विज्ञान हमारे आसपास
कहानी ऑक्सीजन की खोज की
डॉ . विजयकुमार उपाध्याय
उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में बायजेंटियम (इस्ताम्बुल का प्राचीन नाम) निवासी फिलो नामक ग्रीक वैज्ञानिक ने वायु तथा ज्वलन के बीच संबंध को जानने के लिए कुछ प्रयोग किए थे । अपने द्वारा लिखित ग्रंथ न्यूमैटिका में उन्होनें इन प्रयोगों का विस्तृत विवरण दिया है । उन्होनें बताया है कि जब जलती मोमबत्ती को एक बर्तन से ढंक दिया गया और ढंकने वाले बर्तन की गर्दन तक पानी भर दिया गया तो पाया गया कि बर्तन की गर्दन के भीतर पानी कुछ ऊंचाई तक चढ़ गया । परन्तु उन्होनें गलती से निष्कर्ष निकाला कि ढंकने वाले बर्तन के भीतर का वायु तत्व अग्नि तत्व मेंपरिवर्तित होकर शीशे के छिद्रों से बाहर निकल गया ।
कहानी ऑक्सीजन की खोज की
डॉ . विजयकुमार उपाध्याय
उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में बायजेंटियम (इस्ताम्बुल का प्राचीन नाम) निवासी फिलो नामक ग्रीक वैज्ञानिक ने वायु तथा ज्वलन के बीच संबंध को जानने के लिए कुछ प्रयोग किए थे । अपने द्वारा लिखित ग्रंथ न्यूमैटिका में उन्होनें इन प्रयोगों का विस्तृत विवरण दिया है । उन्होनें बताया है कि जब जलती मोमबत्ती को एक बर्तन से ढंक दिया गया और ढंकने वाले बर्तन की गर्दन तक पानी भर दिया गया तो पाया गया कि बर्तन की गर्दन के भीतर पानी कुछ ऊंचाई तक चढ़ गया । परन्तु उन्होनें गलती से निष्कर्ष निकाला कि ढंकने वाले बर्तन के भीतर का वायु तत्व अग्नि तत्व मेंपरिवर्तित होकर शीशे के छिद्रों से बाहर निकल गया ।
फिलो द्वारा किए गए इस प्रयोग के कई शताब्दियों बाद १६वीं शताब्दी के प्रारंभ में लियोनार्डो दा विंची ने फिलो के प्रयोग को दोहराया तथा निष्कर्ष निकाला कि ढंकने वाले बर्तन में मौजूद कुछ हवा मोमबत्ती द्वारा ज्वलन हेतु उपयोग मेंलाई गई ।
१७ वीं शताब्दी के अन्त में रॉबर्ट बॉयल नामक वैज्ञानिक ने साबित कर दिया कि ज्वलन के लिए हवा की उपस्थिति आवश्यक है । ब्रिटिश रसायनविद जॉन मेयोव ने बॉयल की बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि ज्वलन के लिए वायु के सिर्फ एक घटक की आवश्यकता पड़ती है । उन्होनें वायु के इस घटक का नाम स्पिरिटस नाइट्रोएरियस या सिर्फ नाइट्रोएरियस रखा । मेयोव ने दो प्रयोग किए थे । एक प्रयोग में पानी से भरे बर्तन में जलती मोमबत्ती पर शीशे के एक जार को उलटकर ढंक दिया । इसी प्रकार के दूसरे प्रयोग में जलती मोमबत्ती के स्थान पर एक चूहे को रखा । उन्होनेंदेखा कि कुछ समय के बाद मोमबत्ती बुझ गई तथा चूहा मर गया । साथ ही दोनोंजारों में हवा का कुछ भाग पानी द्वारा विस्थापित कर दिया गया । इससे मेयोव ने निष्कर्ष निकाला कि ज्वलन तथा श्वसन दोनों कार्य के लिए नाइट्रोएरियस नामक गैस की आवश्यकता पड़ती है ।
एक प्रयोग में मेयोव ने देखा कि एंटीमनी को तपाने पर उसका वजन बढ़ जाता है । इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि नाइट्रोएरियस अवश्य ही एंटीमनी से जुड़ गया होगा । उन्होंने यह भी विचार व्यक्त किया कि हमारा फेफड़ा हवा से नाइट्रोएरियस अलग कर लेता है तथा इसे रक्त में भेज देता है । जब नाइट्रोएरियस हमारे रक्त में मौजूद कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थ से प्रतिक्रिया करता है तो हमारे शरीर को ऊर्जा प्राप्त् होती है जिससे हमारी मांसपेशियां सक्रिय बनी रहती हैं । इन प्रयोगों तथा विचारों का विस्तृत विवरण उन्होनें १६६८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक दी रेसपिरेशन में प्रस्तुत किया था ।
रॉबर्ट हुक, ओल बौर्च, मिखाइल लोमोनोसोव तथा पियरे बायन नामक वैज्ञानिकों ने १७वीं तथा १८वीं शताब्दी के दौरान प्रयोग द्वारा ऑक्सीजन का निर्माण किया परन्तु इनमें से किसी ने भी एक रासायनिक तत्व के रूप में इसकी पहचान नहीं की । इसके पीछे प्रमुख कारण यह था कि उस काल में ज्वलन तथा जंग लगने संबंधी फ्लाजिस्टन सिद्धांत काफी प्रचलित था । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन १६६७ में जर्मन किमियागर जे.जे. बेकर द्वारा किया गया था तथा सन् १७३१ में जॉर्ज अर्न्स्ट स्टाल नामक रसायनविद् द्वारा इस सिद्धान्त में कुछ संशोधन किया गया था । इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक ज्वलनशील पदार्थ को दो घटकों से निर्मित माना जाता था । इस सिद्धान्त के मुताबिक जब ज्वलनशील पदार्थ को जलाया जाता है तो एक घटक (फ्लॉजिस्टन) निकल जाता है । दूसरा घटक राख (कैल्क्स) के रूप में बच जाता था । इस सिद्धान्त में माना जाता था कि ज्वलनशील पदार्थो (जैसे कोयला, लकड़ी इत्यादि) का अधिकांश भाग फ्लॉजिस्टन से निर्मित होता है । इसके विपरीत जंग से प्रभावित होने वाले अज्वलनशील पदार्थो (जैसे लोहा इत्यादि) में फ्लॉजिस्टन की उपस्थिति नगण्य मानी जाती थी । वस्तुत: फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त में जलने में हवा की कोई भी भूमिका नहीं मानी जाती थी ।
ऑक्सीजन की खोज की दिशा में सबसे पहला सार्थक तथा प्रभावी कदम स्वीडिश फार्मासिस्ट कार्ल विल्हेल्म शीले द्वारा उठाया गया । शीले ने सन १७७२ में मर्क्यूरिक ऑक्साइड तथा विभिन्न प्रकार के नाइट्रेट यौगिकों को तापकर ऑक्सीजन गैस तैयार की थी । परन्तु उन्होनें इस गैस का नाम रखा फायर गैस क्योंकि वह ज्वलन की पोषक थी । उन्होनें अपनी इस खोज का विस्तृत विवरण एक पांडुलिपी में किया था जिसका शीर्षक था टीटाइज ऑन एयर एंड फायर । उन्होनें सन १७७५ में इस पांडुलिपि को प्रकाशन हेतु अपने प्रकाशक के पास भेजा परन्तु यह दस्तावेज सन १७७७ के पूर्व प्रकाशित नहीं हो पाया ।
इसी बीच अगस्त १७७४ में जोसेफ प्रिस्टले नामक एक ब्रिटिश पादरी द्वारा एक प्रयोग किया गया जिसमें शीशे की नली में रखे गए मर्क्यूरिक ऑक्साइड पर सूर्य-किरणों का केन्द्रित किया गया जिसके फलस्वरूप एक गैस मुक्त हुई । प्रिस्टले ने इस गैस का नाम रखा डी-फ्लॉजिस्टिकेटेड एयर (यानी फ्लॉजिस्टन-विहीन वायु) ।
उन्होनें अपने प्रयोग में देखा कि इस गैस में मोमबत्ती अधिक तेजी से जलती है । उन्होनें स्वयं इस गैस को सांस द्वारा ग्रहण करने के बाद कुछ समय तक अपनी छाती में हल्कापन महसूस किया । प्रिस्टल ने अपनी इस खोज से संबंधित एक शोध पत्र सन १७७५ में प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था एन एकाउंट ऑफ फर्दर डिस्कवरीज इन एयर । यह शोध पत्र प्रिस्टेल द्वारा लिखित ग्रंथ एक्सपेरिमेंट्स एण्ड ऑबजर्वेशन्स इन डिफरेंट काइंड्स ऑफ एयर के द्वितीय खण्ड में शामिल किया गया । चूंकि प्रिस्टले ने अपनी खोज को सबसे पहले प्रकाशित किया, अत: ऑक्सीजन की खोज का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है ।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी रसायनविद एंतोन लेवोजिए ने बाद में दावा किया कि उन्होनें स्वतंत्र रूप से उपरोक्त नई गैस की खोज की थी । परन्तु उनके कथन पर तत्कालीन अधिकांश वैज्ञानिकों को विश्वास नहीं हुआ । इसके पीछे कुछ ठोस कारण था । प्रिस्टले सन १७७५ में अपना उपरोक्त शोध पत्र प्रकाशित करने के पूर्व सन १७७४ के अक्टूबर में लेवोजिए से मिले थे तथा अपने प्रयोगों एवं नई गैस की खोज की चर्चा की थी । शीले ने भी अक्टूबर १७७४ में ही लेवोजिए को एक पत्र भेजा था जिसमें एक नई गैस की खोज की चर्चा की गई थी । परन्तु लेवोजिए ने शीले का कोई पत्र प्राप्त् होने की बात से इंकार किया था ।
हालांकि लेवोजिए द्वारा नई गैस की खोज का दावा विवादों से घिरा रहा परन्तु उन्होनें ऑक्सीजन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का पता लगाया । उदाहरण के तौर पर उन्होनें इस बात की सही तथा संतोषजनक व्याख्या प्रस्तुत की कि दहन की क्रिया कैसे होती है । अपने प्रयोगों से प्राप्त् निष्कर्षो के आधार पर उन्होनें पहले से प्रचलित फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त को एक बकवास बताया । उन्होनें यह भी बताया कि प्रिस्टले तथा शीले द्वारा खोजी गई गैस एक रासायनिक तत्व है ।
लेवोजिए द्वारा ज्वलन तथा नई गैस संबंधी अनेक प्रयोगों तथा उनसे प्राप्त् निष्कर्षो का विस्तृत विवरण उसके द्वारा लिखित पुस्तक सुर ला कंबश्चन एन जेनरल (दहन संबंधी सामान्य विचार) में शामिल किया गया था जिसका प्रकाशन सन १७७७ में हुआ था । अपने शोधों के आधार पर लेवोजिए ने साबित किया कि हवा दो गैसों का मिश्रण है जिनमें शामिल हैं - वाइटल एयर (जो ज्वलन तथा श्वसन हेतु आवश्यक है) तथा एजोट (ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है जीवन विहीन जो न तो दहन का पोषक है और श्वसन का) एजोट का ही नाम अंग्रेजी भाषा में नाइट्रोजन हो गया, परन्तु अन्य कई युरोपीय भाषाआें में यह शब्द अभी भी प्रचलित है ।
सन १७७७ में लेवोजिए ने वाइटल एयर के लिए एक नया शब्द गढ़ा ऑक्सीजन । ऑक्सीजन शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों ऑक्सिस तथा जीन के मिलने से हुई है । ऑक्सिस का अर्थ होता है तेजाब तथा जीन का अर्थ है उत्पन्न करने वाला । इस प्रकार ऑक्सीजन का शाब्दिक अर्थ हुआ तेजाब उत्पन्न करने वाला । इस गैस का नाम रखे जाने के पीछे लेवोजिए के मन में एक गलत धारणा की मौजूदगी थी । उनके मन में गलत धारणा बैठी हुई थी कि ऑक्सीजन सभी अम्लों का एक आवश्यक घटक है । लेवोजिए द्वारा ऑक्सीजन के नामकरण के लगभग ३५ वर्ष बाद हम्फ्री डेवी ने सन १८१२ में बताया कि लेवोजिए ने गलती की थी । वस्तुत: आक्सीजन नहीं, बल्कि हाइड्रोजन सभी अम्लों का आवश्यक घटक है । परन्तु तब तक बहुत विलम्ब हो चुका था, इस तत्व के लिए ऑक्सीजन शब्द बहुत प्रचलित हो चुका था ।
हालांकि ऑक्सीजन शब्द काफी प्रचलित हो चुका था, परन्तु कई ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने अंग्रेजी भाषा में इस शब्द के प्रवेश पर अपनी आपत्ति तथा नाराजगी जताई थी । उनका कहना था कि जब इस गैस की खोज सर्वप्रथम एक ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रिस्टले द्वारा की गई थी तो एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक द्वारा इसका नामकरण किया जाना उचित नहीं है । परन्तु उनकी आपत्ति कोई प्रभाव नहीं दिखा पाई ।
१७ वीं शताब्दी के अन्त में रॉबर्ट बॉयल नामक वैज्ञानिक ने साबित कर दिया कि ज्वलन के लिए हवा की उपस्थिति आवश्यक है । ब्रिटिश रसायनविद जॉन मेयोव ने बॉयल की बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि ज्वलन के लिए वायु के सिर्फ एक घटक की आवश्यकता पड़ती है । उन्होनें वायु के इस घटक का नाम स्पिरिटस नाइट्रोएरियस या सिर्फ नाइट्रोएरियस रखा । मेयोव ने दो प्रयोग किए थे । एक प्रयोग में पानी से भरे बर्तन में जलती मोमबत्ती पर शीशे के एक जार को उलटकर ढंक दिया । इसी प्रकार के दूसरे प्रयोग में जलती मोमबत्ती के स्थान पर एक चूहे को रखा । उन्होनेंदेखा कि कुछ समय के बाद मोमबत्ती बुझ गई तथा चूहा मर गया । साथ ही दोनोंजारों में हवा का कुछ भाग पानी द्वारा विस्थापित कर दिया गया । इससे मेयोव ने निष्कर्ष निकाला कि ज्वलन तथा श्वसन दोनों कार्य के लिए नाइट्रोएरियस नामक गैस की आवश्यकता पड़ती है ।
एक प्रयोग में मेयोव ने देखा कि एंटीमनी को तपाने पर उसका वजन बढ़ जाता है । इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि नाइट्रोएरियस अवश्य ही एंटीमनी से जुड़ गया होगा । उन्होंने यह भी विचार व्यक्त किया कि हमारा फेफड़ा हवा से नाइट्रोएरियस अलग कर लेता है तथा इसे रक्त में भेज देता है । जब नाइट्रोएरियस हमारे रक्त में मौजूद कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थ से प्रतिक्रिया करता है तो हमारे शरीर को ऊर्जा प्राप्त् होती है जिससे हमारी मांसपेशियां सक्रिय बनी रहती हैं । इन प्रयोगों तथा विचारों का विस्तृत विवरण उन्होनें १६६८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक दी रेसपिरेशन में प्रस्तुत किया था ।
रॉबर्ट हुक, ओल बौर्च, मिखाइल लोमोनोसोव तथा पियरे बायन नामक वैज्ञानिकों ने १७वीं तथा १८वीं शताब्दी के दौरान प्रयोग द्वारा ऑक्सीजन का निर्माण किया परन्तु इनमें से किसी ने भी एक रासायनिक तत्व के रूप में इसकी पहचान नहीं की । इसके पीछे प्रमुख कारण यह था कि उस काल में ज्वलन तथा जंग लगने संबंधी फ्लाजिस्टन सिद्धांत काफी प्रचलित था । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन १६६७ में जर्मन किमियागर जे.जे. बेकर द्वारा किया गया था तथा सन् १७३१ में जॉर्ज अर्न्स्ट स्टाल नामक रसायनविद् द्वारा इस सिद्धान्त में कुछ संशोधन किया गया था । इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक ज्वलनशील पदार्थ को दो घटकों से निर्मित माना जाता था । इस सिद्धान्त के मुताबिक जब ज्वलनशील पदार्थ को जलाया जाता है तो एक घटक (फ्लॉजिस्टन) निकल जाता है । दूसरा घटक राख (कैल्क्स) के रूप में बच जाता था । इस सिद्धान्त में माना जाता था कि ज्वलनशील पदार्थो (जैसे कोयला, लकड़ी इत्यादि) का अधिकांश भाग फ्लॉजिस्टन से निर्मित होता है । इसके विपरीत जंग से प्रभावित होने वाले अज्वलनशील पदार्थो (जैसे लोहा इत्यादि) में फ्लॉजिस्टन की उपस्थिति नगण्य मानी जाती थी । वस्तुत: फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त में जलने में हवा की कोई भी भूमिका नहीं मानी जाती थी ।
ऑक्सीजन की खोज की दिशा में सबसे पहला सार्थक तथा प्रभावी कदम स्वीडिश फार्मासिस्ट कार्ल विल्हेल्म शीले द्वारा उठाया गया । शीले ने सन १७७२ में मर्क्यूरिक ऑक्साइड तथा विभिन्न प्रकार के नाइट्रेट यौगिकों को तापकर ऑक्सीजन गैस तैयार की थी । परन्तु उन्होनें इस गैस का नाम रखा फायर गैस क्योंकि वह ज्वलन की पोषक थी । उन्होनें अपनी इस खोज का विस्तृत विवरण एक पांडुलिपी में किया था जिसका शीर्षक था टीटाइज ऑन एयर एंड फायर । उन्होनें सन १७७५ में इस पांडुलिपि को प्रकाशन हेतु अपने प्रकाशक के पास भेजा परन्तु यह दस्तावेज सन १७७७ के पूर्व प्रकाशित नहीं हो पाया ।
इसी बीच अगस्त १७७४ में जोसेफ प्रिस्टले नामक एक ब्रिटिश पादरी द्वारा एक प्रयोग किया गया जिसमें शीशे की नली में रखे गए मर्क्यूरिक ऑक्साइड पर सूर्य-किरणों का केन्द्रित किया गया जिसके फलस्वरूप एक गैस मुक्त हुई । प्रिस्टले ने इस गैस का नाम रखा डी-फ्लॉजिस्टिकेटेड एयर (यानी फ्लॉजिस्टन-विहीन वायु) ।
उन्होनें अपने प्रयोग में देखा कि इस गैस में मोमबत्ती अधिक तेजी से जलती है । उन्होनें स्वयं इस गैस को सांस द्वारा ग्रहण करने के बाद कुछ समय तक अपनी छाती में हल्कापन महसूस किया । प्रिस्टल ने अपनी इस खोज से संबंधित एक शोध पत्र सन १७७५ में प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था एन एकाउंट ऑफ फर्दर डिस्कवरीज इन एयर । यह शोध पत्र प्रिस्टेल द्वारा लिखित ग्रंथ एक्सपेरिमेंट्स एण्ड ऑबजर्वेशन्स इन डिफरेंट काइंड्स ऑफ एयर के द्वितीय खण्ड में शामिल किया गया । चूंकि प्रिस्टले ने अपनी खोज को सबसे पहले प्रकाशित किया, अत: ऑक्सीजन की खोज का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है ।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी रसायनविद एंतोन लेवोजिए ने बाद में दावा किया कि उन्होनें स्वतंत्र रूप से उपरोक्त नई गैस की खोज की थी । परन्तु उनके कथन पर तत्कालीन अधिकांश वैज्ञानिकों को विश्वास नहीं हुआ । इसके पीछे कुछ ठोस कारण था । प्रिस्टले सन १७७५ में अपना उपरोक्त शोध पत्र प्रकाशित करने के पूर्व सन १७७४ के अक्टूबर में लेवोजिए से मिले थे तथा अपने प्रयोगों एवं नई गैस की खोज की चर्चा की थी । शीले ने भी अक्टूबर १७७४ में ही लेवोजिए को एक पत्र भेजा था जिसमें एक नई गैस की खोज की चर्चा की गई थी । परन्तु लेवोजिए ने शीले का कोई पत्र प्राप्त् होने की बात से इंकार किया था ।
हालांकि लेवोजिए द्वारा नई गैस की खोज का दावा विवादों से घिरा रहा परन्तु उन्होनें ऑक्सीजन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का पता लगाया । उदाहरण के तौर पर उन्होनें इस बात की सही तथा संतोषजनक व्याख्या प्रस्तुत की कि दहन की क्रिया कैसे होती है । अपने प्रयोगों से प्राप्त् निष्कर्षो के आधार पर उन्होनें पहले से प्रचलित फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त को एक बकवास बताया । उन्होनें यह भी बताया कि प्रिस्टले तथा शीले द्वारा खोजी गई गैस एक रासायनिक तत्व है ।
लेवोजिए द्वारा ज्वलन तथा नई गैस संबंधी अनेक प्रयोगों तथा उनसे प्राप्त् निष्कर्षो का विस्तृत विवरण उसके द्वारा लिखित पुस्तक सुर ला कंबश्चन एन जेनरल (दहन संबंधी सामान्य विचार) में शामिल किया गया था जिसका प्रकाशन सन १७७७ में हुआ था । अपने शोधों के आधार पर लेवोजिए ने साबित किया कि हवा दो गैसों का मिश्रण है जिनमें शामिल हैं - वाइटल एयर (जो ज्वलन तथा श्वसन हेतु आवश्यक है) तथा एजोट (ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है जीवन विहीन जो न तो दहन का पोषक है और श्वसन का) एजोट का ही नाम अंग्रेजी भाषा में नाइट्रोजन हो गया, परन्तु अन्य कई युरोपीय भाषाआें में यह शब्द अभी भी प्रचलित है ।
सन १७७७ में लेवोजिए ने वाइटल एयर के लिए एक नया शब्द गढ़ा ऑक्सीजन । ऑक्सीजन शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों ऑक्सिस तथा जीन के मिलने से हुई है । ऑक्सिस का अर्थ होता है तेजाब तथा जीन का अर्थ है उत्पन्न करने वाला । इस प्रकार ऑक्सीजन का शाब्दिक अर्थ हुआ तेजाब उत्पन्न करने वाला । इस गैस का नाम रखे जाने के पीछे लेवोजिए के मन में एक गलत धारणा की मौजूदगी थी । उनके मन में गलत धारणा बैठी हुई थी कि ऑक्सीजन सभी अम्लों का एक आवश्यक घटक है । लेवोजिए द्वारा ऑक्सीजन के नामकरण के लगभग ३५ वर्ष बाद हम्फ्री डेवी ने सन १८१२ में बताया कि लेवोजिए ने गलती की थी । वस्तुत: आक्सीजन नहीं, बल्कि हाइड्रोजन सभी अम्लों का आवश्यक घटक है । परन्तु तब तक बहुत विलम्ब हो चुका था, इस तत्व के लिए ऑक्सीजन शब्द बहुत प्रचलित हो चुका था ।
हालांकि ऑक्सीजन शब्द काफी प्रचलित हो चुका था, परन्तु कई ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने अंग्रेजी भाषा में इस शब्द के प्रवेश पर अपनी आपत्ति तथा नाराजगी जताई थी । उनका कहना था कि जब इस गैस की खोज सर्वप्रथम एक ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रिस्टले द्वारा की गई थी तो एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक द्वारा इसका नामकरण किया जाना उचित नहीं है । परन्तु उनकी आपत्ति कोई प्रभाव नहीं दिखा पाई ।
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