अनाज का संकट बढ़ाती शराब
प्रमोद भार्गव
ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफेम ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है कि अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो २०३० तक खाद्यान्नों की मांग ७० फीसदी बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें भी आज के मुकाबले दुगुनी हो जाएंगी ।
इस सच्चई को भारत के परिप्रेक्ष्य में तो कतई नहीं झुठलाया जा सकता है, क्योंकि केंद्र की वर्तमान यूपीए सरकार के महज सात साल के कार्यकाल में ही खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसदी तक बढ़ चुकी हैं । इस लिहाज से ऑक्सफेम के आंकड़ों को मनगढ़ंत नहीं कहा जा सकता है । शराब और इथेनॉल उत्पादन के अलावा वायदा व्यापार भी अनाज की कीमतों में इजाफा करने में सहायक हो रहा है । भारतीय अर्थशास्त्रियों की मानें तो भारत में प्रति माह करीब ३५ हजार करोड़ का वायदा व्यापार होता है ।
अकेले महाराष्ट्र में अनाज स े शराब बनाने वाली २७० भटि्टयों में ७५ हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब रोजाना बनाई जा रही है । इथेनॉल बनाने का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर चुका है । इसके साथ ही मांसाहारियों की बढ़ती तादाद भी खाद्यान्न संकट की एक बड़ी वजह बन रही है ।
अभी तक भूख के बढ़ते प्रकोप के लिए औद्योगिक विकास, जलवायु परिवर्तन और धरती के गरम होते मिजाज को दोषी माना जा रहा था । लेकिन ऑक्सफेम की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अनाज से शराब और इंर्धन इथेनॉल बनाए जाने के हालात खाद्यान्न संकट की पृष्ठभूमि में हैं । उपभोक्तावादी जीवन-शैली का विस्तार भी आग में घी डालने का काम कर रहा है । कुछ लोगों की क्रय शक्ति में बहुत इजाफा हुआ है और उपभोग की प्रवृत्ति बड़ी है । इसके साथ ही खाद्यान्नों की खपत में भी वृद्धि हुई है ।
जानकारों की मानें तो १०० कैलोरी के बराबर गोमांस तैयार करने के लिए ७०० कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है । इसी तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे खाया जाए, तो वह कहीं ज्यादा भूख मिटा सकता है । ब्रिटिश प्रणीविद जेम्स बेंजामिन का अध्ययन बताता है कि एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होताहै, तब तक वह १५ किलोग्राम तक का अनाज खा चुका होता है । यह अनाज का दुरूपयोग है ।
इधर चीन और भारत में एक वर्ग की बड़ी आय के चलते शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है । एक आम चीनी नागरिक अब सालाना औसतन ५० किलोग्राम मांस खा रहा है । जबकि ९० के दशक के मध्य में यह खपत महज २० किलोग्राम थी । इन सबसे बावजूद अभी तक ऐसे कोई उपाय नहीं किए जा रहे हैं, जिनसे प्रेरित होकर लोग इस विलासी जीवन से मुक्त हों । बल्कि इन्हें बढ़ावा देने वाली नीतियों को कानून में ढालने का काम किया जा रहा है ।
खाद्यान्न संकट गहराने और बढ़ती मंहगाई की जड़ में अमरीका और अन्य युरोपीय देशों द्वारा बड़ी मात्रा में खाद्यान्न का उपयोग जैव ईधन के निर्माण में किया जाना है । गेहूं, चावल, मक्का, सोयाबीन, गन्ना और रतनजोत आदि फसलों से इथेनॉल और बायोडीजल का उत्पादन किया जा रहा है । ऐसा ऊर्जा संसाधनों की ऊंची लागतों को कम करने के लिए वैकल्पिक जैव ईधनों को बढ़ावा देने के नजरिए से किया जा रहा है । जैव ईधन के उत्पादन ने अनाज बाजार के स्वरूप को विकृत कर दिया है ।
भारत में भुखमरी के बदतर हालात होने के बावजूद महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने के कारखानों में लगातार वृद्धि हो रही है । जबकि महाराष्ट्र ऐसा राज्य है जहां विदर्भ क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और कर्ज के चलते ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं । गरीबी का आकलन करने वाली सुरेश तेंदुलकर समिति ने भी महाराष्ट्र को देश के उन छह राज्यों में शामिल किया है, जहां गरीबी सबसे बदतर हाल में है । इन चौंकाने वाली जानकारियों के बावजूद महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को शराब पिलाने का बीड़ा उठाया हुआ है । गरीब की भूख शांत करने वाले ज्वार, बाजरा और मक्का से शराब बनाने का सिलसिला जारी है । सरकार का मानना है कि जब ज्वार, बाजरा और मक्का से बड़े पैमाने पर शराब का उत्पादन होगा तो किसान इन फसलों को उपजाना शुरू कर देंगे ।
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