जो कि वर्ष २००० के बाद प्रभावशील हुए हैं । वैश्विक आर्थिक संकट के चलते किसी तरह नए समझौतों पर सहमति बनने पर रोक लगी थी । परंतु इसके ठीक होने के पश्चात इस प्रक्रिया ने पुन: जोर पकड़ लिया है और वर्ष २०१० में इस तरह के अनेक नए समझौते हुए जिसमें ट्रांस-पेसेफिक भागीदारी समझौता भी शामिल है ।
ये समझौते अन्य भागीदारों के प्रति भेदभावपूर्ण होते हैं और सर्वाधिक प्राथमिकता वाले राष्ट्र का सिद्धांत बहुपक्षीय व्यापारिक प्रणाली में एक ओर रह जाता है । आज आधे से अधिक विश्व बहुपक्षीय प्राथमिकता वाले अनुबंधोंें की जद में आ चुका है । इसको विस्तार देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे भी अधिक चिंता की बात है निजी क्षेत्र । विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में निजी क्षेत्र बहुपक्षीय व्यापार उदारीकरण और नियम तय करने हेतु प्राथमिकता वाले अनुबंधों का अधिक इच्छुक रहता है । ये प्रणाली अधिक लम्बी, अव्यवहार्य और अत्यधिक राजनीतिक भी है ।
रिपोर्ट में संरक्षणवाद को लेकर भी चेतावनी दी गई है । लगातार बढ़ता बेरोजगारी स्तर, विकासशील देशों को घटता वित्तीय स्थान, निर्यात को सहायता के लिए विनिमय दर का अवमूल्यन और अंतत: वैश्विक असंतुलन के पुन: उभरने की संभावना के मद्देनजर किन्हीं गंभीर समायोजन प्रयत्नों का अभाव संरक्षणवादी दबावों को बढ़ावा दे सकता है । व्यापार नियमों मे ही निहित है ं । इसके पक्ष में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और निर्माण नेटवर्क कार्य करता है । निर्माता, निर्यातकों एवं आयातकों ने परस्पर निर्भरता और मदद से इस स्थिति को और भी विषम बनाने में मदद की है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की यह प्रवृत्ति बन गई है कि अंतिम उत्पाद की आपूर्ति इसी श्रंृखला और अंतर्राष्ट्रीय फर्मोंा के माध्यम से हो । इस प्रवृत्ति से संरक्षणवाद के खिलाफ पारम्परिक तर्क का महत्व भी कमतर नजर आने लगा है । ***
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