मंगलवार, 15 जनवरी 2013

प्रदेश चर्चा
ओडिशा : दुर्लभ बीजों का रखवाला
सुश्री ज्योतिका सूद

    देश मंे खेती छोटे किसानोें के हाथोें से छुटकर बडे निजी कारर्पोेरेट घरानां के कब्जे मेें जा रही है । यह दुर्भाग्यपूर्ण ािितस्थ् है । सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से पीढियो से खेती में लगे हमारे किसानों के हजारों वर्षों के ज्ञान, उनके द्वारा अपनाए जा रहे खेती के नए-नए तरीकों और जैव विविधता को ही धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है । ऐसे में देबल देब जैसे लोगों के प्रयास भले ही छोटे  नजर आए पर देश के खाद्य उत्पादन प्रक्रिया के पर्यावरणीय व सामाजिक रूप से ठप्प हो जाने पर देश मेें भोजन की पूर्ति के लिए ये कदम काफी महत्वपूर्ण होेंगे ।
    ओडिशा के रायगडा़ जिले मेें एक बसाहट के बाहर केरोसीन लैैंप से रोशन, दो कमरो वाली झोपडी़, इस आदिवासी इलाके  में किसी दूसरे किसान की झोपडी़ की ही तरह है । पर इस झोपडी़ के अंदर घुसते ही, एक कोने में, खाट के नीचे रखे, परची लगे हजारों मिट्टी के बरतन देखकर आप हैरान हो जायेेंगे । इन बरतनों में चावल की ७५० से ज्यादा दुर्लभ प्रजातियों का खजाना है । इस बीज बैंक के रखवाले हैं-देबल देब । जो पिछले १६ सालों से इन दुर्लभ प्राकृतिक बीजो का संग्रहण एवं संरक्षण कर रहे है । उनका एक मात्र सहारा वे किसान है जो आज भी इन्ही विरासती बीजों पर निर्भर हैं । 
      झोपडी़ से ही लगा हुआ उनका एक छोटा सा खेत है, जहां देब अपने बीजो को संरक्षित करने के लिये इन प्रजातियो को उगाते हैं । यह जमीन बमुश्किल आधा एकड   है । मतलब साफ है देब को हर प्रजाति के लिये कोई चार वर्ग मीटर की जमीन मिल पाती है जिसमे वे धान की सिर्फ ६४ बालियां उगा सकते है । यह किसी बीज की नस्ल को बनाये - बचाये रखने के लिये आवश्यक   ५० बोलियों की न्यूनतम संख्या से थोडी ही ज्यादा है ।
    श्री देव बताते हैं कि इसके अलावा एक दूसरे की बाजू से उगने वाली इन किस्मो की आनुवांशिक शुद्धता को बनाये  रखना अपने आप में एक समस्या है । अंतर्राष्ट्रीय अनुशंसा के अनुसार किस्मों की आनुवांशिक शुद्धता के लिये दो विभिन्न प्रजाति के पौधों के बीच में कम से कम ११० मीटर का फासला होना चाहिए । जो कि इतने छोटे से खेत में कायम रख पाना नामुमकिन है । उन्होंने पौधों को, उनमें फूल खिलने के समय के अनुसार रोपकर इस समस्या को जीत लिया है । कटाई और गहाई (बीजों का अलग करना) के बाद वे कुछ बीजों को इन मिट्टी के बरतनों में बचा कर रख लेते हैं और बचे हुए बीज किसानों को बांट देते है । उनकी मंशा है कि इन बीजों का उपयोग बढ़े और लोग इनके फायदों के बारे में जागरूक हो ।
    एक प्रकृति चिंतक से खेती विशेषज्ञ हुए देबल देब कोई एक साल पहले अपने बीज बैंक वृही के साथ उड़ीसा आए । इसके पूर्व कोई एक दशक से भी ज्यादा समय तक उन्होंने पूरे पूर्वी भारत की यात्रा की और घूम-घूम कर किसानों से महत्वपूर्ण स्वदेशी चावल की किस्में जुटाई । उन्होनें १९९७ में बीज बैंक वृही की स्थापना की । तब उनके पास लगभग २०० चावल की किस्में    थी । वृही पश्चिम बंगाल का पहला गैर सरकारी बीज बैंक था ।
    धीरे-धीरे देब ने इन बीजों के संरक्षण और वितरण की जरूरत महसूस की । वर्ष २००२ में उन्होनें बांकुरा जिले में ०.७ हेक्टेयर का एक छोटा खेत लिया ताकि नियमित तौर पर इन प्रजातियों को उगाया जा सके । लेकिन २००९ और २०१० में पड़ने वालेअकाल के कारण कुछ प्रजातियों का नुकसान हुआ । इसके बाद देब ने एक ऐसी जगह की तलाश शुरू की जहां सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो । तभी उड़ीसा में टिकाऊ खेती के लिये काम करने वाली एक अलाभकारी संस्था लिविंग फार्म्स के देबजीत सारंगी से मुलाकात हुई और उन्होनें चार हजार रूपये सालाना की लीज पर रायगड़ा में एक जमीन खरीदने में उनकी मदद की ।
    श्री सारंगी कहते हैं मुझे हैरानी थी कि क्या गजब का आदमी होगा जो इतने दुर्गम इलाके में काम कर रहा है । उनकी जिज्ञासा तब जाकर शान्त हुई जब उन्हें पता चला कि देब भुवनेश्वर के निकट किसी गांव में आ रहे हैं । सांरगी उस समय टिकाऊ खेती से संबंधित एक प्रशिक्षण के सिलसिले में पश्चिम बंगाल में  थे । लेकिन उसे छोड़ पहली गाड़ी पकड़कर वे देब से मिलने सीधे भुवनेश्वर पहुंच गये । उनसे देब ने किसानों जैसी भाषा में बात की । उनकी बातचीत में कही भी प्रयोगशाला विज्ञान नहीं बल्कि कृषि पारिस्थतिकी विज्ञान की झलक थी । सारंगी कहते है उस दिन यह बात मेरी समझ में आई कि क्यों उस आदमी (देब) ने १९९६ में वर्ल्ड वाइल्ड फेडरेशन की मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड, एक ऐसे विषय पर काम करना शुरू किया जो ऐशो-आराम की जिन्दगी से कोसोंदूर है ।
    टिकाऊ खेती के प्रति अपने जुनून के चलते देब ने मोती जुआर, तिल, लौकी और सेम फली की कई सारी स्वदेशी प्रजाति के बीज इकट्ठे किये । देब कहते हैं कि मानसून में देरी, अल्प वर्षा, बाढ़, मिट्टी के खारेपन और कीटों के हमले जैसे पर्यावरणी प्रकोप से निपटने के लिये ये पुश्तैनी बीज सबसे बढ़िया दांव   है । भारत में इन परिस्थितियों के साथ ढल जाने वाली चावल की प्रजातियां हैं । उनका कहना है कि चावल की आनुवांशिकी पर ६० सालों के शोध के बावजूद, वैज्ञानिक ऐसी एक भी प्रजाति नहीं तैयार कर सके हैं जो कैसी भी पर्यावरणीय परिस्थितियों में समुचित रूप से पनप सके ।
    देब के तर्क उनके जमीनी तजुर्बे पर आधारित हैं । मई २००९ में आये महाचक्रवात आलिया में सुन्दरबन का सफाया कर डाला और हजारों एकड़ जमीन रातों रात खारेपन से भर गई । कोई मुट्ठी पर परम्परागत किसानों ने ही खारेपन को झेल जाने वाली चावल की तीन प्रजातियां बोई । देब ने दर्जन भर किसानों को, खारापन झेल जाने वाली चावल की तीन और प्रजातियों के बीज  बांटे । सिर्फ वही किसान आने वाली ठण्ड में थोड़ी बहुत चावल उगा पाये । इस साल देर से आये मानसून के चलते पूर्वी भारत के कई इलाकों में चावल के अंकुर ही नहीं फूटे । लेकिन जिन किसानों ने पुख्ता प्रजातियों वाले बीज बोये उन्हें ज्यादा चिन्ता नहीं रही । देब कहते हैं कि ये बीज किसी भी आधुनिक बीज से कहीं ज्यादा सक्षम हैं ।
    लेकिन किसानों के मुनाफे का क्या होगा ? क्योंकि हर हाल में आधुनिक और संकरित प्रजातियां ज्यादा पैदावार होती हैं । इस पर देब जवाब देते है किसी भी अर्थ व्यवस्था में किसी भी व्यापार का मुनाफा टिकाऊ नहीं है । यदि मकसद यह है कि जल्दी से मुनाफे में इजाफा हो, तो संसाधनों का नाश भी तेजी से होगा, और तब हमें फिर प्रदूषण, स्वास्थ्य के खतरे और जलवायु परिवर्तन जैसी शिकायतें नहीं करनी चाहिए ।
    देब की समझ किसानों के साथ उनकी रोजमर्रा की बातचीत से बनी है । उनका मानना है कि ये किसान ज्यादातर कृषि विशेषज्ञों की तुलना में कहीं बेहतर जानकार और पारखी हैं । ऐसा इसलिये क्योंकि विशेषज्ञ, प्रकृति के एक खास पहलू पर ध्यान देने के लिये प्रशिक्षित हैं, जबकि आम किसान पारिस्थितिकी के जटिल ताने-बाने के विविध पहलुआेंमें अंतर्सबंध को समझने में सक्षम है । देब स्वीकारते हैं कि सीधे खेत पर संरक्षण और शोध के काम के लिये स्थानीय किसानों पर भरोसा करने का कारण यह है कि सुप्रशिक्षित विज्ञान स्नातकों या शोधकर्ताआें को लेने के लिये उनके पास पैसे नहीं हैं । और फिर मैं कैसे विश्वास कर लूं कि मेरे खेत पर काम करने वाला कोई शोधकर्ता ज्यादा पैसे की खातिर, किसी एग्रो बायोटेक कम्पनी को, ये दुर्लभ बीज सौंप नहीं देगा ?
    देब का विश्वास है कि किसी संस्थागत या सरकारी मदद के बगैर भी उनकी यह विरासत उनके किसान मित्रों की बदौलत जिन्दा रहेगी ।

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