सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

सामयिक

मानव विकास मेंपिछड़ता भारत
डॉ. रामप्रताप गुप्त

संयुक्त राष्ट्र मानव विकास २०११ में दिए गए आंकड़ों से भारत की इस क्षेत्र में दयनीय स्थिति स्पष्ट होती है । सरकारी दावों के बावजूद स्थितियाँ उतनी तीव्रता से सुधर नहीं रही हैं जितनी की अपेक्षा की जा रही थी । इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद भारत सरकार व राज्य सरकारों के रूख में कोई परिवर्तन आता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा ।
पूंजीवादी व्यवस्था और नवउदारवाद के कारण आय वितरण की बढ़ती विषमता के विरूद्ध आक्रोश के प्रतीक अमेरिका मेंवाल स्ट्रीट पर कब्जे के आंदोलन की खबरों और विश्लेषणों की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट सन् २०११ ने भी कुछ इसी तरह की चेतावनी दी है । कोपनहेगन (डेनमार्क) में गत २ नवम्बर को प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर हमने जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए तो सबसे गरीब राष्ट्रों की सन् २०५० तक विकास प्रक्रिया रूक जायेगी और विश्व के राष्ट्रों के मध्य तथा उनके भीतर आय के वितरण की विषमता में और भी वृद्धि हो जाएगी ।
यह रिपोर्ट इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि हम जो भी कार्य करते हैं, वह विश्व की ७ अरब आबादी को प्रतिकूल या अनुकूल रूप से प्रभावित करते ही हैं । यूएनडीपी के प्रशासक हेलन क्लार्क का कहना है कि हमारे अनसोचे कदमों के कारण जलवायु में परिवर्तन और प्राकृतिक परिवेश के विनाश के कारण विकासशील राष्ट्रों में आय और स्वास्थ्य में सुधार के प्रयास खतरे में पड़ जायेंगे ।
मानव विकास सूचकों की गणना के लिए तीन घटकों को शामिल किया जाता है, प्रथम है दीर्घ स्वस्थ जीवन, द्वितीय है ज्ञान और शिक्षा तक पहुंच और तृतीय है समुचित जीवन स्तर । अगर इन तीन घटकों के आधार पर निर्मित सूचकांकों में स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाआें तक पहुंच और आय के वितरण की विषमता को भी समायोजित कर लिया जाए तो वर्तमान में मानव विकास सूचकांकों की दृष्टि से प्रथम दस राष्ट्र - ऑस्टे्रलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाड़ा, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली, इंग्लैंड, चिली और अर्जेंाटीना - में से कुछ राष्ट्र विश्व के प्रथम २० राष्ट्रों की सूची से भी बाहर हो जायेंगे ।
अमेरिका और इजराइल के क्रम में गिरावट मुख्यत: आय वितरण की विषमता के कारण होगी । अमेरिका के संबंध में स्वास्थ्य सुविधाआें में विषमता का भी महत्व है । दक्षिणी कोरिया के संदर्भ में शिक्षा तक पहुंच में विषमता समायोजित मानव विकास सूचकांक में गिरावट के लिए जिम्मेदार होगी । यूएनडीपी के प्रमुख सांख्यिकीविद मिलोरड कोवो सेविक का कहना है कि आय वितरण की विषमता के मानव विकास सूचकांकों की गणना में शामिल किये जाने से हम मात्र औसत के स्थान पर समाज के सभी वर्गो के विकास स्तर का बेहतर अनुमान लगा सकते हैं । उनका यह भी कहना कि आय वितरण की विषमता के साथ-साथ अनेक राष्ट्रों में जनता के शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाआें तक पहुंच में भी भारी विषमताएं हैं । इनमें व्याप्त् विषमताएं मानव कल्याण को प्रमुखता से प्रभावित करती है । अत: विषमता के साथ समायोजन करने वाले मानव विकास सूचकांक ही बेहतर होंगे । ये समाज के सभी वर्गो के विकास को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करते हैं ।
अगर हम भारत की बात करें तो सन् २०११ में इसको मानव विकास सूचकांक वाले राष्ट्रों में शामिल किया जाता है और विश्व के १८७ राष्ट्रों में इसका स्थान १३४ वां आता है । जब हम इसमें आय वितरण की विषमता को भी समायोजित करते हैं तो यह २८ प्रतिशत गिरकर मात्र ०.३९२ ही रह जाता है । हम भारत में लैंगिक विषमता सूचकांक की बात करें तो सन् २०११ में इसका आकार ०.६१७ के बराबर आता है और विश्व के १४६ राष्ट्रों में भारत का स्थान १२९ वां आता है ।
मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत की संसद में १०.७ स्थान महिलाआें के पास है, २६.६ प्रतिशत महिलाएं ही हायर सेकेण्डरी या इससे उच्च् स्तर की शिक्षा प्राप्त् कर पाती है, जबकि पुरूषों के संदर्भ में यह आंकड़ा ५०.४ प्रतिशत का है । श्रम बाजार में पुरूषों की ८१.५ प्रतिशत की भागीदारी के मुकाबले महिलाआें की भागीदारी ३२.८ प्रतिशत ही है । महिलाआें को प्रजनन संबंध खतरे भी उठाने पड़ते हैं, प्रति एक लाख जीवित प्रसवों में प्रतिवर्ष २३० महिलाएं अकाल मृत्यु का शिकार हो जाती हैं । इन सब तथ्यों को देखते हुए मानव विकास प्रतिवेदन सन् २००१ में बहुआयामी गरीबी सूचकांकों की गणना की थी ।
बहुआयामी गरीबी सूचकांक परिवारों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रहन-सहन के स्तर की दृष्टि से लोगों के बहिष्कार को प्रदर्शित करता है । भारत के संदर्भ में इस तरह के आंकड़े सन् २००५ से ही उपलब्ध हैं । भारत में ५३.७ प्रतिशत लोग इस तरह के बहुआयामी पिछड़ेपन के शिकार हैं और इसके अलावा १६.४ प्रतिशत लोगों में इस तरह के पिछड़ेपन के शिकार होने की प्रबल संभावनाएं मौजूद हैं ।
भारत में गरीबी के मापदण्ड को लेकर इस समय विवाद हो रहे हैं और अलग-अलग मापदण्डों पर प्रतिशत में काफी अंतर बताया जा रहा है । परन्तु मानव विकास की दृष्टि बहुआयामी बहिष्कार के शिकार लोगों के प्रतिशत का ५३.७ होना शासकों की आंखे खोल देने वाला है । इससे हमारी सरकार का यह दावा कि यह सर्वसमावेशी विकास की दिशा में प्रयास कर रही है, भी खोखला ही सिद्ध होता है ।
मानव विकास प्रतिवेदन का कथन है कि सर्वाधिक गरीब लोग बहिष्कार का दोहरा भार वहन करने के लिए बाध्य होते है । वे पर्यावरण के प्रभावों के शिकार होेते ही हैं, साथ ही उन्हें अपने आवास में वायु प्रदूषण, अशुद्ध पेयजल तथा शौचालयों के अभाव में खुले में शौच करने के दुष्प्रभावों को भी झेलना पड़ता है । रिपोर्ट के अनुसार गरीबी के कारण खाना पकाने की गैस, शुद्ध पेयजल और मूलभूत साफ सफाई की सुविधाआें के अभाव का भी इन्हें अलग से शिकार होना पड़ता है । इस दृष्टि से गरीब आबादी का इनसे बहिष्कार अपने आप में महत्वपूर्ण तो है ही, यह मानव अधिकारों का उल्लंघन भी है । इस प्रकार के बहिष्कारों को दूर करने से आम आदमी की कार्यकुशलता में वृद्धि भी होगी और मानव विकास की दिशा में भी प्रगति होगी, सूचकांक भी बेहतर होंगे ।
अनेक राष्ट्रों में गरीब वर्गो को इस तरह के वंचन से मुक्त करने के लिए निश्चित हीवित्त की भी आवश्यकता होगी जो गरीब राष्ट्रों के लिए एक बड़ी समस्या होती है । मानव विकास प्रतिवेदन में इसके लिए भी एक रास्ता सुझाया है । अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की तुलना में विश्व में मुद्राआें का लेनदेन कई गुना होता है, अत: रिपोर्ट का सुझाव है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राआें के लेनदेन पर ०.००५ प्रतिशत भी कर लगा दिया जाए तो उससे ४० अरब डॉलर एकत्रित हो सकेंगे जो वर्तमान में प्रदत्त विदेशी सहायता को मिलाकर १३० अरब डॉलर के बराबर हो जायेंगे ।
जलवायु परिवर्तन के साथ समायोजन करने के लिए भी विकासशील राष्ट्रों को विशेषकर दक्षिणी एशिया के राष्ट्रों को १०५ अरब डॉलर की आवश्यकता होगी । अत: अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन पर ०.००५ प्रतिशत का कर इस दिशा में सहायक सिद्ध हो सकेगा ।
रिपोर्ट आम जनता के पर्यावरणीय अधिकारों का संविधान में प्रावधान की आवश्यकता को भी प्रतिपादित करती है । अतएव मूलभूत अधिकारों में भी पर्यावरणीय अधिकारों को शामिल किया जा सकता है ।

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