मंगलवार, 15 जनवरी 2013

ज्ञान विज्ञान
मछलियों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव

    जलवायु परिवर्तन किस हद तक पूरे वातावरण को प्रभावित कर सकता है इसका खुलासा हाल ही में किए एक शोध में पाया गया है । जिसमें कहा गया है कि समुद्रों के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से मछलियां आकार में सिकुड़ सकती है । यानी मछलियों का आकार छोटा हो सकता है । 

     समुद्र में पाई जाने वाली मछलियों की ६०० प्रजातियों की कम्प्यूटर मॉडलिंग पर आधारित एक कनाडाई अध्ययन के मुताबिक आने वाले ५० साल में मछलियों के शारीरिक भार में १४ से २० प्रतिशत तक की कमी हो सकती है । ब्रिटिश कोलम्बिया विवि का अध्ययन दुनिया में पहला ऐसा अध्ययन है जिसमें कहा गया है कि समुद्रों में पानी के बढतें तापमान व वहां कम होती ऑक्सीजन से मछलियों का आकार घट सकता है । नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल के मुताबिक यूबीसी शोधकर्ताआें ने पाया कि मछलियों के अधिकतम शारीरिक भार में वर्ष २००० से २०५० तक १४ से २० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । ब्रिटिश कोलम्बिया से एक व्क्तव्य के मुताबिक यूबीसी फिशरीज सेंटर में सहायक प्रोफेसर व अध्ययनकर्ता विलियम चेंग ने कहा कि मछलियों केआकार में इतनी ज्यादा कमी देखकर हम खुद अचम्भित हुए है । अध्ययन में कहा गया कि समुद्री मछलियों का जलवायु परिवर्तन व मौसमी परिवर्तन का पता लगाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है । लेकिन उनके शारीरिक आकार पर यह प्रभाव बताता है कि हम शायद समुद्र मेंजलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने मेंएक बड़ी पहेली को छोड़ रहे थे ।
    सह-अध्ययनकर्ता व यूबीसी की सी-अराउंड अस परियोजना के मुख्य शोधकर्ता डेनियल पॉली कहते है कि मछलियों का विकास ऑक्सीजन की आपूर्ति से प्रभावित होता है । श्री पॉली ने कहा कि मछलियों के लिए अपनी वृद्धि के लिए पानी से पर्याप्त् मात्रा में ऑक्सीजन प्राप्त् करना एक सतत चुनौती है । मछलियों के आकार में बढ़ने पर स्थिति और भी खराब हो जाती है । जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गर्म व कम ऑक्सीजन वाले समुद्र में बड़ी मछलियोंं के लिए पर्याप्त् ऑक्सीजन प्राप्त् करना कठिन हो जाएगा, इसका मतलब है कि उनकी वृद्धि रूक जाएगी ।

दिमाग कैसे करता है काम

    आखिर इतने छोटे से दिमाग में ढेर सारी बातें आती कहां से हैं और  यह कैसे काम करता है, यह सवाल लगभग सभी के मन में हमेशा से ही कौतुहल पैदा करता रहता है । जो अभी तक अनुबुझ पहेली की तरह ही रहा  है । मगर अब वैज्ञानिकों ने दिमाग के काम करने के तरीकों की खोज कर ली है ।  

     डेली मेल की रिपोर्ट के मुताबिक कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले की टीम ने पता लगाया है कि दिमाग दिनभर चलने वाली चीजों और क्रियाकलापों को व्यवस्थित तरीके सेएक क्रम में संजोता जाता है । इस प्रक्रिया को समझाने के लिए शोधकर्ताआें ने कम्प्यूटर की मदद से दिमाग द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले तत्वों को एक जगह रखा । उन्होंने शोध के लिए चुने लोगों को कुछ घंटों तक वीडियों क्लिप्स दिखाए । इस दौरान लोगों के दिमाग में जो गतिविधियां हुइंर्, उन्हें रिकॉर्ड किया गया । इस तरह से दिमाग के कामकाज का नक्शा तैयार हुआ ।

आइसक्रीमसे कार फ्यूल बनाने में मिलेगी मदद
    आइसक्रीमका नाम सुनते ही मुंह में पानी आना स्वाभाविक है । मगर इसको पंसद करने वालों को अब इस बात के लिए भी खुश होना चाहिए कि आपकी यह आइसक्रीम न सिर्फ आपके मुंह का स्वाद बढ़ाएगी बल्कि अब यह आपकी कार क ो चलाने में भी मदद करेगी । जी हां, वैज्ञानिकों ने एक नए बायो-कैटेलिस्ट की पहचान की है, जिससे आइसक ्रीम, सोप (साबुन)और शैम्पू  में पाए जाने वाले हाइड्रोकार्बन केमिकल को इंर्धन के रूप में प्रयोग किया जा सकेगा । यह अनोखा इंर्धन कार के लिए पूरी तरह से तैयार है । 

    मैनचेस्टर  यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकोंका माननाहै कि इस खोज का का उपयोग न सिर्फ कारों के फ्यूल में वरन घर की बिजली सप्लाई में भी उपयोग किया जा सकता है । यह फ्यूल मुख्य रूप से प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले फैटी एसिड्स से बनाया जा सकता है । प्रोफेसर  निक टर्नर के नेतृत्व मेंकिए इस शोध में सिंथेटिक बायोलॉजी का उपयोग किया गया है । जिसके तहत फैटी एसिड्स में पाए जाने वाले प्राकृतिक यौगिक सीधे ही फैटी मॉलिक्यूल्स को इंर्धन में बदलने का कार्य करेंगे । हमारे रोजमर्रा के जीवन में हाइड्रोकार्बन केमिकल्स बहुतायात में पाए जाते हैं । ये आइसक्रीम में है तो साबुन की खुशबू में शैम्पू के गाढ़े तरल पदार्थ में और कार के इंर्धन में भी । इनमें पाए जाने वाले बड़ी संख्या में कार्बन मॉलिक्यूल वे चाहे उसीड,एल्डिहाइट, अल्कोहल या एल्केन हो सकते हैं ।
    ये अपने महत्वपूर्ण पैरामीटर के आधार कार्य करते हैं । बायोलॉजिकल आर्गेनिज्म के रूप में या फिर इंर्धनके रूप में  यह अरोमा कंपाउंड के रूप में कार्य करते हैं । यह अध्ययन जर्नल पीएनएएस में प्रकाशित की गई है । इन उदाहरणों को देखते हुए इस बात के लिए आश्वस्त हो जाना चाहिए कि फैली एसिड्स बायो कैटेलिस्ट के रूप मेंबेहतर कार्य कर सकते हैं और इनका निर्माण हम लैबोरेटरीज् में कर सकते हैं ।

सात हजार साल पहले भी बनाया जाता था चीज

    अभी रोजमर्रा में प्रयोग किया जाने वाला चीज कुछ समय पहले ईजाद नहीं हुआ बल्कि यह तकरीबन ७००० साल पहले भी बनाया जाता था । आर्कियोलॉजिस्ट ने एक पुराने विंटेज के आधार पर यह शोध किया है । बताया जा रहा है कि यह चीज सात हजार साल पहले पोलैंड में बनाया जाता  था । 

    खोज में मिट्टी के बर्तन का एक टुकड़ा मिला, जिसके केमिकल एनालिसिस में यह पाया गया कि यह मिट्टी का बर्तन विशेष रूप से ५००० ईसा पूर्व विशेष रूप से चीज बनाने के लिए ही तैयार किया गया था । यह बेहद आश्चर्यजनक है कि पूर्व मेंजो विटेंज था, वह पोलैंड के कुयाविया क्षेत्र से आया था । बजाए ब्रिटेन के सोमेरसेट और फ्रांस के बेरी क्षेत्र के, जो वर्तमान मेंचीज के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र कहलाते हैं । जानकारी के अनुसार  आर्कियोलॉजिस्ट ने खोज वाले स्थान पर  मिले मिट्टी के पात्रों के टुकड़ों में पाए जाने वाले फैटी एसिड्स की जांच की, जिसमें पाया गया कि उस समय भी डेयरी प्रोडक्ट सिरेमिक पात्रों में बनाए जाते हैं ।
    ब्रिस्टल स्थित ऑर्गेनिक जियोकेमेस्ट्री यूनिट के शोधकर्ताआें ने अपने अमेरिकी व पोलैंड के सहयोगियों के साथ मिलकर यह शोध किया हैं  । जिसमें पाया गया कि चीज का निर्माण ७००० साल पहले भी होता था । यह शोध नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया गया है ।

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