बढ़ती आबादी और घटते संसाधन
ताजा जनगणना की रपट से पता चलता है कि जिस रफ्तार से देश की आबादी बढ़ रही है उस रफ्तार से संसाधनों में बढ़ोतरी नहीं हो रही है, जिससे तमाम तरह की समस्याएँ बढ़ रही है । पिछले दिनों शहरी विकास मंत्रालय के सचिव सुधीर कृष्ण ने रियल एस्टेड एंड कंस्ट्रक्शन प्रोफेशनल्स इन इंडिया २०२० (रिक्स) की रपट जारी करते हुए देश की बढ़ती आबादी और घटते संसाधनों का आँकड़ा पेश किया । इस आँकड़े के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में रोजगार, बुनियादी सुविधाआें और अन्य सुविधाआें की कमी से बहुत बड़ी तादाद में लोग गाँवों से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। इससे शहरों पर लगातार दबाव बढ़ रहा है ।
शहरों में संसाधनों की कमी है। शहरों में झुग्गियों के बढ़ने की वजह गाँवोें से शहरों की तरफ हो रहा पलायन है । रपट बताती है कि अगले दस सालों में ४२ फीसद आबादी के सेवा एवं उद्योगों में कार्यशील होने के मद्देनजर नौ करोड़ ७० लाख नौकरियों की जरूरत होगी । गौरतलब है इतनी बड़ी तादाद में नौकरियों का सृजन करना एक बहुत बड़ी समस्या है । रपट यह भी कहती है कि शहरों पर बढ़ते दबाव की वजह से देश के बुनियादी ढाँचे और अचल संपत्ति क्षेत्र पर गौर करने की जबर्दस्त आवश्यकता है ।
गांवों में संयुक्त परिवार की परम्परा लगातार टूट रही है । इस कारण पारिवारिक बँटवारे से खेती की जमीन घटती जा रही है । इससे ग्रामीण इलाकों में आय लगातार घटती जा रही है । इससे वहाँ की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर असर दिखाई दे रहा है । लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारें समस्या के समाधान के लिए वैसी कोशिश करती नहीं दिखाई दे रही है जैसी कोशिश होनी चाहिए । गौरतलब है कि केन्द्र और राज्य सरकारों की ज्यादातर योजनाएँ आम आदमी को न तो फायदा पहुंचा पा रही हैं और न आम आदमी प्रकृतिप्रदत्त संसाधानों का ही बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर पा रहे है । ऐसे में ग्रामीण इलाकों में समस्याएँ तेजी के साथ बढ़ रही है । जब तक इन समस्याआें पर गंभीरता से केन्द्र और राज्य सरकारें गौर नहीं करेेगी और इनके समाधन के लिए सच्च्े मन से प्रयास नहीं करेंगी, तब तक इनका समाधान नहीं हो सकता है । दरअसल सरकार विकास दर को महज जीडीपी की विकासदर बढ़ने से यह मान लेती है कि देश का हर तबका खुशहाल हो रहा है ।
संसाधनों की कमी की एक बड़ी वजह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संसाधनों की लूट भी है । केन्द्र और राज्य सरकारें इस बात को नहीं समझ पा रही हैं । ज्यादातर प्राकृतिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय निगमों का कब्जा है । देश के जल, जंगल और जमीन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है । यदि यह लूट नहीं रोकी गई तो आने वाले चंद सालों में ही समाज का बड़ा हिस्सा संसाधनों से विहीन हो सकता है ।
प्लास्टिक के कचरे से बना लिया पेट्रोल
भारतीय पेट्रोलियम संस्थान (आईआईपी) के वैज्ञानिकों के एक दल ने पर्यावरण के लिए घातक प्लास्टिक को पेट्रोलियम उत्पादों में तब्दील करने की तकनीक विकसित कर ली है । एक दशक की मेहनत के बाद यह संभव हो सका है ।
इस दल का नेतृत्व खुद आईआईपी के निदेशक मधुकर गर्ग ने किया । उन्होनेंबताया कि उत्प्रेरकों का संयोजन विकसित करने में सफलता मिलने पर ही साफ हुआ कि हम प्लास्टिक को गैसोलिन या डीजल या अन्य एरोमेटिक पदार्थो में तब्दील कर सकते हैं । इसका सह-उत्पाद एलपीजी होगा । आईआईपी प्रवक्ता एसके शर्मा ने कहा कि यह बड़ी उपलब्धि है ।
भारतीय गैस प्राधिकरण लि. (गेल) ने इस परियोजना को प्रायोजित किया था । अब इसकी आर्थिक उपयुक्तता पर काम किया जा रहा है, ताकि व्यापक पैमाने पर ऐसा पेट्रोल बनाया जा सके । इस प्रौघोगिकी की खासियत यह है कि तरल ईधन-गैसोलिन और डीजल यूरो ३ मानकों पर खरे हैं । अनुसंधान करने वाली टीम ने कहा कि कच्ची सामग्री से कुछ और उत्पाद भी मिल सकते हैं, इसमें बस उत्प्रेरक बदलना होगे । इसके अलावा कोई अवशिष्ट पदार्थो का उत्सर्जन इस ईधन को जलाने से नहीं होगा ।
एक अन्य वैज्ञानिक श्रीकांत नानोति ने बताया कि यह प्रक्रियाबड़े उद्योग के लिए भी उचित है । प्रोजेक्ट वेस्ट प्लास्टिक टू फ्यूल्स एंड पेट्रोकेमिकल्स २००२ में प्रांरभ किया था । इसमें चार साल कचरा प्लास्टिक के सुरक्षित निपटान में लग गए ।
कचरा प्लास्टिक का अपघटन काफी अधिक तापमान पर करते हैं । इससे अणुआें को तोड़ा जा सकता है और उत्प्रेरक परिवर्तन करते हैं । इसके बाद कंडेनसेशन कर तरल किया जाता है, ताकि गैसोलिन, डीजल और अन्य एरोमेटिक्स बनें । एक किलो पोल्योलेफिनिक प्लास्टिक की मदद से ६५० से ७०० मिली पेट्रोल व एलपीजी, ८५० मिली डीजल व एलपीजी और ४५० मिली एरोमेटिक्स व एलपीजी बनेगा । एक अनुमान के अनुसार दुनिया में ३००० लाख टन प्लास्टिक की खपत है । यह हर साल १०-१२ फीसद की दर से बढ़ा है । पोल्योलेफिनिक प्लास्टिक जैसे पोलिथिलीन और पोलिप्रॉपिलीन पेट्रोल और अन्य उत्पाद के लिए प्रयुक्त कर सकते है ।
खतरे मेंहै नर्मदा का उद्गम
नर्मदा मध्यप्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा कहलाती है । इसके उद्गम स्थल अमरकंटक के चप्पे-चप्पे से प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्ध परम्पराआें की गंध आती है । अमरकंटक एक तीर्थ स्थान और पर्यटन केन्द्र ही नहींबल्कि एक प्राकृतिक चमत्कार भी है । हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पाँच नदियों का उद्गम स्थल है । इनमें से दो सदानीरा विशाल नदियां हैं, जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाआें में है । हाल ही में मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नर्मदा की बायोमॉनिटरिंग करवाई तो पता चला कि केवल दो स्थानों को छोड़कर नर्मदा नदी स्वस्थ हैं । जिन दो स्थानों पर नदी की हालत चिंताजनक दिखी उनमें से एक अमरकंटक है।
चिरकुमारी नर्मदा पश्चिम मुखी है और यह १३०४ किलोमीटर की यात्रा तय करती है । सोन नदी का बहाव पूर्व दिशा में ७८४ किमी तक है । इसके अलावा जोहिला, महानदी का भी यह उद्गम स्थल है । यहाँ प्रचुर मात्रा में कीमती खनिजों का मिलना, इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के लिए दुश्मन साबित हो रहा है । तेजी से कटते जंगलों, कांक्रीट जंगलों की बढ़ोतरी और बॉक्साइट की खदानों में अंधाधुंध उत्खनन के चलते यह भूमि विनाश की ओर अग्रसर है ।
अमरकंटक की पहाड़ियों पर बाक्साइट की नई-नई खदानें बनाने के लिए वहाँ खूब पेड़ काटे गए । इन खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूर भी ईधन के लिए इन्हीं जंगलों पर निर्भर रहे । सो पेडों की कटाई अनवरत जारी है । पहाड़ों पर पेड़ घटने से बरसात का पानी, खनन के कारण एकत्र हुई धूल को तेजी से बहाता है। यह धूल नदियों को उथला बना रही है। यदि शीघ्र ही यहाँ जमीन के समतलीकरण और पौधोरोपण की व्यापक स्तर पर शुरूआत नहीं की गई तो पुण्य सलिला नर्मदा भी खतरे में आ सकती है ।
कौवों पर मँडरता खतरा
देश में कौवों की तादाद पिछले कई सालों से घट रही है । हालाँकि इसकी वैश्विक संख्या अब भी करोड़ों में है लेकिन इसके घटने की रफ्तार इतनी तेज है कि संभव है जल्द ही हमें टाइगर प्रोजेक्ट की तरह क्रो प्रोजेक्ट की जरूरत पड़े ।
हाल में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के १२ फीसद पक्षी लुप्त् होने की कगार पर हैं। इनमें कौवे का नाम गौरेया, चील, गिद्ध वाली श्रेणी में ही है जिन पर सबसे अधिक खतरा है । गत १५-२० सालों में उनके घटने के कई कारण है । आवासीय क्षेत्रों में घटते पेड़ों की तादाद से इन्हें काफी परेशानी हो रही है । कौवे ज्यादातार अपना घोंसला ऊँचे पेड़ों पर बनाते हैं लेकिन अब ऐसे पेड़ बहुत कम बचे हैं । घरेलू कचरे और पेड़ों से झड़ने वाले कचरे को जलाने की मनुष्य की आदतें भी पक्षियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है । इससे कौवे जैसे पक्षियों का भोजन और घोंसला बनाने में प्रयुक्त होने वाला रॉ मैटेरियल नष्ट हो जाता है । फिर कचरा जलाने से निकलने वाली जहरीली गैसें भी इनके लिए जानलेवा होती हैं । इनके घटने का एक बड़ा कारण चूहे भी है । पक्षी वैज्ञनिक रजा तहसीन बताते हैं कि लोग घरों में जहर देकर मारे गए चूहों को खुले में फेंक देते हैं जिसे खाकर कौवे अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें