गुरुवार, 24 मार्च 2011

सामयिक


पर्यावरण एवं धारणीय विकास
डॉ.ए.के.सिन्हा

पर्यावरण संरक्षण में मानवता व मानव मूल्य संवर्द्धन को मानव संसाधन विकास से संयोजित कर ही धारणीय विकास की प्रािप्त् संभव हो सकती है । इस हेतु एक नवीन व बहुआयामी सकारात्मक चिंतन/सोच को विकसित कर क्रियान्वयन हेतु कार्य योजना निर्मित करना अपेक्षित है ताकि मानवीय अस्तित्व कायम रह सके । मानवीय क्षमता की पहचान व समुचित विदोहन भारत के समग्र आर्थिक विकास की अनिवार्यता के रूप में परिलक्षित होती है ।
समग्र ब्रह्मांड कार्य-कारण के मौलिक व सर्वव्यापी शास्वत नियम से संचालित हैं । यह एक निर्विवाद सत्य है । ब्रह्मांड के मुख्य दो संघटक हैं : सजीव एवं निर्जीव जगत । इन दोनों के मध्य अन्योन्य क्रिया उपस्थित है । पर्यावरण एवं अर्थशास्त्र के मध्य फलनात्मक संबंधों के अध्ययन, विश्लेषण हेतु एक नवोन्मेष व नवाचार के रूप में पर्यावरण अर्थशास्त्र जैसी नवीन शाखा की महत्ता व उपादेयता विश्व स्तर पर स्वीकार की जा चुकी है । १९५० के दशक से पर्यावरण संरक्षण व संतुलन हेतु पर्यावरण अर्थशास्त्र पर चिंतन-मनन व क्रियान्वयन प्रारंभ हुआ है ।
वर्तमान में विश्व स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण व क्षरण को देखते हुए प्रत्येक राष्ट्र विशेष अपने धारणीय विकास की स्थापना हेतु पर्यावरण संसाधन व संरचना का मात्रात्मक व गुणात्मक अध्ययन, विश्लेषण, मूल्यांकन व विदोहन के प्रयास प्रारंभ कर चुके हैंक्योंकि प्रत्येक राष्ट्र तात्कालिक आर्थिक समस्याआें के समाधान पर केन्द्रित विकास के मौद्रिक व भोतिकवादी मॉडल पर संचालित थे । पर्यावरणीय व पारिस्थितिक पहलुआेंकी अवहेलना कर विकास का मार्ग प्रशस्त होता गया । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पर्यावरण संतुलन व संरक्षण की दिशा में पर्यावरण अर्थशास्त्र के अध्ययन की महत्ता व उपादेयता निर्धारित की गई है ।
धारणीय विकास अर्थात् पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास की प्रािप्त् हेतु पर्यावरण अर्थशास्त्र के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण व संतुलन के लिये पर्यावरण प्रबंधन, नियोजन, लेखांकन, अंकेक्षण व मूल्यांकन के विभिन्न सोपानों को स्थान दिया जाना औचित्यपूर्ण व युक्तियुक्त है ।
वस्तुत: पर्यावरण के संघटक वर्तमान व भविष्य के मानव सभ्यता की दक्षता व अस्तित्व को प्रत्यक्षत: प्रभावित करती है । नि:संदेह अध्यात्म में जो स्थान ईश्वर या परमात्मा को प्राप्त् है वही स्थान मानव सभ्यता के समग्र विकास में पर्यावरण को प्राप्त् है अत: पर्यावरण संतुलन व प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक, वैज्ञानिक व धारणीय अध्ययन हेतु संरक्षणात्मक तकनीक व नीति-निर्धारण व क्रियान्वयन एक अति आवश्यक मानवीय आवश्यकता बन गई है ।
आर्थिक विकास के अन्तर्गत औद्योगिक विकास की तीव्र गति पर्यावरण के प्रतिकूल होती गई । पर्यावरण प्रदूषण के
रूप में एक अदृश्य रोग का जन्म हुआ । इसके समाधान के लिए ही पर्यावरण अर्थशास्त्र के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधन का समुचित विदोहन व मापन तकनीक की
शोधपरक खोज अपेक्षित है ।
वर्तमान में, पर्यावरण में सजीव जगत का अस्तित्व उपस्थित है । पर्यावरण संरक्षण में मानव की अहम भूमिका है । मानव को आदर्श चेतन मानव निर्मित करना अध्यात्म की विषयवस्तु है । भारतीय सभ्यता व संस्कृति के आधार पर एक भारतीय आदर्श मानव के प्रतीक बन कर पर्यावरण संरक्षण में अपनी सहभागिता निर्धारित कर सकते हैं । एक भारतीय विश्वदृष्टा विद्वान मनीषी ने इक्कीसवीं सदी का आधार स्तम्भ आध्यात्मिक अर्थशास्त्र घोषित कर भविष्य में आने वाली प्राकृतिक व पर्यावरणीय संकट के प्रति मानव को सचेत किया है । इसके साथ ही भौतिकवादिता व अति उपभोक्तावादी प्रवृति को त्याग कर अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाने को मानव हित में उदघाटित किया है । नि:संदेह समग्र विकास के केन्द्र मेंमानव है, जिसे एक आदर्श मानव के रूप में अपने दायित्वों व कर्त्तव्यों के प्रति सजग होकर मानवीयता व मानव अस्तित्व को कायम रखने हेतु अपेक्षित है ।
भारत के धारणीय आर्थिक विकास के स्तर की प्रािप्त् में पर्यावरण अर्थशास्त्र का बहुआयामी अध्ययन मानव को केन्द्र में रखकर किया जाना अपेक्षित व श्रेयकर है । भारतीय अध्यात्म के अनुसार अर्थशास्त्र का एक नवीन आयाम अध्यात्मिक अर्थशास्त्र के रूप में दी जा सकती है । अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान व कला है, जिसमें आदर्श मानव की अभिकल्पना को स्वीकार कर इच्छाआें के शमन की प्रक्रिया का व्यापक बहुआयामी व अन्योन्य विश्लेषण क्रियान्वयन मूल्यांकन किया जाता है ।
भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था में धारणीय विकास की प्रािप्त् का एक मात्र साधन आर्थिक वृद्धि, विकास, सामाजिक व आध्यात्मिक संघटकों का एकीकरण व समन्वय में दृष्टिगत होता है । भविष्य में मानव अस्तित्व को बनाये रखने में अध्यात्म व पर्यावरण का एकीकरण ही धारणीय विकास हेतु एक फलदायी मार्ग सिद्ध होगा । मानव को सजग भविष्य के प्रति सकारात्मक चिंतन व क्रियान्वयन में सहभागिता स्वयं निर्धारित करना अपेक्षित है ।
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