गणतंत्र दिवस पर विशेष
पर्यावरण और विश्व शांति
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति ने सुख-समृद्धि के अनेक संसाधन हमको अवश्य दिये हैं । किन्तु हमारी अंतहीन कामना वृद्धि ने अनेक वैश्विक समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं । एक और तो भौतिकतावादी उन्नति के कारण औद्योगिक विकास क्रांतिक स्तर पर हुआ दूसरी ओर प्रकृति की अतिशय हानि हुई और वह अक्षय प्राकृत कोष, जिनपर हमेंगुमान था रितने लगे । पर्यावरण असंतुलित हो उठा । सम्पूर्ण विश्व को इस विद्रुप से सावधान रहना होगा तथा सार्थक चिंतन-सृजन करना होगा ।
पर्यावरण ध्वंस के परिणाम स्वरूप मानव की अंतर्चेतना में एक घुटन भरा संत्रास, अशांति और अकुलाहट भर गई । वस्तुत: यह महाविनाश की आहट है । भौतिक सुख-सुविधाआें तथा सम्पन्नता के बीच आदमी अशांत भ्रमित और परिक्लांत हो उठा । बाह्य जगत की चकाचौंध के पीछे उसे अंदर से अंधेरा महसूस होने लगा । आधुनिकता के विद्रुप वातावरण मेंउसका दम घुटने लगा । वह शांति की तलाश में भटकने लगा । शांति तो संतोष में है । शांति तो प्रकृति के मध्य है । शांति की कामना ही हमारा आदिम लक्ष्य है ।
पर्यावरण और विश्व शांति
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति ने सुख-समृद्धि के अनेक संसाधन हमको अवश्य दिये हैं । किन्तु हमारी अंतहीन कामना वृद्धि ने अनेक वैश्विक समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं । एक और तो भौतिकतावादी उन्नति के कारण औद्योगिक विकास क्रांतिक स्तर पर हुआ दूसरी ओर प्रकृति की अतिशय हानि हुई और वह अक्षय प्राकृत कोष, जिनपर हमेंगुमान था रितने लगे । पर्यावरण असंतुलित हो उठा । सम्पूर्ण विश्व को इस विद्रुप से सावधान रहना होगा तथा सार्थक चिंतन-सृजन करना होगा ।
पर्यावरण ध्वंस के परिणाम स्वरूप मानव की अंतर्चेतना में एक घुटन भरा संत्रास, अशांति और अकुलाहट भर गई । वस्तुत: यह महाविनाश की आहट है । भौतिक सुख-सुविधाआें तथा सम्पन्नता के बीच आदमी अशांत भ्रमित और परिक्लांत हो उठा । बाह्य जगत की चकाचौंध के पीछे उसे अंदर से अंधेरा महसूस होने लगा । आधुनिकता के विद्रुप वातावरण मेंउसका दम घुटने लगा । वह शांति की तलाश में भटकने लगा । शांति तो संतोष में है । शांति तो प्रकृति के मध्य है । शांति की कामना ही हमारा आदिम लक्ष्य है ।
आज हमारी धरती अशान्त है । सागर अशांत है, वायुमण्डल अशांत है । मौसम अशांत है सम्पूर्ण पृथ्वी अशांत है । पृथ्वी की इस अशांत स्थिति में मनुष्य का सबसे बड़ा हाथ है । सब तरफ जीवन के अस्तित्व का संकट खड़ा हो रहा है । जीवन का अस्तित्व खतरे में है । एक पृथ्वी नाकाफी लगने लगी है और इसलिए सबको तलाश है एक और पृथ्वी की ताकि जीवन में कोई कमी न रहे । वर्तमान काल में जीवन शैली में प्रतिर्स्पद्धा बढ़ी है, महत्वाकांक्षाएं बढ़ी है । चारों और आंतक का साया है ऐस में मनुष्य ने अपने विज्ञान को हथियार बनाकर अंतरिक्ष को भी अशांत बनाया है । यह आदमी का विवेक है या अविवेक है ? यह विचारणीय प्रश्न है । हमारी महत्वकांक्षाआें ने ही विद्रुप दिया है । कुछ वर्ष पूर्व तक स्पेस वार विज्ञान गल्प के रूप में सामने आया था । तब अंतरिक्ष किस्से-कहानियों की काल्पनिक कथाआें में केन्द्रित रहता था । यद्यपि हमारे पुराणों में भी अनेक आख्यान हैं, जिनके अनुसार दुष्ट शक्तियाँ, दैवीय शक्तियों से लड़ते-लड़ते द्युलोक एवं अंतरिक्ष तक गई वहाँ जाकर उन मायावी दुष्टात्माआें का संहार हुआ ।
आज वह स्थितियाँ बन गई हैं कि हमें पुन: मानवीय आचरण की पड़ताल करनी चाहिए । पृथ्वी को तो अशांत कर ही डाला है, अंतरिक्ष में आसन्न अशांति के कारकों की भर्त्सना करनी चाहिए । आज अंतरिक्ष समर क्षेत्र बन गया है । महाशक्त राष्ट्रों के बीच आसमान जीतने की होड़ शुरू हो गई है । हर कोई हर ग्रह पर अपने झंडे गाड़ देना चाहता है । ऐसे में हम अंतरिक्ष के खतरो की अनदेखी नहीं कर सकते है । अत: अब अंतरिक्ष में शांति भंग न हो इसकी पहरेदारी की निहायत जरूरत है । प्रश्न यह भी है कि कैसेऔर क्यों हुआ अंतरिक्ष में मानवीय हस्तक्षेप तथा किस प्रकार हम वैज्ञानिक उपलब्धियों को वरदान से अभिशाप की ओर ले जा रहे है ? अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । क्या सोचा है कि हम क्या खो रहे है और क्या पा रहे है ? प्रकृतिकी शक्तियों से क्या कोई जीत सका है ? यह विचारणीय प्रश्न है ?
हमें शांति की खोज, तत्व दर्शन के माध्यम से करनी होगी । व्यष्टि, समष्टि और सृृष्टि केन्द्रित करनी होगी । प्रकृति का आधार द्वैत है किन्तु जब तक हम द्वैत मेंउलझे रहेंगे तो हमें सच्ची शांति नहीं मिल सकती है । हमें इस द्वैत से बाहर निकल कर आत्मैक्य होना होगा । आत्मा की आवाज ही परमात्मा की आवाज होती है । प्रकृति और पर्यावरण का शाश्वत आधार संजोना होगा । हमें अपनी जड़ों को सींचना होगा । विश्व शांति पाने का यही एक मात्र आधार है । हम मनुष्य है अत: कर्म हेतु स्वतंत्र है । हमारी इस कार्यिक स्वतंत्रता स्वाधीनता का अर्थ है, आत्म चेतना के द्वारा प्रकृति और पर्यावरण की सेवा, संसार की सेवा । हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा है, जो हमारे भीतर देवत्व प्रतिष्ठित करती है । हमारे अंदर श्रेयस संस्कार जगाती है, हमें चेताती हैं ।
हम अपनी मनोवृति में सुधार करके विश्व शांति में यसेगदान कर सकते हैं । हमें अपने जीवन का अहंकार की दृष्टि से ने देखकर आत्मा के दृष्टिकोण से देखना होगा । पहले स्वयं को शांति का पुजारी बनाना होगा ।पहले हम अपने व्यक्तिगत जीवन को शांतिमय बनायें । हम सही मनोदशा मेें रहना सीखें अर्थात अनासक्त भाव में रहना सीखें । हम अपनी कोमलकांत, प्राकृतिक भावनाआें को संसार की अनृतमयी कठोरता में न उलझायें वरन उसे अमृतमयी बनायें । आत्मा को शांत भाव में रखें । हमारी आत्मा आंनद स्वरूप है अत: शांत चित्त रहें । हमें अंतस की गहराइयों से सोचना चाहिए । बाह्य द्वन्दों ये विचलित नहीं होना चाहिए । क्योंकि यदि हमारे भीतर शांति का निवास होता है तो हमें उसका विस्तार करने में, उसका विस्तार पाने में कठिनाई भी नहीं होती । तब शांति स्वयं प्रसारित एवं प्रभाषित होगी और सम्पूर्ण विश्व ही शांति के आंनद में डूब जायेगा और पर्यावरण स्वयमेव संतुलित एवं संरक्षित हो जायेगा ।
प्रश्न यह भी है कि अब शांति कहाँ है । सम्पूर्ण विश्व में मारा-मारी है । आतंकवाद के आगे पसरी हुई बेबसी ओर लाचारी है । मन में शांति नहीं, घर में शांति नहीं, समाज में शांति नहीं, राष्ट्र में शांति नहीं, विश्व में शांति नहीं, सब ओरअशांत वातावरण । इस असीम अशांति से उबार सकता है हमें हमारा धर्माचरण। धर्मधुरी तो परमपिता परमेश्वर है । वही अजर अमर अक्षर अविनाशी है । वही शांताकर है । - शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ...... । अत: हमें उन्हीं के शरणागत रहकर धर्म का आचरण करना चाहिए । भगवत्प्रािप्त् से शांति की प्रािप्त् होती है । श्री कृष्ण ने गीता में शांति का अमोघ उपाय दिया है -
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन।
तत्सादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्सयसि शाश्वतम् ।।
अर्थात - हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा । उस परमेश्वर की कृपासे ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम कोे प्राप्त् होगा ।
मनीषियों का मत हैं कि शांति न तो असंभव है और न ही शांति का कोई विकल्प है । शांति में ही अचित्य सुख निहित है । कहा जाता है - अशान्तय कुत:सुखम । व्यक्तिगत एवं सामुदायिक चरित्र के उन्नयन द्वारा ही शांति पाई जा सकती है । जब तक इच्छाएं रहती है मन में अशांति रहती है । ज्यों ही मन से अंह जाता है, विश्व बंधुत्व की भावना आती है । विश्व ग्राम की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है, जब हमारी महत्वाकांक्षाआें पर विराम लगे । मनुष्य अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर लगाम कसे । अब शांति के लिए अहिंसा के हथियार का महत्व पहचाना गया है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने गाँधी जयन्ती (२ अक्टूबर) को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया है । सम्पूर्ण विश्व समुदाय ने यह बात स्वीकारी है कि शांति और अहिंसा परस्पर पूरक है । अहिंसा और शांति की बात गाँधी चर्चा के बिना अधूरी होगी । अत: यहाँ गाँधीजी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग का एक अंश उद्धरित है :-
अहिसा व्यापक वस्तु है । हम हिंसा की होली के बीच घिरे हुए प्राणी है । यह वाक्य गलत नहीं है कि जीव जीव पर जीता है । मनुष्य एक क्षण के लिए भी बाह्य हिंसा के बिना जी नहीं सकता । खाते-पीते, उठते-बैठते, सभी क्रियाआें में इच्छा अनिच्छा से वह कुछ नकुछ हिंसा तो करता ही रहता है । यदि इस हिंसा से छूटने के लिए वह महाप्रयत्न करता है, उसकी भावना में केवल अनुकम्पा होती है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म जन्तु का भी नाश नहींचाहता और यथा शक्ति उसे बचाने का प्रयत्न करता है, तो वह अहिंसा का पुजारी है । उसके कार्यो में निरन्तर संयम की वृद्धि होगी, उसमें निरन्तर करूणा बढ़ती रहेगी । किन्तु कोई देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । दो राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ने पर अहिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति का धर्म है कि वह उस युद्ध को रोके । जो इस धर्म का पालन न कर सके, जिसमें विरोध करने की शक्ति न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार प्राप्त् न हुआ हो, वह युद्ध कार्य में सम्मिलित हो और सम्मिलित होते हुए भी उसमें से अपने को, अपने देश को और सारे संसार को उबारने का हार्दिक प्रयत्न करें ।
अहिंसा का विचार आदिकाल से चला आ रहा है । गाँधीजी ने इस विचार को अपनी श्रद्धा एवं विश्वास से सींचा, अपने आचरण एवं तप द्वारा व्यापक अर्थ दिया । अपने प्रयोग से जीवन में उतारा । उन्होने अहिंसा एवं शांति शब्दों के अर्थ में गाम्भीर्य भर दिया । वह अहिंसा को एक विधायक तेजस्वी रूप में उपयोग कर सके । उनकी अहिंसा व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक शक्ति के रूप में विकसित हुई और मन वचन कर्म तक पहुँची । उनका विचार था कि अहिंसा का मुख्य निहितार्थ यह है कि हमारी अहिंसा हमारे प्रति विरोध के रूख को नरम एवं लचीला बनाये, कठोर नहीं, वह उसे द्रवित कर दे, आत्मानुभूत सहानुभूति से भर दे और गाँधीजी अपने इस मिशन में कामयाब भी रहे ।
शांति बाहर से नहीं अंदर से मिलती है । जब अंतस शांत होगा तो बाहर स्वयं शांत नजर आयेगा । सांसारिक भौतिक दुष्चक्र में शांति कदापि नहीं मिल सकती है । आज चारों ओर युद्ध ही युद्ध है । यहाँ तक कि स्वयं से युद्धरत है आदमी । आध्यात्मिक बोध होते ही शांति का सूत्र हाथ में आ जाता है । जब हम भौतिक तथा पराभौतिक शक्तियों का समन्वय कर लेते है तो शांति स्वयं मिल जाती है । जब तक नकारात्मक शक्तियाँ बलवती रहती है हम अशांत रहते है । शांति अनुभव का विषय है यह नैसर्गिक गुण है । इसीलिए अनादिकाल से ही मनुष्य की चाहत में स्वभाविक रूप से शांति की कामना रही है ।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो अंत:करण की सहज निर्विकार अवस्था ही शांति होती है । अंत:करण को निर्मल अवस्था में रखकर सहज ही शांति प्राप्त् की जा सकती है । यदि हम अपनी मनोवृत्तियों पर नियंत्रण रखें तो शांति अवश्य ही मिलेगी । हमारे चारों ओर की ऊर्जा हमारे वातावरण को प्रभावित करती है जिससे हमारे सतत सम्पर्क में आने वाले भी हमसे अच्छा या बुरा सानिघ्य प्राप्त् करते हैं । कहने का भाव यह है कि हमारी अशांति हमारे चारों ओर के परिवेश को भी अशांत करती है । इस तथ्य की पुष्टि हेतु उदाहरण हमारे सामने है । हमारे अंतस में शांति की कामना जितनी अधिक बलवती होगी उतनी ही प्रभाविता से वह दूसरों को शांति प्रदान कर सकेगी । पंतजलि योग दर्शन के अनुसार भी - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्याग: अर्थात अहिंसा की दृढ़ प्रतिज्ञ स्थिति होने पर, समीपस्थ अन्य जीव भी बैर को त्याग देते । भारतीय दर्शन में तो कहा जाता ही है कि यहाँ शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं ।
कोई भी समस्या असंतोष से उपजती है । समस्याआें का सार्थक समाधान शास्त्र सम्मत संवाद से होता है शस्त्रों से नहीं । संवादहीनता ही संशयों को जन्म देती है । संशय का बीज विषवृक्ष के रूप में पल्लवित पुष्पित और फलित होता है । आतंकवाद हो अथवा अन्य कोई विवाद, हमें करूणा और मर्यादा के आधार पर संवाद बनाना चाहिए । शस्त्र तो तभी उठाना चाहिए जब किसी आर्त की करूण पुकार असत्य हो और शांति स्थापना के सारे द्वार बंद हो चुके हो । हमारी अवतार परम्परा, सूफियाना दर्शन तथा वाड्ग्मय यही सीख देता है ।
आध्यात्म के द्वारा मन को बदला जा सकता है । हमें शत्रु भाव त्याग कर दूसरे के मन जीतने का प्रयास करना चाहिए । वैश्विक स्तर पर हमारे मन कलुष से भरे हैं । वैचारिक प्रदूषण से लेकर भौतिक प्रदूषण ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है । मन की कलुषता ने हमारा मन भरमाया है । हमें इस भ्रम के भंवर से बाहर निकलना ही होगा, तभी सुरक्षित रह सकती है हमारी पृथ्वी, हमारा पर्यावरण और हमारा समाज ।
आज वह स्थितियाँ बन गई हैं कि हमें पुन: मानवीय आचरण की पड़ताल करनी चाहिए । पृथ्वी को तो अशांत कर ही डाला है, अंतरिक्ष में आसन्न अशांति के कारकों की भर्त्सना करनी चाहिए । आज अंतरिक्ष समर क्षेत्र बन गया है । महाशक्त राष्ट्रों के बीच आसमान जीतने की होड़ शुरू हो गई है । हर कोई हर ग्रह पर अपने झंडे गाड़ देना चाहता है । ऐसे में हम अंतरिक्ष के खतरो की अनदेखी नहीं कर सकते है । अत: अब अंतरिक्ष में शांति भंग न हो इसकी पहरेदारी की निहायत जरूरत है । प्रश्न यह भी है कि कैसेऔर क्यों हुआ अंतरिक्ष में मानवीय हस्तक्षेप तथा किस प्रकार हम वैज्ञानिक उपलब्धियों को वरदान से अभिशाप की ओर ले जा रहे है ? अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । क्या सोचा है कि हम क्या खो रहे है और क्या पा रहे है ? प्रकृतिकी शक्तियों से क्या कोई जीत सका है ? यह विचारणीय प्रश्न है ?
हमें शांति की खोज, तत्व दर्शन के माध्यम से करनी होगी । व्यष्टि, समष्टि और सृृष्टि केन्द्रित करनी होगी । प्रकृति का आधार द्वैत है किन्तु जब तक हम द्वैत मेंउलझे रहेंगे तो हमें सच्ची शांति नहीं मिल सकती है । हमें इस द्वैत से बाहर निकल कर आत्मैक्य होना होगा । आत्मा की आवाज ही परमात्मा की आवाज होती है । प्रकृति और पर्यावरण का शाश्वत आधार संजोना होगा । हमें अपनी जड़ों को सींचना होगा । विश्व शांति पाने का यही एक मात्र आधार है । हम मनुष्य है अत: कर्म हेतु स्वतंत्र है । हमारी इस कार्यिक स्वतंत्रता स्वाधीनता का अर्थ है, आत्म चेतना के द्वारा प्रकृति और पर्यावरण की सेवा, संसार की सेवा । हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा है, जो हमारे भीतर देवत्व प्रतिष्ठित करती है । हमारे अंदर श्रेयस संस्कार जगाती है, हमें चेताती हैं ।
हम अपनी मनोवृति में सुधार करके विश्व शांति में यसेगदान कर सकते हैं । हमें अपने जीवन का अहंकार की दृष्टि से ने देखकर आत्मा के दृष्टिकोण से देखना होगा । पहले स्वयं को शांति का पुजारी बनाना होगा ।पहले हम अपने व्यक्तिगत जीवन को शांतिमय बनायें । हम सही मनोदशा मेें रहना सीखें अर्थात अनासक्त भाव में रहना सीखें । हम अपनी कोमलकांत, प्राकृतिक भावनाआें को संसार की अनृतमयी कठोरता में न उलझायें वरन उसे अमृतमयी बनायें । आत्मा को शांत भाव में रखें । हमारी आत्मा आंनद स्वरूप है अत: शांत चित्त रहें । हमें अंतस की गहराइयों से सोचना चाहिए । बाह्य द्वन्दों ये विचलित नहीं होना चाहिए । क्योंकि यदि हमारे भीतर शांति का निवास होता है तो हमें उसका विस्तार करने में, उसका विस्तार पाने में कठिनाई भी नहीं होती । तब शांति स्वयं प्रसारित एवं प्रभाषित होगी और सम्पूर्ण विश्व ही शांति के आंनद में डूब जायेगा और पर्यावरण स्वयमेव संतुलित एवं संरक्षित हो जायेगा ।
प्रश्न यह भी है कि अब शांति कहाँ है । सम्पूर्ण विश्व में मारा-मारी है । आतंकवाद के आगे पसरी हुई बेबसी ओर लाचारी है । मन में शांति नहीं, घर में शांति नहीं, समाज में शांति नहीं, राष्ट्र में शांति नहीं, विश्व में शांति नहीं, सब ओरअशांत वातावरण । इस असीम अशांति से उबार सकता है हमें हमारा धर्माचरण। धर्मधुरी तो परमपिता परमेश्वर है । वही अजर अमर अक्षर अविनाशी है । वही शांताकर है । - शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ...... । अत: हमें उन्हीं के शरणागत रहकर धर्म का आचरण करना चाहिए । भगवत्प्रािप्त् से शांति की प्रािप्त् होती है । श्री कृष्ण ने गीता में शांति का अमोघ उपाय दिया है -
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन।
तत्सादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्सयसि शाश्वतम् ।।
अर्थात - हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा । उस परमेश्वर की कृपासे ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम कोे प्राप्त् होगा ।
मनीषियों का मत हैं कि शांति न तो असंभव है और न ही शांति का कोई विकल्प है । शांति में ही अचित्य सुख निहित है । कहा जाता है - अशान्तय कुत:सुखम । व्यक्तिगत एवं सामुदायिक चरित्र के उन्नयन द्वारा ही शांति पाई जा सकती है । जब तक इच्छाएं रहती है मन में अशांति रहती है । ज्यों ही मन से अंह जाता है, विश्व बंधुत्व की भावना आती है । विश्व ग्राम की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है, जब हमारी महत्वाकांक्षाआें पर विराम लगे । मनुष्य अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर लगाम कसे । अब शांति के लिए अहिंसा के हथियार का महत्व पहचाना गया है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने गाँधी जयन्ती (२ अक्टूबर) को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया है । सम्पूर्ण विश्व समुदाय ने यह बात स्वीकारी है कि शांति और अहिंसा परस्पर पूरक है । अहिंसा और शांति की बात गाँधी चर्चा के बिना अधूरी होगी । अत: यहाँ गाँधीजी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग का एक अंश उद्धरित है :-
अहिसा व्यापक वस्तु है । हम हिंसा की होली के बीच घिरे हुए प्राणी है । यह वाक्य गलत नहीं है कि जीव जीव पर जीता है । मनुष्य एक क्षण के लिए भी बाह्य हिंसा के बिना जी नहीं सकता । खाते-पीते, उठते-बैठते, सभी क्रियाआें में इच्छा अनिच्छा से वह कुछ नकुछ हिंसा तो करता ही रहता है । यदि इस हिंसा से छूटने के लिए वह महाप्रयत्न करता है, उसकी भावना में केवल अनुकम्पा होती है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म जन्तु का भी नाश नहींचाहता और यथा शक्ति उसे बचाने का प्रयत्न करता है, तो वह अहिंसा का पुजारी है । उसके कार्यो में निरन्तर संयम की वृद्धि होगी, उसमें निरन्तर करूणा बढ़ती रहेगी । किन्तु कोई देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । दो राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ने पर अहिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति का धर्म है कि वह उस युद्ध को रोके । जो इस धर्म का पालन न कर सके, जिसमें विरोध करने की शक्ति न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार प्राप्त् न हुआ हो, वह युद्ध कार्य में सम्मिलित हो और सम्मिलित होते हुए भी उसमें से अपने को, अपने देश को और सारे संसार को उबारने का हार्दिक प्रयत्न करें ।
अहिंसा का विचार आदिकाल से चला आ रहा है । गाँधीजी ने इस विचार को अपनी श्रद्धा एवं विश्वास से सींचा, अपने आचरण एवं तप द्वारा व्यापक अर्थ दिया । अपने प्रयोग से जीवन में उतारा । उन्होने अहिंसा एवं शांति शब्दों के अर्थ में गाम्भीर्य भर दिया । वह अहिंसा को एक विधायक तेजस्वी रूप में उपयोग कर सके । उनकी अहिंसा व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक शक्ति के रूप में विकसित हुई और मन वचन कर्म तक पहुँची । उनका विचार था कि अहिंसा का मुख्य निहितार्थ यह है कि हमारी अहिंसा हमारे प्रति विरोध के रूख को नरम एवं लचीला बनाये, कठोर नहीं, वह उसे द्रवित कर दे, आत्मानुभूत सहानुभूति से भर दे और गाँधीजी अपने इस मिशन में कामयाब भी रहे ।
शांति बाहर से नहीं अंदर से मिलती है । जब अंतस शांत होगा तो बाहर स्वयं शांत नजर आयेगा । सांसारिक भौतिक दुष्चक्र में शांति कदापि नहीं मिल सकती है । आज चारों ओर युद्ध ही युद्ध है । यहाँ तक कि स्वयं से युद्धरत है आदमी । आध्यात्मिक बोध होते ही शांति का सूत्र हाथ में आ जाता है । जब हम भौतिक तथा पराभौतिक शक्तियों का समन्वय कर लेते है तो शांति स्वयं मिल जाती है । जब तक नकारात्मक शक्तियाँ बलवती रहती है हम अशांत रहते है । शांति अनुभव का विषय है यह नैसर्गिक गुण है । इसीलिए अनादिकाल से ही मनुष्य की चाहत में स्वभाविक रूप से शांति की कामना रही है ।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो अंत:करण की सहज निर्विकार अवस्था ही शांति होती है । अंत:करण को निर्मल अवस्था में रखकर सहज ही शांति प्राप्त् की जा सकती है । यदि हम अपनी मनोवृत्तियों पर नियंत्रण रखें तो शांति अवश्य ही मिलेगी । हमारे चारों ओर की ऊर्जा हमारे वातावरण को प्रभावित करती है जिससे हमारे सतत सम्पर्क में आने वाले भी हमसे अच्छा या बुरा सानिघ्य प्राप्त् करते हैं । कहने का भाव यह है कि हमारी अशांति हमारे चारों ओर के परिवेश को भी अशांत करती है । इस तथ्य की पुष्टि हेतु उदाहरण हमारे सामने है । हमारे अंतस में शांति की कामना जितनी अधिक बलवती होगी उतनी ही प्रभाविता से वह दूसरों को शांति प्रदान कर सकेगी । पंतजलि योग दर्शन के अनुसार भी - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्याग: अर्थात अहिंसा की दृढ़ प्रतिज्ञ स्थिति होने पर, समीपस्थ अन्य जीव भी बैर को त्याग देते । भारतीय दर्शन में तो कहा जाता ही है कि यहाँ शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं ।
कोई भी समस्या असंतोष से उपजती है । समस्याआें का सार्थक समाधान शास्त्र सम्मत संवाद से होता है शस्त्रों से नहीं । संवादहीनता ही संशयों को जन्म देती है । संशय का बीज विषवृक्ष के रूप में पल्लवित पुष्पित और फलित होता है । आतंकवाद हो अथवा अन्य कोई विवाद, हमें करूणा और मर्यादा के आधार पर संवाद बनाना चाहिए । शस्त्र तो तभी उठाना चाहिए जब किसी आर्त की करूण पुकार असत्य हो और शांति स्थापना के सारे द्वार बंद हो चुके हो । हमारी अवतार परम्परा, सूफियाना दर्शन तथा वाड्ग्मय यही सीख देता है ।
आध्यात्म के द्वारा मन को बदला जा सकता है । हमें शत्रु भाव त्याग कर दूसरे के मन जीतने का प्रयास करना चाहिए । वैश्विक स्तर पर हमारे मन कलुष से भरे हैं । वैचारिक प्रदूषण से लेकर भौतिक प्रदूषण ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है । मन की कलुषता ने हमारा मन भरमाया है । हमें इस भ्रम के भंवर से बाहर निकलना ही होगा, तभी सुरक्षित रह सकती है हमारी पृथ्वी, हमारा पर्यावरण और हमारा समाज ।
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