मंगलवार, 15 जनवरी 2013



प्रसंगवश
अंगों के पुनर्निर्माण की आशा धूमिल
     सब जानते हैं कि छिपकली की पूंछ एक बार कट जाए, तो दोबारा उग आती है । मगर हाल ही में खोजा गया है कि दोबारा उगी पूंछ मूल पूंछ के मुकाबले कमजोर होती है । इस खोज से क्षतिग्रस्त अंगों के पुनर्जनन की उम्मीदोंपर सवाल खड़े हो गए  हैं ।
    फीनिक्स स्थित एरिजोना विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ मेडिसिन की रेबेका फिशर और उनके साथियोंने ग्रीन एनोली छिपकली (एनोलिस केरोलिनेंसिस) की पुनर्निर्मित पूंछ और मूल पूंछ की शारीरिक संरचना में असमानता देखी है । यह छिपकली किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने पर अपनी पूंछ को छोड़कर भाग जाती है और बाद में उसके स्थान पर दूसरी पंूछ उग आती है ।
    इन दोनों पूंछों की तुलना करने पर पता चला कि मूल पूंछ रीढ़ की छोटी-छोटी हडि्डयों के जुड़ने से बनी थी जबकि पुनर्जनित पूंछ एक ही लंबी उपास्थि (कार्टिलेज) से बनी थी । दानों पूंछ की मांसपेशियों में भी अंतर था । जहां मूल पूंछ में छोटी-छोटी मांसपेशियों होती हैं, वही पुनर्जनित पूंछ में मांसपेशियां लंबी-लंबी थीं जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली थीं ।
    सुश्री फिशर का कहना है कि इन दोंनो अंतरों से ऐसा लगता है कि पुनर्जनित पूंछ कम लचीली होगी । छिपकली की पूंछ में छोटी-छोटी मांसपेशियां और हडि्डयों के बीच जोड़ के चलते बेहतर नियंत्रण संभव होता है जबकि एक ही लंबी कार्टिलेज नली और लंबे मांसपेशीय तंतुआें के साथ यह संभव नहींहोगा । फिशर को लगता है कि आगे अध्ययन बताएंगे कि इसका छिपकली की चपलता पर क्या असर होता है ।
    सुश्री फिशर ने कार्टिलेज की अच्छी तरह जांच-पड़ताल की तो पाया कि पूरी कार्टिलेज में बारीक छिद्र हैं । सिरे की ओर छिद्रों की संख्या ज्यादा है । इन छिद्रों में से रक्त नलिकाएं निकलती हैं मगर तंत्रिकाएं नहीं । कार्टिलेज के अंदर की तंत्रिकाएं अंदर ही रह  जाती हैं, और बहुत हुआ तो सिर्फ अंतिम सिरे पर मांसपेशियों तक पहुंच पाती हैं । दूसरी ओर, मूल पूंछ में रक्त वाहिकाएं और तंत्रिकाएं हडि्डयों के बीच की जगह से नियमित अंतराल पर निकलती हैं ।
    कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जॉसन पामेरॉन्ट्रज का कहना है कि इन दोनों संरचनाआें के बीच बड़ा अंतर है ।और उपरोक्त उदाहरण तो एक ऐसे जंतु का है जिसमें पुनर्जनन काफी अच्छे से होता है । इसका मतलब है कि इंसानों में तो अंगों का पुनर्जनन बहुत कठिन होगा । 
संपादकीय
विलुप्त् होती जा रही प्रजातियां की चिंता कौन करें ?

               हमारे आसपास के जीव-जन्तु और पौधे खत्म होते जा रहे हैं, हम केवल चिंता और चिंतन कर रहे हैं, दूसरों के जीवन को समाप्त् करके आदमी अपने जीवन चक्र को कब तक सुरक्षित रख पाएगा ? ईश्वर के बनाए हर जीव का मनुष्य के जीवन चक्र में महत्व है । क्या मनुष्य दूसरे जीव के जीवन में जहर घोल कर अपने जीवन में अमृत कैसे पाएगा ?
    अगले सौ वर्षो में धरती से मनुष्यों का सफाया हो जाएगा । ये शब्द आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फ्रैंक फैंमर के है । उनका कहना है कि जनसंख्या विस्फोट और प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा इस्तेमाल की वजह से इन्सानी नस्ल खत्म हो जाएगी । साथ ही कई और प्रजातियाँभी नहीं रहेगी, यह स्थिति आइस-एज या किसी भयानक उल्का पिंड के धरती से टकराने के बाद की स्थिति जैसी होगी।
    हम देख रहे है कि धीरे-धीरे धरती से बहुत सारे जीव-जन्तु विदा हो गए, दुनिया से विलुप्त् प्राणियों की रेड लिस्ट लगातार लम्बी होती जा रही  है । इन्सानी फितरत और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधंुध दोहन ने हजारों जीव प्रजातियों और पादप प्रजातियों को हमारे आसपास से खत्म कर दिया है । औद्योगिक खेती और शहरी-ग्रामीण विकास में वनों के विनाश ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । अकेले भारत में ही लगभग १३३६ पादप प्रजातियां असुरक्षित और संकट की स्थिति में मानी गई है । एक रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती से ७२९१ जीव प्रजांतियाँ इस समय विलुिप्त् के कगार पर हैं, वनस्पतियों की ७० फीसदी प्रजातियों और पानी में रहने वाले जीवों की ३७ फीसदी प्रजातियां और ११४७ प्रकार की मछलियों पर भी विलुिप्त् का खतरा मंडरा रहा है । वर्तमान समय में तीन रूझान ऐसे हैं जो मानव जाति के भविष्य पर मंडारते खतरे की ओर गंभीर संकेत कर रहे है - मौसम संबंधी आपदाआें में बढ़ोत्तरी, पीने के साफ पानी की बढ़ती माँग और मानव और पशु अंगों की कालाबाजारी धरती पर पिछली शताब्दी, पर्यावरण और मौसम संबंधी आपदाआें और दुर्घटनाआें की रही है जिसमें सूखा, अत्यधिक तापमान, बाढ़ और तूफान आदि शामिल है ।
गणतंत्र दिवस पर विशेष
पर्यावरण और विश्व शांति
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति ने सुख-समृद्धि के अनेक  संसाधन हमको अवश्य दिये हैं । किन्तु हमारी अंतहीन कामना वृद्धि ने अनेक वैश्विक समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं । एक और तो भौतिकतावादी उन्नति के कारण औद्योगिक विकास क्रांतिक स्तर पर हुआ दूसरी ओर प्रकृति की अतिशय हानि हुई और वह अक्षय प्राकृत कोष, जिनपर हमेंगुमान था रितने लगे । पर्यावरण असंतुलित हो उठा । सम्पूर्ण विश्व को इस विद्रुप से सावधान रहना होगा तथा सार्थक चिंतन-सृजन करना होगा ।
    पर्यावरण ध्वंस के परिणाम स्वरूप मानव की अंतर्चेतना में एक घुटन भरा संत्रास, अशांति और अकुलाहट भर गई । वस्तुत: यह महाविनाश की आहट है । भौतिक सुख-सुविधाआें तथा सम्पन्नता के बीच आदमी अशांत भ्रमित और परिक्लांत हो उठा । बाह्य जगत की चकाचौंध के पीछे उसे अंदर से अंधेरा महसूस होने लगा । आधुनिकता के विद्रुप वातावरण मेंउसका दम घुटने लगा । वह शांति की तलाश में भटकने लगा । शांति तो संतोष में है । शांति तो प्रकृति के मध्य   है । शांति की कामना ही हमारा आदिम लक्ष्य है । 

     आज हमारी धरती अशान्त  है । सागर अशांत है, वायुमण्डल अशांत है । मौसम अशांत है सम्पूर्ण पृथ्वी अशांत है । पृथ्वी की इस अशांत स्थिति में मनुष्य का सबसे बड़ा हाथ है । सब तरफ जीवन के अस्तित्व का संकट खड़ा हो रहा है । जीवन का अस्तित्व खतरे में है । एक पृथ्वी नाकाफी लगने लगी है और इसलिए सबको तलाश है एक और पृथ्वी की ताकि जीवन में कोई कमी न रहे । वर्तमान काल में जीवन शैली में प्रतिर्स्पद्धा बढ़ी है, महत्वाकांक्षाएं बढ़ी है । चारों और आंतक का साया है ऐस में मनुष्य ने अपने विज्ञान को हथियार बनाकर अंतरिक्ष को भी अशांत बनाया है । यह आदमी का विवेक है या अविवेक है ? यह विचारणीय प्रश्न है । हमारी महत्वकांक्षाआें ने ही विद्रुप दिया है । कुछ वर्ष पूर्व तक स्पेस वार विज्ञान गल्प के रूप में सामने आया था । तब अंतरिक्ष किस्से-कहानियों की काल्पनिक कथाआें में केन्द्रित रहता था । यद्यपि हमारे पुराणों में भी अनेक आख्यान हैं, जिनके अनुसार दुष्ट शक्तियाँ, दैवीय शक्तियों से लड़ते-लड़ते द्युलोक एवं अंतरिक्ष तक गई वहाँ जाकर उन मायावी दुष्टात्माआें का संहार हुआ ।
    आज वह स्थितियाँ बन गई हैं कि हमें पुन: मानवीय आचरण की पड़ताल करनी चाहिए । पृथ्वी को तो अशांत कर ही डाला है, अंतरिक्ष में आसन्न अशांति के कारकों की भर्त्सना करनी चाहिए । आज अंतरिक्ष समर क्षेत्र बन गया है । महाशक्त राष्ट्रों के बीच आसमान जीतने की होड़ शुरू हो गई है । हर कोई हर ग्रह पर अपने झंडे गाड़ देना चाहता है । ऐसे में हम अंतरिक्ष के खतरो की अनदेखी नहीं कर सकते है । अत: अब अंतरिक्ष में शांति भंग न हो इसकी पहरेदारी की निहायत जरूरत है । प्रश्न यह भी है कि कैसेऔर क्यों हुआ अंतरिक्ष में मानवीय हस्तक्षेप तथा किस प्रकार हम वैज्ञानिक उपलब्धियों को वरदान से अभिशाप की ओर ले जा रहे है ? अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । क्या सोचा है कि हम क्या खो रहे है और क्या पा रहे है ? प्रकृतिकी शक्तियों से क्या कोई जीत सका है ?  यह विचारणीय प्रश्न है ?
    हमें शांति की खोज, तत्व दर्शन के माध्यम से करनी होगी । व्यष्टि, समष्टि और सृृष्टि केन्द्रित करनी होगी । प्रकृति का आधार द्वैत है किन्तु जब तक हम द्वैत मेंउलझे रहेंगे तो हमें सच्ची शांति नहीं मिल सकती है । हमें इस द्वैत से बाहर निकल कर आत्मैक्य होना होगा । आत्मा की आवाज ही परमात्मा की आवाज होती है । प्रकृति और पर्यावरण का शाश्वत आधार संजोना होगा । हमें अपनी जड़ों को सींचना होगा । विश्व शांति पाने का यही एक मात्र आधार है । हम मनुष्य है अत: कर्म हेतु स्वतंत्र है । हमारी इस कार्यिक स्वतंत्रता स्वाधीनता का अर्थ है, आत्म चेतना के द्वारा प्रकृति और पर्यावरण की सेवा, संसार की सेवा । हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा है, जो हमारे भीतर देवत्व प्रतिष्ठित करती है । हमारे अंदर श्रेयस संस्कार जगाती है, हमें चेताती हैं ।
    हम अपनी मनोवृति में सुधार करके विश्व शांति में यसेगदान कर सकते हैं । हमें अपने जीवन का अहंकार की दृष्टि से ने देखकर आत्मा के दृष्टिकोण से देखना    होगा । पहले स्वयं को शांति का पुजारी बनाना होगा ।पहले हम अपने व्यक्तिगत जीवन को शांतिमय   बनायें । हम सही मनोदशा मेें रहना सीखें अर्थात अनासक्त भाव में रहना सीखें । हम अपनी कोमलकांत, प्राकृतिक भावनाआें को संसार की अनृतमयी कठोरता में न उलझायें वरन उसे अमृतमयी बनायें । आत्मा को शांत भाव में   रखें । हमारी आत्मा आंनद स्वरूप है अत: शांत चित्त रहें । हमें अंतस की गहराइयों से सोचना चाहिए । बाह्य द्वन्दों ये विचलित नहीं होना चाहिए । क्योंकि यदि हमारे भीतर शांति का निवास होता है तो हमें उसका विस्तार करने में, उसका विस्तार पाने में कठिनाई भी नहीं होती । तब शांति स्वयं प्रसारित एवं प्रभाषित होगी और सम्पूर्ण विश्व ही शांति के आंनद में डूब जायेगा और पर्यावरण स्वयमेव संतुलित एवं संरक्षित हो जायेगा ।
    प्रश्न यह भी है कि अब शांति कहाँ है । सम्पूर्ण विश्व में मारा-मारी है । आतंकवाद के आगे पसरी हुई  बेबसी ओर लाचारी है । मन में शांति नहीं, घर में शांति नहीं, समाज में शांति नहीं, राष्ट्र में शांति नहीं, विश्व में शांति नहीं, सब ओरअशांत वातावरण । इस असीम अशांति से उबार सकता है हमें हमारा धर्माचरण। धर्मधुरी तो परमपिता परमेश्वर है । वही अजर अमर अक्षर अविनाशी है । वही शांताकर है । - शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ...... । अत: हमें उन्हीं के शरणागत रहकर धर्म का आचरण करना चाहिए  । भगवत्प्रािप्त् से शांति की प्रािप्त् होती है । श्री कृष्ण ने गीता में शांति का अमोघ उपाय दिया है -
     तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन।
   तत्सादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्सयसि शाश्वतम् ।।
    अर्थात - हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा । उस परमेश्वर की कृपासे ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम कोे प्राप्त् होगा ।   
    मनीषियों का मत हैं कि शांति न तो असंभव है और न ही शांति का कोई विकल्प है । शांति में ही अचित्य सुख निहित है । कहा जाता है - अशान्तय कुत:सुखम । व्यक्तिगत एवं सामुदायिक चरित्र के उन्नयन द्वारा ही शांति पाई जा सकती है । जब तक इच्छाएं रहती है मन में अशांति रहती है । ज्यों ही मन से अंह जाता है, विश्व बंधुत्व की भावना आती है । विश्व ग्राम की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है, जब हमारी महत्वाकांक्षाआें पर विराम लगे । मनुष्य अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर लगाम कसे । अब शांति के लिए अहिंसा के हथियार का महत्व पहचाना गया है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने गाँधी जयन्ती (२ अक्टूबर) को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया है । सम्पूर्ण विश्व समुदाय ने यह बात स्वीकारी है कि शांति और अहिंसा परस्पर पूरक है । अहिंसा और शांति की बात गाँधी चर्चा के बिना अधूरी होगी । अत: यहाँ गाँधीजी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग का एक अंश उद्धरित है :-
    अहिसा व्यापक वस्तु है । हम हिंसा की होली के बीच घिरे हुए प्राणी है । यह वाक्य गलत नहीं है कि जीव जीव पर जीता है । मनुष्य एक क्षण के लिए भी बाह्य हिंसा के बिना जी नहीं सकता । खाते-पीते, उठते-बैठते, सभी क्रियाआें में इच्छा अनिच्छा से वह कुछ नकुछ हिंसा तो करता ही रहता है । यदि इस हिंसा से छूटने के लिए वह महाप्रयत्न करता है, उसकी भावना में केवल अनुकम्पा होती है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म जन्तु का भी नाश नहींचाहता और यथा शक्ति उसे बचाने का प्रयत्न करता है, तो वह अहिंसा का पुजारी है । उसके कार्यो में निरन्तर संयम की वृद्धि होगी, उसमें निरन्तर करूणा बढ़ती रहेगी । किन्तु कोई देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । दो राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ने पर अहिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति का धर्म है कि वह उस युद्ध को   रोके । जो इस धर्म का पालन न कर सके, जिसमें विरोध करने की शक्ति न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार प्राप्त् न हुआ हो, वह युद्ध कार्य में सम्मिलित हो और सम्मिलित होते हुए भी उसमें से अपने को, अपने देश को और सारे संसार को उबारने का हार्दिक प्रयत्न करें ।
    अहिंसा का विचार आदिकाल से चला आ रहा है । गाँधीजी ने इस विचार को अपनी श्रद्धा एवं विश्वास से सींचा, अपने आचरण एवं तप द्वारा व्यापक अर्थ दिया । अपने प्रयोग से जीवन में उतारा । उन्होने अहिंसा एवं शांति शब्दों के अर्थ में गाम्भीर्य भर दिया । वह अहिंसा को एक विधायक तेजस्वी रूप में उपयोग कर सके । उनकी अहिंसा व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक शक्ति के रूप में विकसित हुई और मन वचन कर्म तक    पहुँची । उनका विचार था कि अहिंसा का मुख्य निहितार्थ यह है कि हमारी अहिंसा हमारे प्रति विरोध के रूख को नरम एवं लचीला बनाये, कठोर नहीं, वह उसे द्रवित कर दे, आत्मानुभूत सहानुभूति से भर दे और गाँधीजी अपने इस मिशन में कामयाब भी रहे ।
    शांति बाहर से नहीं अंदर से मिलती है । जब अंतस शांत होगा तो बाहर स्वयं शांत नजर आयेगा । सांसारिक भौतिक दुष्चक्र में शांति कदापि नहीं मिल सकती है । आज चारों ओर युद्ध ही युद्ध है । यहाँ तक कि स्वयं से युद्धरत है आदमी । आध्यात्मिक बोध होते ही शांति का सूत्र हाथ में आ जाता है । जब हम भौतिक तथा पराभौतिक शक्तियों का समन्वय कर लेते है तो शांति स्वयं मिल जाती है । जब तक नकारात्मक शक्तियाँ बलवती रहती है हम अशांत रहते है । शांति अनुभव का विषय है यह नैसर्गिक गुण है । इसीलिए अनादिकाल से ही मनुष्य की चाहत में स्वभाविक रूप से शांति की कामना रही है ।
    यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो अंत:करण की सहज निर्विकार अवस्था ही शांति होती है । अंत:करण को निर्मल अवस्था में रखकर सहज ही शांति प्राप्त् की जा सकती है । यदि हम अपनी मनोवृत्तियों पर नियंत्रण रखें तो शांति अवश्य ही मिलेगी । हमारे चारों ओर की ऊर्जा हमारे वातावरण को प्रभावित करती है जिससे हमारे सतत सम्पर्क में आने वाले भी हमसे अच्छा या बुरा सानिघ्य प्राप्त् करते हैं । कहने का भाव यह है कि हमारी अशांति हमारे चारों ओर के परिवेश को भी अशांत करती है । इस तथ्य की पुष्टि हेतु उदाहरण हमारे सामने है । हमारे अंतस में शांति की कामना जितनी अधिक बलवती होगी उतनी ही प्रभाविता से वह दूसरों को शांति प्रदान कर सकेगी । पंतजलि योग दर्शन के अनुसार भी - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्याग: अर्थात अहिंसा की दृढ़ प्रतिज्ञ स्थिति होने पर, समीपस्थ अन्य जीव भी बैर को त्याग देते । भारतीय दर्शन में तो कहा जाता ही है कि यहाँ शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं ।
    कोई भी समस्या असंतोष से उपजती है । समस्याआें का सार्थक समाधान शास्त्र सम्मत संवाद से होता है शस्त्रों से नहीं । संवादहीनता ही संशयों को जन्म देती है । संशय का बीज विषवृक्ष के रूप में पल्लवित पुष्पित और फलित होता है । आतंकवाद हो अथवा अन्य कोई विवाद, हमें करूणा और मर्यादा के आधार पर संवाद बनाना चाहिए । शस्त्र तो तभी उठाना चाहिए जब किसी आर्त की करूण पुकार असत्य हो और शांति स्थापना के सारे द्वार बंद हो चुके हो । हमारी अवतार परम्परा, सूफियाना दर्शन तथा वाड्ग्मय यही सीख देता  है ।
    आध्यात्म के द्वारा मन को बदला जा सकता है । हमें शत्रु भाव त्याग कर दूसरे के मन जीतने का प्रयास करना चाहिए । वैश्विक स्तर पर हमारे मन कलुष से भरे हैं । वैचारिक प्रदूषण से लेकर भौतिक प्रदूषण ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है । मन की कलुषता ने हमारा मन भरमाया है । हमें इस भ्रम के भंवर से बाहर निकलना ही होगा, तभी सुरक्षित रह सकती है हमारी पृथ्वी, हमारा पर्यावरण और हमारा समाज । 
हमारा भूमण्डल
छोटे देश मेंपेड़ों की बड़ी दीवार
बॉबी बैसकॉम्ब

    जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अफ्रीका ने सेनेगल से लेकर जिबॉटी तक पेड़ों की १४ किलोमीटर चौड़ी और ६४०० किलोमीटर लम्बी हरित दीवार बनाना तय किया है । बढ़ते हुए रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिये बनी इस विवादास्पद परियोजना का अब सेनेगल में आकार मिलना शुरू हो गया है । यहां पहले ही ५०,००० एकड़ जमीन पर पेड़ लगा दिये हैं ।
    अटलांटिक महासागर की गोद में बसा एक छोटा सा प्रायद्वीप है - सेनेगल । राजधानी है डकार । जो विशाल देश चीन की तरह एक दीवार बना रहा है । पर यह दीवार पत्थरों की नहीं, पेड़ों की हैं जो हजारों मील दूर दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तान सहारा से उठने वाली रेतीली आंधियों के आक्रमण से मुकाबला करने के लिए है । विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस इलाके में पेड़ो की यह दीवार रेत की आंधी को रोक सकेगी और इलाके में समृद्धि भी ला सकेगी । इस पुनीत काम के लिए विश्व बैंक सहित अनेक दानदाता संस्थाएं भी आगे आई हैं । 

     डकार शहर ने इस साल कई रेतीले तूफान झेले   हैं । यहां रेतीली धूल इस कदर आती है कि उसके गुबार से ऊची इमारतेंतक ढ़क जाती है, इस तूफान ने यहां के निवासियों को झकझोर दिया है ।
    उष्ण कंटिबंधीय सेनेगल में मानसून का मौसम जुलाई-अगस्त में शुरू होता था पर मौसम के बदलाव के चलते यह मानसून अब सितम्बर में खसक चला है । सीमित वर्षा वाले इस इलाके में अब और कम बारिश होने लगी है । वर्ष भर में यहां औसतन मात्र ६०० मिमी वर्षा होती है । ऐसे में यहां के निवासियों के लिए अनाज पानी, चारा, आदि की समस्याएं मुहं बाएं खड़ी रहती हैं ।
    एक मोटे अनुमान के अनुसार अफ्रीका के कुल क्षेत्रफल का ४० प्रतिशत हिस्सा रेगिस्तानीकरण से प्रभावित है । संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगर यही हाल रहा तो सन् २०२५ तक अफ्रीका की एक तिहाई खेती वाली जमीन खत्म हो सकती है ।
    सेनेगल, अफ्रीका के साहेल क्षेत्र के उन ११ देशों में से एक है, जो रेगिस्तानीकरण की समस्या से निपटने के लिए एक समान विकल्प पर काम कर रहा है । बढ़ते रेगिस्तान को रोकने का विकल्प है - पेड़ों की घनी लम्बी दीवार बनाना । परियोजना के तहत पूरे अफ्रीका महाद्वीप में पश्चिमी हिस्से  सेनेगल से लेकर पूर्वी हिस्से जिबॉटी तक पेड़ों की १४ किलोमीटर चौड़ी और ६४०० किलोमीटर लंबी दीवार खड़ी करना है । अफ्रीकी राजनेताआें को उम्मीद है कि ये पेड़ रेत को वहां रोक लेंगे और इस तरह रेगिस्तान का बढ़ना रूक सकेगा ।
    सेनेगल में महान हरित दीवार परियोजना के तकनीकी निदेशक है - पाप सार । उनके अनुसार हमें आशा है कि एक बार दीवार बनना शुरू हो जाए तो डकार में रेत आना कम हो जाएगी ।
    डकार के दक्षिण पश्चिम में विदाउ गांव इस हरित दीवार परियोजना का शुरूआती हिस्सा है । यहां पर लगाए गए बबूल (अकेसिया) के पेड़ों उम्र चार बरस है और कमर तक ऊंचे और कांटेदार हैं । इन पेड़ों के चारों और तारों का घेरा है ताकि बकरियों एवं मवेशियों को चरने से रोका जा   सके ।
    पाप सार कहते हैं, मरूस्थली इलाके होने से यहां कौन-सा पेड लगेगा इसका चुनाव सोच समझकर किया है । ताकि इस इलाके में सबसे अच्छी तरह क्या उग सकता है इनकी सीख हमें यहां की प्रकृतिने दी है ।
    सेनेगल में प्रतिवर्ष लगभग २ लाख पेड़ लगाए जा रहे हैं । पर इन्हें रोपने का सही वक्त वर्षा वाला मौसम ही है । यहां के श्रमिक अकेसिया के छोटे से पौधे को मिट्टी में रोपते हैं और खाद के लिए मवेशी के मल का उपयोग करते हैं । इनमें से अधिकांश पौधे बबूल की एक प्रजाति निलोटिका के है, जिससे अरबी गोंद निकलता है, जिसका इस्तेमाल स्थानीय लोग उपराचार्थ करते हैं, और इसका फल पशुआें के खाने के काम आता है ।
    परियोजना की सफलता के लिए यह बहुत ही अहम है कि यहा वहीं पेड़ लगाए जाएं जो भविष्य में स्थानीय रहवासियों को फायदा दे सकें । सरकार की मंशा ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने की है । महान हरित दीवार निर्माण करना एक ऐसी ही विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीणों की मदद करना है ।
    सेनेगल साहेल क्षेत्र में पियूल जनजाति का प्रभाव है । पियूल लोग प्राय: परम्परागत चरवाहे हैं । ये पियूल इन पेड़ों की देखभाल करते है, और बगीचे लगा रहे हैं । इन बगीचों में गाजर, बंदगोभी, टमाटर, तरबूज उगाये जा रहे हैं । सप्तह में एक दिन घर की महिलाएं इन बगीचों की चौकीदारी करती है और सहेलियों के साथ खेलती-कूदती है । सब महिलाएं इससे खुश हैं । बेशक होना भी चाहिए आखिर उनके पास अब विभिन्न प्रकार की सब्जियां जो हैं पकाने के लिए । जरूरत जितनी सब्जियों को रखकर शेष को बाजार में बेच देते है इस तरह उनकी आमदनी भी हो जाती है ।
    पियूल समुदाय में महिला पुरूषों के बीच काम का स्पष्ट बंटवारा है । इसलिए महिलाएं जहां परियोजना के फायदे को बगीचे के रूप में देखती है, वही पुरूषों का नजरिया अलग है । पुरूषों की प्रमुख जिम्मेदारी बकरियों और गायों के विशाल परिवार की देखभाल करना है । ये लोग अपनी आजीविका के लिए इन मवेशियों पर निर्भर है ।
    वैज्ञानिकों को आशा है कि महान हरित दीवार परियोजना के पेड़ों से क्षेत्र में अच्छी वर्षा होगी और जल स्तर बढ़ेगा । वहीं स्थानीय चरवाहों के लिए यह परियोजना वरदान साबित होगी । उनका कहना है जितने पेड़ लगेंगे उतना पानी आएगा । पानी हमारा भविष्य है - यह पानी हमारी सब समस्याएं दूर कर देगा ।
    हरित दीवार परियोजना में लगे सभी अधिकारी मानते हैं कि योजना का अंतिम लक्ष्य ग्रामीण समुदायों की मदद करना है । लेकिन इसका बेहतर क्रियान्वयन कैसे हो ? इसके बारे में अलग-अलग विचार हैं ।
    अफ्रीकी राजनेता इसे महज एक पेड़ों की दीवार की तरह ही देखते हैं जो रेगिस्तान की रेत को दूर  रखेगी । लेकिन वैज्ञानिक और विकास  एजेंसियां इसे महज एक दीवार से बढ़कर, गरीबी उन्मूलन एवं बिगड़ी भूमि को बेहतर करने वाली विविध परियोजनाआें की एक कसीदाकारी मानते हैं ।
    हरित दीवार परियोजना के लिए विश्व बैंक से कुल १८०० खरब डॉलर की और वैश्विक पर्यावरण सुविधा समूह से १०८० लाख डॉलर की सहायता मिली हैं । इस समूह के कार्यक्रम अधिकारी जीनामार्क सिन्नासामी के अनुसार हम किसी भी वृक्षारोपण कार्यक्रम के लिए वित्तीय सहायता नहीं देते हैं, पर यह परियोजना सिर्फ पेड़ लगाने की बजाए कृषि, ग्रामीण विकास, खाद्य सुरक्षा एवं टिकाऊ भूमि प्रबंधन से कहीं ज्यादा जुड़ी हुई है ।
    इस परियोजना में सम्मिलित सभी ११ देश इसे आगे ले जाने के लिये प्रतिबद्ध है किन्तु इन देशों के सामने बहुत सी चुनौतियां है । जिसमें अत्यन्त गरीबी, बदलता मौसम और राजनीतिक अस्थिरता प्रमुख हैं । पूरा क्षेत्र खाद्य संकट की गिरफ्त में है । संयुक्त राष्ट्र खाद्य कार्यक्रम के अनुमान के मुताबिक साहेल में १ करोड़ १० लाख लोगों के पास  खाने को पर्याप्त् अनाज नहीं है ।
    महान हरित दीवार में निर्माण में सेनेगल सबसे आगे है । मौजूदा पेड़ों को बचाने के साथ-साथ उन्होने मोटे तौर पर कोई ५० हजार एकड़ में नये पेड़ लगाये हैं । सेनेगल में तो यह अभी तक सफल रहा है लेकिन पड़ोसी देशों को यह शंका है कि यह काम पूरे साहेल क्षेत्र में कारगर हो सकता है । पापा सार कहते है आगामी १० से १५ वर्षो में यहां एक विशालकाय जंगल होगा । पेड़ बड़े होंगे और इस क्षेत्र का पूरी तरह कायाकल्प हो जायेगा । वर्षो पहले पलायन करने वाले जानवर भी अब वापस आ रहे हैं । इनमें हिरण, सियार और जंगली पक्षियों की अनेक प्रजातियां प्रमुख हैं ।
    सेनेगल के नव निर्वाचित राष्ट्रपति मैकी सैल को भी महान हरित दीवार के प्रति उतनी ही मजबूत प्रतिबद्धता दिखानी होगी जितनी पूर्व  राष्ट्रपति अबडाडली वेड की रही है । लेकिन अपनी गायोंे को पालते, बगीचों को पानी देते और यह उम्मीद करते कि बारिश आयेगी, यहां रहने वाले लोगों के लिये महान हरित दीवार सेनेगल और शेष क्षेत्र में आने वाली पीढ़ियों के लिये सकारात्मक बदलाव की अपार संभावना लिए हुए है ।
 विशेष लेख
प्रसाद के साहित्य में पर्यावरणीय चेतना
नवलकिशोर लोहनी/उमेशकुमारसिंह/सुधीरकुमार शर्मा

    आधुनिक काल की हिन्दी कविता या काव्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नई काव्यधारा का तृतीय उत्थान कहा है, जिसे सामान्यत: छायावाद के नाम से जाना जाता है । छायावाद के उदय के संबंध  में श्री शुक्ल का कथन है, प्राचीन ईसाई संतों के छायाभास तथा यूरोप के काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ छायावाद कही जाने लगी थीं । अत: हिन्दी में ऐसी कविताआें का नाम छायावाद चल पड़ा ।
    डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना है । जयशंकर प्रसाद के अनुसार जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया । नन्ददुलारे बाजपेई ने लिखा छायावाद मानव जीवन सौन्दर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है । मुकुटधर पाण्डे के निबंध हिन्दी में छायावाद से पता चलता है कि द्विवेदीयुगीन कविताआें से भिन्न कविताआें  के लिये छायावाद का नाम प्रचलित हो चुका था । किसी ने कहा है वस्तुमें आत्मा की छाया देखना छायावाद है । छायावादी काव्य में प्रकृति-सम्बन्धी कविताआें के बाहुल्य और उसमें प्रतिफलत प्रकृतिपरक दृष्टिकोण को देखकर कुछ विचारकों ने छायावाद को प्रकृति-काव्य भी कहा है ।   

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी कविता की नवीनधारा (छायावाद) का प्रवर्तक मैथिलीशरण गुप्त् ओर मुकुटधर पाण्डे को माना है, किन्तु इसे भ्रामक तथ्य मानकर खारिज कर दिया गया । इलाचन्द्र जोशी और विश्वनाथ जयशंकर प्रसाद को निर्विवाद रूप से छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं । विनय मोहन शर्मा और प्रभाकर माचवे ने माखनलाल चतुर्वेदी को  तो नंददुलारे वाजपेई, सुमित्रानंदन पंत को छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय देते हैं, किंतु  वर्तमान में जयशंकर प्रसाद को ही सर्वमान्य रूप से छायावाद का प्रवर्तक माना जाने लगा है । छायावादी काव्य में भारतीय परम्परा का प्रवेश ही नहीं हुआ बल्कि उसने युग के काव्य को अत्यंत गहराई तक प्रभावित किया  है ।
    छायावादी काव्य में ही वर्तमान युग के जनजीवन की व्यापकता की अभिव्यक्ति मिलती है । छायावादी काव्य पूर्ण और सर्वांगीण जीवन के उच्च्तम आदर्श को व्यक्त करने का प्रयास करना है । जयशंकर प्रसादकी कामायनी इस काव्य स्वीकृति का चरम है । इन्हीं कारणों से यह आधुनिक छायावादी काल कहलाया ।
    छायावादी काव्य को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैशिष्ट्य एवं पहचान देने वाले कवियों में एक नाम है- जयशंकरप्रसाद । इसका कारण मात्र उनकी रचनात्मक ऊँचाई ही नहीं, बल्कि इतिहास का वह मुहुर्त भी है, जिसके दबावों और प्रेरणाआें ने उनकी रचनाशीलता को विशेष दिशा प्रदान की है ।
    हिन्दी काव्य की छायावादी  धारा के प्रमुख कवियों में युगांतकारी कवि जयशंकर प्रसाद का नाम पहले लिया जाता है । उनकी काव्य-दृष्टि विलक्षण थी और रचना-सामर्थ्य अद्भुत था । उन्होंने कविता को वह असामान्य ऊँचाई और गरिमा प्रदान की, जिसके कारण आज भी उस दौर को खड़ी बोली कविता का उत्कर्ष-काल माना जाता है । कामायनी जैसा महाकाव्य उन्हीं की देन है, जो हिंदी ही नहीं भारतीय साहित्य का गौरव-ग्रंथ है ।
    छायावादी काव्य को प्रकृतिपरक  काव्य भी माना गया     है । जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ कामायनी, आँसू, झरना, लहर, कानन कुसुम आदि में प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया गया है । प्रसाद जी ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृतिपरक रचनाआें के माध्यम से मानव जीवन में पर्यावरण में पर्यावरणका पारस्परिक सम्बन्ध एवं महत्व दर्शाया गया है । अपने काव्यों के माध्यम से प्रसाद जी ने पर्यावरण के प्रति जनजागृति लाने का अथक प्रयास किया है । प्रकृति से वर्णित उनके अधिकांश काव्यों में पर्यावरण के प्रति उपकी रूचि एवं गंभीरता दृष्टिगोचर होती है । प्रसादजी ने अपने काव्यों में पर्यावरण के महत्व को अभिव्यक्त कर यह बताया है कि पर्यावरण क्या है  मानव जीवन पर उसका कितना व्यापक प्रभाव है ?
    मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं । जहां मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है, वहीं मानव द्वारा निरन्तर किये जा रहे पर्यावरण के विनाश या क्षति के विषय में चिन्तन करते ही हमें भविष्य की चिंता सताने लगती है । यह आँतरिक पीड़ा हम अतर्मन से झकझोर कर रख देती है । जहां पर्यावरण एवं मानव का सम्बन्ध आदिकाल से रहा  वहीं हमारे प्राचीन वेदों ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेेद एवं अथर्ववेद में भी पर्यावरण का महत्व दर्शाया गया है । पर्यावरण शब्द का संक्षेप में इस तरह समझा जा सकता है - परि अर्थात् चारों ओर आवरण अर्थात् ढंका हुआ या घिरा हुआ । मानव जीवन के चारों ओर जो भी आवरण है उसे पर्यावरण कहा जाता है । पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, वन, वनस्पति, जीव-जन्तु, वृक्ष इत्यादि और वे सभी जिनके मध्य मानव जीवन जीवित रहता है । वे सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं एवं एक-दूसरे से जुड़े हुए   हैं ।
    भारतीय संस्कृति में वन और वनस्पति का बहुत अधिक महत्व रहा है । हमारे ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे । प्रकृति से उनका गहन संबंध था । वैदिक ऋचाआें का निर्माण भी वनों में स्थित आश्रमों में हुआ था । मानव, वन्य जीव-जन्तु, वृक्ष, पर्वत, सरितायें, ऋतुएं आदि सभी परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं तथा पर्यावरण के अभिन्न अंग है । परायुग में वन, सन्यासी जीवन के तप का प्रमुख केन्द्र हुआ करते  थे । यह वानप्रस्थ आश्रम की निरूक्ति से भी सिद्ध है : वाने वन समूहे प्रतिष्ठते इति । यह उल्लेखनीय है, कि वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, सूत्रग्रंथों आदि में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के भव्योज्जवल रूप प्रतिनिहित हैं, जिनकी रचना वनाश्रमों में हुई है ।
    प्राचीन युग में भी पर्यावरण का अत्यन्त महत्व हुआ करता था । उस युग में वनाश्रमों की प्रकृति या ग्रामीण संस्कृति से ही नागरिक संस्कृति या राजतंत्रात्मक संस्कृति का नियंत्रण होता था । तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में भी पर्यावरण का अतिशय महत्व हुआ करता था । वैदिक परम्पराआें से लेकर वर्तमान काल में भी वृक्षों की पूजा का विशिष्ट महत्व है । वृक्षों के पूजन से वृक्षों का संरक्षण व संवर्धन भी स्वत: ही हो जाता   है । भारतीय संस्कृति मेंपीपल व बरगद विशिष्ट रूप से पूजनीय हैं ।
    जहां हिन्दी साहित्य में आदिकाल (संवत् १०५०) से लेकर रीतिकाल (संवत् १९००) तक किसी ने किसी रूप में कवियों ने काव्य में प्रकृति एवं पर्यावरण को वर्णित किया है, वहीं आधुनिक काल (संवत् १९००-आज तक) से छायावादी काव्यों में पर्यावरण के प्रति प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होने लगी । इस काल के छायावादी कवियों मैथिलीशरण गुप्त्, मुकुटधर पाण्डे, नन्ददुलारे वाजपेई, पं. सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्च्न आदि ने अपने काव्यों में प्रकृति एवं पर्यावरण सौन्दर्य का चित्रण सुन्दरता के साथ किया है । इसे आधुनिक या गद्यकाल का एक परिवर्तित युग भी कहा जाता है । हिन्दी साहित्य के काव्य की नवीनधारा (छायावाद) के प्रमुख स्तम्भों में एक नाम है - जयशंकर प्रसाद । प्रसादजी ने अपने काव्यों में प्रकृतिएवं पर्यावरण को सुन्दरता के साथ संजोया है । जिससे प्रसादजी का काव्य में पर्यावरण व प्रकृति के प्रति गहन चिन्तन परिलक्षित होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी, झ्ररना, लहर, आँसू, कानन-कुसुम, चन्द्रगुप्त्, एक घूँट आदि में पर्यावरण के महत्व को दर्शाते हुए उनका सुन्दर चित्रण किया है । प्रसाद के काव्य इडा की सुन्दर पंक्तियाँ :-
    देखे मैंने वे शैल ऋँग,
    जो अचल हिमानी से रंजित, उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग
    अपने जड़ गौरव के प्रतीक वसुधा का कर अभिमान भंग
    अपनी समाधि में रहे सुखी बह जाती हैं नदियां अबोध
    कुछ सवेत बिन्दु उसके लेकर वह स्तिभित नयन गत शोक क्रोध
    स्थिर मुक्ति, प्रतिष्ठा में वैसी चाहता नहीं इस जीवन की
    मैं तो अबाध गति मरूत सदृश हॅू चाह रहा अपने मन की
    जो चूम चला जाता अग जग प्रति पग में कंपन की तंरग
    वह ज्वलनशील गतिमय पतंगा ।
    इस दुखमय जवीन का प्रकाश -
    नभ नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश
    कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आसपास
    कितना बीहड़ पथ चला और पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
    उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर रोता मैं निर्वाचित अशांत
    इस नियति नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही
    खोखली शून्यता में प्रतिपद असफलता अधिक कुलांच रही
    पावस रजनी में जुगूनु गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश
    उन ज्योति कणों का कर विनाश ।
    जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी के काव्य इड़ा की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा एवं पर्यावरण के महत्व को दर्शाया है । प्रसाद की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा उसके स्वयं के कारण होना दर्शित होता है । जो प्रकृति हमारे जीवन की आशा को निराशा को आशा में परिवर्तित करती है, वही प्रकृति इसके दुरूपयोग या विनाश पर विनाशकारी या भयावह भी हो सकती है । कवि का काव्य हमें यह संदेश देता है, कि यदि पर्यावरण का समुचित संरक्षण न किया गया तब जो प्रकृति हमें प्रकाश अर्थात् जीवन देती है, हमें हताश या क्षति पहुंचा सकती है । अत: हमें प्रकृति के महत्व को समझकर पर्यावरण का संरक्षण करना आवश्यक है, जिससे जन जीवन में प्रकाश विद्यमान रह सके ।
    प्राची में फैला मधुर राग
    जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग
    जिसके परिमल से व्याकुल हो श्यामल कलरव सब उठे जाग
    आलोक रश्मि से बुने उषा अंचल में आंदोलन अमंद
    करता, प्रभात का मधुर पवन सब ओर वितरने को मरंद
    उस रम्य फलक पर नवल चित्र-सी प्रकट हुई सुन्दरबाला
    वह नयन महोत्सव को प्रतीक अम्लान नलिन की नव माला
    सुष्मा का मंडल सुस्मित सा बिखराता संसृति पर सुराग
    सोया जीवन का तम विराग
    उपरोक्त काव्य पंक्तियों में प्रसादजी ने सौन्दर्य व प्रकृति में पारस्परिकता दर्शाते हुए यह बताया है कि सौन्दर्य ही प्रकृति है और प्रकृति ही सौन्दर्य है । अर्थात् काव्य का सौन्दर्य भी प्रकृति से ही विद्यमान होता है । जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृति की महत्ता को दर्शाते हुए पर्यावरण के गूढ रहस्यों एवं तथ्यों को उद्घाघित कर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागृति लाने की पूर्ण चेष्टा की है । अत: यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि छायावादी काव्यों में पर्यावरण चेतना लाने में जयशंकर प्रसादजी की भूमिका अतुलनीय है ।
जीवन शैली
कौन है हरी पत्तियों का सरदार ?
डॉ. किशोर पंवार

    भोजन में हरी पत्तेदार सब्जियां खाने से जरूरी खनिज लवण, विटामिन्स और फायबर मिलता है । इन हरेदार पत्तियों वाली सब्जियों के मामले में आमतौर पर पालक को सबसे पोषक सब्जी के रूप में जाना जाता है । लेकिन यह एक भ्रम है । शरीर को स्वस्थ एवं पोषकता प्रदान करने वाली और भी अनेक सब्जियां मौजूद है ।
    भोजन में हम हरी-पत्तेदार सब्जियां क्यों खाते हैं ? क्या इनसे ताकत मिलती है । एक कार्टून केरेक्टर पॉपोई में ऐसा बताया गया हैं  । दरअसल ताकत यानि उर्जा हमें मिलती है कार्बोज से, जो हमें तरह-तरह के अनाज से प्राप्त् होता है । प्रोटीन से जो दालों के दानों में भरा है । और घी-तेल से यानि वसा से ।
    तो फिर हम आप सब्जियां क्यों खाते है ? दरअसल सब्जियों से हमें शरीर को स्वस्थ रखने के लिये जरूरी खनिज लवण, विटामिन्स और फायबर यानि रेशा मिलता है । खनिजों में लौह तत्व और कैल्शियम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है । विटामिन में ए, सी और फोलिक अम्ल खास हैं । ये सब मिलकर खून बनाते हैं, आंखों की रोशनी बनाये रखते हैं, और हमारी हडि्डयों में जान डालते हैं । विटामिन सी सेहत का रखवाला हैं । शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति को बनाये रखता हैं । यह च्यवनप्राश में डाले जाने वाला आवंले में प्रमुखता से होता  है । 

     ताकत या फिर खनिज लवणों विशेषकर लौह एवं केल्शियम के लिये  यदि आप अब तक पालक खरीदकर खाते रहे हैं तो जरा ठहर जाईये । अपने आसपास मिलने वाली मैथी, चौलाई, पोई आदि भाजियों पर नजर डाल लें । फिर तय करें कौन है - हरी पत्तियों का सरदार ? यानि असरदार ।
    सरदार यानि सिरमौर या सबसे बड़ा । ताकतवर पर किसमें । भाजियों के  संदर्भ में जिसमें ज्यादा विटामिन हो, ज्यादा खनिज लवण हो, ढेर सारा फायबर हो और जो खून बढाएं  । वही तो होगा सब्जियों का सरदार । तो हो जाए मुकाबला पालक और पोई में । मैथी और चौलाई में । ये मुकाबला पोषक पदार्थो की मात्रा से है ।
    पालक एक ईरानी मूल की भाजी है ।  वहीं पोई, जिसे हम लगभग भूला ही बैठे है । शुद्ध देसी वनस्पति है । यह एक सदाबहार बेल है । जिसे बाग-बगीचों, किचन गार्डन और तो और गमलों में भी लगाया जा सकता है । इससे साल भर बड़े-बड़े हरे पत्ते प्राप्त् किया जा सकते हैं । पोई का एक नाम इंडियन सिप्नच यानि भारतीय पालक भी    हैं । यह दो रूपों में  मिलती है । एक हरे पत्ते वाली व और दूसरी हरे जामुनी पत्तों वाली । पालक में लौह तत्व प्रति सौ ग्राम पर १.७ से २.५ मिली ग्राम, केल्शियम २८.०० मिलीग्राम और केरोटीन (विटामिन ए) ५५८० मिलीग्राम होते हैं । जबकि पोई में ये क्रमश: १०.००, ८७.०० और ७७४० मिलीग्राम प्रति सौ भाजी में हैं । पालक से ज्यादा लौह तत्व तो प्याज के पत्तों में ७.४३ मिलीग्राम  है । तो खून बढ़ाने के लिये अब केवल पालक नहीं पोई प्याज और चौलाई के पत्ते भी खाईये । पालक की पोल व पोई का मोल जान लेने के बाद उम्मीद है कि आप जल्दी ही आसपास के जानकार लोगों की मदद से पोई को खोजेगे और अपने बगीचे एवं किचन में उसे स्थान देगें । यह मुफ्त की भाजी आपको साल भर अपने दिलनुमा खनिज लवण, विटामिन और लौह तत्व से भरपूर पत्ते आपको उपलब्ध कराती रहेगी ।
    पोई जहां एक और सदाबाहर बेल है वही चौलाई एक छोटा शाकीय पौधा है । यॉ तो यह एक खरपतवार है । परन्तु इसकी कुछ उन्नत किस्मों की खेती भी की जाती हैं । राजगरा भी एक तरह की चौलाई ही हैं । विज्ञान में इस वंश को ऐमेरेन्थस कहते हैं । इसे वंश की लगभग १०-१२० जातियां हमारे आस-पास उगती रहती हैं । सब बेहतरीन भाजियां है  जैसे एमेरेन्थस विरडिस, ए.स्पाइनोसस, ए.कॉडेटस, ए.जेनेटिक्स, ए. पेनीकुलेटस आदि । ये चौलाई भाजी कुछ नर्म, कुछ कड़क, कुछ हरी, कुछ लाल पत्ती वाली और कुछ तनों पर कांटे वाली होती है । सब विटामिन, खनिज लवण और रेशों से भरपूर है । एक दृष्टि से ये सब पालक की बाप हैं । चौलाई में लौह १८-४०, विटामिन सी १००-२०० मिली ग्राम प्रति सौ ग्राम और रेशों ४.०० ग्राम प्रति सौ ग्राम होता है । अब जरा पालक के गुणों से इसका मिलान कर लीजिए ।
    पत्तियों की बात चली है तो लगे हाथ एक और पत्ती के गुणों को जान ले तो ठीक रहेगा । इसे हम पहचानते हैं और उपयोग भी करते हैं परन्तु कभी-कभी । इसका नाम है कढ़ी पत्ता या मीठी नीम । प्रत्येक कालोनी के बगीचे में, घरों में तुलसी, कुंदा और मोगरा के साथ इसका भी स्थान लगभग तय हैं । इसकी पंखनुमा, चमकीली चिकनी पत्तियों पर ढेर सारी तेल ग्रंथियां पायी जाती है । बस यही है संुगध की थैलियां । जिसके लिये प्रमुखता से इसे कढ़ी और पोहे में डाला जाता है । केरल में कोई व्यंजन इसके बिना नहीं बनता । सांभर हो या इडली की खोपरा वाली चटनी इसके बिना सब अधूरे हैं । इसकी पत्तियां सुंगध के साथ मधुमेह निवारक भी हैं । ऐसा लंदन के किंग्स कॉलेज में हुई एक शोध से पता चला है । इन पंखनुमा पत्तियों में उपस्थित पदार्थो के बारे में भी जान लें । इन पत्तों में कैल्शियम ८३०, फास्फोरस ५७ मिली ग्राम प्रति सौ ग्राम । फोलिक अम्ल २३.५ माइक्रोग्राम और रेशा १६.३ ग्राम प्रति १०० ग्राम होता है । सरसों व मूली के पत्तो में विटामिन सी ३३ एवं ८१ मि.ली. ग्राम और लौह तत्व क्रमश: १६ एवं १८ मिली ग्राम प्रति १०० ग्राम होता है । और तो और बरसात में उगने वाला पुआडिया में भी लौह १२.०० एवं विटामिन सी ८२ मिली ग्राम प्रति सौ ग्राम होता है ।
    यह पढ़कर अब तो आप यह जान ही गये होंगे कि कौन हैं हरी पत्तियों का सरदार ? पालक या पोई, कढ़ी पत्ता भी कुछ कम नहीं है । खून बढ़ाना हो तो पालक नहीं सरसों का साग व मूली की भाजी खाईये । पुवाड़िया की भाजी बनाईये ।
    हडिड्या मजबूत करनी हो तो भी कढ़ी पत्ता और पुवाड़ियां आपका साथ देगे । कढ़ी पत्तों में फोलिक अम्ल, फाइबर व खनिज तत्वों को भी भण्डार है । इसमें केरोटीन और नियासिन भी पालक से चार गुना ज्यादा है । तो फिर अब देर किस बात कि खूब कीजिये इस सरदार का उपयोग । तो सरदार से दोस्ती कर लीजिए बीमारियों के दुश्मन आपके पास फटकेंगे भी नहीं । शरीर में खून भरपूर और हडि्डयां मजबूत तो फिर डरने की क्या बात है ।
जन जीवन
बीमारियां बांटते ताप बिजली घर
सुंगध जुनेजा/चन्द्रभूषण
    भारत का तापघर कहे जाने वाले सिंगरौली में कोयले का अकूत भण्डार है और यहां कई ताप ऊर्जा घर हैं । नतीजजन इस इलाके को बेहद सम्पन्न होना चाहिए । लेकिन सच्चई यह है कि यह गरीब और अत्यन्त प्रदूषित क्षेत्र है । यहां के लोग असाधारण बीमारियों से जूझ रहे हैं ।  दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनव्हायरमेंट ने यहां जांच कर पाया कि कोयले में पाया जाने वाला घातक विषैला तत्व पारा धीरे-धीरे लोगों के घरों, भोजन, पानी और खून में भी प्रवेश कर रहा है ।
    पचास के दशक में जापान में घटी मिनीमाता दुर्घटना ने सारे विश्व का ध्यान आकर्षित किया था । इस दुर्घटना में मिनीमाता खाड़ी के पास रहने वाले सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी एवं कई विकलांग हो गये थे । यह दुर्घटना एक रासायनिक कारखाने से निकले अपशिष्ट में मौजूद पारे (मरक्यूरी) के कारण हुई थी । पारे की विषाक्तता से यह बीमारी मुख्य रूप से शरीर के स्नायुतंत्र को प्रभावित करती हैं । यही कहानी अब देश के पावर हाउस कहे जाने वाले मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे सिंगरौली क्षेत्र में दोहराई जा रही है । 

      दुनिया भर में पारे का उपयोग बेटरी, पेंट, प्लास्टिक, चिकित्सा उपकरण, कास्टिक सोड़ा, कागज, कीटनाशी, ट्यूबलाइट एवं ऊर्जा बचाने वाले सीएफएल बल्ब में किया जाता है । इसीलिए इन कारखानों के अपशिष्ट में पारा किसी न किसी रूप में पाया जाता है । पारा या उसके यौगिक एक बार पर्यावरण में आने पर भोजन श्रृंखला के अलग-अलग स्तर पर एकत्र होते हैं एवं उनकी मात्रा भी बढ़ती रहती है । मनुष्य में पारा मछली, सब्जी, अनाज, दूध, पेयजल, हवा आदि स्त्रातों से पहुंच कर जाम होता रहता है । माना जाता है कि मनुष्य प्रतिदिन भोजन से ०.००५ मिलीग्राम पारा ग्रहण करता है । मिथाईल मरक्युरी पारे सबसे विषाक्त रूप है, क्योंकि मानव शरीर इसका शरीर इसका ९० प्रतिशत से ज्यादा भाग अवशोषित करता है ।  पारे की विशेषता यह है कि यह कोशिकाआें में उपस्थित प्रोटीन से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर अपना प्रभाव डालता है । प्रारम्भ में पारे की विषाक्तता के लक्षण नहीं दिखाई देते हैं । हानिकारक प्रभाव के लक्षण के तभी दिखाई देते हैं जब शरीर में एकत्रित पारे की मात्रा ज्यादा होने लगती है । पारे की विषाक्तता का अंतिम प्रहार दिमाग एवं केन्द्रीय स्नायुतंत्र पर होता है ।
    हाल ही में दिल्ली स्थित स्वतंत्र गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस   एंड एनव्हायरमेंट (सीएसई) ने सिंगरौली में पारा विषाक्तता का अध्ययन किया था । ये प्रयोगशाला परीक्षण वहां की जल, मिट्टी, अनाज, मछली एवं लोगों के नाखून, बाल एवं रक्त के नमूनों में किए गए । यह अध्ययन चिलिकादाद, दिबुलगंज, किरवानी खैराही, ओबरा, रेणुकूट, अनापरा एवं अन्य गांवों में किए   गए । सी. एस. ई. की प्रदूषण नियंत्रण प्रयोगशाला ने सोनभ्रद जिले में पारे की जाचं हेतु ६ समूह में नमूने एकत्रित किए थे । इसके अंतर्गत १९ लागों के खून , बाल और नाखूनोंकी जांच की गई  । सोनभद्र के विभिन्न स्थानोंसे २३ नमूने वहां के पानी से लिए गए । जबकि ७ नमूने मिट्टी के लिए गए । ५ नमूने क्षेत्र में पैदा होने वाली फसलों चावल, गेंहू, दालों के लिए गए । अध्ययन के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे । जिसमें पानी एवं मिट्टी के नमूना में पारे के अलावा अन्य भारी धातुआें लेड, केडमियम, क्रोमियम और आर्सोनिक का भी पता चला ।
    अनाज के नमूनोंमें भी भारी मात्रा में रसायन पाए    गए ।  जबकि रिंहद नदी पर बने गोविंद वल्लभ पंत जलाशय की मछलियों में पारे के एक घातक रूप मिथाईल मरक्यूरी की जांच की गई । जल में घुलने के बाद पारा मिथाईल मरक्यूरी में बदल जाता है । मानव शरीर में लकवा, हाथ पैर में कम्पन्न, आंखों से कम दिखाई देना, सफेद दाग, श्वास रोगों, जोड़ों के दर्द, याददाश्त में कमी, अवसाद भ्रम, व्यवहार में बदलाव, गुर्दे में खराबी, महिलाआें में मासिक धर्म की अनियमितता, बंध्यता, मृत शिशु एवं विकलांग शिशुआें के जन्म आदि के लक्षण देखे गये ।
    प्रयोगशाला की रिपोर्ट से पता चला कि ८ से ६९ वर्ष के जिन १९ महिलाआें एवं पुरूषों के रक्त में पारे का स्तर औसतन ३४.३ पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) था, जो कि अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षित मानक स्तर ५.८ पीपीबी से ६ गुना अधिक था । कौराही गांव के कैलाश के रक्त में पारे की मात्रा ११३.४८ पीपीबी पाई गई, जो कि सर्वाधिक थी । इसी प्रकार ११ लोगों के बालों में पारे का स्तर १.१७ पीपीएम से ३१.३२ पीपीएम के मध्य पाया गया जबकि सुरक्षित स्तर पर ६ पीपीएम तक हैं ।
    वर्तमान में सिंगरौली में कोयला आधारित ताप घरों की कुल उत्पादन क्षमता १३,२०० मेगावाट है और लगभग ८३ लाख टन कोयला प्रतिवर्ष निकाला जाता है । यहां पारा विषाक्तता के पीछे कोयला जिम्मेदार है । दरअसल पारा कोयले में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक खतरनाक तत्व हैं । एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर यह वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में फैल जाता है । एक आंकलन के अनुसार सिंगरौली में १००० मेगावाट का बिजली घर वर्ष भर में लगभग ५०० किलो पारा वायुमण्डल में उत्सर्जित करता है । कोयला खदानों से निकले कोयले को धोने से भी पारे की कुछ मात्रा निकलकर जल एवं मिट्टी में पहुंच जाती है । एक ग्राम पारा लगभग २० एकड़ भूमि को प्रदूषित करने की क्षमता रखता है । बिजलीघरों में कोयला जलाने से पारे की काफी मात्रा वायुमण्डल में पहुंचती है । कोयले में परे की मात्रा को ज्ञात करने के लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिंगरौली में कोयले के ग्यारह नमूनों का आकंलन किया और पाया कि कोयले में पारे की मात्रा ०.०९ पीपीएम से ०.४८७ पीपीएम के बीच है । सन् २०११ में सीएसई ने सोनभद्र जिले के अनापरा गांव में कोयले में पारे की ०.१५ पीपीएम मात्रा दर्ज की थी ।
    वर्ष १९९८ में लखनऊ स्थित भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र ने भी सिंगरौली क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया था । अध्ययन के दौरान लगभग १२०० लोगों का परीक्षण किया गया था । जिनमें से ६० प्रतिशत से अधिक के रक्त में पारे की मौजूदगी का स्तर काफी ऊंचाथा । सोनभद्र की संस्था वनवासी सेवा आश्रम के जगत विश्वकर्मा के अनुसार सरकार ने संस्थान की रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया और ना ही कोई ठोस कार्यवाही की । और अब सीएसई की रिपोर्ट से पारे की मात्रा के स्तर का जो खुलासा हुआ है, सरकारी उदासीनता को दर्शाता है ।
    भविष्य में देश में कई कारणों से पर्यावरण में पारा की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना है । नियम कानून शिथिल होने या सख्त कानूनों का ईमानदारी से पालन न होना है ।
    देश में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए  सरकार ने बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन किया है ताकि कोयले से बिजली बनाई जावे । कोयले से बिजली बनाने पर सिंगरौली की कहानी देश के कई स्थानों पर दोहराई जा सकती है । सरकार ने सिंगरौली को देश का ९ वां सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाका घोषित किया है । सिंगरौली में पारे का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है । फर्क सिर्फ इतना है कि मिनीमाता की संख्या हजारों में थी तो सिंगरौली की लाखों में है ।
    इस टाइम बम को तुरन्त बिखेरने से रोकना होगा । सरकार को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें और पारे प्रदूषण की समस्या का अविलंब निदान करें । इसके अलावा कोयला आधारित ताप घरों, कोयला धुलाई के स्थानों और खनन के लिए पारे के मानक तय किये जाने चाहिए ।
प्रदेश चर्चा
ओडिशा : दुर्लभ बीजों का रखवाला
सुश्री ज्योतिका सूद

    देश मंे खेती छोटे किसानोें के हाथोें से छुटकर बडे निजी कारर्पोेरेट घरानां के कब्जे मेें जा रही है । यह दुर्भाग्यपूर्ण ािितस्थ् है । सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से पीढियो से खेती में लगे हमारे किसानों के हजारों वर्षों के ज्ञान, उनके द्वारा अपनाए जा रहे खेती के नए-नए तरीकों और जैव विविधता को ही धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है । ऐसे में देबल देब जैसे लोगों के प्रयास भले ही छोटे  नजर आए पर देश के खाद्य उत्पादन प्रक्रिया के पर्यावरणीय व सामाजिक रूप से ठप्प हो जाने पर देश मेें भोजन की पूर्ति के लिए ये कदम काफी महत्वपूर्ण होेंगे ।
    ओडिशा के रायगडा़ जिले मेें एक बसाहट के बाहर केरोसीन लैैंप से रोशन, दो कमरो वाली झोपडी़, इस आदिवासी इलाके  में किसी दूसरे किसान की झोपडी़ की ही तरह है । पर इस झोपडी़ के अंदर घुसते ही, एक कोने में, खाट के नीचे रखे, परची लगे हजारों मिट्टी के बरतन देखकर आप हैरान हो जायेेंगे । इन बरतनों में चावल की ७५० से ज्यादा दुर्लभ प्रजातियों का खजाना है । इस बीज बैंक के रखवाले हैं-देबल देब । जो पिछले १६ सालों से इन दुर्लभ प्राकृतिक बीजो का संग्रहण एवं संरक्षण कर रहे है । उनका एक मात्र सहारा वे किसान है जो आज भी इन्ही विरासती बीजों पर निर्भर हैं । 
      झोपडी़ से ही लगा हुआ उनका एक छोटा सा खेत है, जहां देब अपने बीजो को संरक्षित करने के लिये इन प्रजातियो को उगाते हैं । यह जमीन बमुश्किल आधा एकड   है । मतलब साफ है देब को हर प्रजाति के लिये कोई चार वर्ग मीटर की जमीन मिल पाती है जिसमे वे धान की सिर्फ ६४ बालियां उगा सकते है । यह किसी बीज की नस्ल को बनाये - बचाये रखने के लिये आवश्यक   ५० बोलियों की न्यूनतम संख्या से थोडी ही ज्यादा है ।
    श्री देव बताते हैं कि इसके अलावा एक दूसरे की बाजू से उगने वाली इन किस्मो की आनुवांशिक शुद्धता को बनाये  रखना अपने आप में एक समस्या है । अंतर्राष्ट्रीय अनुशंसा के अनुसार किस्मों की आनुवांशिक शुद्धता के लिये दो विभिन्न प्रजाति के पौधों के बीच में कम से कम ११० मीटर का फासला होना चाहिए । जो कि इतने छोटे से खेत में कायम रख पाना नामुमकिन है । उन्होंने पौधों को, उनमें फूल खिलने के समय के अनुसार रोपकर इस समस्या को जीत लिया है । कटाई और गहाई (बीजों का अलग करना) के बाद वे कुछ बीजों को इन मिट्टी के बरतनों में बचा कर रख लेते हैं और बचे हुए बीज किसानों को बांट देते है । उनकी मंशा है कि इन बीजों का उपयोग बढ़े और लोग इनके फायदों के बारे में जागरूक हो ।
    एक प्रकृति चिंतक से खेती विशेषज्ञ हुए देबल देब कोई एक साल पहले अपने बीज बैंक वृही के साथ उड़ीसा आए । इसके पूर्व कोई एक दशक से भी ज्यादा समय तक उन्होंने पूरे पूर्वी भारत की यात्रा की और घूम-घूम कर किसानों से महत्वपूर्ण स्वदेशी चावल की किस्में जुटाई । उन्होनें १९९७ में बीज बैंक वृही की स्थापना की । तब उनके पास लगभग २०० चावल की किस्में    थी । वृही पश्चिम बंगाल का पहला गैर सरकारी बीज बैंक था ।
    धीरे-धीरे देब ने इन बीजों के संरक्षण और वितरण की जरूरत महसूस की । वर्ष २००२ में उन्होनें बांकुरा जिले में ०.७ हेक्टेयर का एक छोटा खेत लिया ताकि नियमित तौर पर इन प्रजातियों को उगाया जा सके । लेकिन २००९ और २०१० में पड़ने वालेअकाल के कारण कुछ प्रजातियों का नुकसान हुआ । इसके बाद देब ने एक ऐसी जगह की तलाश शुरू की जहां सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो । तभी उड़ीसा में टिकाऊ खेती के लिये काम करने वाली एक अलाभकारी संस्था लिविंग फार्म्स के देबजीत सारंगी से मुलाकात हुई और उन्होनें चार हजार रूपये सालाना की लीज पर रायगड़ा में एक जमीन खरीदने में उनकी मदद की ।
    श्री सारंगी कहते हैं मुझे हैरानी थी कि क्या गजब का आदमी होगा जो इतने दुर्गम इलाके में काम कर रहा है । उनकी जिज्ञासा तब जाकर शान्त हुई जब उन्हें पता चला कि देब भुवनेश्वर के निकट किसी गांव में आ रहे हैं । सांरगी उस समय टिकाऊ खेती से संबंधित एक प्रशिक्षण के सिलसिले में पश्चिम बंगाल में  थे । लेकिन उसे छोड़ पहली गाड़ी पकड़कर वे देब से मिलने सीधे भुवनेश्वर पहुंच गये । उनसे देब ने किसानों जैसी भाषा में बात की । उनकी बातचीत में कही भी प्रयोगशाला विज्ञान नहीं बल्कि कृषि पारिस्थतिकी विज्ञान की झलक थी । सारंगी कहते है उस दिन यह बात मेरी समझ में आई कि क्यों उस आदमी (देब) ने १९९६ में वर्ल्ड वाइल्ड फेडरेशन की मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड, एक ऐसे विषय पर काम करना शुरू किया जो ऐशो-आराम की जिन्दगी से कोसोंदूर है ।
    टिकाऊ खेती के प्रति अपने जुनून के चलते देब ने मोती जुआर, तिल, लौकी और सेम फली की कई सारी स्वदेशी प्रजाति के बीज इकट्ठे किये । देब कहते हैं कि मानसून में देरी, अल्प वर्षा, बाढ़, मिट्टी के खारेपन और कीटों के हमले जैसे पर्यावरणी प्रकोप से निपटने के लिये ये पुश्तैनी बीज सबसे बढ़िया दांव   है । भारत में इन परिस्थितियों के साथ ढल जाने वाली चावल की प्रजातियां हैं । उनका कहना है कि चावल की आनुवांशिकी पर ६० सालों के शोध के बावजूद, वैज्ञानिक ऐसी एक भी प्रजाति नहीं तैयार कर सके हैं जो कैसी भी पर्यावरणीय परिस्थितियों में समुचित रूप से पनप सके ।
    देब के तर्क उनके जमीनी तजुर्बे पर आधारित हैं । मई २००९ में आये महाचक्रवात आलिया में सुन्दरबन का सफाया कर डाला और हजारों एकड़ जमीन रातों रात खारेपन से भर गई । कोई मुट्ठी पर परम्परागत किसानों ने ही खारेपन को झेल जाने वाली चावल की तीन प्रजातियां बोई । देब ने दर्जन भर किसानों को, खारापन झेल जाने वाली चावल की तीन और प्रजातियों के बीज  बांटे । सिर्फ वही किसान आने वाली ठण्ड में थोड़ी बहुत चावल उगा पाये । इस साल देर से आये मानसून के चलते पूर्वी भारत के कई इलाकों में चावल के अंकुर ही नहीं फूटे । लेकिन जिन किसानों ने पुख्ता प्रजातियों वाले बीज बोये उन्हें ज्यादा चिन्ता नहीं रही । देब कहते हैं कि ये बीज किसी भी आधुनिक बीज से कहीं ज्यादा सक्षम हैं ।
    लेकिन किसानों के मुनाफे का क्या होगा ? क्योंकि हर हाल में आधुनिक और संकरित प्रजातियां ज्यादा पैदावार होती हैं । इस पर देब जवाब देते है किसी भी अर्थ व्यवस्था में किसी भी व्यापार का मुनाफा टिकाऊ नहीं है । यदि मकसद यह है कि जल्दी से मुनाफे में इजाफा हो, तो संसाधनों का नाश भी तेजी से होगा, और तब हमें फिर प्रदूषण, स्वास्थ्य के खतरे और जलवायु परिवर्तन जैसी शिकायतें नहीं करनी चाहिए ।
    देब की समझ किसानों के साथ उनकी रोजमर्रा की बातचीत से बनी है । उनका मानना है कि ये किसान ज्यादातर कृषि विशेषज्ञों की तुलना में कहीं बेहतर जानकार और पारखी हैं । ऐसा इसलिये क्योंकि विशेषज्ञ, प्रकृति के एक खास पहलू पर ध्यान देने के लिये प्रशिक्षित हैं, जबकि आम किसान पारिस्थितिकी के जटिल ताने-बाने के विविध पहलुआेंमें अंतर्सबंध को समझने में सक्षम है । देब स्वीकारते हैं कि सीधे खेत पर संरक्षण और शोध के काम के लिये स्थानीय किसानों पर भरोसा करने का कारण यह है कि सुप्रशिक्षित विज्ञान स्नातकों या शोधकर्ताआें को लेने के लिये उनके पास पैसे नहीं हैं । और फिर मैं कैसे विश्वास कर लूं कि मेरे खेत पर काम करने वाला कोई शोधकर्ता ज्यादा पैसे की खातिर, किसी एग्रो बायोटेक कम्पनी को, ये दुर्लभ बीज सौंप नहीं देगा ?
    देब का विश्वास है कि किसी संस्थागत या सरकारी मदद के बगैर भी उनकी यह विरासत उनके किसान मित्रों की बदौलत जिन्दा रहेगी ।
पर्यावरण परिक्रमा
पेंच का बाघ बना पन्ना टाइगर रिजर्व का सरताज

    बाघ पुर्नस्थापना योजना के तहत तीन वर्ष पूर्व पेंच टाईगर रिजर्व से लाया गया नर बाघ पन्ना टाइगर रिजर्व का सरताज  बन गया है । तीन वर्ष की अल्प अवधि में ही पन्ना टाइगर रिजर्व में १७ शावकों का जन्म हुआ, जिनमें १३ जीवित शावक जंगल में स्वछन्द रूप से विचरण कर रहे है । पुर्नस्थापित ५ बाघों को मिलाकर पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या १८ हो गई है ।
    पेंच के बाघ का आबाद हुआ यह परिवार निरन्तर विस्तार ले रहा है, जिससे पन्ना टाईगर रिजर्व की हरीभरी वादियां गुलजार हो उठी है । यह शानदार कामयाबी बेहतर प्रबन्धन व अचूक सुरक्षा उपायों के चलते मिली है, यह व्यवस्था कायम रही तो  आने वाले समय में पन्ना बेशकीमती हीरों के साथ-साथ बाघों की धरती के नाम से भी जाने जायेगा । पन्ना टाइगर रिजर्व के तीन साल के इस सफर पर प्रकाश डालते हुए क्षेत्र संचालक आर. श्रीनिवास मूर्ति ने बताया कि मार्च २००९ में पहलीबार २ बाघिन बांधवगढ़ एवं कान्हा से पन्ना लाई गई थी । परन्तु इन दोनों बाघिनों के पन्ना में प्रवेश करने से पहले यहां के स्थानीय नर बाघ पन्ना से बाहर निकल चुके थे । ऐसी स्थिति में जब तक इन बाघिनों के साथ एक नर बाघ का पन्ना टाइगर रिजर्व में प्रवेश नहीं होता तब तक बाघ पुर्नस्थापना योजना के सही परिणाम निकलना असंभव था  ।
    इस बात को ध्यान में रखकर बाघ पुर्नस्थापना योजना  की सम्पूर्ण योजना बनी जिसके तहत २ नर व ४ मादा बाघों क ो पन्ना लाना था । लेकिन प्रस्तावित ६ में से ५ बाघों एक नर व चार मादा बाघों को पन्ना टाइगर रिजर्व में पुर्नस्थापित किया जा सका है । बाघ पुर्नस्थापना योजना को पहली कामयाबी अप्रैल २०१०में मिली अब बाघिन टी-१ ने चार शावकों को जन्म दिया । इसके बाद बाघिन टी-२ ने भी अक्टूबर २०१० में चार शावकों का जन्म हो चुका है । यह परिणाम महज तीन वर्ष के अन्तराल में हासिल हुआ है ।
    इन बीते तीन सालों के दौरान अनाथ हो चुकी दो पालतू बाघिनों को जंगली बनाने का अभिनव प्रयोग भी यहां हुआ जो कामयाब हुआ । दुनिया में इस तरह का यह पहला प्रयोग था । जिसमें पालतू बाघिनों को न सिर्फ जंगली बनाया गया बल्ेकि एक बाघिन ने नवम्बर २०११ में दो शावकों को जन्म देकर इतिहास रच दिया । श्रीमूर्ति के मुताबिक यह बाघिन जब १५ दिन की थी तब अनाथ हो गई थी । किसी ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि एक अनाथ बाघ शावक जंगली बनकर मां बनेगी, लेकिन  यह चमत्कार पन्ना टाइगर रिजर्व में घटित हुआ है ।  

भूकंप से हिल सकता है हिमालय क्षेत्र

    भारत जैसे देशों के लिए  खतरे की घंटी बजाते हुए वैज्ञानिकों ने हिमालय क्षेत्र में आठ से लेकर ८.५ की तीव्रता तक के भूकंप के शक्तिशाली झटकों की चेतावनी दी है । वैज्ञानिकों ने ऐसे इलाकों के लिए खासकर चेताया है जहां अब तक भूकंप के शक्तिशाली झटके नहीं आए हैं ।
    नानयांग प्रौद्योगिकी विश्व-विद्यालय के नेतृत्व वाले एक अनुसंधान दल ने पाया है कि मध्य हिमालय क्षेत्रोंमें रिक्टर पैमाने पर आठ से साढ़े आठ तीव्रता का शक्तिशाली भूकंप आने का खतरा    है । शोधकर्ताआें ने एक बयान में कहा सतह टूटने संबंधी खोज का हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों से जुड़े इलाकों पर गहरा असर है ।
    अध्ययन में पता चला कि वर्ष १२५५ और १९३४ में आए भूकंप के दो जबर्दस्त झटकोंसे  हिमालय क्षेत्र में धरती की सतह टूट गई     थी । यह वैज्ञानिकों के पिछले अध्ययनों के विपरित है । हिमालय क्षेत्र में जबर्दस्त भूकंप आना कोई नई बात नहीं है । १८९७, १९०५, १९३४ और १९५० में भी ७.८ और ८.९ तीव्रता के भूकंप आए थे । इन भूकंपों से काफी नुकसान हुआ । लेकिन उन्होंने पहले सोचा था कि पृथ्वी की सतह नहीं टूटी है ।
    वैज्ञानिकोंने कहा कि उच्च् स्तर की नई तस्वीरों और अन्य तकनीकों की मदद से उन्होंने पाया कि १९३४ में आए भूकंप ने सतह को नुकसान पहुंचाया ओैर १५० से अधिक किलोमीटर लंबे मैदानी भाग में दरार आ गई । वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्र में अगली बार भूकंप के जबर्दस्त झटके आने मेंअभी समय है ।   
राष्ट्रीय जल नीति २०१२ को मंजूरी
    राष्ट्रीय जल नीति २०१२ को पिछले दिनों राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की बैठक में मंजूरी दे दी   गई । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अध्यक्षता में हुई परिषद की छठवीं बैठक में राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद नई राष्ट्रीय जल नीति को मंजूरी दी गई । इस नीति में जल प्रबंधन को लेकर एक राष्ट्रीय विधि तंत्र बनाने का प्रस्ताव किया गया है । बैठक में कई राज्यों के जल संसाधन मंत्री मौजूद थे ।
    डॉ. सिंह ने अपने उद्बोधन में लोगों को जल की बर्बादी के खिलाफ आगाह करते हुए कहा कि भविष्य में पानी की कमी देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में बाधा खड़ी कर सकती है । उन्होनें कहा कि भारत में दुनिया की लगभग १८ प्रतिशत आबादी है, जबकि इस्तेमाल करने लायक पानी की मात्रा केवलचार प्रतिशत ही है । उन्होनें कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में पानी का सकंट और गंभीर रूप ले सकता है । उन्होनें सिंचाई प्रणाली को भी बहुआयामी बनाए जाने और भूजल के दुरूपयोग को कम करने के वास्ते इसके दोहन के लिए नियमन की जरूरत जताई । डॉ. सिंह ने कहा कि सीमित जल संसाधन को देखते हुए इसका प्रबंधन सोच-समझकर किए जाने की जरूरत है और इसके लिए सभी को राजनीतिक विचारधारा और क्षेत्रीय भिन्नता से ऊपर उठकर जल प्रबंधन के बारे में व्यापक सोच अपनानी होगी । प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय विधि तंत्र के जरिये राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण की आशंकाआें की सिरे से खारिज करते हुए कहा कि इस तंत्र को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए । इसमें केन्द्र, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के अधिकारों का स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया जाएगा । केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने कहा कि देश के सामने सबको पर्याय पेयजल उपलब्ध कराना बड़ी चुनौती है । उन्होने कहा कि २०५० में विभिन्न क्षेत्रों की पानी की जरूरत पूरा करने के लिए ४५० अरब घन मीटर जल भण्डारण की जरूरत होगी । अभी देश में यह क्षमता २५३ अरब घन मीटर है ।
पौधारोपण के लिए जमीन का संकट
    जनहित के नाम पर निजी क्षेत्र के लिए तो बेरोकटोक भूमि का अधिग्रहण हो रहा है, लेकिन देश के एक तिहाई क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केन्द्र सरकार जमीन की कमी का रोना रो रही है । पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि वह लाखों हेक्टेयर क्षेत्र को हरित क्षेत्र के तहत लाना चाहता है लेकिन देश के ३३ फीसद क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के राष्ट्रीय लक्ष्य की राह में जमीन की कमी बड़ी समस्या है ।
    राष्ट्रीय वन नीति - १९८८ में सरकार ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए देश के एक तिहाई क्षेत्र को हरा-भरा बनाने का ऐलान किया था । लेकिन २४ साल बाद भी २३ फीसद भौगोलिक क्षेत्र ही इस दायरे मेंहै । जबकि, इस दौरान ध्वनि, जल और वायु प्रदूषण कई गुना बढ़ गया । रिपोर्ट के मुताबिक दस फीसद अतिरिक्त भौगोलिक क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए गैर वनक्षेत्र की भूमि को वनाच्छादित करना होगा । मंत्रालय ने माना है कि कृषि उत्पादन, शहरीकरण, औघोगिक विकास की बढ़ती मांग को देखते हुए दस फीसद अतिरिक्त भूमि हासिल करना मुश्किल है । लिहाजा राष्ट्रीय लक्ष्य को पाने के लिए गैर वनक्षेत्र की भूमि को बहुपयोगी बनाने और उसमें सुनियोजित तरीके से वृक्षारोपण ही समस्या का समाधान है । पर्यावरण मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय के अधीन एग्रो-फारेस्ट्री विभाग को उसके अधिकार क्षेत्र में देने की आवाज भी उठाई । मंत्रालय का कहना है कि कृषि राज्य का विषय है लेकिन फारेस्ट्री (वानिकी) समवर्ती सूची में है । 
कृषि जगत
खेती किसानी का बढ़ता संकट
जयन्त वर्मा

    आज भी देश की सत्तर फीसदी आबादी कृषि पर आश्रित है । लेकिन कृषि नीतियों की मार की वजह से कृषक समाज संकट की स्थिति में है । अब तक पौने तीन लाख किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। खेती किसानी के तात्कालिक संकट से उबरने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने की जरूरत है ।
    देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में सरकारी नीतियों के कारण गंभीर संकट छाया हुआ है । कृषक का खेती से मोहभंग हो गया है क्योंकि कृषि कार्य घाटे का सौदा बनता जा रहा है । नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०११ के दौरान देश के २ लाख ७० हजार किसान आत्महत्या कर चुके है । केन्द्र सरकार द्वारा योजनाबद्ध तरीके छोटे और सीमांत किसानों से कृषि भूमि हथिया कर खेती-किसानी का कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है ।
    वर्तमान में देश की आबादी १२० करोड़ है तथा खाघान्न उत्पादन के मामले में न केवल हम आत्मनिर्भर हो चुके हैं बल्कि देश से खाघान्न का निर्यात भी किया जा रहा    है । १९५० की तुलना में लगभग चार गुना खाघान्न उत्पादन के बावजूद वर्ष २०१२ में सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान ५३.१ प्रतिशत से घटाकर १३.९ प्रतिशत कर दिया गया है । 

       खाघान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा घोषित किए जाते हैं । समर्थन मूल्य में लागत तथा किसान का श्रम-मूल्य में लागत तथा किसान का श्रम-मूल्य शामिल होता है । राष्ट्रीय किसान आयोग के अनुसार कृषि की वर्तमान पद्धति में ८० प्रतिशत लागत तथा मात्र २० प्रतिशत श्रम मूल्य होता है । उर्वरकों की सब्सिड़ी घटा देने से लागत बढ़ रही है और सरकार द्वारा खाघान्न के मूल्य कम रखने के कारण श्रम मूल्य घटता जा रहा है ।
    वर्ष २००६-०७ में ५,८३,३८७ करोड़ का केन्द्रीय बजट था । उस वर्ष किसान को कर्ज हेतु १,७५,००० करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो केन्द्रीय बजट के ३०  फीसदी के बराबर था । वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,००० करोड़ रूपये का है और इस वित्तीय वर्ष में किसान को कर्ज देने के लिए ५,७५,००० करोड़ रूपये का प्रावधान है, जो कुल बजट के ३८,६७ प्रतिशत के बराबर है । भारत सरकार के बजट में रक्षा मद पर ११ प्रतिशत का व्यय निर्धारित है जबकि किसान को कर्ज देने के लिए ३८.५७ प्रतिशत धनराशि का प्रावधान किया गया है । सरकार ने किसान को बैंक  का कर्जा और ब्याज पटाने वाला बंधुआ मजदूर बना दिया है । कर्ज नहीं पटाने की दशा में बैकों के पास गिरवी रखी उसकी जमीन राजसात हो जाती है । स्वाभिमानी किसान इस सदमे को झेलने के पूर्व आत्महत्या कर लेता  है ।
    विश्व बैंक द्वारा २००१ में जारी विश्व विकास संकेतकों पर आधारित भारत के योजना आयोग द्वारा तैयार दृष्टिपत्र २०२० में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर ६ प्रतिशत पर स्थिर करने का लक्ष्य रखा गया है । वर्ष २०११-१२ में देश के  सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान १३.९ था, जिसे ८ वर्ष में ६ फीसदी पर ले जाना है अर्थात् प्रतिवर्ष १ प्रतिशत की दर से कृषि क्षेत्र का योगदान घटाने के हिसाब से खाघान्न का समर्थन मूल्य तय किया जावेगा । वर्ष २०१२-१३ में देश का सकल घरेलू उत्पाद १०१ लाख करोड़ रूपये अनुमानित है । इसका १ फीसदी १ लाख करोड़ रूपये होगा । अत: विगत वर्ष दिये गये कृषि उत्पादों के कुल समर्थन मूल्य से चालू वर्ष में १ लाख करोड़ रूपये की कटौती कर ली जावेगी । इस कटौती की तुलना में केन्द्रीय बजट में कृषि और सम्बद्ध क्रियाकलापों पर १७,६९२ करोड़, मनरेगा सहित समूचे ग्रामीण विकास पर ५०,७२९ करोड़ और सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण पर १.२७५ करोड़ मिलाकर भारत की ७० फीसदी ग्रामीण आबादी पर बजट में केन्द्रीय आयोजना के तहत कुल ६९,६९६ करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया है । किसान के श्रम मूल्य से की गई कटौती में से भी लगभग ३० हजार करोड़ रूपये केन्द्रीय बजट में बचा लिया गया है । ग्रामीण विकास और कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उपेक्षा और किसानों के शोषण की नीति को सरकार के यह वित्तीय प्रावधान स्पष्ट करते हैं ।
    चौदहवीं लोकसभा की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने उत्तरप्रदेश, बिहार आदि राज्यों में ऋण अदा न कर पाने वाले किसानों को गिरफ्तार कर उनसे ही जेल का खर्च वसूल करने के प्रावधान को अन्यायपूर्ण निरूपित करते हुए कहा था ऐसे देश में जहां पर शातिर अपराधियों को जेल में मुफ्त खाना और कक्ष मिलता है, कैसे किसी कानून में बंदी किसानों से भोजन, यातायात तथा अन्य खर्च को वसूल करने का प्रावधान किया गया है और क्यों नहीं इस कानून का उपयोग ऋण अदा न करने वाले उद्योगपतियों तथा कारोबार हेतु ऋण लेने वाले लोगों के कारावास के लिए किया जाता है । सरकार को इस कठोर कानून को शीघ्र समाप्त् करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए ।
    सरकार ने हरित क्रांति की आड़ में किसानी में एग्री बिजनेस की घुसपैठ करके किसान का भरपूर शोषण कर उसे कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा दिया और आत्महत्या के लिए विवश किया । अब  योजना आयोग तथा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय जीनान्तरित बीज (जी.एम.सीड्स) के माध्यम से अमेरिकी बीज उत्पादक कम्पनियों की भारतीय खेती में घुसपैठ कराने पर आमादा है । कृषि अध्ययन और शोध के लिए सम्पन्न भारत-अमेरिकी समझौते का लागू करने के लिए गठित अमेरिकी बोर्ड के सदस्यों में मोन्सेन्टो और वालमार्ट जैसी कम्पनियों के प्रतिनिधियों को रखकर भारतीय कृषि क्षेत्र को अमेरिकी कार्पोरेट घरानों का चारागाह बनाने की तैयार कर ली गई है ।
    किसान के संकट के मूल में मुख्य तीन कारण निम्न हैं -
    (१) खेती किसानी में लागत अधिक लगना और इसके अनुपात में मूल्य कम प्राप्त् होना ।
    (२) कृषि  ऋण पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क), जो मूलधन से अधिक ब्याज न लेने के १९१८ से प्रचलित प्रावधान को बाधित करती हैं ।
    (३) सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरन्तर घटाया जाना ।
    खेती किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल ये कदम उठाये जाने की आवश्यकता  है -    
    (१) खाघान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाए कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान क्रमश: बढ़कर ४५ फीसदी हो जाये । यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाये । अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की मेंपिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए ।
    (२) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया   जाये  । ऋण अदा न कर पाने  वाले किसानों को गिरफ्तार कर जेल भेजने और जेल का खर्च भी उन्हीं से वसूलने के प्रावधान को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये ।
    (३) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र में रखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । खेती किसानी में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाए तथा एग्रो बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए  । कृषि कार्य में लगे किसानों को कुशल मजदूर का दर्जा देकर तदनुसार उसके श्रम का मूल्यांकन किया जाये । मनरेगा में छोटे और सीमांत किसानों द्वारा अपने खेत में किये जाने वाले श्रम को भी शामिल किया जाए ।
    (४) कृषि उत्पादों के आयात की खुली छूट पर अंकुश लगाया  जाये । उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी बहाल की जाये । कृषि भूमि के अन्य उपयोग हेतु अधिग्रहण पर रोक लगाई जाये । भूमि सुधार के कार्यो में तेजी लाई जाए । कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देकर कार्पोरेट फार्मिग के लिए स्थान बनाने की नीति का परित्याग किया जाए ।
    (५) कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश को पांच गुना अधिक बढ़ाया जाए और कृषि, सिंचाई तथा विघुत संबंधी योजनाआें को प्राथमिकता दी जाये । कृषि भूमि के अधिग्रहण से विस्थापित हुए किसानों का सम्मानजनक पुनर्वास किया जाये । जीनान्तरित तकनीक वाले बीजों से होने वाले सम्भावित नुकसान को रोकने के लिए  कृषि में जी.एम. तकनीक पर रोक लगाई जाये ।
ज्ञान विज्ञान
मछलियों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव

    जलवायु परिवर्तन किस हद तक पूरे वातावरण को प्रभावित कर सकता है इसका खुलासा हाल ही में किए एक शोध में पाया गया है । जिसमें कहा गया है कि समुद्रों के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से मछलियां आकार में सिकुड़ सकती है । यानी मछलियों का आकार छोटा हो सकता है । 

     समुद्र में पाई जाने वाली मछलियों की ६०० प्रजातियों की कम्प्यूटर मॉडलिंग पर आधारित एक कनाडाई अध्ययन के मुताबिक आने वाले ५० साल में मछलियों के शारीरिक भार में १४ से २० प्रतिशत तक की कमी हो सकती है । ब्रिटिश कोलम्बिया विवि का अध्ययन दुनिया में पहला ऐसा अध्ययन है जिसमें कहा गया है कि समुद्रों में पानी के बढतें तापमान व वहां कम होती ऑक्सीजन से मछलियों का आकार घट सकता है । नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल के मुताबिक यूबीसी शोधकर्ताआें ने पाया कि मछलियों के अधिकतम शारीरिक भार में वर्ष २००० से २०५० तक १४ से २० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । ब्रिटिश कोलम्बिया से एक व्क्तव्य के मुताबिक यूबीसी फिशरीज सेंटर में सहायक प्रोफेसर व अध्ययनकर्ता विलियम चेंग ने कहा कि मछलियों केआकार में इतनी ज्यादा कमी देखकर हम खुद अचम्भित हुए है । अध्ययन में कहा गया कि समुद्री मछलियों का जलवायु परिवर्तन व मौसमी परिवर्तन का पता लगाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है । लेकिन उनके शारीरिक आकार पर यह प्रभाव बताता है कि हम शायद समुद्र मेंजलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने मेंएक बड़ी पहेली को छोड़ रहे थे ।
    सह-अध्ययनकर्ता व यूबीसी की सी-अराउंड अस परियोजना के मुख्य शोधकर्ता डेनियल पॉली कहते है कि मछलियों का विकास ऑक्सीजन की आपूर्ति से प्रभावित होता है । श्री पॉली ने कहा कि मछलियों के लिए अपनी वृद्धि के लिए पानी से पर्याप्त् मात्रा में ऑक्सीजन प्राप्त् करना एक सतत चुनौती है । मछलियों के आकार में बढ़ने पर स्थिति और भी खराब हो जाती है । जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गर्म व कम ऑक्सीजन वाले समुद्र में बड़ी मछलियोंं के लिए पर्याप्त् ऑक्सीजन प्राप्त् करना कठिन हो जाएगा, इसका मतलब है कि उनकी वृद्धि रूक जाएगी ।

दिमाग कैसे करता है काम

    आखिर इतने छोटे से दिमाग में ढेर सारी बातें आती कहां से हैं और  यह कैसे काम करता है, यह सवाल लगभग सभी के मन में हमेशा से ही कौतुहल पैदा करता रहता है । जो अभी तक अनुबुझ पहेली की तरह ही रहा  है । मगर अब वैज्ञानिकों ने दिमाग के काम करने के तरीकों की खोज कर ली है ।  

     डेली मेल की रिपोर्ट के मुताबिक कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले की टीम ने पता लगाया है कि दिमाग दिनभर चलने वाली चीजों और क्रियाकलापों को व्यवस्थित तरीके सेएक क्रम में संजोता जाता है । इस प्रक्रिया को समझाने के लिए शोधकर्ताआें ने कम्प्यूटर की मदद से दिमाग द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले तत्वों को एक जगह रखा । उन्होंने शोध के लिए चुने लोगों को कुछ घंटों तक वीडियों क्लिप्स दिखाए । इस दौरान लोगों के दिमाग में जो गतिविधियां हुइंर्, उन्हें रिकॉर्ड किया गया । इस तरह से दिमाग के कामकाज का नक्शा तैयार हुआ ।

आइसक्रीमसे कार फ्यूल बनाने में मिलेगी मदद
    आइसक्रीमका नाम सुनते ही मुंह में पानी आना स्वाभाविक है । मगर इसको पंसद करने वालों को अब इस बात के लिए भी खुश होना चाहिए कि आपकी यह आइसक्रीम न सिर्फ आपके मुंह का स्वाद बढ़ाएगी बल्कि अब यह आपकी कार क ो चलाने में भी मदद करेगी । जी हां, वैज्ञानिकों ने एक नए बायो-कैटेलिस्ट की पहचान की है, जिससे आइसक ्रीम, सोप (साबुन)और शैम्पू  में पाए जाने वाले हाइड्रोकार्बन केमिकल को इंर्धन के रूप में प्रयोग किया जा सकेगा । यह अनोखा इंर्धन कार के लिए पूरी तरह से तैयार है । 

    मैनचेस्टर  यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकोंका माननाहै कि इस खोज का का उपयोग न सिर्फ कारों के फ्यूल में वरन घर की बिजली सप्लाई में भी उपयोग किया जा सकता है । यह फ्यूल मुख्य रूप से प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले फैटी एसिड्स से बनाया जा सकता है । प्रोफेसर  निक टर्नर के नेतृत्व मेंकिए इस शोध में सिंथेटिक बायोलॉजी का उपयोग किया गया है । जिसके तहत फैटी एसिड्स में पाए जाने वाले प्राकृतिक यौगिक सीधे ही फैटी मॉलिक्यूल्स को इंर्धन में बदलने का कार्य करेंगे । हमारे रोजमर्रा के जीवन में हाइड्रोकार्बन केमिकल्स बहुतायात में पाए जाते हैं । ये आइसक्रीम में है तो साबुन की खुशबू में शैम्पू के गाढ़े तरल पदार्थ में और कार के इंर्धन में भी । इनमें पाए जाने वाले बड़ी संख्या में कार्बन मॉलिक्यूल वे चाहे उसीड,एल्डिहाइट, अल्कोहल या एल्केन हो सकते हैं ।
    ये अपने महत्वपूर्ण पैरामीटर के आधार कार्य करते हैं । बायोलॉजिकल आर्गेनिज्म के रूप में या फिर इंर्धनके रूप में  यह अरोमा कंपाउंड के रूप में कार्य करते हैं । यह अध्ययन जर्नल पीएनएएस में प्रकाशित की गई है । इन उदाहरणों को देखते हुए इस बात के लिए आश्वस्त हो जाना चाहिए कि फैली एसिड्स बायो कैटेलिस्ट के रूप मेंबेहतर कार्य कर सकते हैं और इनका निर्माण हम लैबोरेटरीज् में कर सकते हैं ।

सात हजार साल पहले भी बनाया जाता था चीज

    अभी रोजमर्रा में प्रयोग किया जाने वाला चीज कुछ समय पहले ईजाद नहीं हुआ बल्कि यह तकरीबन ७००० साल पहले भी बनाया जाता था । आर्कियोलॉजिस्ट ने एक पुराने विंटेज के आधार पर यह शोध किया है । बताया जा रहा है कि यह चीज सात हजार साल पहले पोलैंड में बनाया जाता  था । 

    खोज में मिट्टी के बर्तन का एक टुकड़ा मिला, जिसके केमिकल एनालिसिस में यह पाया गया कि यह मिट्टी का बर्तन विशेष रूप से ५००० ईसा पूर्व विशेष रूप से चीज बनाने के लिए ही तैयार किया गया था । यह बेहद आश्चर्यजनक है कि पूर्व मेंजो विटेंज था, वह पोलैंड के कुयाविया क्षेत्र से आया था । बजाए ब्रिटेन के सोमेरसेट और फ्रांस के बेरी क्षेत्र के, जो वर्तमान मेंचीज के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र कहलाते हैं । जानकारी के अनुसार  आर्कियोलॉजिस्ट ने खोज वाले स्थान पर  मिले मिट्टी के पात्रों के टुकड़ों में पाए जाने वाले फैटी एसिड्स की जांच की, जिसमें पाया गया कि उस समय भी डेयरी प्रोडक्ट सिरेमिक पात्रों में बनाए जाते हैं ।
    ब्रिस्टल स्थित ऑर्गेनिक जियोकेमेस्ट्री यूनिट के शोधकर्ताआें ने अपने अमेरिकी व पोलैंड के सहयोगियों के साथ मिलकर यह शोध किया हैं  । जिसमें पाया गया कि चीज का निर्माण ७००० साल पहले भी होता था । यह शोध नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया गया है ।
कविता
पर्यावरण गीत
सूर्यकुमार पांडेय

    मिला रतन अनमोल जगत का, तुमने इसे गंवाया है,
    पर्यावरण मिटाने वालों, यह क्या हाल बनाया है ?
    फूल, पत्तियां, चिड़िया, डालें, गुमसुम डरे-डरे से हैं
    कल न सूख जाएं, जो पौधे अब तक हरे-भरे से हैं
    वन-उपवन में जीव-जन्तु, सब लगते मरे-मरे से हैं
    सारे चेहरों पर जैसे दुख का मौसम उग आया है
    पर्यावरण .........

      शहरों में है भीड़ बहुत, अब शोरोगुल से मुश्किल हैं
    धुंआ भर गया आसमान में, मेघों का तन बोझिल है
    कहीं चिमनियां, कहीं भटि्ठयां, आग उगलती हर मिल है
    जहरीली बारिश होने का खतरा सिर पर छाया है ।
    पर्यावरण .........
    मिल वालों से पूछो, धनवानों से पूछो रे
    राख बहाते गंगा में, उन नादानों से पूछो रे
    सिर पर मैला ढोने वाले इंसानों से पूछो रे
    इतना कूड़ा-कचरा लाकर किसने यहां बहाया है ।
    पर्यावरण .........
पर्यावरण समाचार
सन् २०२० तक चांद पर जा सकेंगे लोग
    यदि आपके पास १.५ अरब डॉलर (करीब ८२ अरब रूपए) है और अपने एक साथी के साथ चांद की सैर पर जाना चाहते हैं तो आपकी यह ख्वाहिश पूरी हो सकती है ।
    अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के पूर्व अधिकारियों की कंपनी गोल्डन स्पाइक ने निजी उपक्रम के तहत सन् २०२० तक लोगों को चांद पर भेजने की योजना बनाई है । इसके लिए दो लोगों का खर्च १.५ अरब डॉलर आएगा । स्पेश डॉटकाम के मुताबिक नासा के साइंस मिशन निदेशालय के पूर्व निदेशक व कंपनी के अध्यक्ष व सीईओ एलेन स्टर्न ने कहा कि हमने एशियाई और योरपीय देशोंकी स्पेस एजेंसी से बात की है । उन्होनें इसमें दिलचस्पी दिखाई है । इस मिशन की शुरूआत उन देशों को ध्यान में रखकर की गई, जिनके पास अपनी स्पेस एजेंसी नहीं है या फिर लोगों को चांद पर भेजने का खर्च नहीं उठा सकते । यह उन लोगों के लिए भी है, जो जीवन में  एक बार चांद पर जाने की इच्छा रखते   हैं । स्टर्न और गोल्डन स्प्राइक के निदेशक मंडली के चेयरमैन गैरी ग्रीफिन (नासा जॉनसन स्पेस सेंटर के निदेशक व पूर्व अपोलो फ्लाइट के निदेशक) ने ७ दिसम्बर १९७२को चंद्रमा पर अंतिम बार भेजे गए अपोलो-१७ की ४० वीं वर्षगांठ पर अपनी योजना की घोषणा की है ।
    कंपनी ने अभी तक इस बात का फैसला नहीं किया है कि यात्रियों को ले जाने के लिए किस स्पेस कैप्सूल का प्रयोग किया जाएगा । स्टर्न के मुताबिक इसका निर्णय २०१४ में किया जाएगा ।
    संभावना है कि गोल्डन स्पाइक मौजूदा या फिर पहले से ही विकसित रॉकेट व स्पेसक्राफ्ट का इस्तेमाल कर सकती है ।