विशेष लेख
प्रसाद के साहित्य में पर्यावरणीय चेतना
नवलकिशोर लोहनी/उमेशकुमारसिंह/सुधीरकुमार शर्मा
आधुनिक काल की हिन्दी कविता या काव्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नई काव्यधारा का तृतीय उत्थान कहा है, जिसे सामान्यत: छायावाद के नाम से जाना जाता है । छायावाद के उदय के संबंध में श्री शुक्ल का कथन है, प्राचीन ईसाई संतों के छायाभास तथा यूरोप के काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ छायावाद कही जाने लगी थीं । अत: हिन्दी में ऐसी कविताआें का नाम छायावाद चल पड़ा ।
डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना है । जयशंकर प्रसाद के अनुसार जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया । नन्ददुलारे बाजपेई ने लिखा छायावाद मानव जीवन सौन्दर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है । मुकुटधर पाण्डे के निबंध हिन्दी में छायावाद से पता चलता है कि द्विवेदीयुगीन कविताआें से भिन्न कविताआें के लिये छायावाद का नाम प्रचलित हो चुका था । किसी ने कहा है वस्तुमें आत्मा की छाया देखना छायावाद है । छायावादी काव्य में प्रकृति-सम्बन्धी कविताआें के बाहुल्य और उसमें प्रतिफलत प्रकृतिपरक दृष्टिकोण को देखकर कुछ विचारकों ने छायावाद को प्रकृति-काव्य भी कहा है ।
प्रसाद के साहित्य में पर्यावरणीय चेतना
नवलकिशोर लोहनी/उमेशकुमारसिंह/सुधीरकुमार शर्मा
आधुनिक काल की हिन्दी कविता या काव्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नई काव्यधारा का तृतीय उत्थान कहा है, जिसे सामान्यत: छायावाद के नाम से जाना जाता है । छायावाद के उदय के संबंध में श्री शुक्ल का कथन है, प्राचीन ईसाई संतों के छायाभास तथा यूरोप के काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ छायावाद कही जाने लगी थीं । अत: हिन्दी में ऐसी कविताआें का नाम छायावाद चल पड़ा ।
डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना है । जयशंकर प्रसाद के अनुसार जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया । नन्ददुलारे बाजपेई ने लिखा छायावाद मानव जीवन सौन्दर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है । मुकुटधर पाण्डे के निबंध हिन्दी में छायावाद से पता चलता है कि द्विवेदीयुगीन कविताआें से भिन्न कविताआें के लिये छायावाद का नाम प्रचलित हो चुका था । किसी ने कहा है वस्तुमें आत्मा की छाया देखना छायावाद है । छायावादी काव्य में प्रकृति-सम्बन्धी कविताआें के बाहुल्य और उसमें प्रतिफलत प्रकृतिपरक दृष्टिकोण को देखकर कुछ विचारकों ने छायावाद को प्रकृति-काव्य भी कहा है ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी कविता की नवीनधारा (छायावाद) का प्रवर्तक मैथिलीशरण गुप्त् ओर मुकुटधर पाण्डे को माना है, किन्तु इसे भ्रामक तथ्य मानकर खारिज कर दिया गया । इलाचन्द्र जोशी और विश्वनाथ जयशंकर प्रसाद को निर्विवाद रूप से छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं । विनय मोहन शर्मा और प्रभाकर माचवे ने माखनलाल चतुर्वेदी को तो नंददुलारे वाजपेई, सुमित्रानंदन पंत को छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय देते हैं, किंतु वर्तमान में जयशंकर प्रसाद को ही सर्वमान्य रूप से छायावाद का प्रवर्तक माना जाने लगा है । छायावादी काव्य में भारतीय परम्परा का प्रवेश ही नहीं हुआ बल्कि उसने युग के काव्य को अत्यंत गहराई तक प्रभावित किया है ।
छायावादी काव्य में ही वर्तमान युग के जनजीवन की व्यापकता की अभिव्यक्ति मिलती है । छायावादी काव्य पूर्ण और सर्वांगीण जीवन के उच्च्तम आदर्श को व्यक्त करने का प्रयास करना है । जयशंकर प्रसादकी कामायनी इस काव्य स्वीकृति का चरम है । इन्हीं कारणों से यह आधुनिक छायावादी काल कहलाया ।
छायावादी काव्य को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैशिष्ट्य एवं पहचान देने वाले कवियों में एक नाम है- जयशंकरप्रसाद । इसका कारण मात्र उनकी रचनात्मक ऊँचाई ही नहीं, बल्कि इतिहास का वह मुहुर्त भी है, जिसके दबावों और प्रेरणाआें ने उनकी रचनाशीलता को विशेष दिशा प्रदान की है ।
हिन्दी काव्य की छायावादी धारा के प्रमुख कवियों में युगांतकारी कवि जयशंकर प्रसाद का नाम पहले लिया जाता है । उनकी काव्य-दृष्टि विलक्षण थी और रचना-सामर्थ्य अद्भुत था । उन्होंने कविता को वह असामान्य ऊँचाई और गरिमा प्रदान की, जिसके कारण आज भी उस दौर को खड़ी बोली कविता का उत्कर्ष-काल माना जाता है । कामायनी जैसा महाकाव्य उन्हीं की देन है, जो हिंदी ही नहीं भारतीय साहित्य का गौरव-ग्रंथ है ।
छायावादी काव्य को प्रकृतिपरक काव्य भी माना गया है । जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ कामायनी, आँसू, झरना, लहर, कानन कुसुम आदि में प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया गया है । प्रसाद जी ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृतिपरक रचनाआें के माध्यम से मानव जीवन में पर्यावरण में पर्यावरणका पारस्परिक सम्बन्ध एवं महत्व दर्शाया गया है । अपने काव्यों के माध्यम से प्रसाद जी ने पर्यावरण के प्रति जनजागृति लाने का अथक प्रयास किया है । प्रकृति से वर्णित उनके अधिकांश काव्यों में पर्यावरण के प्रति उपकी रूचि एवं गंभीरता दृष्टिगोचर होती है । प्रसादजी ने अपने काव्यों में पर्यावरण के महत्व को अभिव्यक्त कर यह बताया है कि पर्यावरण क्या है मानव जीवन पर उसका कितना व्यापक प्रभाव है ?
मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं । जहां मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है, वहीं मानव द्वारा निरन्तर किये जा रहे पर्यावरण के विनाश या क्षति के विषय में चिन्तन करते ही हमें भविष्य की चिंता सताने लगती है । यह आँतरिक पीड़ा हम अतर्मन से झकझोर कर रख देती है । जहां पर्यावरण एवं मानव का सम्बन्ध आदिकाल से रहा वहीं हमारे प्राचीन वेदों ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेेद एवं अथर्ववेद में भी पर्यावरण का महत्व दर्शाया गया है । पर्यावरण शब्द का संक्षेप में इस तरह समझा जा सकता है - परि अर्थात् चारों ओर आवरण अर्थात् ढंका हुआ या घिरा हुआ । मानव जीवन के चारों ओर जो भी आवरण है उसे पर्यावरण कहा जाता है । पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, वन, वनस्पति, जीव-जन्तु, वृक्ष इत्यादि और वे सभी जिनके मध्य मानव जीवन जीवित रहता है । वे सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं एवं एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं ।
भारतीय संस्कृति में वन और वनस्पति का बहुत अधिक महत्व रहा है । हमारे ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे । प्रकृति से उनका गहन संबंध था । वैदिक ऋचाआें का निर्माण भी वनों में स्थित आश्रमों में हुआ था । मानव, वन्य जीव-जन्तु, वृक्ष, पर्वत, सरितायें, ऋतुएं आदि सभी परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं तथा पर्यावरण के अभिन्न अंग है । परायुग में वन, सन्यासी जीवन के तप का प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे । यह वानप्रस्थ आश्रम की निरूक्ति से भी सिद्ध है : वाने वन समूहे प्रतिष्ठते इति । यह उल्लेखनीय है, कि वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, सूत्रग्रंथों आदि में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के भव्योज्जवल रूप प्रतिनिहित हैं, जिनकी रचना वनाश्रमों में हुई है ।
प्राचीन युग में भी पर्यावरण का अत्यन्त महत्व हुआ करता था । उस युग में वनाश्रमों की प्रकृति या ग्रामीण संस्कृति से ही नागरिक संस्कृति या राजतंत्रात्मक संस्कृति का नियंत्रण होता था । तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में भी पर्यावरण का अतिशय महत्व हुआ करता था । वैदिक परम्पराआें से लेकर वर्तमान काल में भी वृक्षों की पूजा का विशिष्ट महत्व है । वृक्षों के पूजन से वृक्षों का संरक्षण व संवर्धन भी स्वत: ही हो जाता है । भारतीय संस्कृति मेंपीपल व बरगद विशिष्ट रूप से पूजनीय हैं ।
जहां हिन्दी साहित्य में आदिकाल (संवत् १०५०) से लेकर रीतिकाल (संवत् १९००) तक किसी ने किसी रूप में कवियों ने काव्य में प्रकृति एवं पर्यावरण को वर्णित किया है, वहीं आधुनिक काल (संवत् १९००-आज तक) से छायावादी काव्यों में पर्यावरण के प्रति प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होने लगी । इस काल के छायावादी कवियों मैथिलीशरण गुप्त्, मुकुटधर पाण्डे, नन्ददुलारे वाजपेई, पं. सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्च्न आदि ने अपने काव्यों में प्रकृति एवं पर्यावरण सौन्दर्य का चित्रण सुन्दरता के साथ किया है । इसे आधुनिक या गद्यकाल का एक परिवर्तित युग भी कहा जाता है । हिन्दी साहित्य के काव्य की नवीनधारा (छायावाद) के प्रमुख स्तम्भों में एक नाम है - जयशंकर प्रसाद । प्रसादजी ने अपने काव्यों में प्रकृतिएवं पर्यावरण को सुन्दरता के साथ संजोया है । जिससे प्रसादजी का काव्य में पर्यावरण व प्रकृति के प्रति गहन चिन्तन परिलक्षित होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी, झ्ररना, लहर, आँसू, कानन-कुसुम, चन्द्रगुप्त्, एक घूँट आदि में पर्यावरण के महत्व को दर्शाते हुए उनका सुन्दर चित्रण किया है । प्रसाद के काव्य इडा की सुन्दर पंक्तियाँ :-
देखे मैंने वे शैल ऋँग,
जो अचल हिमानी से रंजित, उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग
अपने जड़ गौरव के प्रतीक वसुधा का कर अभिमान भंग
अपनी समाधि में रहे सुखी बह जाती हैं नदियां अबोध
कुछ सवेत बिन्दु उसके लेकर वह स्तिभित नयन गत शोक क्रोध
स्थिर मुक्ति, प्रतिष्ठा में वैसी चाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध गति मरूत सदृश हॅू चाह रहा अपने मन की
जो चूम चला जाता अग जग प्रति पग में कंपन की तंरग
वह ज्वलनशील गतिमय पतंगा ।
इस दुखमय जवीन का प्रकाश -
नभ नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आसपास
कितना बीहड़ पथ चला और पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर रोता मैं निर्वाचित अशांत
इस नियति नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद असफलता अधिक कुलांच रही
पावस रजनी में जुगूनु गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश ।
जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी के काव्य इड़ा की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा एवं पर्यावरण के महत्व को दर्शाया है । प्रसाद की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा उसके स्वयं के कारण होना दर्शित होता है । जो प्रकृति हमारे जीवन की आशा को निराशा को आशा में परिवर्तित करती है, वही प्रकृति इसके दुरूपयोग या विनाश पर विनाशकारी या भयावह भी हो सकती है । कवि का काव्य हमें यह संदेश देता है, कि यदि पर्यावरण का समुचित संरक्षण न किया गया तब जो प्रकृति हमें प्रकाश अर्थात् जीवन देती है, हमें हताश या क्षति पहुंचा सकती है । अत: हमें प्रकृति के महत्व को समझकर पर्यावरण का संरक्षण करना आवश्यक है, जिससे जन जीवन में प्रकाश विद्यमान रह सके ।
प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग
जिसके परिमल से व्याकुल हो श्यामल कलरव सब उठे जाग
आलोक रश्मि से बुने उषा अंचल में आंदोलन अमंद
करता, प्रभात का मधुर पवन सब ओर वितरने को मरंद
उस रम्य फलक पर नवल चित्र-सी प्रकट हुई सुन्दरबाला
वह नयन महोत्सव को प्रतीक अम्लान नलिन की नव माला
सुष्मा का मंडल सुस्मित सा बिखराता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग
उपरोक्त काव्य पंक्तियों में प्रसादजी ने सौन्दर्य व प्रकृति में पारस्परिकता दर्शाते हुए यह बताया है कि सौन्दर्य ही प्रकृति है और प्रकृति ही सौन्दर्य है । अर्थात् काव्य का सौन्दर्य भी प्रकृति से ही विद्यमान होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृति की महत्ता को दर्शाते हुए पर्यावरण के गूढ रहस्यों एवं तथ्यों को उद्घाघित कर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागृति लाने की पूर्ण चेष्टा की है । अत: यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि छायावादी काव्यों में पर्यावरण चेतना लाने में जयशंकर प्रसादजी की भूमिका अतुलनीय है ।
छायावादी काव्य में ही वर्तमान युग के जनजीवन की व्यापकता की अभिव्यक्ति मिलती है । छायावादी काव्य पूर्ण और सर्वांगीण जीवन के उच्च्तम आदर्श को व्यक्त करने का प्रयास करना है । जयशंकर प्रसादकी कामायनी इस काव्य स्वीकृति का चरम है । इन्हीं कारणों से यह आधुनिक छायावादी काल कहलाया ।
छायावादी काव्य को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैशिष्ट्य एवं पहचान देने वाले कवियों में एक नाम है- जयशंकरप्रसाद । इसका कारण मात्र उनकी रचनात्मक ऊँचाई ही नहीं, बल्कि इतिहास का वह मुहुर्त भी है, जिसके दबावों और प्रेरणाआें ने उनकी रचनाशीलता को विशेष दिशा प्रदान की है ।
हिन्दी काव्य की छायावादी धारा के प्रमुख कवियों में युगांतकारी कवि जयशंकर प्रसाद का नाम पहले लिया जाता है । उनकी काव्य-दृष्टि विलक्षण थी और रचना-सामर्थ्य अद्भुत था । उन्होंने कविता को वह असामान्य ऊँचाई और गरिमा प्रदान की, जिसके कारण आज भी उस दौर को खड़ी बोली कविता का उत्कर्ष-काल माना जाता है । कामायनी जैसा महाकाव्य उन्हीं की देन है, जो हिंदी ही नहीं भारतीय साहित्य का गौरव-ग्रंथ है ।
छायावादी काव्य को प्रकृतिपरक काव्य भी माना गया है । जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ कामायनी, आँसू, झरना, लहर, कानन कुसुम आदि में प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया गया है । प्रसाद जी ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृतिपरक रचनाआें के माध्यम से मानव जीवन में पर्यावरण में पर्यावरणका पारस्परिक सम्बन्ध एवं महत्व दर्शाया गया है । अपने काव्यों के माध्यम से प्रसाद जी ने पर्यावरण के प्रति जनजागृति लाने का अथक प्रयास किया है । प्रकृति से वर्णित उनके अधिकांश काव्यों में पर्यावरण के प्रति उपकी रूचि एवं गंभीरता दृष्टिगोचर होती है । प्रसादजी ने अपने काव्यों में पर्यावरण के महत्व को अभिव्यक्त कर यह बताया है कि पर्यावरण क्या है मानव जीवन पर उसका कितना व्यापक प्रभाव है ?
मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं । जहां मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है, वहीं मानव द्वारा निरन्तर किये जा रहे पर्यावरण के विनाश या क्षति के विषय में चिन्तन करते ही हमें भविष्य की चिंता सताने लगती है । यह आँतरिक पीड़ा हम अतर्मन से झकझोर कर रख देती है । जहां पर्यावरण एवं मानव का सम्बन्ध आदिकाल से रहा वहीं हमारे प्राचीन वेदों ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेेद एवं अथर्ववेद में भी पर्यावरण का महत्व दर्शाया गया है । पर्यावरण शब्द का संक्षेप में इस तरह समझा जा सकता है - परि अर्थात् चारों ओर आवरण अर्थात् ढंका हुआ या घिरा हुआ । मानव जीवन के चारों ओर जो भी आवरण है उसे पर्यावरण कहा जाता है । पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, वन, वनस्पति, जीव-जन्तु, वृक्ष इत्यादि और वे सभी जिनके मध्य मानव जीवन जीवित रहता है । वे सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं एवं एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं ।
भारतीय संस्कृति में वन और वनस्पति का बहुत अधिक महत्व रहा है । हमारे ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे । प्रकृति से उनका गहन संबंध था । वैदिक ऋचाआें का निर्माण भी वनों में स्थित आश्रमों में हुआ था । मानव, वन्य जीव-जन्तु, वृक्ष, पर्वत, सरितायें, ऋतुएं आदि सभी परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं तथा पर्यावरण के अभिन्न अंग है । परायुग में वन, सन्यासी जीवन के तप का प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे । यह वानप्रस्थ आश्रम की निरूक्ति से भी सिद्ध है : वाने वन समूहे प्रतिष्ठते इति । यह उल्लेखनीय है, कि वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, सूत्रग्रंथों आदि में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के भव्योज्जवल रूप प्रतिनिहित हैं, जिनकी रचना वनाश्रमों में हुई है ।
प्राचीन युग में भी पर्यावरण का अत्यन्त महत्व हुआ करता था । उस युग में वनाश्रमों की प्रकृति या ग्रामीण संस्कृति से ही नागरिक संस्कृति या राजतंत्रात्मक संस्कृति का नियंत्रण होता था । तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में भी पर्यावरण का अतिशय महत्व हुआ करता था । वैदिक परम्पराआें से लेकर वर्तमान काल में भी वृक्षों की पूजा का विशिष्ट महत्व है । वृक्षों के पूजन से वृक्षों का संरक्षण व संवर्धन भी स्वत: ही हो जाता है । भारतीय संस्कृति मेंपीपल व बरगद विशिष्ट रूप से पूजनीय हैं ।
जहां हिन्दी साहित्य में आदिकाल (संवत् १०५०) से लेकर रीतिकाल (संवत् १९००) तक किसी ने किसी रूप में कवियों ने काव्य में प्रकृति एवं पर्यावरण को वर्णित किया है, वहीं आधुनिक काल (संवत् १९००-आज तक) से छायावादी काव्यों में पर्यावरण के प्रति प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होने लगी । इस काल के छायावादी कवियों मैथिलीशरण गुप्त्, मुकुटधर पाण्डे, नन्ददुलारे वाजपेई, पं. सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्च्न आदि ने अपने काव्यों में प्रकृति एवं पर्यावरण सौन्दर्य का चित्रण सुन्दरता के साथ किया है । इसे आधुनिक या गद्यकाल का एक परिवर्तित युग भी कहा जाता है । हिन्दी साहित्य के काव्य की नवीनधारा (छायावाद) के प्रमुख स्तम्भों में एक नाम है - जयशंकर प्रसाद । प्रसादजी ने अपने काव्यों में प्रकृतिएवं पर्यावरण को सुन्दरता के साथ संजोया है । जिससे प्रसादजी का काव्य में पर्यावरण व प्रकृति के प्रति गहन चिन्तन परिलक्षित होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी, झ्ररना, लहर, आँसू, कानन-कुसुम, चन्द्रगुप्त्, एक घूँट आदि में पर्यावरण के महत्व को दर्शाते हुए उनका सुन्दर चित्रण किया है । प्रसाद के काव्य इडा की सुन्दर पंक्तियाँ :-
देखे मैंने वे शैल ऋँग,
जो अचल हिमानी से रंजित, उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग
अपने जड़ गौरव के प्रतीक वसुधा का कर अभिमान भंग
अपनी समाधि में रहे सुखी बह जाती हैं नदियां अबोध
कुछ सवेत बिन्दु उसके लेकर वह स्तिभित नयन गत शोक क्रोध
स्थिर मुक्ति, प्रतिष्ठा में वैसी चाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध गति मरूत सदृश हॅू चाह रहा अपने मन की
जो चूम चला जाता अग जग प्रति पग में कंपन की तंरग
वह ज्वलनशील गतिमय पतंगा ।
इस दुखमय जवीन का प्रकाश -
नभ नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आसपास
कितना बीहड़ पथ चला और पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर रोता मैं निर्वाचित अशांत
इस नियति नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद असफलता अधिक कुलांच रही
पावस रजनी में जुगूनु गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश ।
जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी के काव्य इड़ा की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा एवं पर्यावरण के महत्व को दर्शाया है । प्रसाद की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा उसके स्वयं के कारण होना दर्शित होता है । जो प्रकृति हमारे जीवन की आशा को निराशा को आशा में परिवर्तित करती है, वही प्रकृति इसके दुरूपयोग या विनाश पर विनाशकारी या भयावह भी हो सकती है । कवि का काव्य हमें यह संदेश देता है, कि यदि पर्यावरण का समुचित संरक्षण न किया गया तब जो प्रकृति हमें प्रकाश अर्थात् जीवन देती है, हमें हताश या क्षति पहुंचा सकती है । अत: हमें प्रकृति के महत्व को समझकर पर्यावरण का संरक्षण करना आवश्यक है, जिससे जन जीवन में प्रकाश विद्यमान रह सके ।
प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग
जिसके परिमल से व्याकुल हो श्यामल कलरव सब उठे जाग
आलोक रश्मि से बुने उषा अंचल में आंदोलन अमंद
करता, प्रभात का मधुर पवन सब ओर वितरने को मरंद
उस रम्य फलक पर नवल चित्र-सी प्रकट हुई सुन्दरबाला
वह नयन महोत्सव को प्रतीक अम्लान नलिन की नव माला
सुष्मा का मंडल सुस्मित सा बिखराता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग
उपरोक्त काव्य पंक्तियों में प्रसादजी ने सौन्दर्य व प्रकृति में पारस्परिकता दर्शाते हुए यह बताया है कि सौन्दर्य ही प्रकृति है और प्रकृति ही सौन्दर्य है । अर्थात् काव्य का सौन्दर्य भी प्रकृति से ही विद्यमान होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृति की महत्ता को दर्शाते हुए पर्यावरण के गूढ रहस्यों एवं तथ्यों को उद्घाघित कर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागृति लाने की पूर्ण चेष्टा की है । अत: यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि छायावादी काव्यों में पर्यावरण चेतना लाने में जयशंकर प्रसादजी की भूमिका अतुलनीय है ।
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