जन जीवन
बीमारियां बांटते ताप बिजली घर
सुंगध जुनेजा/चन्द्रभूषण
भारत का तापघर कहे जाने वाले सिंगरौली में कोयले का अकूत भण्डार है और यहां कई ताप ऊर्जा घर हैं । नतीजजन इस इलाके को बेहद सम्पन्न होना चाहिए । लेकिन सच्चई यह है कि यह गरीब और अत्यन्त प्रदूषित क्षेत्र है । यहां के लोग असाधारण बीमारियों से जूझ रहे हैं । दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनव्हायरमेंट ने यहां जांच कर पाया कि कोयले में पाया जाने वाला घातक विषैला तत्व पारा धीरे-धीरे लोगों के घरों, भोजन, पानी और खून में भी प्रवेश कर रहा है ।
पचास के दशक में जापान में घटी मिनीमाता दुर्घटना ने सारे विश्व का ध्यान आकर्षित किया था । इस दुर्घटना में मिनीमाता खाड़ी के पास रहने वाले सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी एवं कई विकलांग हो गये थे । यह दुर्घटना एक रासायनिक कारखाने से निकले अपशिष्ट में मौजूद पारे (मरक्यूरी) के कारण हुई थी । पारे की विषाक्तता से यह बीमारी मुख्य रूप से शरीर के स्नायुतंत्र को प्रभावित करती हैं । यही कहानी अब देश के पावर हाउस कहे जाने वाले मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे सिंगरौली क्षेत्र में दोहराई जा रही है ।
बीमारियां बांटते ताप बिजली घर
सुंगध जुनेजा/चन्द्रभूषण
भारत का तापघर कहे जाने वाले सिंगरौली में कोयले का अकूत भण्डार है और यहां कई ताप ऊर्जा घर हैं । नतीजजन इस इलाके को बेहद सम्पन्न होना चाहिए । लेकिन सच्चई यह है कि यह गरीब और अत्यन्त प्रदूषित क्षेत्र है । यहां के लोग असाधारण बीमारियों से जूझ रहे हैं । दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनव्हायरमेंट ने यहां जांच कर पाया कि कोयले में पाया जाने वाला घातक विषैला तत्व पारा धीरे-धीरे लोगों के घरों, भोजन, पानी और खून में भी प्रवेश कर रहा है ।
पचास के दशक में जापान में घटी मिनीमाता दुर्घटना ने सारे विश्व का ध्यान आकर्षित किया था । इस दुर्घटना में मिनीमाता खाड़ी के पास रहने वाले सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी एवं कई विकलांग हो गये थे । यह दुर्घटना एक रासायनिक कारखाने से निकले अपशिष्ट में मौजूद पारे (मरक्यूरी) के कारण हुई थी । पारे की विषाक्तता से यह बीमारी मुख्य रूप से शरीर के स्नायुतंत्र को प्रभावित करती हैं । यही कहानी अब देश के पावर हाउस कहे जाने वाले मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे सिंगरौली क्षेत्र में दोहराई जा रही है ।
दुनिया भर में पारे का उपयोग बेटरी, पेंट, प्लास्टिक, चिकित्सा उपकरण, कास्टिक सोड़ा, कागज, कीटनाशी, ट्यूबलाइट एवं ऊर्जा बचाने वाले सीएफएल बल्ब में किया जाता है । इसीलिए इन कारखानों के अपशिष्ट में पारा किसी न किसी रूप में पाया जाता है । पारा या उसके यौगिक एक बार पर्यावरण में आने पर भोजन श्रृंखला के अलग-अलग स्तर पर एकत्र होते हैं एवं उनकी मात्रा भी बढ़ती रहती है । मनुष्य में पारा मछली, सब्जी, अनाज, दूध, पेयजल, हवा आदि स्त्रातों से पहुंच कर जाम होता रहता है । माना जाता है कि मनुष्य प्रतिदिन भोजन से ०.००५ मिलीग्राम पारा ग्रहण करता है । मिथाईल मरक्युरी पारे सबसे विषाक्त रूप है, क्योंकि मानव शरीर इसका शरीर इसका ९० प्रतिशत से ज्यादा भाग अवशोषित करता है । पारे की विशेषता यह है कि यह कोशिकाआें में उपस्थित प्रोटीन से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर अपना प्रभाव डालता है । प्रारम्भ में पारे की विषाक्तता के लक्षण नहीं दिखाई देते हैं । हानिकारक प्रभाव के लक्षण के तभी दिखाई देते हैं जब शरीर में एकत्रित पारे की मात्रा ज्यादा होने लगती है । पारे की विषाक्तता का अंतिम प्रहार दिमाग एवं केन्द्रीय स्नायुतंत्र पर होता है ।
हाल ही में दिल्ली स्थित स्वतंत्र गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनव्हायरमेंट (सीएसई) ने सिंगरौली में पारा विषाक्तता का अध्ययन किया था । ये प्रयोगशाला परीक्षण वहां की जल, मिट्टी, अनाज, मछली एवं लोगों के नाखून, बाल एवं रक्त के नमूनों में किए गए । यह अध्ययन चिलिकादाद, दिबुलगंज, किरवानी खैराही, ओबरा, रेणुकूट, अनापरा एवं अन्य गांवों में किए गए । सी. एस. ई. की प्रदूषण नियंत्रण प्रयोगशाला ने सोनभ्रद जिले में पारे की जाचं हेतु ६ समूह में नमूने एकत्रित किए थे । इसके अंतर्गत १९ लागों के खून , बाल और नाखूनोंकी जांच की गई । सोनभद्र के विभिन्न स्थानोंसे २३ नमूने वहां के पानी से लिए गए । जबकि ७ नमूने मिट्टी के लिए गए । ५ नमूने क्षेत्र में पैदा होने वाली फसलों चावल, गेंहू, दालों के लिए गए । अध्ययन के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे । जिसमें पानी एवं मिट्टी के नमूना में पारे के अलावा अन्य भारी धातुआें लेड, केडमियम, क्रोमियम और आर्सोनिक का भी पता चला ।
अनाज के नमूनोंमें भी भारी मात्रा में रसायन पाए गए । जबकि रिंहद नदी पर बने गोविंद वल्लभ पंत जलाशय की मछलियों में पारे के एक घातक रूप मिथाईल मरक्यूरी की जांच की गई । जल में घुलने के बाद पारा मिथाईल मरक्यूरी में बदल जाता है । मानव शरीर में लकवा, हाथ पैर में कम्पन्न, आंखों से कम दिखाई देना, सफेद दाग, श्वास रोगों, जोड़ों के दर्द, याददाश्त में कमी, अवसाद भ्रम, व्यवहार में बदलाव, गुर्दे में खराबी, महिलाआें में मासिक धर्म की अनियमितता, बंध्यता, मृत शिशु एवं विकलांग शिशुआें के जन्म आदि के लक्षण देखे गये ।
प्रयोगशाला की रिपोर्ट से पता चला कि ८ से ६९ वर्ष के जिन १९ महिलाआें एवं पुरूषों के रक्त में पारे का स्तर औसतन ३४.३ पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) था, जो कि अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षित मानक स्तर ५.८ पीपीबी से ६ गुना अधिक था । कौराही गांव के कैलाश के रक्त में पारे की मात्रा ११३.४८ पीपीबी पाई गई, जो कि सर्वाधिक थी । इसी प्रकार ११ लोगों के बालों में पारे का स्तर १.१७ पीपीएम से ३१.३२ पीपीएम के मध्य पाया गया जबकि सुरक्षित स्तर पर ६ पीपीएम तक हैं ।
वर्तमान में सिंगरौली में कोयला आधारित ताप घरों की कुल उत्पादन क्षमता १३,२०० मेगावाट है और लगभग ८३ लाख टन कोयला प्रतिवर्ष निकाला जाता है । यहां पारा विषाक्तता के पीछे कोयला जिम्मेदार है । दरअसल पारा कोयले में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक खतरनाक तत्व हैं । एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर यह वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में फैल जाता है । एक आंकलन के अनुसार सिंगरौली में १००० मेगावाट का बिजली घर वर्ष भर में लगभग ५०० किलो पारा वायुमण्डल में उत्सर्जित करता है । कोयला खदानों से निकले कोयले को धोने से भी पारे की कुछ मात्रा निकलकर जल एवं मिट्टी में पहुंच जाती है । एक ग्राम पारा लगभग २० एकड़ भूमि को प्रदूषित करने की क्षमता रखता है । बिजलीघरों में कोयला जलाने से पारे की काफी मात्रा वायुमण्डल में पहुंचती है । कोयले में परे की मात्रा को ज्ञात करने के लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिंगरौली में कोयले के ग्यारह नमूनों का आकंलन किया और पाया कि कोयले में पारे की मात्रा ०.०९ पीपीएम से ०.४८७ पीपीएम के बीच है । सन् २०११ में सीएसई ने सोनभद्र जिले के अनापरा गांव में कोयले में पारे की ०.१५ पीपीएम मात्रा दर्ज की थी ।
वर्ष १९९८ में लखनऊ स्थित भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र ने भी सिंगरौली क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया था । अध्ययन के दौरान लगभग १२०० लोगों का परीक्षण किया गया था । जिनमें से ६० प्रतिशत से अधिक के रक्त में पारे की मौजूदगी का स्तर काफी ऊंचाथा । सोनभद्र की संस्था वनवासी सेवा आश्रम के जगत विश्वकर्मा के अनुसार सरकार ने संस्थान की रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया और ना ही कोई ठोस कार्यवाही की । और अब सीएसई की रिपोर्ट से पारे की मात्रा के स्तर का जो खुलासा हुआ है, सरकारी उदासीनता को दर्शाता है ।
भविष्य में देश में कई कारणों से पर्यावरण में पारा की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना है । नियम कानून शिथिल होने या सख्त कानूनों का ईमानदारी से पालन न होना है ।
देश में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सरकार ने बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन किया है ताकि कोयले से बिजली बनाई जावे । कोयले से बिजली बनाने पर सिंगरौली की कहानी देश के कई स्थानों पर दोहराई जा सकती है । सरकार ने सिंगरौली को देश का ९ वां सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाका घोषित किया है । सिंगरौली में पारे का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है । फर्क सिर्फ इतना है कि मिनीमाता की संख्या हजारों में थी तो सिंगरौली की लाखों में है ।
इस टाइम बम को तुरन्त बिखेरने से रोकना होगा । सरकार को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें और पारे प्रदूषण की समस्या का अविलंब निदान करें । इसके अलावा कोयला आधारित ताप घरों, कोयला धुलाई के स्थानों और खनन के लिए पारे के मानक तय किये जाने चाहिए ।
हाल ही में दिल्ली स्थित स्वतंत्र गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनव्हायरमेंट (सीएसई) ने सिंगरौली में पारा विषाक्तता का अध्ययन किया था । ये प्रयोगशाला परीक्षण वहां की जल, मिट्टी, अनाज, मछली एवं लोगों के नाखून, बाल एवं रक्त के नमूनों में किए गए । यह अध्ययन चिलिकादाद, दिबुलगंज, किरवानी खैराही, ओबरा, रेणुकूट, अनापरा एवं अन्य गांवों में किए गए । सी. एस. ई. की प्रदूषण नियंत्रण प्रयोगशाला ने सोनभ्रद जिले में पारे की जाचं हेतु ६ समूह में नमूने एकत्रित किए थे । इसके अंतर्गत १९ लागों के खून , बाल और नाखूनोंकी जांच की गई । सोनभद्र के विभिन्न स्थानोंसे २३ नमूने वहां के पानी से लिए गए । जबकि ७ नमूने मिट्टी के लिए गए । ५ नमूने क्षेत्र में पैदा होने वाली फसलों चावल, गेंहू, दालों के लिए गए । अध्ययन के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे । जिसमें पानी एवं मिट्टी के नमूना में पारे के अलावा अन्य भारी धातुआें लेड, केडमियम, क्रोमियम और आर्सोनिक का भी पता चला ।
अनाज के नमूनोंमें भी भारी मात्रा में रसायन पाए गए । जबकि रिंहद नदी पर बने गोविंद वल्लभ पंत जलाशय की मछलियों में पारे के एक घातक रूप मिथाईल मरक्यूरी की जांच की गई । जल में घुलने के बाद पारा मिथाईल मरक्यूरी में बदल जाता है । मानव शरीर में लकवा, हाथ पैर में कम्पन्न, आंखों से कम दिखाई देना, सफेद दाग, श्वास रोगों, जोड़ों के दर्द, याददाश्त में कमी, अवसाद भ्रम, व्यवहार में बदलाव, गुर्दे में खराबी, महिलाआें में मासिक धर्म की अनियमितता, बंध्यता, मृत शिशु एवं विकलांग शिशुआें के जन्म आदि के लक्षण देखे गये ।
प्रयोगशाला की रिपोर्ट से पता चला कि ८ से ६९ वर्ष के जिन १९ महिलाआें एवं पुरूषों के रक्त में पारे का स्तर औसतन ३४.३ पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) था, जो कि अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षित मानक स्तर ५.८ पीपीबी से ६ गुना अधिक था । कौराही गांव के कैलाश के रक्त में पारे की मात्रा ११३.४८ पीपीबी पाई गई, जो कि सर्वाधिक थी । इसी प्रकार ११ लोगों के बालों में पारे का स्तर १.१७ पीपीएम से ३१.३२ पीपीएम के मध्य पाया गया जबकि सुरक्षित स्तर पर ६ पीपीएम तक हैं ।
वर्तमान में सिंगरौली में कोयला आधारित ताप घरों की कुल उत्पादन क्षमता १३,२०० मेगावाट है और लगभग ८३ लाख टन कोयला प्रतिवर्ष निकाला जाता है । यहां पारा विषाक्तता के पीछे कोयला जिम्मेदार है । दरअसल पारा कोयले में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक खतरनाक तत्व हैं । एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर यह वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में फैल जाता है । एक आंकलन के अनुसार सिंगरौली में १००० मेगावाट का बिजली घर वर्ष भर में लगभग ५०० किलो पारा वायुमण्डल में उत्सर्जित करता है । कोयला खदानों से निकले कोयले को धोने से भी पारे की कुछ मात्रा निकलकर जल एवं मिट्टी में पहुंच जाती है । एक ग्राम पारा लगभग २० एकड़ भूमि को प्रदूषित करने की क्षमता रखता है । बिजलीघरों में कोयला जलाने से पारे की काफी मात्रा वायुमण्डल में पहुंचती है । कोयले में परे की मात्रा को ज्ञात करने के लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिंगरौली में कोयले के ग्यारह नमूनों का आकंलन किया और पाया कि कोयले में पारे की मात्रा ०.०९ पीपीएम से ०.४८७ पीपीएम के बीच है । सन् २०११ में सीएसई ने सोनभद्र जिले के अनापरा गांव में कोयले में पारे की ०.१५ पीपीएम मात्रा दर्ज की थी ।
वर्ष १९९८ में लखनऊ स्थित भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र ने भी सिंगरौली क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया था । अध्ययन के दौरान लगभग १२०० लोगों का परीक्षण किया गया था । जिनमें से ६० प्रतिशत से अधिक के रक्त में पारे की मौजूदगी का स्तर काफी ऊंचाथा । सोनभद्र की संस्था वनवासी सेवा आश्रम के जगत विश्वकर्मा के अनुसार सरकार ने संस्थान की रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया और ना ही कोई ठोस कार्यवाही की । और अब सीएसई की रिपोर्ट से पारे की मात्रा के स्तर का जो खुलासा हुआ है, सरकारी उदासीनता को दर्शाता है ।
भविष्य में देश में कई कारणों से पर्यावरण में पारा की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना है । नियम कानून शिथिल होने या सख्त कानूनों का ईमानदारी से पालन न होना है ।
देश में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सरकार ने बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन किया है ताकि कोयले से बिजली बनाई जावे । कोयले से बिजली बनाने पर सिंगरौली की कहानी देश के कई स्थानों पर दोहराई जा सकती है । सरकार ने सिंगरौली को देश का ९ वां सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाका घोषित किया है । सिंगरौली में पारे का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है । फर्क सिर्फ इतना है कि मिनीमाता की संख्या हजारों में थी तो सिंगरौली की लाखों में है ।
इस टाइम बम को तुरन्त बिखेरने से रोकना होगा । सरकार को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें और पारे प्रदूषण की समस्या का अविलंब निदान करें । इसके अलावा कोयला आधारित ताप घरों, कोयला धुलाई के स्थानों और खनन के लिए पारे के मानक तय किये जाने चाहिए ।
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