सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

प्रदेश चर्चा

राजस्थान : बच गयी कृषि भूमि
सुश्री लता जिशनु

बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों को राजस्थान की कृषि थाली में परोस कर प्रस्तुत कर दी गई थी । किसानों एवं किसान संगठनों के विरोध के पश्चात् राजस्थान सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सलाह पर सहमति पत्र रद्द कर दिया है ।
०४ नवम्बर २०११ को राजस्थान सरकार ने सात बीज कंपनियों को बुलाकर यह बुरी खबर दी कि गतवर्ष उनके साथ हस्ताक्षर करा हुआ सहमति पत्र (एमओयू) जिसके अन्तर्गत कृषि शोध को समाहित किया जाना था, को १५ महीनों तक पशोपेश में पड़े रहने के बाद अंतत: राज्य सरकार ने रद्द कर दिया गया है । समझौते से सामने आया निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) समझौता काफी व्यापक था और इसके दूरगामी परिणाम भी निकलते, खासकर अमेरिका की मान्सेंटो कंपनी के लिए, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी बीज एवं बायो टेक्नॉलॉजी प्रबंधन कंपनी है ।
करीब ६ हफ्तों तक लागू यह सहमति पत्र (जुलाई २०१० से प्रारंभ) विश्व की दो प्रमुख कृषि बायो टेक कंपनियों - मान्सेटों जिसका प्रतिनिधित्व उसकी सहायक मोन्सेंटो इंडिया लिमिटेड एवं मोन्सेंटो होल्डिंग प्रा.लि. ने किया था और पीएचआई सीड्स लिमिटेड जो कि पायोनियर हाईब्रीड इंटरनेशनल (ड्यू पांट के व्यापार का हिस्सा) की भारतीय प्रतिनिधि के मध्य हुआ था । इस मामले में अन्य प्रमुख भारतीय बायोटेक बीज कंपनियां थीं, एडवंट इंडिया, जे.के. एग्रीजेनेटिक्स, डीसीएम श्रीराम कन्सालिडेटेड, कृषि धन सीड्स और एक स्थानीय कंपनी कंचन ज्योति एग्रो इंडस्ट्रीज । आठवां समझौता बेयर साइंस प्रा.लि. जो कि विशाल जर्मन फर्म बेयर क्रॉप साइंस की भारतीय सहायक कंपनी है, के बीच होना तय हुआ था लेकिन पहले वाली सात कंपनियों के साथ हो रहे विवाद के चलते इस पर हस्ताक्षर नहीं हो पाए थे ।
इन समझौतों से तब हड़कंप मचा जब इन्हें पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ (राजस्थान ने कृषि के दरवाजे खोले १-१५ नवम्बर २०१०) ने उजागर किया था । इसमें रहस्योद्घाटन किया गया था कि निजी क्षेत्र को राज्य की शोध सुविधाआें तक की पहंंुच की अनुमति देने के साथ ही साथ उन्हें उनके हाईब्रीड बीजों एवं अन्य तकनीकों के लिए शर्तिया बाजार भी उपलब्ध कराया जाएगा । यह किसी भी राज्य सरकार द्वारा की गई अपनी तरह की पहली पहल थी जिसके अन्तर्गत राज्य के चार कृषि विश्वविघालयों के साथ ही साथ राज्य के कृषि एवं बागवानी विभाग को भी व्यापक तौर पर भागीदार बनाया गया था । इसके परिणामस्वरूप कृषि के पूरे स्वरूप के ही बदल जाने की आंशका थी । इस तरह के समझौतोंसे कृषक समुदाय पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर भी प्रश्न उठे थे ।
उत्तेजित किसानों ने मार्च में विधानसभा के समक्ष प्रदर्शन कर सहमति पत्र को रद्द करने की मांग की । इसी दौरान कुछ गैर सरकारी संगठनों ने भी विरोध दर्ज तो कराया लेकिन वे इसे मात्र मान्सेंटो विरोधी संघर्ष में परिवर्तित कर मामले को ठंडा कर देना चाहते थे ।
राजस्थान सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हम इस सहमति पत्र को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की सलाह पर रद्द कर रहे हैं, जिसमें कहा गया कि हमें इस तरह के समझौतों के क्रियान्वयन के पूर्व निजी सार्वजनिक भागीदारियों (पीपीपी) के संबंध में मार्गदर्शिका बनाए जाने तक इंतजार करना चाहिए । अधिकारी का यह भी कहना था कि उन्होंने इस संबंध में अनेक कृषि विशेषज्ञों जिसमें कि एम.एस. स्वामीनाथन, जिन्हें भारतीय हरित क्रांति का जनक भी कहा जाता है भी शामिल हैं, की इस मामले में राय जानने का प्रयास किया गया था कि विवादित सहमति पत्र के साथ क्या किया जाए, लेकिन कहीं से कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया । परस्पर विरोध के बढ़ते जिसमें एक ओर प्रभावशाली राजनीतिज्ञ तथा कृषकों के संगठनों का समूह साझा मंच था तो दूसरी ओर बायो टेक उद्योग था, के चलते अंतत: सरकार ने आईसीएआर का दरवाजा खटखटाया ।
आईसीएआर ने राजस्थान के कृषि निदेशक को सहमति पत्र की गंभीर समीक्षा के बाद जो जवाब भेजा उससे स्पष्ट था कि विदेशी कंपनियों के साथ हस्ताक्षरित सहमति पत्र को रद्द किया जाना चाहिए । इसमें कहा गया कि राज्य सरकार विदेशी कंपनियों के साथ शोध एवं विकास संबंधित कोई भी समझौता बिना कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग की अनुमति के नहीं कर सकती है । कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग (डीएआरई) संघ कृषि मंत्रालय का एक विभाग है ।
आईसीएआर ने राजस्थान को कृषि अनुसंधान में निजी कंपनियों के साथ गठबंधन के प्रति सतर्क करते हुए कहा है कि अभी तक इस तरह के निजी सार्वजनिक भागीदारी को लेकर कोई प्रक्रिया नहीं बनी है । चिंता इस बात की है वे सम्पदा अधिकार लागत, लाभ में हिस्सेदारी, जैव सुरक्षा आदि से संबंधित अनेक मुद्दे उठाएंगे । डीएआरई और आईसीएआर इस संबंध में व्यवस्थित प्रणाली बनाने की प्रक्रिया में है ।
राजस्थान के लिए आईसीएआर की सलाह राहत देने वाली है । एक वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार किया है कि सहमति पत्र पर हस्ताक्षर एक भूल थी । उनका कहना है कि कंपनियों की रूचि केवल उनके बीज बेचने में है न कि अनुसंधान में । सहमति पत्रों के क्रियान्वयन में उनकी तरफ से कोई बहुत प्रस्ताव नहीं आए थे । ऐसे में हमें कोई इन समझौतों पर जोर देने में कोई तुक समझ में नहीं आई ।

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