पशुधन पर निर्भर कृषि क्षेत्र
रिचर्ड महापात्र
पिछले एक दशक के दौरान अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए पशुधन व्यवसाय ने भारतीय कृषि व अर्थव्यवस्था में व्यापक योगदान दिया है । इसके माध्यम से बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन भी हुआ है । इसमें निहित संभावनाआें के पूर्ण दोहन के लिए आवश्यक है कि इसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र में सम्मिलित किया जाए ।
भारत के नीति निर्माताआें ने पिछले एक दशक से कृषि क्षेत्र में आ रहे बदलाव को अंतत: स्वीकार कर लिया है । आज पशुधन का आर्थिक योगदान खाद्यान्नों से अधिक हो गया है । पारम्परिक तौर पर कृषि क्षेत्र के तीन घटक फसलें, पशुधन एवं मछलियों की पैदावर वृद्धि में योगदान करते हैं और खाद्यान्न का हिस्सा इनमें प्रमुख होता है । इसके परिणामस्वरूप सारी नीतियां और कार्यक्रम इसी पर केन्द्रित होते हैं । जब वर्ष २००२-०३ में खाद्यान्नों के बजाय पशुआें का आर्थिक योगदान अधिक हो गया तो इस पर नीति निर्माताआें जो इसे अस्थायी मानते थे, का कहना था कि इसके पीछ की वजह लगातार पड़ते अकाल के कारण से कृषि उत्पादन में आ रही गिरावट है । राष्ट्रीय कृषि अर्थव्यवस्था एवं नीति अध्ययन केन्द्र के प्रमुख वैज्ञानिक प्रताप सिंह ब्रिथल का कहना है कि लेकिन तब से पशुधन का योगदान, लगातार ५ से १३ प्रतिशत तक अधिक रहा है । वास्तविकता यही है कि पिछले एक दशक में पशुधन एवं मछलियां वाला क्षेत्र बजाए फसलों के अधिक तेजी से वृद्धि कर रहा है । शीघ्र लागू होने वाली १२ वीं पंचवर्षीय योजना के लिए दिसम्बर में तैयार एक रिपोर्ट में इस बदलाव को मान्यता देते हुए पशुधन को कृषि वृद्धि का इंजिन माना है ।
पशुधन की अब कृषि सकल घरेलू उत्पाद में भागीदारों एक चौथाई हो गई है । वर्ष २०१०-११ में इसके माध्यम से ३,४०,५०० करोड़ रूपये का राजस्व (वर्तमान मूल्यों पर) अर्जित हुआ । यह कृषि जीडीपी का २८ प्रतिशत और देश की जीडीपी का करीब ५ प्रतिशत पड़ता है । लुधियाना स्थित गुरू अंगद देव पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के उपकुलपति वी.के. तनेजा का कहना है, पशुधन से कुल प्राप्त्यिां खाद्यान्न (३,१५,६००० करोड़) एवं सब्जियां (२,०८,८०० करोड़) से अधिक थी और भविष्य में इसके पर्याप्त् मात्रा में बढ़ने की भी संभावना है ।
आणंद राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड के वरिष्ठ प्रबंधक राजशेखरन का कहना है कि कृषि जीडीपी में पशुधन के बाद सर्वाधिक योगदान धान का है । राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००९-१० में पशुधन से कुल प्राप्त्यिां धान से २.५० गुना व गेहूं के मूल्य से तीन गुना तक अधिक थीं। वहीं श्री तनेजा का कहना है जानवर प्राकृतिक पूंजी हैं और इन्हें एक जीवित बैंक के रूप में आसानी से पुर्नउत्पादित भी किया जा सकता है और ये फसल के खराब होने और प्राकृतिक विपदाआें की स्थिति में आर्थिक हानि से बचाने में बीमे का भूमिका भी निभा सकते हैं ।
पशुधन तीन स्तरों पर सर्वाधिक तेजी से वृद्धि करने वाले घटक के रूप में सामने आ रहा है । इसका सन् १९८१-८२ कृषि जीडीपी में योगदान १५ प्रतिशत था जो कि सन् २०१०-११ में बढ़कर २६ प्रतिशत पर आ गया । श्री ब्रिथल का कहना है कि पशुधन कृषि वृद्धि में सहायक सिद्ध हो रहा है । सन् १९८० के दशक में इसकी वृद्धि दर ५.३ प्रतिशत थी जो कि फसलों से तकरीबन दुगनी थी । वहीं वर्ष २००० के दशक में यह गिरकर ३.६ प्रतिशत आ गई है लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी कृषि वृद्धि दर से दुगनी है ।
पशुधन की वृद्धि मेंकिसानों एवं खाद्य उपभोग की प्रणाली में आए परिवर्तन ने भी योगदान किया है । कृषि परिचालन के मशीनीकरण एवं जोतों के आकार में आई कमी ने पशुधन के अकाल में प्राप्य शक्ति के इसके महत्व को कम किया है । गोबर के बदले रासायनिक खादों का प्रयोग भी होने लगा है । लेकिन ठीक इसी समय शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही इलाकों में बढ़ते मध्यम वर्ग की वजह से पशुधन उत्पाद जैसे अंडों, दूध व मांस के उपभोग में भी वृद्धि हुई है । वर्ष १९८३ एवं २००४ के मध्य कुल खाद्य व्यय में पशुधन उत्पादों का हिस्सा शहरी क्षेत्रों में २१.८ प्रतिशत से बढ़कर २५ प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में १६.१ प्रतिशत से बढ़कर २१.४ प्रतिशत हो गया है ।
१२वीं पंचवर्षीय योजना के लिए कृषि नीति तैयार करने वाली समिति के सदस्य एम.एम. राय का कहना है ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे एवं सीमांत किसान, भूमिहीन श्रमिक और महिलाएं अपनी स्थानापन्न आय एवं रोजगार के लिए पशुधन पर अधिक निर्भर है ।
नीति निर्माता भी अब इस नई अर्थव्यवस्था को गंभीरता से लेने लग गए हैं और इसे व्यापक कृषि वृद्धि के प्रमुख सहायक क े रूप मेंप्रस्तुत किया जा रहा है । उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने सन् २०१०-११ के वित्तीय आकलन में आशाजनक कृषि वृद्धि का आधार पशुधन को ही बनाया है । वर्ष २००९ के अकाल के बावजूद पशुधन क्षेत्र मेंहुई वृद्धि ने कृषि वृद्धि को स्थायित्व प्रदान किया है । पशुपालन एवं डेयरी कार्यसमूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि पशुधन खाद्य उत्पादों की बढ़ती मांग के मद्देनजर १२ वीं पंचवर्षीय योजना में पशुधन क्षेत्र के कृषि विकास के इंजिन के रूप में उभरने की उम्मीद है । पशुधन की रोजगार उपलब्ध कराने एवं आय अर्जन के अवसर सृजित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका है । हालांकि फसलें अभी भी सर्वाधिक लोगों को रोजगार प्रदान कर रही हैं लेकिन पशुधन में भी तेजी से रोजगार सृजित हो रहा है ।
पशुधन क्षेत्र के उभरने के प्रभाव गरीबी पर भी पड़ेगें । योजना आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि उन राज्यों में जहां पशुधन कृषि आय में अधिक योगदान करता है उन राज्यों में ग्रामीण गरीबी भी कम है । पंजाब, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, केरल, गुजरात और राजस्थान इसके उदाहरण हैं । पशुधन व्यवसाय में अधिकांशत: सीमांत किसान एवं जिन्होंने खेती छोड़ दी है, वे ही आ रहे हैं । श्री राय का कहना है भारत में पशुधन का करीब ७० प्रतिशत, ६७ प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों एवं भूमिहीनों के स्वामित्व में है । इसे यदि एक अन्य तरह से देखें तो अब समृद्धि बजाय खेत या कृषि के प्रति व्यक्ति कितना पशुधन है, पर अधिक निर्भर हो गई है । श्री ब्रिथल का कहना है इससे यह भी पता चलता है कि पशुधन क्षेत्र की वृद्धि गरीबी हटाने में कृषि क्षेत्र से अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है ।
लेकिन वर्तमान में इस क्षेत्र की सम्पूर्ण संभावनाआें का दोहन भी नहीं किया जा सका है । नीति की अनुपस्थिति के कारण निर्धनतम को सहेजने वाले इस क्षेत्र का विकास अवरूद्ध हो रहा है । भारतीय पशुधन की उत्पादकता वैश्विक औसत से २० से ६० प्रतिशत तक कम है । चारे की कमी भी संभाव्य उत्पादकता में ५० प्रतिशत तक की कमी के लिए जिम्मेदार है । इसके अलावा अपर्याप्त् गर्भाधान और प्रजनन तथा जानवरों में बढ़ती बीमारियां भी निम्न उत्पादकता के लिए जिम्मेदार हैं ।
पशुधन एवं वर्षा आधारित कृषि के विशेषज्ञ एन.जी. हेगड़े का कहना है कि पशुधन को वैश्विक तापमान वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन से कम नुकसान पहुंचेगा अतएव इसे वर्षा आधारित खेती से अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है । परन्तु पशुधन पर कृषि क्षेत्र में होने वाले खर्च में से महज १२ प्रतिशत व्यय होता है और कुल सांस्थानिक ऋणों में इसकी हिस्सेदारी ४ से ५ प्रतिशत की है । इसके अतिरिक्त मुश्किल से ६ प्रतिशत पशुधन का ही बीमा है । पशुधन को लेकर वर्ष २०११-१२ के लिए बनी १५ करोड़ की एकमात्र योजना में से अभी तक पैसा भी खर्च नहीं हुआ है । वहीं श्री तनेजा का कहना है, पशुपालन विस्तार नेटवर्क की अनुपस्थिति की वजह से पशुधन संबंधित तकनीकों को भी कम ही अपनाया जा रहा है । वैसे ११ वीं पंचवर्षीय योजना में भारतीय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान परिषद की स्थापना का निर्णय लिया गया था । लेकिन ऐसा अभी तक संभव नहीं हो पाया है । १२वीं पंचवर्षीय योजना कार्यदल ने भी इस सुझाव को फिर दोहराया है ।
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