कृषि जगत
खेती किसानी का बढ़ता संकट
जयन्त वर्मा
आज भी देश की सत्तर फीसदी आबादी कृषि पर आश्रित है । लेकिन कृषि नीतियों की मार की वजह से कृषक समाज संकट की स्थिति में है । अब तक पौने तीन लाख किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। खेती किसानी के तात्कालिक संकट से उबरने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने की जरूरत है ।
देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में सरकारी नीतियों के कारण गंभीर संकट छाया हुआ है । कृषक का खेती से मोहभंग हो गया है क्योंकि कृषि कार्य घाटे का सौदा बनता जा रहा है । नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०११ के दौरान देश के २ लाख ७० हजार किसान आत्महत्या कर चुके है । केन्द्र सरकार द्वारा योजनाबद्ध तरीके छोटे और सीमांत किसानों से कृषि भूमि हथिया कर खेती-किसानी का कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है ।
वर्तमान में देश की आबादी १२० करोड़ है तथा खाघान्न उत्पादन के मामले में न केवल हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं बल्कि देश से खाघान्न का निर्यात भी किया जा रहा है । १९५० की तुलना में लगभग चार गुना खाघान्न उत्पादन के बावजूद वर्ष २०१२ में सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान ५३.१ प्रतिशत से घटाकर १३.९ प्रतिशत कर दिया गया है ।
खेती किसानी का बढ़ता संकट
जयन्त वर्मा
आज भी देश की सत्तर फीसदी आबादी कृषि पर आश्रित है । लेकिन कृषि नीतियों की मार की वजह से कृषक समाज संकट की स्थिति में है । अब तक पौने तीन लाख किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। खेती किसानी के तात्कालिक संकट से उबरने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने की जरूरत है ।
देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में सरकारी नीतियों के कारण गंभीर संकट छाया हुआ है । कृषक का खेती से मोहभंग हो गया है क्योंकि कृषि कार्य घाटे का सौदा बनता जा रहा है । नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०११ के दौरान देश के २ लाख ७० हजार किसान आत्महत्या कर चुके है । केन्द्र सरकार द्वारा योजनाबद्ध तरीके छोटे और सीमांत किसानों से कृषि भूमि हथिया कर खेती-किसानी का कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है ।
वर्तमान में देश की आबादी १२० करोड़ है तथा खाघान्न उत्पादन के मामले में न केवल हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं बल्कि देश से खाघान्न का निर्यात भी किया जा रहा है । १९५० की तुलना में लगभग चार गुना खाघान्न उत्पादन के बावजूद वर्ष २०१२ में सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान ५३.१ प्रतिशत से घटाकर १३.९ प्रतिशत कर दिया गया है ।
खाघान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा घोषित किए जाते हैं । समर्थन मूल्य में लागत तथा किसान का श्रम-मूल्य में लागत तथा किसान का श्रम-मूल्य शामिल होता है । राष्ट्रीय किसान आयोग के अनुसार कृषि की वर्तमान पद्धति में ८० प्रतिशत लागत तथा मात्र २० प्रतिशत श्रम मूल्य होता है । उर्वरकों की सब्सिड़ी घटा देने से लागत बढ़ रही है और सरकार द्वारा खाघान्न के मूल्य कम रखने के कारण श्रम मूल्य घटता जा रहा है ।
वर्ष २००६-०७ में ५,८३,३८७ करोड़ का केन्द्रीय बजट था । उस वर्ष किसान को कर्ज हेतु १,७५,००० करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो केन्द्रीय बजट के ३० फीसदी के बराबर था । वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,००० करोड़ रूपये का है और इस वित्तीय वर्ष में किसान को कर्ज देने के लिए ५,७५,००० करोड़ रूपये का प्रावधान है, जो कुल बजट के ३८,६७ प्रतिशत के बराबर है । भारत सरकार के बजट में रक्षा मद पर ११ प्रतिशत का व्यय निर्धारित है जबकि किसान को कर्ज देने के लिए ३८.५७ प्रतिशत धनराशि का प्रावधान किया गया है । सरकार ने किसान को बैंक का कर्जा और ब्याज पटाने वाला बंधुआ मजदूर बना दिया है । कर्ज नहीं पटाने की दशा में बैकों के पास गिरवी रखी उसकी जमीन राजसात हो जाती है । स्वाभिमानी किसान इस सदमे को झेलने के पूर्व आत्महत्या कर लेता है ।
विश्व बैंक द्वारा २००१ में जारी विश्व विकास संकेतकों पर आधारित भारत के योजना आयोग द्वारा तैयार दृष्टिपत्र २०२० में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान १३.९ था, जिसे ८ वर्ष में ६ फीसदी पर ले जाना है अर्थात् प्रतिवर्ष १ प्रतिशत की दर से कृषि क्षेत्र का योगदान घटाने के हिसाब से खाघान्न का समर्थन मूल्य तय किया जावेगा । वर्ष २०१२-१३ में देश का सकल घरेलू उत्पाद १०१ लाख करोड़ रूपये अनुमानित है । इसका १ फीसदी १ लाख करोड़ रूपये होगा । अत: विगत वर्ष दिये गये कृषि उत्पादों के कुल समर्थन मूल्य से चालू वर्ष में १ लाख करोड़ रूपये की कटौती कर ली जावेगी । इस कटौती की तुलना में केन्द्रीय बजट में कृषि और सम्बद्ध क्रियाकलापों पर १७,६९२ करोड़, मनरेगा सहित समूचे ग्रामीण विकास पर ५०,७२९ करोड़ और सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण पर १.२७५ करोड़ मिलाकर भारत की ७० फीसदी ग्रामीण आबादी पर बजट में केन्द्रीय आयोजना के तहत कुल ६९,६९६ करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है । किसान के श्रम मूल्य से की गई कटौती में से भी लगभग ३० हजार करोड़ रूपये केन्द्रीय बजट में बचा लिया गया है । ग्रामीण विकास और कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उपेक्षा और किसानों के शोषण की नीति को सरकार के यह वित्तीय प्रावधान स्पष्ट करते हैं ।
चौदहवीं लोकसभा की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने उत्तरप्रदेश, बिहार आदि राज्यों में ऋण अदा न कर पाने वाले किसानों को गिरफ्तार कर उनसे ही जेल का खर्च वसूल करने के प्रावधान को अन्यायपूर्ण निरूपित करते हुए कहा था ऐसे देश में जहां पर शातिर अपराधियों को जेल में मुफ्त खाना और कक्ष मिलता है, कैसे किसी कानून में बंदी किसानों से भोजन, यातायात तथा अन्य खर्च को वसूल करने का प्रावधान किया गया है और क्यों नहीं इस कानून का उपयोग ऋण अदा न करने वाले उद्योगपतियों तथा कारोबार हेतु ऋण लेने वाले लोगों के कारावास के लिए किया जाता है । सरकार को इस कठोर कानून को शीघ्र समाप्त् करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए ।
सरकार ने हरित क्रांति की आड़ में किसानी में एग्री बिजनेस की घुसपैठ करके किसान का भरपूर शोषण कर उसे कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा दिया और आत्महत्या के लिए विवश किया । अब योजना आयोग तथा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय जीनान्तरित बीज (जी.एम.सीड्स) के माध्यम से अमेरिकी बीज उत्पादक कम्पनियों की भारतीय खेती में घुसपैठ कराने पर आमादा है । कृषि अध्ययन और शोध के लिए सम्पन्न भारत-अमेरिकी समझौते का लागू करने के लिए गठित अमेरिकी बोर्ड के सदस्यों में मोन्सेन्टो और वालमार्ट जैसी कम्पनियों के प्रतिनिधियों को रखकर भारतीय कृषि क्षेत्र को अमेरिकी कार्पोरेट घरानों का चारागाह बनाने की तैयार कर ली गई है ।
किसान के संकट के मूल में मुख्य तीन कारण निम्न हैं -
(१) खेती किसानी में लागत अधिक लगना और इसके अनुपात में मूल्य कम प्राप्त् होना ।
(२) कृषि ऋण पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क), जो मूलधन से अधिक ब्याज न लेने के १९१८ से प्रचलित प्रावधान को बाधित करती हैं ।
(३) सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरन्तर घटाया जाना ।
खेती किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल ये कदम उठाये जाने की आवश्यकता है -
(१) खाघान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाए कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान क्रमश: बढ़कर ४५ फीसदी हो जाये । यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाये । अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की मेंपिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए ।
(२) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाये । ऋण अदा न कर पाने वाले किसानों को गिरफ्तार कर जेल भेजने और जेल का खर्च भी उन्हीं से वसूलने के प्रावधान को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये ।
(३) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र में रखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । खेती किसानी में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाए तथा एग्रो बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए । कृषि कार्य में लगे किसानों को कुशल मजदूर का दर्जा देकर तदनुसार उसके श्रम का मूल्यांकन किया जाये । मनरेगा में छोटे और सीमांत किसानों द्वारा अपने खेत में किये जाने वाले श्रम को भी शामिल किया जाए ।
(४) कृषि उत्पादों के आयात की खुली छूट पर अंकुश लगाया जाये । उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी बहाल की जाये । कृषि भूमि के अन्य उपयोग हेतु अधिग्रहण पर रोक लगाई जाये । भूमि सुधार के कार्यो में तेजी लाई जाए । कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देकर कार्पोरेट फार्मिग के लिए स्थान बनाने की नीति का परित्याग किया जाए ।
(५) कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश को पांच गुना अधिक बढ़ाया जाए और कृषि, सिंचाई तथा विघुत संबंधी योजनाआें को प्राथमिकता दी जाये । कृषि भूमि के अधिग्रहण से विस्थापित हुए किसानों का सम्मानजनक पुनर्वास किया जाये । जीनान्तरित तकनीक वाले बीजों से होने वाले सम्भावित नुकसान को रोकने के लिए कृषि में जी.एम. तकनीक पर रोक लगाई जाये ।
वर्ष २००६-०७ में ५,८३,३८७ करोड़ का केन्द्रीय बजट था । उस वर्ष किसान को कर्ज हेतु १,७५,००० करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो केन्द्रीय बजट के ३० फीसदी के बराबर था । वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,००० करोड़ रूपये का है और इस वित्तीय वर्ष में किसान को कर्ज देने के लिए ५,७५,००० करोड़ रूपये का प्रावधान है, जो कुल बजट के ३८,६७ प्रतिशत के बराबर है । भारत सरकार के बजट में रक्षा मद पर ११ प्रतिशत का व्यय निर्धारित है जबकि किसान को कर्ज देने के लिए ३८.५७ प्रतिशत धनराशि का प्रावधान किया गया है । सरकार ने किसान को बैंक का कर्जा और ब्याज पटाने वाला बंधुआ मजदूर बना दिया है । कर्ज नहीं पटाने की दशा में बैकों के पास गिरवी रखी उसकी जमीन राजसात हो जाती है । स्वाभिमानी किसान इस सदमे को झेलने के पूर्व आत्महत्या कर लेता है ।
विश्व बैंक द्वारा २००१ में जारी विश्व विकास संकेतकों पर आधारित भारत के योजना आयोग द्वारा तैयार दृष्टिपत्र २०२० में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान १३.९ था, जिसे ८ वर्ष में ६ फीसदी पर ले जाना है अर्थात् प्रतिवर्ष १ प्रतिशत की दर से कृषि क्षेत्र का योगदान घटाने के हिसाब से खाघान्न का समर्थन मूल्य तय किया जावेगा । वर्ष २०१२-१३ में देश का सकल घरेलू उत्पाद १०१ लाख करोड़ रूपये अनुमानित है । इसका १ फीसदी १ लाख करोड़ रूपये होगा । अत: विगत वर्ष दिये गये कृषि उत्पादों के कुल समर्थन मूल्य से चालू वर्ष में १ लाख करोड़ रूपये की कटौती कर ली जावेगी । इस कटौती की तुलना में केन्द्रीय बजट में कृषि और सम्बद्ध क्रियाकलापों पर १७,६९२ करोड़, मनरेगा सहित समूचे ग्रामीण विकास पर ५०,७२९ करोड़ और सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण पर १.२७५ करोड़ मिलाकर भारत की ७० फीसदी ग्रामीण आबादी पर बजट में केन्द्रीय आयोजना के तहत कुल ६९,६९६ करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है । किसान के श्रम मूल्य से की गई कटौती में से भी लगभग ३० हजार करोड़ रूपये केन्द्रीय बजट में बचा लिया गया है । ग्रामीण विकास और कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उपेक्षा और किसानों के शोषण की नीति को सरकार के यह वित्तीय प्रावधान स्पष्ट करते हैं ।
चौदहवीं लोकसभा की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने उत्तरप्रदेश, बिहार आदि राज्यों में ऋण अदा न कर पाने वाले किसानों को गिरफ्तार कर उनसे ही जेल का खर्च वसूल करने के प्रावधान को अन्यायपूर्ण निरूपित करते हुए कहा था ऐसे देश में जहां पर शातिर अपराधियों को जेल में मुफ्त खाना और कक्ष मिलता है, कैसे किसी कानून में बंदी किसानों से भोजन, यातायात तथा अन्य खर्च को वसूल करने का प्रावधान किया गया है और क्यों नहीं इस कानून का उपयोग ऋण अदा न करने वाले उद्योगपतियों तथा कारोबार हेतु ऋण लेने वाले लोगों के कारावास के लिए किया जाता है । सरकार को इस कठोर कानून को शीघ्र समाप्त् करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए ।
सरकार ने हरित क्रांति की आड़ में किसानी में एग्री बिजनेस की घुसपैठ करके किसान का भरपूर शोषण कर उसे कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा दिया और आत्महत्या के लिए विवश किया । अब योजना आयोग तथा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय जीनान्तरित बीज (जी.एम.सीड्स) के माध्यम से अमेरिकी बीज उत्पादक कम्पनियों की भारतीय खेती में घुसपैठ कराने पर आमादा है । कृषि अध्ययन और शोध के लिए सम्पन्न भारत-अमेरिकी समझौते का लागू करने के लिए गठित अमेरिकी बोर्ड के सदस्यों में मोन्सेन्टो और वालमार्ट जैसी कम्पनियों के प्रतिनिधियों को रखकर भारतीय कृषि क्षेत्र को अमेरिकी कार्पोरेट घरानों का चारागाह बनाने की तैयार कर ली गई है ।
किसान के संकट के मूल में मुख्य तीन कारण निम्न हैं -
(१) खेती किसानी में लागत अधिक लगना और इसके अनुपात में मूल्य कम प्राप्त् होना ।
(२) कृषि ऋण पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क), जो मूलधन से अधिक ब्याज न लेने के १९१८ से प्रचलित प्रावधान को बाधित करती हैं ।
(३) सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरन्तर घटाया जाना ।
खेती किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल ये कदम उठाये जाने की आवश्यकता है -
(१) खाघान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाए कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान क्रमश: बढ़कर ४५ फीसदी हो जाये । यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाये । अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की मेंपिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए ।
(२) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाये । ऋण अदा न कर पाने वाले किसानों को गिरफ्तार कर जेल भेजने और जेल का खर्च भी उन्हीं से वसूलने के प्रावधान को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये ।
(३) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र में रखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । खेती किसानी में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाए तथा एग्रो बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए । कृषि कार्य में लगे किसानों को कुशल मजदूर का दर्जा देकर तदनुसार उसके श्रम का मूल्यांकन किया जाये । मनरेगा में छोटे और सीमांत किसानों द्वारा अपने खेत में किये जाने वाले श्रम को भी शामिल किया जाए ।
(४) कृषि उत्पादों के आयात की खुली छूट पर अंकुश लगाया जाये । उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी बहाल की जाये । कृषि भूमि के अन्य उपयोग हेतु अधिग्रहण पर रोक लगाई जाये । भूमि सुधार के कार्यो में तेजी लाई जाए । कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देकर कार्पोरेट फार्मिग के लिए स्थान बनाने की नीति का परित्याग किया जाए ।
(५) कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश को पांच गुना अधिक बढ़ाया जाए और कृषि, सिंचाई तथा विघुत संबंधी योजनाआें को प्राथमिकता दी जाये । कृषि भूमि के अधिग्रहण से विस्थापित हुए किसानों का सम्मानजनक पुनर्वास किया जाये । जीनान्तरित तकनीक वाले बीजों से होने वाले सम्भावित नुकसान को रोकने के लिए कृषि में जी.एम. तकनीक पर रोक लगाई जाये ।
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